Saturday, December 31, 2011

बी श्याम सुन्दर (B. Shyam Sunder)

        दलित-आन्दोलन के इतिहास में बी श्याम सुन्दर का नाम, बाबा साहेब डा. भीमराव आम्बेडकर के बाद बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है. आपके कार्यों की सराहना करते हुए 'दलित वायस' के सम्पादक राजशेखर ने आपको 'भारतीय दलित-आन्दोलन' के जनक कहा है.
         बी श्याम सुन्दर का जन्म 21 दिस 1908 को महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में हुआ था स्मरण रहे, औरंगाबाद तब, निजाम हैदराबाद के शासन का हिस्सा हुआ करता था.इनके पिता का नाम बी मनिचम और माँ का नाम सुधा था.
        श्याम सुन्दर पढने-लिखने में कुशाग्र बुध्दि के थे.उन्होंने हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय से वकालत की डिग्री पास की थी.वे विद्यार्थी जीवन से ही राजनीति में उतर आये थे. उन्हें कालेज लाइफ में ही  'आल इण्डिया डिप्रेस्ड क्लास असोसिएशन' के विद्यार्थी शाखा का महासचिव चुना गया था. वे सन 1947 में इसके प्रथम राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे.
       श्याम सुन्दर एक सामाजिक-चिन्तक,सफल लेखक, संसदीय प्रणाली के ज्ञाता और क्रन्तिकारी नेतृत्व के धनी थे.वे मैसूर और आंध्र प्रदेश की विधायिका के सदस्य रहे थे.
       वह श्याम सुन्दर ही थे जिन्होंने सर्व प्रथम, इस देश के अन्दर 'दलित-मुस्लिम एकता' की नींव रखी थी.उन्होंने दलितों को आव्हान किया की वे एक बड़ी ताकत के रूप में उभरने के लिए पिछड़ी-जातियों और मुसलमानों के साथ हाथ मिलाये.वे जितने शोषित-पीड़ित जातियों के अधिकारों के लिए चिंतित थे, उतने ही देश के मुसलमानों के अधिकारों के लिए भी चिंतित थे.आपने सन 1937 में 'दलित-मुस्लिम एकता' का एक बड़ा आन्दोलन चलाया था.मास्टर तारासिंह की मदद से  13 अक्टू. सन 1956 में आपने 'आल इण्डिया फेडरल असोसिएशन आफ मायनोरिटिज' की स्थापना की थी.लखनऊ (उ.प्र.) में 12-13 अक्टू. सन 1968 में इसी के बेनर तले दलितों के साथ अल्प-संख्यकों और पिछड़ों का सम्मेलन आयोजित किया गया.यह सम्मेलन श्याम सुन्दर की अध्यक्षता में हुआ था. वहां उन्होंने अल्प-संख्यकों को 'भारत हमारा है' का नारा दिया था.सम्मेलन में आपने बड़े राज्यों यथा उ.प्र.,राज., म.प्र. ,महाराष्ट्र,आंध्र.-प्रदेश, बिहार को दो या दो से अधिक भागों में बांटने का सुझाव दिया था.
        श्याम सुन्दर ने डा. आम्बेडकर के 77 वे जन्म दिवस की संध्या पर कर्नाटक के गुलबर्ग में  'भीम सेना' नामक एक स्वेच्छिक सैनिक-बल  का निर्माण किया था. इस अवसर पर आपने बोलते हुए कहा था, हिन्दुओं, जागो ! अब यहाँ 'भीम सेना' आ गई है.भीम सेना के बेनर तले अब हम अपने पैरों पर खड़े रह कर मरना पसंद करेंगे बजाए घुटनों पर झुकने के. श्याम सुन्दर ने गरजते हुए कहा था कि दलित इस देश के मूल निवासी हैं और की वे पैदाईशी बौध्द हैं न की हिन्दू. श्याम सुन्दर के इस आग उगलते वक्तव्य को राष्ट्रीय मिडिया ने गम्भीरता से लिया था और 'प्रेस काउंसिल आफ इण्डिया' को शिकायत की थी.श्याम सुन्दर के अनुसार, 'भीम सेना', स्वत: की सुझबुझ रखने वाला एक स्व-रक्षात्मक बल था.यह संगठन आत्म-निर्भरता और आत्म-सम्मान की भावना से अंतर्भूत था.यह सत्य और अहिंसा पर आधारित आन्दोलन था.दलित-मुस्लिम और दलित-पिछड़ों के एकता की हिमायती  'भीम सेना' की शाखाएँ बड़ी जल्दी पूरे देश में फैली. फंडामेंटेलिस्ट हिन्दू इससे दहशत खाने लगे थे.
               श्याम सुन्दर का कहना था कि शोषित-पीड़ित और सताए गए अच्छूत, इस देश के मूल निवासी हैं, जो कभी बुद्धिस्ट हुआ करते थे.चूँकि, ये लोग यहाँ के मूल निवासी हैं अत: इस देश पर शासन करने का अधिकार उनका है.श्याम सुन्दर की इसी सोच का परिणाम था कि शोषित-पीड़ित जातियों में अपने अधिकारों के प्रति चेतना का प्रसार हुआ.उन्होंने दलितों से कहा कि वे इस देहस के मुसलमानों के साथ हिन्दुओं की वर्ण और जाति-व्यवस्था के विरुध्द निर्णायक लड़ाई लड़ सकते हैं.वास्तव में, श्याम सुन्दर ने दलित-मुस्लिम एकता को दोनों समुदायों के बीच एक सामाजिक आन्दोलन के रूप में देखा.
       हिन्दू धर्म में छुआछूत हैं जिसमे कुछ जातियों को अछूत घोषित किया गया हैं.इन्हीं जातियों को महात्मा गाँधी ने 'हरिजन' कहा था.भारतीय संविधान में इन्हीं जातियों को 'अनु. जातियां' कहा गया.परन्तु , श्याम सुन्दर ने पहले दिन से ही कहना शुरू किया कि वे हिन्दू नहीं हैं और उनको हिन्दू जाति या वर्ण-व्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं हैं.ये हिन्दू ही थे जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए उनके लोगों को अपने में समाहित किया.
        श्याम सुन्दर बड़े तीखे वक्ता थे. उनके भाषण आग उगलते थे.उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू में कई लेख और पुस्तकें लिखी.श्याम सुन्दर ने हिन्दू जाति-व्यवस्था के विरुध्द इस देश के अन्दर और बाहर एक बड़ा जेहाद खड़ा किया था.
       श्याम सुन्दर को 'संयुक्त राष्ट्र संघ' में निजाम हैदराबाद  की ओर से अनु. जातियों की ओर से अपनी बात रखने का अवसर मिला था. उन्होंने सित. 1948 में 'संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद्' को सम्बोधित किया था. उन्होंने देश के करोड़ों दलितों की दुखद और कारुणिक अमानवीय स्थिति को अंतरराष्ट्रीय जगत के सामने सटीक और  जोरदार ढंग से प्रस्तुत किया.वे जब विदेश के दौरे पर थे और जब निजाम हैदराबाद को भारत-संघ में मिलाने के लिए दबाव बनाया जा रहा था, बी. श्याम सुन्दर अपना यूरोपीयन दौरा रद्द कर वापिस स्वदेश आ गए थे. तब, भारत सरकार ने उन्हें नज़र बंद कर लिया था.
       एक दूरदर्शी नेता के रूप में श्याम सुन्दर ने संयुक्त राष्ट्र संघ से अपील की वह भारत के दलितों के पृथक-स्थान के लिए हस्तक्षेप करे.दूसरे, वह plesbicite कराये की कितने दलित इस देश में रहना चाहते हैं. अपनी पुस्तक  'They Burn'(DSA publication)  में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के  Human Rights's Charter का हवाला दे कर कहा की  इस देश के 16 करोड़ दलितों के अमानवीय जीवन को देखते हुए  संयुक्त राष्ट्र संघ को कुछ करना चाहिए.
        श्याम सुन्दर ने सरोजिनी नायडू के द्वारा चलाये गए 'स्वदेशी आन्दोलन' में नेतृत्व किया था. इसके वे आंध्र-प्रदेश शाखा के महासचिव थे.श्याम सुन्दर ने भूमि सुधार का एक बड़ा सशक्त आन्दोलन चलाया. अनु. जाति-जन जातियों के पास जमीन नहीं है.उनकी सोच थी कि शासन की फालतू पड़ी जमीन इनके बीच बाँट दिया जाये.उन्होंने भूमि सुधार के कई बिल पेश किये.
       26 जन. सन 1968 में महाराष्ट्र के नांदेड में आल इण्डिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का श्याम सुन्दरजी की अध्यक्षता में अधिवेशन हुआ था.अपने अध्यक्षीय भाषण में श्याम सुन्दर जी ने गरजते हुए कहा कि दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति रेसियल है जबकि भारत में दलित जातियों के साथ बरती जा रही छुआछूत हिन्दू धर्म की उपज है.यह धर्म-सम्मत छुआछूत पिछले 3,000 वर्षों के बेरोक-टोक के चल रही है.आजादी के बाद, संविधान में यद्यपि इसे गैर-क़ानूनी करार दिया गया है मगर, आज भी हिन्दू इसे बिना रोक-टोक के मानते हैं. अपने भाषण में श्याम सुन्दर ने कहा की वे इस फेडरेशन के माध्यम से अपनी चार मांगे केंद्र सरकार के सामने रखते हैं- 1.यह कि दलितों के बसने के लिए पृथक स्थान 'दलितस्तान' हो.  2. उनके लिए पृथक चुनाव की व्यवस्था हो. 3.उनकी शिक्षा और संस्कृति के संरक्षण हेतु पृथक शैक्षिणक संस्थान (पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी) हो. 4. इन शैक्षणिक संस्थाओं का प्रबंधन भारत शासन द्वारा अनुसूचित जातियों के लिए स्थापित एक ट्रस्ट करे.
        बाबा साहेब आम्बेडकर ने जो 'पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी' की स्थापना की थी और जिसके तहत  औरंगाबाद में सर्व प्रथम मिलिंद कालेज खोला गया था को श्याम सुन्दर ने मदद की थी. वे सन 1964-66 की अवधि में सोसायटी के सदस्य रहे.स्मरण रहे,इस सोसायटी को निजाम हैदराबाद ने भी 200 एकड़ जमीन दान  देकर मदद की थी.
        श्याम सुन्दर जैसे क्रन्तिकारी कभी-कभी पैदा होते हैं.वे ताउम्र अविवाहित रहे.उन्होंने शराब का कभी सेवन नहीं किया.वे कठोर अनुशासन प्रिय थे.उनका चरित्र बेदाग़ था. उनका पूरा जीवन सादगी और सच्चाई से   भरा था.श्याम सुन्दर जीवन के दिनों में वे अपनी बहन के पास हैदराबाद  में रहे और वाही अन्तिम साँस ली.  

