Friday, August 5, 2011

'हंस' की रजत जयंती: एक रपट

           उस दिन मैं  दिल्ली में था. तीन महीने के यूरोप प्रवास के बाद जब मैं  28 जुलाई को एम्स्टरडम से दिल्ली आया तो 2-3  दिन का दिल्ली प्रवास स्वाभाविक था. मेरी भांजी डा हेमलता महिस्वर आजकल दिल्ली में ही है. वह जामिया मिलिया में हिंदी की प्रोफ़ेसर है. मेरा दिल्ली प्रवास उनके आथित्य में ही था. चूँकि, मैं गुरगाँव में डा. हेमलता महिस्वर के यहाँ रुका था, स्वाभाविक है , हंस के 31 जुलाई  11 वाले  रजत जयंती समारोह में शिरकत करता. 
        आप जब साहित्यिक हस्तियों  के आथित्य में रहते हैं तो अपने-आप फिर आप उन अवसरों को पाने के भी हकदार हो जाते हैं जो इनकी राह में तके रहते हैं. 'युद्धरत आम आदमी' की एडिटर  रमणिका गुप्ताजी से पुन: रूबरू होना इसी तरह का एक अवसर था.एक दूसरा अवसर प्रसिध्द हिंदी साहित्यिक प्रत्रिका 'हंस'  के रजत जयंती समारोह का था. यह एक ऐसा अवसर था जब बड़ी से बड़ी  साहित्यिक हस्तियाँ आपके बगल में या  बिलकुल सामने बैठी होती हैं.
        यूँ राजेंद्र यादव मेरे लिए  नए नहीं हैं और न ही नामवर सिंह जी.हंस पत्रिका को मैं 1981-82  से जानता हूँ. तब हम दोस्तों के बीच में हंस,सारिका, कादम्बिनी,नवनीत जैसी  पत्रिकाएं पढ़ने का बड़ा क्रेज था. हम न सिर्फ ये पत्रिकाएं पढ़ते थे वरन बकायदा इनमे चर्चित कंटेंट पर बहस और चर्चा भी करते थे. साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के प्रति रुझान मेरा स्कूली पढ़ती हालत से ही था. क्यों था ? ये रिसर्च का विषय हो सकता है. 
        अगर राजेंद्र यादव की बात करूँ तो ये पर्सनालिटी मुझे काफी इम्प्रेस्ड करती है. बैसाखी पर टिकी गजब की  बेफिक्री , यारों के बीच साफगोई और बेहद अनौपचारिक तथा सामाजिक सरोकार से जुड़ने का माद्दा... ऐसा ही कुछ  व्यक्तित्व है, हिंदी साहित्य की शीर्षस्थ  पत्रिका 'हंस ' के कर्मठ और जुझारू सम्पादक  आदरणीय राजेन्द्र यादव जी का.
           'हंस' किसी समय एक खास  पाठक-वर्ग की बपौती रहा करता था, आपने उसमें  समसामयिक सामाजिक सरोकार की बातें उठा कर उसे गली-कुचों में पहुंचा दिया.मैं ऊपर कादम्बिनी, नवनीत जैसी हिंदी डायजेस्ट पत्रिकाओं की बात कर रहा था.  वे हिंदी डायस पर बैठी थी, बैठी रही.इन पत्रिकाओं ने अपने 'डायस' से उतर कर पब्लिक में जाने की जुर्रत नहीं की. अब कादम्बिनी हो या नवनीत, अपने डायस पर बैठे रहने के अपने फायदे हैं और डायस से उतर कर पब्लिक में जाने के अपने.और फिर, बैसाखी पर टिकी गजब की  बेफिक्री,यारों के बीच साफगोई और कुछ नया कर गुजरने की हिम्मत,सबके पास तो होती नहीं न .
      अब मैं कुछ बात करूँ, देश के चोटी के साहित्यिक हस्ती आदरणीय  नामवरसिंह जी की. नामवर सिंह जी से मैं काफी समय से परिचित हूँ. परिचय से मेरा मतलब उनके साहित्य से है.अन्य विधा के अलावा इतिहास के आप शीर्षस्थ हस्ताक्षर हैं. मुझे नहीं लगता कि हमारे देश में और कोई साहित्यिक पर्सनालिटी है जो आपके साथ खड़ा होने का साहस कर सके.
          तो बात मैं कर रहा था 'हंस' के रजत जयंती समारोह की.मंच सञ्चालन अजय नावरिया कर रहे थे.डायस पर नामवर सिंह,टी.यम ललानी,अर्चना वर्मा आदि विराजमान थे.कार्य क्रम का आयोजन मंडी-हॉउस  के पास 'ऐवाने ग़ालिब'  में किया गया था.ऐवाने ग़ालिब पूरी तरह पेक हो चूका था. दर्शक दीर्घा में, देश का बड़े से बड़ा साहित्यिक विराजमान था. बंगला देश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन भी दर्शक दीर्घा में तशरीफ़ लाई थी.
