इसमें कोई दो राय नहीं की अन्ना हजारे और उनकी टीम ने संसद और विधान सभाओं में पैदा हुए नेताओं की लूट-खसूट पर जो उंगली उठायी है,व्यवस्था के नाम पर जन्मी भ्रष्ट्र-अफसरशाही और राशन कार्ड से लेकर पासपोर्ट बनाने में बरती गयी बाबुओं की लाल-फीताशाही को बेपर्दा किया है, ने लोगों के मन में देश के डेमोक्रेटिक सेट-अप की लाचारी और नपुंसकता को सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया है.लोग यह मान कर चल रहे थे की नेताओं को झेलना डेमोक्रेटिक सेट-अप की अंतर्भूत कमी हैं.निश्चित रूप से नेता और अफसर शाही के गठ-जोड़ ने कारपोरेट जगत के साथ मिल कर आम जनता को बेवकूफ बनाने का जो सिस्टम विकसित किया है,लोगों को इससे उबरने का रास्ता नहीं सूझ रहा था.
मगर, किसी ने सच कहा है, लोगों को लम्बे समय के लिए बेवकूफ बना कर नहीं रखा जा सकता.आप दो या न दो, बरसात का पानी अपना रास्ता खुद-ब-खुद बना लेता है.प्रकृति का स्वभाव जो ठहरा.इतिहास गवाह है,राजनितिक क्रांतियाँ इसी तरह हुई है.
अगर,अन्ना कहते हैं की खतरा चोरों से नहीं पहरेदारों से है तो इसमें गलत क्या है ? बेशक, संसद जनता के प्रति जवाबदेह है.मगर, यह भी उतना ही सच है की राजनितिक पार्टियों ने मिल कर इस तरह का चुनावी सिस्टम बना लिया है की जनता के पास उन्हीं भ्रष्ट नेताओं को चुनने के आलावा अन्य दूसरा विकल्प नहीं होता.आज सांसद लोकसभा का चुनाव जीतने के लिए करोड़ों रुपया खर्च करता है.भला, एक आदमी सांसद बन कर इतना पैसा किस तरह कमा सकता है ? और फिर, चुनाव में लगा पैसा वापस पाना भी तो होता है, तभी आप अगला चुनाव लड़ सकते हैं.जाहिर है,बनिया,पूंजीपति,बड़े-बड़े सरकारी और प्राइवेट संस्थान के हेड और कार्पोरेट जगत की हस्तियाँ सांसद को पैसा मुहैया कराते है.सांसद पैसा लेता है और उनके लिए काम करता है.इधर, जिन एजेंसियों ने सांसद को पैसा मुहैया कराया है,वे उस दिए पैसे को आम जनता से वसूल करने की कोशिश करते हैं.इस तरह भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक चल पड़ता है.
इधर आम आदमी सोचता है की ये सांसद तो उसके वोट से जीत कर आया है फिर, वह काम उनका क्यों नहीं करता? तब, उसे खीज होती है-व्यवस्था के प्रति,शासन-प्रशासन के प्रति.एक और बात,सांसद महोदय आम आदमी से भी पैसा लेकर ही काम किये जाने की अपेक्षा करता है.क्योंकि,उसका नजरिया सेवा का कम व्यावसायिक ज्यादा हो जाता है. और इस तरह भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक फलता-फूलता है.
निश्चित रूप से चुनाव में आने वाला भारी भरकम खर्च पहली नजर में तो भ्रष्टाचार की जननी है.यह उसी तरह है कि लडकी की शादी में अगर आपने भारी दहेज दिया है तो लडके की शादी में भी आप बहू के साथ भारी दहेज की अपेक्षा रखते हैं. अब, सवाल यह है कि क्या ये दहेज के लेन-देन का क़ानूनी पहलू है या सामाजिक.दूसरे, यह बात नहीं कि इनको रोकने कानून नहीं बने हैं.मगर, क्या कानून से फायदा भी हुआ है ?बस यही अंतर है,एंटी-करप्शन के प्रति अन्ना टीम के द्वारा चलाये जा रहे मूवमेंट की सोच और दलित नजरिये का.देश का दलित भी समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को ख़त्म करना चाहता है.मगर,यह कैसे ख़त्म
हो,उसके तरीके पर जरूर दलितों की सोच अलग है.