Friday, December 30, 2011

तुम थूको और हम चाटे

       कनार्टक को आई. टी. (सूचना तकनीकी) का हब (केंद्र) कहा जाता है.आई. टी. का हब यानि वैज्ञानिक सोच की पराकाष्ठा.परन्तु, इसी राज्य में एक जगह ऐसी है, जहाँ दलित समाज के लोग ब्राह्मणों के थूक को चाटते हैं, उस पर लोटते हैं, इस विश्वास के साथ कि इससे उनकी समस्याएं /बीमारियाँ दूर होगी.
      सदियों से चली आ रही इस गन्दी परम्परा को 'मडे स्नाना' कहा जाता है .कहा जाता है कि यह 4,000 सालों से चली आ रही परम्परा है. यह आयोजन प्रत्येक वर्ष नव.-दिस. महीने में चंपा शास्ती/सुब्रमन्या शास्ती के अवसर पर कूके सुब्रमन्या तीर्थ स्थल पर होता है.कूके सुब्रमन्या मन्दिर कनार्टक के दक्षिण कनारा जिले में स्थित है.इस मन्दिर में नौ सिरों वाले सांप की मुर्ति को भगवान् सुब्रमन्या के नाम से पूजा जाता है.
       परम्परा से चले आ रहे इस मडे स्नाना में पिछले 29 नव. को भी लगभग 25,000 दलित, ब्रह्मणों के थूक पर लोटे और जिला प्रशासन इसे लाचारी से देखता रहा.
        विदित हो कि यह क्षेत्र भाजपा का मजबूत गढ़ है.कर्नाटक के समाज कल्याण मंत्री जो खुद भी दलित समाज के हैं, अपने गुस्से का इजहार करते हुए कहते हैं कि यह छुआछुत को बढ़ावा देता है.उनका मंत्रालय इस गंदी प्रथा को बंद करवाने के लिए मन्दिर-प्रबन्धन को पत्र लिखेगा.दक्षिण कनारा के एक ब्राहमण नेता और कर्णाटक के वरिष्ठ मंत्री वी. एस.  आचार्य ब्राहमण संगठनों और संघ परिवार के नेताओं की भावनाओं को स्वर देते हुए आगे कहते हैं कि यह एक धार्मिक प्रथा है, जो सदियों से चली आ रही है.ब्राहमणों के थूक पर दलितों को लोटने के लिए उन्हें कोई बाध्य नहीं कर रहा है. लोगों की इस मान्यता को दलित विरोधी क्यों कहा जाना चाहिए ? सरकार को इसमें दखल नहीं देनी चाहिए.
       सदियों से चली आ रही इस परम्परा को दक्षिण कनारा जिले के डिप्टी कमिश्नर एन एस चेंप्पा गौड़ा ने इस साल प्रतिबंधित कर दिया था. उन्होंने यह फैसला सामाजिक कार्यकर्ताओं और साहित्यकारों के विरोध के बाद किया था. मगर, मडे स्नाना के ठीक एक दिन पहले डिप्टी कमिश्नर को सरकार और संघ परिवार के दबाव के चलते यह प्रतिबन्ध उठाना पड़ा.
      वर्षों से चली आ रही इस परम्परा के समर्थन में धर्म-स्थल के पुजारियों का तर्क है कि जो ब्राहमण वहां थूकते हैं,वे भगवान् सुब्रमन्या के प्रतिनिधि माने जाते हैं. उनका थूक भगवान् का थूक माना जाता हैं.वे आगे कहते हैं कि स्कन्द पुराण के मुताबिक भगवान् कृष्ण के बेटे साम्ब और उनकी पत्नी जाम्बवंती का कुष्ठ रोग ब्राहमणों के इस थूक पर लोटने से ठीक हुआ था. पुजारियों के अनुसार, ब्राहमणों के थूक पर लोग इस विश्वास से लोटते हैं कि इससे उनकी बीमारियाँ दुरुस्त हो जाएगी. यह एक मनोवैज्ञानिक उपचार है, जिसकी जड़े आयुर्वेद में है. इसे यूँ ही ख़त्म नहीं किया जा सकता.
        कर्नाटक के एक साहित्यकार और एक्टिविस्ट के. वाई. नारायण स्वामी  के अनुसार, हो सकता है कि साँपों की बाँबियों से निकले कीचड़ में रोग-मुक्त करने की क्षमता हो. शायद, ऐसे ही कुछ धारणा पर इस परम्परा की शुरुआत हुई होगी.परन्तु, यह तय है कि बाद में इसने वैदिक रस्म का स्वरूप ले लिया और इसे अगड़ी जाति के लोग नियंत्रित करने लगे.लिंगायत और वोक्कालिंगा जैसी बीच की कुछ जातियों ने मलेकुडिया जन-जाति को आगे करके इस रिवाज से पीछा छुड़ा लिया.
       नारायण स्वामी आगे कहते हैं कि आज, यह इंसानियत को अपमानित करने के आलावा और कुछ नहीं है.कर्नाटक के मुख्यमन्त्री डी. वी. सदानन्द, जो इसी जिले के हैं, भी इस प्रथा को बंद करने के पक्ष में हैं. परन्तु ,वे कहते हैं कि इसके लिए लोगों को विश्वास में लेने की जरुरत है ! अब भला, 'लोग' अर्थात बी.जे.पी. और संघ परिवार के लोग कब उनके विश्वास में होने लगे ?

