Wednesday, July 24, 2019

रामपुरवा के दो अशोक स्तम्भ; राहुल सांकृत्यायन

ठोरी से दक्षिण-पूर्व 5 मील पर पिपरिया गाँव है। पिपरिया के पास ही रामपुरवा के दो अशोक-स्तम्भ हैं। एक ही स्थान पर दो-दो अशोक स्तम्भ विशेष महत्त्व रखते हैं।  पुरात्व की खुदाई में एक स्तम्भ के ऊपर का बैल भी मिला है। परम्परा से जन श्रुति चली आ रही है कि एक खम्बे के ऊपर पहले मोर था। खम्बे की पेंदी में मोर खुदे अब भी मौजूद हैं।  खुदाई में यद्यपि कोई मोर नहीं मिला, तो भी इसमें तो कोई संदेह नहीं है कि दूसरे खम्बे के शिखर पर जरुर कुछ था।
दीघनिकाय के महापरिनिब्बान सुत्त में हम जानते हैं कि पिप्पलीवन के मौर्यों ने भी गौतम बुद्ध की अस्थियों का एक भाग पाया था, जिस पर उन्होंने स्तूप बनवाया।  इसी मौर्य-वंश का राजकुमार चन्द्रगुप्त पीछे मगध के मौर्य-साम्राज्य का संस्थापक हुआ।  ऐसी अवस्था में सम्राट अशोक ने बुद्ध भक्त अपने पूर्वज मौर्यों के आदि स्थान पर यदि ये दो स्तम्भ गडवाये हों, तो कोई आश्चर्य नहीं( राहुल सांकृत्यायन : पुरातत्व निबन्धावली पृ 119)।


शायद 12 वीं शताब्दी के पहले बोधगया मंदिर के नमूने बन कर बिका करते थे।  तिब्बत के यात्री अपने साथ इन नमूनों को ले गए थे। उन्हें देखने से मालूम होता है बोध गया के प्रधान मंदिर, जिसके पूरब तरफ तीन दरवाजे थे, के पश्चिम की ओर बोधि वृक्ष के पास भी एक दरवाजा-सा था।  उसके आस-पास बहुत से स्तूप और मंदिर थे और सभी एक चहार दिवारी से घिरे थे; जिसमें दक्षिण, पूर्व,उत्तर की ओर तीन विशाल द्वार भिन्न-भिन्न आकार के थे। वर्त्तमान बोधगया मंदिर का जब पिछली शताब्दी में जीर्णोंध्दार हुआ तो उसके कितने ही भाग गिर गए थे।  और जीर्णोध्दारकों के सामने पुराने मंदिर का कोई नमूना नहीं था इसलिए तिब्बत में प्राय: नमूने से वर्तमान मंदिर में कहीं-कहीं भिन्नता पाई जाती है(वही, पृ 251-52 )।

विक्रमशिला- दसवीं से बारहवीं तक विक्रमशिला नालंदा के समकक्ष विहार था। पाल वंश का राज गुरु इसका प्रधान होता था। 

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