धम्म यात्रा
गावं से भाभीजी का फोन आया की 22 मई 14 को सालेबर्डी पहुँचना है। क्योंकि 15 -20 भंते धम्म-यात्रा पर गावं के नव-निर्मित बुद्ध विहार में पधार रहे हैं। चूँकि गावं का बुद्ध विहार का निर्माण हम दोनों पति-पत्नी के अथक प्रयास से ही संभव हो पाया था। अत: बुद्ध विहार निर्माण समिति के सदस्यों ने हमारी उपस्थिति को शायद आवश्यक समझा। पाठकों को बता दूँ कि भाभीजी की अध्यक्षता में ही बुद्ध विहार का निर्माण हुआ था।
यूँ 23 मई को बालाघाट में एक शादी थी, जिसके लिए 22 मई को हम दोनों पति-पत्नी भोपाल से प्रस्थान कर रहे थे। किन्तु , अब बदली हुई परिस्थिति में मेडम का रिजर्वेशन कैंसिल करना पड़ा। क्योंकि , त्वरित रिजर्वेशन न मिलने से मुझे ट्रेन छोड़ कर बस पकड़नी पड़ी थी जबकि हेल्थ प्राब्लम के चलते मेडम बस का लम्बा सफर नहीं कर सकती थी।
खैर, प्रोग्राम तय समयानुसार बड़े सलीके से और गरिमामय सम्पन्न हुआ। बालाघाट के धम्म-बंधू गजानंद हिरकने और हेमंत गजभिए ख्यात-प्राप्त भंते अनोमदस्सी की सहायता कर रहे थे। समाज में बौद्ध-संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए यह धम्म-यात्रा थी जो प्रज्ञा-चक्षु प्रतिष्ठान (मध्य-प्रान्त ईकाई ) एवं रमाबाई महिला मंडल पंचशील बुद्ध विहार बूढी, बालाघाट म प्र के सौजन्य से संचालित की जा रही थी।
कार्यक्रमों की श्रंखला के तहत 18 से 28 मई 14 की अवधि में श्रामनेर प्रवज्जा संस्कार शिविर लगाया गया था जिस में 15 से 20 बुद्धिस्ट नवयुवकों ने शिरकत की थी। भंते अनोमदस्सी इन्हीं श्रामनेरों के साथ गावं-गावं की अलख जगा रहे थे। यूँ भंते अनोमदस्सी का दर्शन मैं पहले भी प्राप्त कर चूका था । नि:संदेह भंते जी योग्य और सामने वाले पर अपना प्रभाव छोड़ने वाले हैं। उनके चेहरे पर जो नूर है , वह उनकी विद्वता और कठोर साधना को इंगित करता है ।
चिखला-बांध; जो हमारे गावं सालेबर्डी से 3 की मी दूर स्थित है, में शायद भंते जी का रात्रि प्रवास था । उन्हें वहीँ से आना था। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार, हमें प्रात : 9. 30 बजे गावं के प्रवेश मार्ग पर आ कर उन्हें रिसीव करना था। सभी बौद्ध उपासक-उपसिकाओं को शांति के साथ हाथ में धम्म-ध्वज लिए हुए सफेद वस्त्रों में नंगे पावं लाईन में खड़े होना था। आपको पता है मई के अंतिम सप्ताह में सुबह के 9- 10 बजते ही जमीन कैसे गर्म हो जाती है ? मगर , भंते जी, श्रामनेरों के साथ अगर नंगे पावं हैं तो आपको भी जूते या चप्पल घर में ही छोड़ना होता है।
संघमित्रा बुद्ध विहार सालेबर्डी की सदस्य महिलाऐं परम्परागत लिबास में कतार-बद्ध थी। भोजन करीब-करीब तैयार हो चूका था। भंते अनोमदस्सी अपने नव -श्रामनेरों के साथ गावं में प्रवेश कर चुके थे। प्रमुख भंते को वंदामि कह कर सभी बौद्ध उपासक-उपसिकाएं उनके साथ हो लिए। भंते और उनके श्रामनेर आगे-आगे और शेष पीछे कतार-बद्ध मुहं से बिना कोई शब्द निकाले गावं के अंदर संघमित्रा बुद्ध विहार की ओर बढ़ रहे थे। लोग, बच्चें और बूढ़े अपने-अपने घरों की मुंढेर पर खड़े हो कर यह अद्भुत नजारा अपने जीवन में शायद पहली बार देख रहे थे।
सचमुच यह अद्भुत नज़ारा था। बहुत पहले आज जहाँ बुद्ध विहार है, के समीप ही खाली प्रांगण में 'एक्का' हुआ था जिस में गावं के तमाम लोग अपनी-अपनी जाति और जनेऊ घर में छोड़ कर शरीक हुए थे। तब, मैं चौथी-पांचवीं कक्षा पढ़ रहा होगा। उस कार्यक्रम में दूर-दूर से संत-महात्मा पधारे थे जिनमें बपेरा के महंत बालकदास साहेब का मुझे अच्छी तरह ध्यान है। आपकी आगे चल कर हम पर गुरु कृपा हुई थी । सनद रहे , इस कार्यक्रम के आयोजन में मेरे पिताजी ने प्रमुख भूमिका निभायी थी। उस समय पिताजी बीड़ी का कारखाना चलाया करते थे। जाहिर है , गावं और आस-पास के तमाम बीड़ी कारीगर पिताजी के पास काम करते थे।