Wednesday, December 21, 2011

चैत्य-भूमि का मसला

        यह विचित्रता और हैरत-अंगेजपना इस देश में ही हो सकता है कि जिस समाधि-स्थल पर मुश्किल से हजार-दो हजार लोग जाते हो,वह समाधि-स्थल सैकड़ों एकड़ में फैला है. परन्तु, जिस समाधि-स्थल जाने वाले लाखों की तादात में हो, उस जगह के लिए आधा एकड़ जमीन भी मयस्सर नहीं है !
       मुबई दादर में समुद्र के किनारे बाबा साहेब डा. आंबेडकर की चैत्य-भूमि है. यहाँ प्रति-दिन हजारों लोग दर्शन करने आते हैं.बाबा साहेब के अनुयायी गावं-देहात और विभिन्न शहरों से इस चैत्य-भूमि पर अपने  मसीहा को नमन करने जाते हैं,दिन-रात तांता लगा रहता हैं. 6 दिस.,जो बाबा साहब का परिनिर्वाण दिवस है, को देश के कोने-कोने से करीब 10-15 लाख लोग प्रति वर्ष आते हैं.
      चैत्य-भूमि में जाने के लिए समुद्र के किनारे-किनारे रोड से जाना पड़ता है. यहाँ भी अम्बेडकरी-साहित्य की दुकाने लाइन से लगी रहती है. जगह कम होने के कारण लोग बिना किसी निर्देशन के अपने-आप आते-जाते हैं. कही कोई अव्यवस्था नहीं, कहीं कोई दुर्घटना नहीं.मगर, न महाराष्ट्र की सरकार को और न ही केंद्र में बैठे लोगों को शर्म आ रही थी.जबकि, बाबा साहेब का नाम  लिए बगैर कोई भी पार्टी  सत्ता की कुर्सी पर बैठ नहीं सकती. चाहे किसी राज्य में हो या केंद्र में.
      आर. पी. आई. काफी दिनों से उस चैत्य-भूमि में पर्याप्त जगह हो, इसके लिए इधर कुछ दिनों से धरना-आन्दोलन कर रही थी. खबर है कि महाराष्ट्र शासन ने इस आशय का प्रस्ताव विधान सभा में पारित किया है कि चैत्य-भूमि के पास की मिल को अन्यत्र शिफ्ट कर जगह बनायीं जाएगी. ख़ुशी की बात है कि आर. पी. आई.  के धरना-आन्दोलन में शिव-सेना ने साथ दिया. अच्छा है, उसने मुद्दे को समझा. क्योंकि, मराठी मानुष और उत्तर-दक्षिण भारतियों जैसे मुद्दे से लोगों को ज्यादा दिनों तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता.

Tuesday, December 20, 2011

जन-कवि 'अदम' गौंडवी

जन-कवि 'अदम' गौंडवी


एक हुए थे, दुष्यंत कुमार. आपको स्मरण आ रहा होगा-'मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए'- यह ग़ज़ल उसी शख्स की है, जिसके सीने में 1965-75 के दौर में कहीं कुछ जल रहा था, सुलग रहा था.दुष्यंत कुमार भी उ.प्र. से थे.उन्होंने ग़ज़लों में जो लोकप्रियता हाशिल की थी, वह बेमिशाल थी.दुष्यंत कुमार की लम्बी उम्र नहीं थे. जिसका सीना कोयले की सिगड़ी की तरह अन्दर ही अन्दर सुलग रहा हो, भला वह, कब तक जल सकता है ?
       उसी उ. प्र. में फिर, एक दूसरे ग़ज़लकार पैदा होते हैं-'अदम' गौंडवी। ठेठ देहाती ताना-बाना.देहाती अंदाज। मगर, जिसके एक-एक शब्द खंजर की तरह व्यवस्था के सीने पर उतरते हैं। उस 'अदम' गौंडवी  का जन्म 22 अक्टू. 1947 को गोंडा (उ.प्र.) के आटा परसपुर गावं में हुआ था। 'अदम' का असली नाम रामनाथसिंह था.
  'अदम' मानवतावादी दृष्टिकोण रखने वाले संवेदनशील जन-कवि थे, जिन्होंने अपने रचना के माध्यम से सदैव आम जनता की  आवाज को प्राथमिकता दी। वे ठेठ गंवई, दो-टुकपन और बेतकल्लुफ रचनाकार थे। वे व्यंग के साथ पैने और धारदार आक्रामकता का भी बोध कराते हैं.
       'अदम' की एक और पहचान थी, पहनावे की।  वे कवि सम्मेलनों व् मुशायरों में घुटनों तक मटमैली धोती , सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफेद गमछा डाले जाते थे। एक ठेठ देहाती इन्सान के रूप में वे मंच पर पहुँचते थे। पहली नजर में वे कतई असर नहीं डालते थे,लेकिन जैसे ही माइक सम्भालते, श्रोता गावं के माहौल  में खो जाते थे। निपट गंवई अंदाज में महानगरी चकाचौंध को हैरान कर देनेवाली उनकी अदा सबसे जुदा और अद्भुत थी। व्यवस्था के खिलाफ पीड़ा  और विद्रोह उनकी रचनाओं में बड़ी सहजता से नजर आता था. अगर हम उन्हें अपनी रचनाओं में शोषण के विरुध्द लड़ने वाले एक योध्दा कवि के रूप में याद करे तो यह उनके प्रति सच्चा प्रेम होगा।
        'अदम' गोंडवी उ.प्र. के जिस इलाके से आते थे,वहां की मिटटी और वहां के साधारण लोगों के जीवन की गूंज उनकी रचनाओं में भरपूर थी। वे बेहद साधारण लगने वाली हिंदी-उर्दू की मिली-जुली जुबान में ग़ज़ल लिखा करते थे। अदम के ग़ज़लों के दो संग्रह; 'धरती की सतह पर' और 'समय से मुठभेड़' प्रकाशित हो चुके  हैं। म.प्र. शासन द्वारा आपको सन 1998 में 'दुष्यंत कुमार अवार्ड' से नवाजा गया था।
      इधर, 'अदम' काफी समय से बीमार चल रहे थे।  उन्हें लीवर सम्बन्धी रोग ने जकड़ा था।  और अंतत;  18 दिस 2011 उनकी मृत्यु हो गई। जन-कवि 'अदम' गोंडवी की कुछ गज़ले पेशे-नज़र है-

उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करे 


वेद में जिनका हवाला, हाशिये पर भी नहीं      
वे अभागे आस्‍था विश्‍वास, लेकर क्‍या करें।          

लोकरंजन हो जहां, शंबूक-वध की आड़ में        
उस व्‍यवस्‍था का घृणित, इतिहास लेकर क्‍या करें।

कितना प्रगतिमान रहा, भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें।


बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का, मतलब और है
ठूँठ में भी सेक्‍स का, एहसास लेकर क्‍या करें।

गर्म रोटी की महक, पागल बना देती है मुझे
पारलौकिक प्‍यार का, मधुमास लेकर क्‍या करें। 
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वो जिसके हाथ में छाले हैं, पैरों में बिवाई है 


वो जिसके हाथ में छाले हैं, पैरों में बिवाई है     
उसी के दम से रौनक, आपके बंगले में आई है।
     
इधर एक दिन की आमदनी का, औसत है चवन्‍नी का     
उधर लाखों में गांधी जी के, चेलों की कमाई है।
     
कोई भी सिरफिरा धमका के, जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्‍क इस माने में, बुधुआ की लुगाई है। 

रोटी कितनी महँगी है, ये वो औरत बतलाएगी  
जिसने जिस्म गिरवी रख के, ये क़ीमत चुकाई है।
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 गर गलतियाँ बाबर ने की, जुम्मन का घर फिर क्यों जले ? 

हिन्‍दू या मुस्लिम के, अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए, जज्‍बात को मत छेड़िए।

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए।

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थी, जुम्‍मन का घर फिर क्‍यों जले ?
ऐसे नाज़ुक वक़्त में, हालात को मत छेड़िए। 


हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए।

छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़
दोस्त मेरे मजहबी, नग़मात को मत छेड़िए।
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तारीख बताती है, तुम भी लुटेरे हो

गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
क्या इनसे किसी कौम की, तक़दीर बदल दोगे

जायस से वो हिंदी की दरिया जो बह के आई
मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे ? 


जो अक्स उभरता है रसख़ान की नज्मों में
क्या कृष्ण की वो मोहक, तस्वीर बदल दोगे ?

तारीख़ बताती है तुम भी तो लुटेरे हो
क्या द्रविड़ों से छीनी, जागीर बदल दोगे ?
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गावं तक वो रोशनी , आएगी कितने साल में

जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल में
गाँव तक वो रोशनी, आयेगी कितने साल में। 
   
बूढ़ा बरगद साक्षी है, किस तरह से खो गई    
रमसुधी की झोपड़ी, सरपंच की चौपाल में। 

 हमको पट्टे की सनद, मिलती भी है तो ताल में

जिसकी क़ीमत कुछ न हो, इस भीड़ के माहौल में
ऐसा सिक्का ढालिए मत, जिस्म की टकसाल में। 
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उतरा है रामराज्य,विधायक के निवास में 



काजू  भुने प्लेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज, विधायक निवास में।     

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के, उजले लिबास में। 
                      
आजादी का ये जश्न, मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर, घर की तलाश में। 

पैसे से आप चाहें, तो सरकार गिरा दें  
संसद बदल गयी है, यहाँ की नख़ास में।
  
जनता के पास एक ही, चारा है- बगावत 
यह बात कह रहा हूँ, मैं होशो-हवास में।
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डूबना आसान है , आखों के सागर में ज़नाब  

जुल्फ़ -अंगड़ाई-तबस्सुम, चाँद-आईना -गुलाब 
भुखमरी के मोर्चे पर , ढल गया इनका शबाब। 