       चूँकि  'हंस' के रजत जयंती समारोह का कार्य-क्रम था, जाहिर है, किसी साहित्यिक गंभीरता की दरकार नहीं थी.संचालक महोदय अजय नावरिया जी ने बिलकुल यही किया.स्वाभाविक था,दर्शक दीर्घा भी उसी मूड में रहती; सबके सब कवि और लेखक जो बैठे थे. 'हंस' की  रजत जयंती का कार्य-क्रम यानि  की जैसे की नामवर सिंह कह रहे थे, राजेन्द्र यादव का उनके  80  साल की उम्र में रजत जयंती समारोह मनाया जा रहा था. चूँकि लोग हंस के मायने राजेन्द्र यादव और राजेन्द्र यादव के मायने हंस समझने लगे हैं.  

    परम्परागत रूप से इस तरह के कार्यक्रम मैंने सरस्वती पूजा से शुरू होते देखे हैं. मगर, यहाँ ऐसा नहीं हुआ. मुझे अच्छा लगा. मुझे नहीं मालूम कि मेरे आलावा यह बात कितनों ने नोट करी. आप साहित्य  के द्वारा समाज को बदलने की बात करते हुए सरस्वती के फोटो पर फूलों की माला नहीं चढ़ा सकते.साध्य को पाने का लक्ष्य साधन की पवित्रता से तय होता है. शायद गाँधी जी यही कहते थे. मगर, हमारे यहाँ साहित्यिक मंचों पर अक्सर उल्टा  होता है.सरस्वती जी के फोटो पर श्रध्दा सुमन अर्पित कर समाज को बदलने की शुरूआत की जाती है. गाँधी जी प्राय: दो अर्थों वाली वाणी का प्रयोग करते थे. हो सकता है साहित्यिक लोग दूसरी वाणी के अर्थों में सरस्वती के फोटो पर माला चढाते हो ?
          बहरहाल,तमाम टोका-टोकी और राजेन्द्र जी के न चाहने के बावजूद लोग उनकी प्रशंसा करते रहे.आखिर, अच्छी बातो को एप्रेसियेट किये जाने का दूसरा तरीका भी तो नहीं है.
               शीघ्र ही नामवर सिंह जी को संचालक महोदय ने प्रमुख वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया.नामवर सिंह जी को 'साहित्यिक पत्रकारिता और हस ' विषय पर अपने विचार रखने थे. मुझे लगता है, सभी वक्ताओं को इसी टापिक पर अपने विचार रखने थे, जैसे की राजेन्द्र यादव की सोच होगी.
           नामवर सिंह जी को मैंने पहली बार इतने करीब से देखा. 85  वर्ष आयु वाले व्यक्ति में ऐसा दम-ख़म होना वाकई बड़ी चीज है. शुध्द भारतीय परिवेश का पहनावा अर्थात धोती-कुरता और लम्बा-चौड़ा डील- डोल.सही में आकर्षक पर्सनालिटी है.मगर मुझे उनके वक्तव्य ने उसी अनुपात में इम्प्रेस्ड नहीं किया. मैं सोचा करता था की ऐसे कालजयी पुरुष नए इतिहास को रचते हैं. उनके मुखार-बिन्द से निकला हर-एक शब्द एक नए आयाम को इंगित करता  है.वे किन्ही चौखटों, स्थापित  पम्पराओं की परवाह नहीं करते....वगैरे ..वगैरे
             मगर अफ़सोस, ऐसा नहीं था. वे उसी मट्टी से बने थे जिससे कि और लोग बने थे. उनको उन्हीं स्थापित परम्पराओं का नाज था जिसमे की और लोग जी रहे थे. वे उन्हीं चौखटों पर अपना सीर झुका रहे थे जिस पर की और लोग अपना सीर पटक रहे थे.नामवर सिंह जी जिस तरह पौराणिक प्रतीकों का सहारा लेकर अपनी बात रख रहे थे,मुझे उनके अंदाज में कुछ नया नहीं लगा. आप किसी बड़ी जगह आते हैं, किसी बड़ी हस्ती से मिलते हैं, स्वाभाविक है आप कुछ हट कर चाहते हैं. कुछ नया चाहते हैं. वर्ना यह सब तो आपके आस-पास ही मिल जाता है, जहाँ आप रहते हैं.फिर, इतनी दूर आने की क्या जरुरत है ? 