दलितों की सोच है की भ्रष्टाचार का सम्बन्ध सामाजिक सरोकार से ज्यादा है.क्योंकि,अगर आप नैतिक है,मोरल है तो फिर आप भ्रष्टाचार नहीं करते हैं.सवाल यह है की यह नैतिकता कहाँ से आती है ? नैतिकता आती है आपके परिवार से,आपके कल्चर से.अगर आपका कल्चर अच्छा है,आपके संस्कार अच्छे हैं,तो फिर आपका जीवन शुचिता से लबरेज होगा.आप गलत चीजों को बर्दास्त नहीं करेंगे.नहीं आप गलत रास्ते पर चलेंगे और नहीं किसी को उस रास्ते पर चलते देखना पसंद करेंगे.
मगर मुझे भारी मन से कहना पड़ रहा है कि हिन्दू ,जो इस देश के अधि-संख्यक हैं,का व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन सुचिता से लबरेज नहीं है.वो जिन संस्कारों में पलता-बढ़ता है,वे व्यक्ति की सामाजिक-नैतिकता को सपोर्ट नहीं करते हैं.आप जिन दोहरे माप-दंड वाले सामाजिक मूल्यों में जीते हैं,उनको दिल और दिमाग में रख कर करप्शन के विरुद्ध खड़े नहीं हो सकते.हाँ,करप्शन कर सकते हैं और अपने आस-पास करप्शन होते देख सकते हैं.
करप्शन के विरुद्ध अगर खड़े होना है तो अपने सामाजिक जीवन में सुचिता लानी होगी,दोहरे मापदंड वाले सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन लाना होगा.उन पौराणिक प्रतीकों,मिथकों को त्यागना होगा जो आपको सामाजिक जीवन में दोहरे मापदंड अपनाने की प्रेरणा देते हैं.हिन्दू इस देश में अधिसंख्यक है.उनके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन-दर्शन का प्रभाव देश की संस्कृति और शासन-प्रशासन पर पड़ता है.आप सिर्फ कानून बना कर भ्रष्टाचार नहीं रोक सकते.कानून के साथ-साथ आपको सामाजिक सुचिता लानी होगी.
आपको जानकर आश्चर्य होगा,मगर ये सच है की हमारे यहाँ सबसे बड़े भ्रष्टाचार के अड्डे तो देवी-देवताओं के मन्दिर है.यहाँ बेहिसाब पैसा है.यहाँ लोगों की आस्था को दुहा जाता है.वास्तव में व्यक्ति के सामाजिक जीवन की सुचिता को यहीं भंग किया जाता है.पण्डे-पुजारियों की जमात ने हिन्दुओं के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को भ्रष्ट कर दिया है. अगर बी जे पी जैसी प्रमुख विपक्ष की पार्टी पंडा-पुजारियों का इस्तेमाल कर राजनितिक रोटियां सेकती हैं तो फिर आप भ्रष्टाचार कैसे समाप्त कर सकते हैं ?
दूसरे, हमारा डेमोक्रेटिक सेट-अप विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका में बंटा है.यद्यपि ये तीनों संस्थाओं के कार्य और शक्तियां अलग-अलग परिभाषित हैं फिर भी वे एक-दूसरे पर चैक रखती हैं.अन्ना हजारे की टीम जिस जन-लोकपाल की बात करती है,उसे पुलिस,जज और जेलर तीनों के अधिकारों से लैस किये जाने की मांग है, जो कि देश के डेमोक्रेटिक सेट-अप के विपरीत है.
दूसरे, हमारा डेमोक्रेटिक सेट-अप विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका में बंटा है.यद्यपि ये तीनों संस्थाओं के कार्य और शक्तियां अलग-अलग परिभाषित हैं फिर भी वे एक-दूसरे पर चैक रखती हैं.अन्ना हजारे की टीम जिस जन-लोकपाल की बात करती है,उसे पुलिस,जज और जेलर तीनों के अधिकारों से लैस किये जाने की मांग है, जो कि देश के डेमोक्रेटिक सेट-अप के विपरीत है.
और सबसे अहम बात ये कि हमारे देश का शासन-प्रशासन सांप्रदायिक और जातिवादी है. बात चाहे पुलिस की हो,न्यायालय की या फिर विधायिका की.इसलिए लोकपाल में दलितों का प्रतिनिधि रखना जरुरी है,जैसे की उ.प्र की मुख्यमंत्री मायावती जी ने मांग की है.ताकि जातिवादी हिन्दुओं से उनकी कुछ तो रक्षा हो सके.आये दिनों दलितों को झूठे फसाया जाता है.अगर लोकपाल में दलितों का प्रतिनिधि नहीं रखा जाता तो यह देश के दलित-जमात को मान्य नहीं होगा.
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