पेट के भूगोल में, उलझा हुआ है आदमी 
इस अदद में किसको फुर्सत है , पढ़े दिल की किताब। 

इस सदी की तिश्नगी का , जख्म होठों पर लिए
बेयक़ीनी के सफर में , जिंदगी है इक अज़ाब। 

डाल पर मज़हब की पैहम, खिल रहे दंगों के फूल 
सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनक़ाब। 

चार दिन फुटपाथ के, साये में रह कर देखिए 
डूबना आसान है , आखों के सागर में ज़नाब  

         

Monday, December 19, 2011

जोगेन्द्रनाथ मंडल (Jogendra Nath Mandal)

      कुछ ऐसे महापुरुष होते हैं, जिनके ऋण  से समाज कभी ऊऋण नहीं हो सकता.वे ऐसे कार्य किये होते हैं,  जिससे एक नए समाज की नींव बनती है.एक नया इतिहास रचता है. बंगाल के नमोशुद्रा समाज में पैदा होने वाले जोगेंद्रनाथ मंडल ऐसी ही शख्सियत हैं.सन 1945-46 के आम चुनाव में कांग्रेस ने पक्का बंदोबस्त कर रखा था कि दबी-पिछड़ी जातियों का कोई सदस्य जीत कर संविधान सभा में न पहुँच पाए.जोगेन्द्रनाथ मंडल ने वह  कर दिखाया कि बाबा साहेब न सिर्फ चुनाव जीते वरन संविधान-सभा में पहुँच कर भारतीय संविधान का शिल्पकार बने.
          बंगाल जो अब बांगला देश में है, में 12 सदी के दौरान में नमोशुद्रा समाज सत्ता में था.तब,इस समाज ने बौद्ध धर्म को बड़े पैमाने पर अपनाया था. नमोशुद्रा समाज का मुख्य व्यवसाय कास्तकारी और मछली पालन था.मगर,बाद में यह समाज हिन्दू-घृणा से रसातल में पहुँच गया. उनकी गिनती दलित अस्पृश्य-जातियों में होने लगी.हिन्दुओं के अत्याचारों से तंग आकर 18 वी सदी में इस जमात के काफी लोग इस्लाम और ईसाई धर्म में धर्मान्तरित हुए.भारत-पाकिस्तान बटवारे के समय इस जमात का बड़ा भाग पाकिस्तान में चला गया था.इस दौर में नमोशुद्रा जमात के काफी लोग प.बंगाल और आसाम में शरणार्थी बन कर आये. 
        नमोशुद्रा समाज में बड़े-बड़े समाज-सुधारक हुए. हरिचंद ठाकुर उनमे से एक थे. इनका जन्म सफलीडगा में हुआ था. हरिचंद ठाकुर ने अपने समाज के लोगों को कहा था कि उन्हें मुस्लिम या ईसाई धर्म में जाने की जरुरत नहीं है.उन्हें  ब्राह्मणों के देवालयों में भी जाने की जरुरत नहीं है.वे सामाजिक व्यवहार में सुधार लाकर अपनी स्थिति बेहतर कर सकते हैं.हरिचंद ठाकुर की मृत्यु सन 1879  में हुई थी.हरिचंद ठाकुर के बाद दूसरे नमोशुद्रा समाज में गुरुचंद ठाकुर हुए थे.गुरुचंद ठाकुर ने शिक्षा पर जोर देते हुए अपने समाज के बच्चों के लिए कई पाठ-शालाएं खोली थी.
       नमोशुद्रा समाज में ही जोगेंद्रनाथ मंडल हुए थे.आपका जन्म 29 जन. 1904  को बरीसल जिले के मइसकड़ी में हुआ था.इनकी माता का नाम संध्या और पिताजी का नाम रामदयाल मंडल था.जोगेन्द्रनाथ मंडल 6 भाई-बहन थे जिनमे ये सबसे छोटे थे. बालक जोगेंद्र ने सन 1924 में इंटर और सन 1929 में बी. ए. पास किया था.उन्होंने अपने पोस्ट-ग्रेजुएशन की पढ़ाई पहले ढाका में और बाद में कलकत्ता विश्व-विद्यालय से पूरी की थी.पढ़ाई के दौरान जोगेंद्रनाथ को भारी आर्थिक तंगी और मुसीबतों का सामना करना पड़ा.
      दलित समाज में पैदा होने के कारण जोगेन्द्रनाथजी को अपने समाज की चिंता खाए जा रही थी. उन्होंने सोचा कि सरकारी नौकरी कर वे अपने समाज का अधिक भला नहीं कर पाएंगे. यही सोच कर उन्होंने सन 1935 में कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत करना शुरू किया.यहाँ पर उन्हें लगा कि वे अपने समाज से दूर है. अत: शीघ्र ही वे अपने निवास बरीसल के जिला कोर्ट  में जाकर प्रेक्टिश करने लगे.बरीसल में वकालत करते उन्हें अहसास हुआ कि अपने समाज के लिए वे बिना सत्ता के ज्यादा कुछ नहीं कर सकते. ये सोचकर वे राजनीति में कूद पड़े. वे कांग्रेस में शामिल हो गए.
        सन 1937 में उन्हें जिला काउन्सिल के लिए मनोनीत किया गया. इसी वर्ष उन्हें बंगाल लेजिस्लेटिव काउन्सिल का सदस्य चुना गया.सन 1939-40 तक वे कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के करीब आये मगर, जल्दी ही उन्हें एहसास हो गया कि कांग्रेस के एजेंडे में उसके अपने समाज के लिए ज्यादा कुछ  करने की इच्छा नहीं  है.
      इस बीच वे डा.आंबेडकर के सम्पर्क में आये. वे 19 जुला. 1942 को डा.आंबेडकर के 'अखिल भारतीय शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन' में अपने साथियों के साथ शामिल हो गए. बाद में उन्होंने बंगाल में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना कर डा. आंबेडकर के कार्य को वहां अपने हाथ में लिया.आजाद भारत में कानून मंत्री बनने के बाद डा. आंबेडकर शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के लिए समय नहीं निकल पा रहे थे. तब भी जोगेन्द्रनाथ मंडल ने इसका नेतृत्व सम्भाला था.
       कांग्रेस से निराश होकर जोगेन्द्रनाथ मंडल ने मुस्लिम लीग का साथ पकड़ा था.वे फर. 1943  में ख्वाजा नजीमुद्दीन-मंत्रिमंडल में इस शर्त के साथ सम्मिलित हुए कि सरकार शेड्यूल्ड कास्ट के कल्याण के लिए कुछ करेगी, अपने 21 एम्.ए ले. के साथ सम्मिलित हो गए.वे प्रथम कानून एवं श्रम मंत्री बने. शासन में रहते हुए जोगेन्द्रनाथ मंडल ने अस्पृश्य समाज के लोगों को शासकीय नौकरी में लाने के लिए भरपूर प्रयास किया. शिक्षा पर जोर देते हुए उन्होंने 'बैगई हालदार पब्लिक एकेडमी' की स्थापना कर नमोशुद्रों के लिए  शिक्षण-संस्थाएं खोली.समाज के जागृति के लिए प्रचार-माध्यमों की महत्ती भूमिका होती है, इस सोच के साथ  जोगेन्द्रनाथ मंडल ने 'जागरण' का साप्ताहिक प्रकाशन शुरू किया. इसी कार्यालय से उन्होंने शेडूल कास्ट फेडरेशन की बुलेटिन का भी प्रकाशन किया था.
जोगेन्द्रनाथ मंडल विभाजन के बाद पुन: बंगाल से चुने जा कर अप्रैल 1946 में उन्हें सुहरावर्दी मंत्रि-मंडल में शामिल होने का मौका मिला था।बंगाल की राजसत्ता के दौरान जोगेन्द्रनाथ मंडल कई महत्वपूर्ण पद सम्भाले थे. उन्होंने वहां की दलित-शोषित जातियों के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किये.भारत-पाकिस्तान बंटवारे के दौरान दबी-पिछड़ी जातियों का जो कत्लेआम हुआ, जोगेन्द्रनाथ मंडल उससे बेहद आह़त हुए थे.उन्होंने सोचा था कि पाकिस्तान सरकार इन जातियों के साथ अन्याय नहीं करेगी. किन्तु ,पाकिस्तान सरकार ने विभाजन के दौरान इनकी कोई चिंता नहीं की. हताश होकर जोगेन्द्रनाथ मंडल 8 अक्टू. सन 1950 को लियाक़त अलीखां के मंत्री-मंडल से त्याग-पत्र दे कर भारत आ गए थे.
        इसी दौरान भारत के अन्तरीम सरकार में शामिल होने के लिए उन्हें आमंत्रण मिला.जोगेन्द्रनाथ मंडल इस शर्त पर राजी हुए थे कि अगर उनके नेता बाबा साहेब डा. आंबेडकर को पसंद नहीं आया तो उन्हें तुरंत त्याग-पत्र देने की अनुमति होगी.डा. आम्बेडकर तब गोल-मेज सम्मेलन में थे. जोगेन्द्रनाथ मंडल के टेलीग्राम पर डा. आम्बेडकर ने तत्काल आपत्ति नहीं ली थी.वे भारत सरकार के अंतरिम मंत्रिमंडल में शामिल हो गए थे.
        सन 1945-46 में आम चुनाव हुए थे. इस चुनाव के द्वारा विभिन्न राज्यों से  1585 लेजिस्लेटिव काउन्सिल के सदस्य चुने जाने थे. इन्हीं में से कुछ को 'संविधान-निर्माण समिति' के लिए चुना जाना था.अनु. जातियों के लिए देश भर में कुल 151 स्थान आरक्षित थे.बंगाल की 30 सीटें थी जिसमें से 3 सीटें संविधान-निर्माण समिति के लिए थी. शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने देश भर में अपने उम्मीदवार खड़े किये थे जिसमे से 5 उम्मीदवार बंगाल से थे.जोगेन्द्रनाथ मंडल ने दो स्थानों से पर्चे भरे थे. शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के पास साधनों का भारी अभाव था जबकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के पास प्रचुर संसाधन थे.जब चुनाव के नतीजे आये तो शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन को सिर्फ एक सीट हासिल हुई थी जहाँ से जोगेन्द्रनाथ मंडल चुन कर आये थे.
       देश के संविधान-निर्माण में दलितों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए, यह बात डा. बाबासाहेब आंबेडकर को परेशान किये जा रही थी.उधर,दलित समाज का कोई सदस्य चुनाव जीत न पाए, इसका कांग्रेस कमेटी ने पक्का बंदोबस्त कर रखा था.डा. आंबेडकर के कहीं से भी चुन कर आने की सम्भावना नहीं थी. स्थिति को भांप कर जोगेन्द्रनाथ मंडल ने उन्हें बंगाल से नामांकन-पत्र भरने का न्यौता दिया. डा.आंबेडकर को जिताने की जिम्मेदारी जोगेन्द्रनाथ मंडल पर थी. उन्होंने बंगाल के सभी अनु. जातियों के विधायकों की बैठक बुलाई और उन्हें समझाया कि डा.आंबेडकर का जीतना क्यों जरुरी है ? जोगेन्द्रनाथ मंडल ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी और उनके अथक प्रयास से अंतत: डा. आंबेडकर चुनाव जीत गए. स्मरण रहे, इस चुनाव में बंगाल के कांग्रेसी सदस्यों ने भी डा. आंबेडकर की मदद की थी.जोगेन्द्रनाथ मंडल के इस योगदान का दलित समाज सदैव कृतघ्न रहेगा.5 अक्टु.1968 को उनका देहांत हुआ.