            अक्सर आपने देखा होगा कि लोग अपनी बात को स्वीकारे जाने के लिए पौराणिक प्रतीकों का सहारा लेते हैं.वे चाहते हैं कि लोग उनकी बातो को उतनी ही श्रध्दा से ग्रहण करे जिस श्रध्दा और विश्वास से पौराणिक चरित्रों को स्वीकारते हैं. मुझे ऐसे लोग, सच पूछा जाये तो साहित्यिक कम धर्म-गुरु अधिक लगते हैं .क्या यह सच नहीं कि ऐसा कर आप कितने ही नकारे पौराणिक चरित्रों को पुन: स्थापित, प्रासंगिक और ग्राह्य बना लेते  हैं ? सील-ठप्पा लगा कर री-रेगुलराईस्ड करते हैं ? एक दूसरी बात, मुझे उनकी बातों में कहीं  भी गुरु-गम्भीरता नहीं दिखी जो कि वक्त की मांग थी. क्योंकि, उनके आलावा बताये विषय पर अन्य किसी आमंत्रित वक्ता ने ध्यान ही नहीं दिया. जाहिर था कहने-सुनने को सिर्फ वही थे. एक अन्तिम बात और. 'हंस' पर उनकी टिप्पणी को मुझे नहीं लगता किसी ने गम्भीरता से लिया.
              दूसरे दिन अर्थात 1 अग. 11  को जामिया मिलिया जाने का अवसर मिला. हम हिंदी के हेड आफ डीपाट (HOD)  अब्दुल बिस्मिल्लाह  के चेंबर में बैठे थे. भांजी डा. हेमलता महिस्वर अपना पीरियड लेने क्लास में गई थी. मुझे भान था की मैं कहाँ बैठा हूँ. बिना वक्त गवाएं मैं अब्दुल बिस्मिल्लाह से मुखातिब हुआ-
"सर, जब हिन्दू आपस में बैठते हैं तो मुसलमानों के विरुध्द डेरोगेट्री रिमार्क पास करते हैं. पहले तो आप  बताइए, क्या ऐसा है ? और अगर ऐसा है तो इसे आप कैसे लेते हैं ?" - मैंने उनकी आँखों में करीब-करीब झांकते हुए पूछा
"यह तो दोनों तरफ होता है. कौन-सा एक तरफ होता है." - अब्दुल सर  ने मेरी ओर देख कर कहा .
"ओह ! ये बात है ." - मैंने राहत की साँस ली.
"मगर आप को नहीं लगता की ये घृणा और तिरस्कार सामाजिक सोहार्द के लिए ठीक नहीं है ?"
"हाँ , बिलकुल ठीक नहीं है. मगर, आप क्या करोगे ? असल में व्यवस्था चाहती ही हैं कि यह  घृणा और तिरस्कार  कभी खत्म न हो."
"जे एन यू और जामिया मिलिया जैसी देश की उच्चतम शैक्षणिक संथाओं का इस दिशा में कोई योगदान नहीं है ?- मैंने जानना चाहा.
"क्या योगदान है ? ....हमें तो... जो ऊपर से आदेश आते हैं, बस उनको फालो करना होता है. you have to do what you are instructed . अब्दुल बिस्मिल्लाह जी ने मुझे समझाते हुए कहा. इसी बीच अजय नावरिया जी आ गए. बातो का क्रम गडबडा गया.
"सर नमस्कार." -मैंने दुआ सलाम की.
"आप.. ?"
"जी मैं अ.ला. उके. डा हेमलता महिस्वर का मामा. ..प्रतिष्ठित प्रतिष्ठानों से सम्बध्द साहित्यिक हस्तियों को इस तरह से परिचय देने में  उन्हें सोहलियत होती है.
"ओह .." अजय नावरिया जी मेरी ओर सरसरी निगाह डालते हुए एच ओ डी  के पास कुर्सी पर बैठ गए.
"सर, आपने कल बहुत  ही अच्छे  ढंग से कार्य-क्रम का संचालन किया." - मैंने उस चेंबर में खुद को जस्टिफाई करने के लिहाज से कहा.
"ओह , धन्यवाद ." अजय ने मुस्करा कर मुझे सहज किया.
"मगर सर, नामवर सिंह जी का वक्तव्य मुझे कुछ खास नहीं लगा.
"कैसे  ?"
" वे जिस तरह  पौराणिक कथानकों का जिक्र कर रहे थे... मुझे  ऐसे लगा कि नकार चुके पौराणिक प्रतीकों से उनका मोह अभी गया नहीं है. सर, आप ही बताइए,हम कब तक इन पौराणिक चरित्रों को सांस्कृतिक थाती के नाम पर ढोते रहेंगे ?"
" अरे, तो आपने उठ कर बोलना था न. मौका तो दिया गया था." अजय नावरिया  ने मेरी बात को समझने का प्रयास करते हुए कहा.
" सर, एक लडके के अपनी बात रखने के तुरंत बाद तो प्रोग्राम समेट ही लिया गया." - अजय ने मेरी हाँ में हाँ मिलाना ही उचित समझा.

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