बुद्धिस्ट कल्चर में दोपहर 12 बजे के पहले भोजन करने का विधान है। समाज के जो शास्ता हैं , उनसे अपेक्षा होती है कि वे इन नियमों और शीलों का पालन करे। बालाघाट से पधारे हिरकने और गजभिए बंधु संघमित्रा बुद्ध विहार समिति की सदस्य महिलाओं को आवश्यक निर्देश दे रहे थे।
भंते जी अपने श्रामनेरों के साथ सीधे हमारे घर पधारे। अब करीब 10. 30 बज रहा था। भोजन का प्रबंध यही था। तेज धूप और अन्य सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए भोजन-दान की व्यवस्था यही की गई थी। वैसे भी, हमारे यहाँ पिताजी से साधू-संतो को भोजन कराने की परम्परा रही है।
भोजन-दान का कार्यक्रम विधिवत हुआ। भंते अनोमदस्सी और श्रामनेर अपने-अपने भिक्षा-पात्र लेकर भोजन के लिए जब कतार-बद्ध आगे बढ़ रहे थे तब अनायास भगवान बुद्ध और उनके विशाल भिक्षु-संघ का स्मरण हो रहा था। बुद्धिस्ट ग्रंथों में इन क्षणों का बड़े विस्तार से वर्णन है। भगवान बुद्ध का भिक्षु-संघ एक मिसाल रही है - व्यवस्थित रूप से एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करने की , एक साथ भोजन करने की; जो ढूंढने से अन्यत्र नहीं मिलती।
भोजन दान के बाद धम्म-चर्चा हुई। मैंने कुछ वीडियोज़ के फूटेज भंते जी सामने रखे जो मैंने पूर्व में किन्हीं प्रोग्रामों में रिकार्ड किए थे। इन वीडिय- फूटेज में भंते अनोमदस्सी के द्वारा दी गई धम्म-देशना थी। स्थिति का फायदा उठा कर मैंने पूछा, भगवान बुद्ध के पुनर्जन्म की व्याख्या को वे कैसे देखते हैं ? डॉ आंबेडकर ने बुद्ध के पुनर्जन्म-देशना की जैसी व्याख्या की है , बुद्ध धर्म के मठाधीशों ने उसे स्वीकार नहीं किया है। वे व्यक्तिगत तौर पर इसे कैसे लेते हैं ? भंते जी ने कहा कि बात स्वीकार या अस्वीकार करने की नहीं है। सवाल यह है कि हम पुनर्जन्म को बीच में लाते ही क्यों हैं ? हमें कुशल कर्म करते जाना है। पुनर्जन्म हो तो ठीक और न हो तो ठीक।
मैं भंते जी को देख रहा था। किन्तु भंते जी अर्द्ध-मुन्दित नेत्रों से कहीं ओर विचरण कर रहे थे। मैं उन्हें ताक रहा था। जब तन्द्रा भंग हुई तो मैंने दूसरा सवाल दागा - ' यदिदं चत्तारि पुरिस युगानी अट्ठपुरिस पुग्गला। यस भगवतो सावक संघों---' में कौन-से चार और उनके आठ प्रकार के 'पुरिस पुग्गला ' की बात की जा रही है ? मैंने तीसरा प्रश्न दागा कि बौद्ध ग्रंथों में क्यों चमत्कार और स्वर्ग-नरक की कपोत-कल्पित बातें जगह-जगह लिखी है ?
नि:संदेह, भंते जी ने साफ-साफ बातें की। मुझे लगा की वे एक जिज्ञासु हैं और इस तरह के प्रश्न रखने पर वे एक निर्णायक सोच रखते हैं। मैंने मन ही मन उन्हें नमन किया -
" यो हवे दहरो भिक्खु युज्जते बुद्ध सासने , सो इममं लोकं पभासेति अब्भा मुत्तो 'व चंदिमा "
अर्थात , जब कोई तरुण भिक्खु बुद्ध शासन की सेवा में रत हो जाता है , तो वह बादलों से मुक्त चन्द्रमा की तरह इस संसार को प्रकाशित करता है (धम्म पद 382 )।
इसी बीच हिरकने जी ने आ कर सूचना दी कि बुद्ध विहार चलना है । वहां सारी व्यवस्था की जा चुकी है। बुद्ध विहार में वंदना का कार्यक्रम हुआ। तत्पश्चाद् भंते जी का सम्बोधन हुआ । भंते जी के सम्बोधन का फोकस दैनिक जीवन में शीलों के पालन से था। करीब एक घंटे के उदबोधन के बाद भंतेजी अपने श्रामनेरों के साथ आगे के लिए प्रस्थान हुए। इस समय सायं करीब 7. 00 बज रहा था। भंते जी और उनके श्रामनेरों का रात्रि-पड़ाव स्थल कोहका था जो यहाँ से करीब 4 -5 की मी दूर है ।
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