पत्थर की पूजा

 पत्थर की पूजा

राह चलते गुरु गोविन्दशिंह दो शिष्यों को समझा रहे थे- 'पत्थर की पूजा मत करना।  मूर्ति के आगे सर नहीं झुकाना।  क्योंकि , यह इन्सान की सबसे बड़ी तौहीन है। इसी बीच एक बड़े पत्थर के पास गुरूजी रुक गए। उन्होंने हाथ जोड़ा और उस पत्थर के सामने झुक गए.       

शिष्य परेशान।  वे सोचने लगे कि अभी-अभी गुरूजी समझा रहे थे कि पत्थर के आगे सर नहीं झुकाना और खुद झुक रहे हैं ! शिष्य पीछे  मुड़कर जाने लगे।

गुरूजी ने पलट कर देखा और  आवाज दी- तुम कहाँ जा रहे हो ?
"आप ही कह रहे थे, पत्थर की पूजा मत करना. पत्थर की मूर्ति के आगे सर नहीं झुकाना और आप ही उस पत्थर के आगे सिर झुका रहे थे। "
 गुरूजी ने कहा- बादशाहों, मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था.

धर्म की आवश्यकता

        डा. आंबेडकर धर्म को जरुरी मानते हैं. वे उसे आम लोगों के जीवन का हिस्सा मानते हैं.वे प्रश्न करते हैं कि  क्यों यहाँ के लोग साधू- फकीरों पर श्रध्दा रखते हैं ? कि क्यों वर्षों से जोड़ी अपनी सम्पति बेच कर हजारों लोग काशी-बनारस और मक्का-मदीना जाते हैं ?
       डा. आंबेडकर कहते हैं कि धर्म में लाख बुराई हो, मगर, लोग नैतिकता का पाठ धर्म से ही ग्रहण करते हैं.किसी भी देश का शासन कानून के डंडे से समाज को नैतिकता नहीं सिखा सकता.लोग कानून को अपने ऊपर लादी गई शर्त मानते हैं.वे उसे दिल की गहराइयों से नहीं चाहते.मगर, धर्म के साथ ऐसा नहीं है. धर्म की बातों को लोग दिल से मानते हैं.वे उसे अपनी श्रध्दा का विषय मानते हैं.यहाँ तक की धर्म-दर्शन को बुध्दि से परे मानते हैं.
      इतिहास गवाह है कि धर्म, सत्ता पर पहुँचने का जरिया भी है.क्योकि, धर्म लोगों को जोड़ कर रखता है.वह लोगों को एक सांस्कृतिक-सूत्र में पिरो कर रखता है.
     कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि क्या धर्म के बिना जीवित रहना सम्भव नहीं है ? डा. आंबेडकर कहते हैं कि जीवित रह पाने के अपने-अपने ढंग है.ऐसे कई लोग हैं जो कहते है कि वे किसी धर्म का पालन नहीं करते.सवाल है कि ऐसे लोगों की संख्या कितनी है ? अगर आप सम्पन्न है तो माना भी जा सकता है कि आपको किसी धर्म की दरकार नहीं है. मगर, दबी-पिछड़ी जातियों के लोग सम्पन्न नहीं हैं.
       सवाल ये है, दलित-पिछड़ी जातियां किस स्तर पर जीवित रहना चाहती है ? इतिहास गवाह है कि वही मानव समुदाय जीवित रहा है, जिसने किसी सामाजिक-इकाई के रूप में अपने को रूपांतरित किया है.सामाजिक इकाई के रूप में आपके पास संघर्ष की क्षमता होती है.और वह, धर्म ही है जो आपको सामाजिक-इकाई के रूप में बांध कर रख सकता है.
       इसलिए, दलित जातियों को जीवित रहना है तो धर्म का छत्र आवश्यक है.सवाल ये है कि दबी-पिछड़ी जातियां क्या उसी धर्म को अपना धर्म मानती रहे जो उनके दबे-पिछड़े होने का कारण है ? क्या वे उसी को अपना धर्म कहती रहे, जो उन्हें पशुओं के तुल्य मानता हो ? जो उन्हें आगे बढ़ने से रोकता हो ?

मरे जानवर का मांस खाने से बेहतर मर जाना है

        बात उस समय की है जब मरे हुए जानवरों का मांस न खाने के लिए डा. आंबेडकर दलित जातियों को समझा रहे थे. कुछ  अस्पृश्य जातियों का काम हिन्दुओं के घरों से मरे जानवरों को उठाना था. वे उसे कन्धों पर लादे गावं के बाहर 'ढोरफोड़ी' ( मरे जानवरों को ठिकाने लगाने की  निर्धारित जगह) में ले जाते और उसका चमडा निकाल कर मांस खाने के लिए घर ले आते थे.हिन्दुओं ने इन्हें दूसरे काम करने को मना कर रखा था.रोजी-रोटी के अन्य विकल्प के अभाव तब ये लोग मरे जानवरों के मांस को न सिर्फ खाने को बाध्य थे वरन इस मांस को धुप में सुखाया जाता था  ताकि उसे बाद में खाया जा सके.
    मरे जानवरों का मांस खाने और उसे घर के बाहर सुखाने से इनके घरों में भारी गन्दगी रहती थी.लोग इसके घरों के बाहर से गुजरने में झिझकते थे.यहाँ तक की इनके मोहल्लों में आने से कतराते थे.जबकि इसके लिए वे कतई जिम्मेदार नहीं थे. बल्कि, ये कहना ज्यादा सही होगा की इस तरह जीने के लिए वे मजबूर किये गए थे.
         बाबासाहब  भाषण कर रहे थे तभी किसी ने  भरी सभा में से पूछा- "साहब,फिर, हम क्या खाय ?" तब, डा. आंबेडकर ने उस व्यक्ति की ओर देखते हुए कहा- "मरे जानवर का मांस खाने से बेहतर मर जाना है.आत्म-सम्मान की जिंदगी जीने के लिए यदि भूखे भी मरना पड़े तो उसे हमें बर्दास्त करना चाहिए." -लोगों ने तालियों की गडगडाहट से डा. आंबेडकर की बात का समर्थन किया.

Sunday, December 18, 2011

गीता पर प्रतिबन्ध का मामला


         प्राप्त समाचारों के अनुसार,रूस की एक अदालत में हिन्दुओं के धार्मिक पवित्र-ग्रन्थ गीता पर प्रतिबन्ध लगाने की किसी ने याचिका दायर की है.विदित हो की गीता पर समय-समय में कई देश-विदेश के विद्वानों ने अपने-अपने तरीके से टीका करी है.रूस में भी किसी ने गीता की टीका लिखी है जिस पर यह बवाल मचा है.
         गीता इस देश के बहुसंख्यक हिन्दू  पढ़ते हैं.स्मरण रहे, गीता में चातुर्य-वर्ण की वकालत की गई है.उच्च जाति के हिन्दू बुध्दिजीवी इस चातुर्य-वर्ण की प्रसंशा करते हैं.वे प्रसंशा इसलिए करते हैं कि वह उनके वर्ण और जातीय हितों का संरक्षण करता है.दूसरी ओर, दबी-पिछड़ी जातियां इसका विरोध करती है. विरोध इसलिए करती है कि यह उन्हें वर्ण और जाति के परे कार्यों को करने से रोकता है.यह उन्हें ऊपर उठने के अवसर प्रदान नहीं करता.उच्च वर्ण और जाति के व्यवसाय को करने अधर्म बतलाता है.आइये देखे कि गीता में इस चातुर्य वर्ण-व्यवस्था के बारे में क्या कहा गया है-

चातुर्वर्णय  मया  सृष्टं   गुणकर्मविभागश:
तस्य कर्तारमपि मां विध्दसकर्तारमव्ययम.
श्रेया: स्वधर्मो विगुण परधर्मत्स्वनुष्ठितात
स्वधर्मे   निधनं  श्रेय:   परधर्मो भयावह: .
       मुझे एक प्रसंग स्मरण हो आता है - एक बार गांधीजी को एक शिक्षित भंगी का लड़का अनुरोध करता है कि वह अच्छी नौकरी करना चाहता है. इस पर गांधीजी उसे मना कर देते हैं और सलाह देते हैं कि वह अपनी बुध्दि और कौशल का इस्तेमाल अपने जाति-पेशे में ही बेहतर तरीके से करे.यह समाज के लिए ज्यादा अच्छा होगा.
       यह उदाहरण गीता के उक्त चातुर्य वर्ण-व्यवस्था को ठीक-ठीक समझाता है.डा. आंबेडकर ने गीता की खुले शब्दों में भर्त्सना की थी.उनका कहना था कि हिन्दुओं के उंच-नीच की जाति-पांति के पीछे उनके यही धार्मिक ग्रन्थ हैं.ये धार्मिक ग्रन्थ उन्हें उंच-नीच की जाति-पांति मानने के लिए निरंतर उपदेश देते रहते हैं.
      खैर, मामला अदालत में है. देखे,अदालत क्या फैसला देती है. वैसे, यहाँ की हिन्दू  धार्मिक-सस्थाएं भारत सरकार पर दबाव बनाये हुए हैं कि वह इस मामले में अपनी कूटनीति का इस्तेमाल रूस की सरकार पर करे.जो भी हो, इस देश का  दलित समाज किसी पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने के खिलाफ है.यह लोगों के विचारों के प्रगटीकरण पर प्रतिबन्ध है.
        मगर, तब भी यह प्रश्न अनुत्तरित रहेगा कि विश्व की सबसे ऊँची बुद्ध की मूर्ति को जब तालिबानियों ने बम्ब-ब्लास्ट से उड़ा दिया था तब, भारत सरकार द्वारा क्या कार्रवाई की गई थी ? अन्तराष्ट्रीय जगत में भारत को बुध्द  की जन्म-भूमि के तौर पर नत-मस्तक किया जाता है. भारत को विश्व के दूसरे देशों को अगर कुछ दिखाना होता है तब वह बुध्द को सामने करती है.

Saturday, December 17, 2011

Powering of village-Panchayats

Anna Hazare is talking about more powering of village-panchayats.Be aware of this Anna and his team.
Dr. Ambedkar had strongly opposed this Gandhian theory.Even today,you can't faith on Indian village people as dominant Hindu caste easily passes their agenda taking the support of upper caste against poor dalits .What is going on in Khap panchayat is knwon to everybody.It is the time to act properly on this Gandhiyan trick.

क्रांतिज्योत सावित्रीबाई फुले

क्रांतिज्योत सावित्रीबाई फुले-

समाज में ऐसी महिलाएं कम ही होती है जो अपने पति के सामाजिक कार्यों में कंधे से कन्धा मिला कर साथ चलती है.इतिहास के विद्यार्थी जब ऐसी महिलाओं पर रिसर्च करेंगे तो क्रांतिज्योत सावित्रीबाई फुले को वे अपनी तमाम जातीय-हितों के पूर्वाग्रहों  के बावजूद नजरअंदाज नहीं कर पाएंगे.सावित्रीबाई फुले एक ऐसा नाम है कि वह उनके दिल-दिमाग में अवश्य क्रांतिज्योत जगायेगा. 
           सामाजिक आंदोलनों के इतिहास में सावित्रीबाई तब फलक पर आती है, जब ब्रिटिश भारत में समाज के निचले तबके के साथ हिन्दुओं के अत्याचार बदस्तूर जारी हैं. अंग्रेजों से अपेक्षा थी की वे हिन्दुओं के अत्याचारों पर ब्रेक लगाते. मगर, अंग्रेजों ने इस पचड़े में पड़ना ठीक नहीं समझा था. ब्रिटिश-शासन, हिन्दू उच्च जातियों के दबदबे के कारण ज्यादा कुछ करने के भी हक़ में नहीं था.आखिर, अंग्रेज यहाँ समाज-सुधार करने तो आये नहीं थे ?  फिर भी, देश की दबी-पिछड़ी जातियां अपने अधिकारों की आवाज उठा रही थी.

       पूना शहर उस समय सनातनी हिन्दुओं का गढ़ माना जाता था. यह वही हिन्दुओं की संस्कारधानी है, जहाँ पेशवाओं के शासन-काल में अस्पृश्यों को सडकों पर चलते समय मुंह के सामने मिटटी का मटका और कमर में झाड़ू लटकाना पड़ता था कि वह थूके तो जमीन पर न गिरे और जिस पर अनजाने में किसी सवर्ण हिन्दू का पैर पड़ने पर वह अपवित्र न हो जाये.
        सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जन. 1831 को महाराष्ट्र में सतारा जिले के नायगावं में माली समाज के परिवार में हुआ था.इनके पिता का नाम खंडोजी नेवसे पाटिल और माँ का नाम लक्ष्मी था. 9 वर्ष की उम्र में सावित्री का विवाह सन 1840 में पूना के ज्योतिबा फुले के साथ हुआ.सावित्री बाई की स्कूली-शिक्षा नहीं हुई थी क्योंकि उस समय, खास कर दबी-पिछड़ी जातियों में, लडकियों को स्कूल भेजने का रिवाज नहीं था. ज्योतिबा विवाह के समय  3 री कक्षा तक पढ़े थे.
        ज्योतिबा ने शादी के बाद भी पढाई जारी रखी. वे चाहते थे कि सावित्री भी पढ़ना-लिखना सीख जाये और इसके लिए वे अपनी छुट्टियों के दिनों में सावित्री को पढ़ाने बैठ जाते थे.सावित्री के साथ ज्योतिबा की मौसेरी बहन सगुणा भी पढ़ रही थी. कुछ समय के बाद ज्योतिबा ने इन दोनों को एक अंग्रेजी मिशनरी स्कूल में प्रवेश दिला दिया. सावित्री और सगुणा ने सन  1946-47 में  इस स्कूल से कक्षा 3 री और 4 थी पास किया.इस स्कूल से निकलने के बाद ज्योतिबा ने सोचा कि अब सावित्री को अध्यापन का प्रशिक्षण करा दिया जाय.इसके लिए उन्होंने सावित्री और सगुणा को एक अंग्रेजी नार्मन स्कूल में प्रवेश करा दिया. नार्मन स्कूल से इन दोनों ने  बाकायदा अध्यापन का प्रशिक्षण प्राप्त किया था. 
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       सावित्री, आम लडकियों से हट कर थी.एक गृहिणी के कर्तव्य के आलावा और कुछ करने के वे तमाम गुण उस में मौजूद थे.यह अच्छा ही था कि ज्योतिबा को अर्ध्दान्गनी के रूप में सावित्री मिली थी. ज्योतिबा दम्पति ने अब अपने कदम सामाजिक-सुधार के क्षेत्र में रखे. उनका ध्यान दबी-पिछड़ी जातियों की लड़कियों के अशिक्षा पर गया. सबसे पहले उन्होंने इसी दिशा में कार्य करने का फैसला लिया. फुले दम्पति ने जन.1, सन 1848  को   पूना के बुधवारा पेठ में लड़कियों का पहला स्कूल खोला. यह स्कूल एक मराठी सज्जन भिंडे साहेब के हवेली में खोला गया था.इस स्कूल की प्रधान अध्यापिका सावित्रीबाई फुले थी.
        यह इतिहास का एक नया अध्याय था. इससे पूर्व, प्रथम तो दबी-पिछड़ी जाति की बच्चियों को स्कूल में भेजने का ही रिवाज नहीं था.माली समाज के इस लड़की ने शादी के बाद पति के सहयोग से न सिर्फ पढाई की वरन, अध्यापन की ट्रेनिंग लेकर और स्वत: का स्कूल खोल  प्रधान अध्यापिका बनने का गौरव हासिल किया.फुले दम्पति ने इसी वर्ष सन 1848 में पूना के ही उस्मान शेख के बाड़े में  प्रोढ़-शिक्षा के लिए एक दूसरा स्कूल खोला. दोनों स्कूलों का सञ्चालन ठीक ढंग से होने लगा.दबी-पिछड़ी जातियों के बच्चे, खासकर लड़किया बड़ी संख्या में इन स्कूलों में आने लगी. अपनी पहली मेहनत को फलीभूत देख ज्योतिबा दम्पति ने अगले 4 वर्षों में ऐसे ही और 18  स्कूल विभिन्न स्थानों में खोले. 
       मगर, फुले दम्पति के दबी-पिछड़ी जातियों के लिए पाठ-शालाएं खोलना सरल नहीं था. इसके लिए सावित्रीबाई और ज्योतिबा को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ा. पैसे की तंगी के साथ-साथ सामाजिक-विरोध का जम कर सामना करना पड़ा.हिन्दू उच्च जातियों का भारी दबाव उन्हें कदम-कदम पर झेलना पड़ा.मगर, फुले-दम्पति भी हिम्मत के कच्चे नहीं थे. सावित्रीबाई और ज्योतिबा पर सनातनी हिन्दुओं का जब दबाव काम नहीं आया तो उन्होंने ज्योतिबा के पिता गोविन्दराव को अपने घेरे में लिया.हिन्दू ,धर्म-ग्रन्थों का हवाला दे कर गोविन्दराव को समझा रहे थे कि उसके बहु-बेटे जो कुछ कर रहे हैं, वह धर्म विरुध्द है. गोविन्द राव ने बेटे-बहू को समझाया मगर, वे अपने पवित्र कार्य से टस से मस नहीं हुए. सनातन हिन्दुओं के दबाव में आकर अंतत: गोविनराव ने बेटे-बहू को घर से निकाल दिया.
        घर से निकाले जाने के बावजूद सावित्रीबाई अपने काम में जुटी रही. यह सन 1849 के आस-पास की घटना थी .हिन्दुओं ने जब देखा कि घर से निकाल दिए जाने के बाद भी सावित्रीबाई का कार्य बदस्तूर जारी है तब, रास्ते में जाते हुए सावित्रीबाई के शरीर पर कीचड़ और कचरा फेकना शुरू किया. सावित्रीबाई इससे भी हताश नहीं हुई. अब वह  3-4 साड़ियाँ साथ में ले जाने लगी. सावित्रीबाई के ऊपर कचरा फेकने में सनातनी हिन्दू स्त्रियाँ भी पीछे नहीं थी. वे नए-नए तरीके से सावित्री बाई को हतोत्साहित करती थी. मगर, सावित्रीबाई थी कि उतने ही हिम्मत से अपना कार्य और अच्छे तरीके से करने लग जाती थी.

           दबी-पिछड़ी जातियों में शिक्षा के कार्य ने तत्कालीन ब्रिटिश-हुकूमत का ध्यान आकर्षित किया.शासन ने इस दम्पति को शिक्षा से सम्बन्धित सेवाओं के लिए सन 1852 में सार्वजानिक रूप से उन्हें शाल पहना कर उनके कार्यों का अभिनन्दन किया. इसी वर्ष महिलाओं में चेतना जागृत करने और उनके धार्मिक-अन्धविश्वास और जड़ता को ख़त्म करने के उद्देश्य से सावित्रीबाई फुले ने 'महिला सेवा मंडल' की सथापना की.
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         सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने अब अपना ध्यान बाल-विधवा और बाल-हत्या पर केन्द्रित किया. 29 जून 1853 में इस दम्पति ने बाल-हत्या प्रतिबंधक-गृह की स्थापना की. इस अनाथालय की सम्पूर्ण व्यवस्था सावित्रीबाई फुले सम्भालती थी.अनाथालय के प्रवेश-द्वार पर सावित्रीबाई ने एक बोर्ड टंगवा दिया. जिस पर लिखा था,  'विधवा बहने, यहाँ आ कर गुप्त रीती से और सुरक्षित तरीके से अपने बालक को जन्म दे सकती है. आप चाहे तो अपने बालक को ले जा सकती है या यहाँ रख सकती है.आपके बालक को यह अनाथाश्रम एक माँ की तरह रखेगा और उसकी रक्षा करेगा. एक-दो वर्षों में ही इस आश्रम में सौ से ज्यादा विधवाओं ने अपने नाजायज बच्चों को जन्म दिया. सावित्रीबाई, इन बच्चों का पालन-पोषण उनकी माँ की तरह कर रही थी.
       इसी प्रकार, गावं के खेत-खलिहानों में जो मजदूर काम करते थे, उन्हें पढ़ने-लिखने की सुविधा नहीं थी.  फुले दम्पति ने सन 1855 में ऐसे मजदूरों के लिए रात्रि-पाठशाला खोली. ज्योतिबा फुले समय-समय पर शिक्षा और सामाजिक-चेतना के सन्दर्भ में जगह-जगह भाषण देते थे. ज्योतिबा के इन भाषणों का संग्रह 25 दिस.1856 को प्रकाशित हुआ,जिसका सम्पादन  सावित्रीबाई फुले ने किया था.
          सावित्री बाई स्वत: भी एक अच्छी लेखक और कवियत्री थी. सामाजिक-आंदोलनों के अनुभवों को उसे जब भी समय मिलता, कविता के रूप में लिपिबध्द करती थी. उनके कविताओं का एक संग्रह 'काव्य-फुले'  सन 1954 में पूना के शिला प्रेस से प्रकाशित हुआ था. इस काव्य-संग्रह के प्रकाशन से उस ज़माने में ज्योतिबा के, पत्नी के व्यक्तित्व को एक नया आयाम देने की ललक और तडप को भी, समझा जा सकता है.
        सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने सन 1863 में अनाथ बच्चों के लिए एक अनाथालय खोला. इसी प्रकार तब, अस्पृश्य जातियों को सार्वजानिक कुए से पानी खींचने का अधिकार नहीं था. सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने सन 1868  में अपने घर का कुआ अस्पृश्यों के लिए खोल दिया.इसी वर्ष ज्योतिबा के पिता गोविन्द राव की मृत्यु हो गई.
       ज्योतिबा-दम्पति को कोई संतान नहीं थी. उन्होंने काशीबाई नाम की एक ब्राहमण विधवा स्त्री के नाजायज बच्चे को सन 1874 में गोद लिया.विदित हो, यह वही काशीबाई है जो नाजायज बच्चे को पैदा किये जाने के अभिशाप में आत्म-हत्या कर रही थी और जिसे महात्मा ज्योतिबा फुले ने बचाया था. यह बच्चा पढ़-लिख कर आगे चलकर एक बड़ा डाक्टर बना. बालक का नाम यशवंतराव था. यही बालक ज्योतिबा-दम्पति का वारिस हुआ. यशवंतराव का अंतर्जातीय-विवाह हुआ था. माली और दीगर समाज ने इस पर भारी हो-हल्ला मचाया था. मगर, ज्योतिबा दम्पति ने किसी की एक न सुनी. वे परम्परा से चले आ रहे जातीय-बंधनों को तोडना चाहते थे.
       सन 1876-77  के दौरान पूना शहर में भारी अकाल पड़ा.लोग अन्न के लिए त्राहि-त्राहि कर रहे थे. उस दौर में सावित्री बाई और ज्योतिबा दम्पति ने  52 विभिन्न स्थानों पर अन्न-छात्रावास खोले और भूखे-कंगाल लोगों को मुप्त में खाना खिलाया.
       एक और क्रन्तिकारी कदम इस दम्पति ने अपने हाथ में लिया. पति के मृत्यु के बाद पत्नी के बाल कटवा दिए जाते थे. उसे सफेद वस्त्र पहनने को बाध्य किया जाता था.बिना जेवर पहिने उसे कहा जाता था कि वह जोगिन की तरह एकांतवास में रहे.उसे किसी से मिलने-जुलने की मनाही थी. विधवा के बाल मुन्डाने की इस प्रथा को केशवपन कहा जाता था. यह प्रथा हिन्दुओं में सदियों से चली आ रही थी. सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने इसके विरुध्द आवाज उठाई. पहले तो इस कुप्रथा के विरुध्द लोगों को समझाया परन्तु जब इससे बात नहीं बनी  तब, इस दम्पति ने गावं-देहातों से भारी मात्र में नाइयों को बुलाकर पेशवाओं की नगरी पूना में एक आमसभा की. सभा में नाइयों ने न सिर्फ इस कार्य में मदद की वरन आइन्दा विधवाओं के बाल न काटने का वचन भी दिया. इतिहास में पहली बार नाइयों ने परम्परा से चली आ रही इस कु-प्रथा से अपने हाथ झटक लिए.
      बहुजन समाज के मानवीय अधिकारों की प्राप्ति हेतु सामाजिक आन्दोलन चलाने के लिए सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने  23 सित. 1873 को 'सत्य-शोधक समाज' की स्थापना की.इस मंच के द्वारा सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने अपने सामाजिक आन्दोलन को गावं और शहर के लोगों को जोड़ने का वृहत पैमाने पर कार्य किया. 4  फर. 1889 को डा. यशवंतराव का विवाह ससाने की पुत्री के साथ संपन्न हुआ.

  
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    सामाजिक आन्दोलन के इस संघर्ष में महात्मा ज्योतिबा फुले 28 नव. सन 1890 में सावित्रीबाई का साथ छोड़ गए. ज्योतिबा के गुजर जाने के बाद सावित्रीबाई ने बड़ी मजबूती के साथ इस आन्दोलन की जिम्मेदारी सम्भाली.इसी वर्ष महाराष्ट्र के सासवड में सम्पन्न  सत्य-शोधक समाज के अधिवेशन में सावित्रीबाई फुले ने जो गर्जना की उसने दबी-पिछड़ी जातियों के लोगों में आत्म-सम्मान की हुँकार भर दी.सावित्रीबाई का दिया गया यह भाषण उनके प्रखर क्रन्तिकारी और विचार-प्रवर्तक होने का परिचय देता है.
       जैसे की हम पूर्व में बतला चुके हैं, सावित्रीबाई प्रतिभाशाली कवियित्री थी.इनके कविताओं में सामाजिक जन-चेतना की आवाज पुरजोर शब्दों में मिलाती है.उनकी कविताओं में शब्दों का चयन और रख-रखाव, विषय पर उनकी प्रतिभा और पकड़ को दर्शाता है. पति ज्योतिबा के देहांत के बाद सावित्रीबाई फुले का दूसरा काव्य-संग्रह  'बावनकशी सुबोध रत्नाकर'  सन 1882 में प्रकाशित हुआ था. इस काव्य-संग्रह में सावित्रीबाई फुले ने सामाजिक आन्दोलन के इतिहास के साथ उनके पति ने किस तरह इस आन्दोलन को आगे बढाया, इस पर कलम चलाया है.
       सचमुच सावित्रीबाई फुले प्रतिभाशाली कवियित्री आदर्श अध्यापिका,निस्वार्थ समाजसेविका और सत्य-शोधक समाज की कुशल नेतृत्व करने वाली महान नेता थी.सन 1897 में पूना में प्लेग फैला.प्लेग की इस महामारी में सावित्रीबाई और उनका पुत्र यशवंत दोनों माँ-बेटे लोगों की सेवा में जुट गए. वे कन्धों पर उठा-उठा कर लोगों को अस्पताल पहुँचाने का काम करते थे.सावित्रीबाई की उम्र यद्यपि 66  वर्ष की हो गई थी फिर भी वह तन-मन से लोगों की सेवा में लगी रही. इसी बीच उन्हें भी प्लेग ने धर दबोचा और 10 मार्च  1897 को वह  क्रांतिज्योत हमेशा हमेशा के लिए हम से जुदा हो गई.

Friday, December 16, 2011

आईसाहेब रमाताई आम्बेडकर

त्याग की प्रतिमूर्ति रमा ताई अम्बेडकर
 प्रत्येक महापुरुष के पीछे उसकी जीवन-संगिनी का बड़ा हाथ होता है। जीवन-संगिनी का त्याग और सहयोग अगर न हो तो शायद, वह व्यक्ति, महापुरुष ही न बने। आईसाहेब रमाताई आंबेडकर इसी तरह के त्याग और समर्पण की प्रतिमूर्ति थी। अक्सर महापुरुष की दमक के  सामने उसका घर-परिवार और जीवन-संगिनी पीछे छूट जाते हैं. क्योंकि, इतिहास लिखने वालों की नजर महापुरुष पर केन्द्रित होती है.रमाताई के बारे में भी ज्यादा कुछ नहीं लिखा गया है.

 रमाबाई का जन्म महाराष्ट्र के दापोली के निकट  वणन्द गावं में सन 1899  में हुआ था. इनके पिता का नाम भीकू धुत्रे और माँ का नाम रुक्मणी था। महाराष्ट्र में कहीं-कही गावं का नाम भी जोड़ने का रिवाज है।  इस रिवाज के अनुसार उन्हें भीकू वणनंदकर के नाम से भी पुकारा जाता था। भीकू वणनंदकर परिवार का पालन-पोषण बड़ी मुश्किल से कर पाते थे। वे कुलीगिरी का काम करते थे।
 
रमाबाई के बचपन का नाम रामी था।   रामी की दो बहने और एक भाई था।  बड़ी बहन गौरा और छोटी का नाम मीरा था। चारों भाई-बहनों में शंकर सबसे छोटा था। गौरा का ब्याह हो चुका था। बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उसके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ मुंबई में आ कर रहने लगे थे। ये लोग भायखला की चाल में रहते थे।
   
रामी का विवाह 9 वर्ष की उम्र में सुभेदार रामजी सकपाल के सुपुत्र भीमराव आंबेडकर से सन 1906 में  हुआ था। भीमराव की उम्र उस समय 14 वर्ष थी।  तब, वह 10 वी कक्षा में पढ़ रहे थे। शादी के बाद रामी का नाम रमा हो गया था. शादी के पहले रमा बिलकुल अनपढ़ थी. किन्तु ,शादी के बाद भीमराव आंबेडकर ने उसे साधारण लिखना-पढ़ना सिखा दिया था. वह अपने हस्ताक्षर कर लेती थी। डा. आम्बेडकर रमा को 'रामू ' कह कर पुकारा करते थे जबकि रमा ताई बाबा साहब को 'साहब ' कहती थी।

   
रामजी सकपाल के परिवार में भीमराव के दो बड़े भाई आनंद राव, बलराम तथा  तुलसा और मंजुला दो बहने थी. बालाराम की पत्नी का नाम लक्षी था। मुकुंदराव, बालाराम का पुत्र था। रमा की बड़ी बहन गौरा, छोटा भाई शंकर, विधवा जेठानी लक्ष्मी और उसका पुत्र मुकुंदरॉव साथ में ही रहते थे। शंकर कपड़ा  मिल में मजदूरी करता था।
     
भीमराव रामजी आम्बेडकर की सन 1924 तक पांच संताने हुई थी। बड़ा पुत्र यशवंत था।  यशवंतराव का जन्म सन 1912  में हुआ था। गंगाधर नाम का पुत्र ढाई साल की अल्पायु में ही चल बसा था। इसके बाद रमेश नाम का पुत्र भी चल बसा था।  इंदु नामक एक पुत्री हुई मगर, वह भी बचपन में ही चल बसी थी। सबसे छोटा पुत्र राजरतन की मृत्यु 19 जुला. 1926 को हुई थी।
 
चारों बच्चों की  मृत्यु का कारण ये था कि बाबा साहब स्वतन्त्र जीविकोपार्जन के काम की तलाश में मारे-मारे फिरते थे। धना-भाव के कारण घर में हालत बहुत खराब थी। जब पेट ही पूरा नहीं भर रहा हो तो बच्चों की बीमारी के इलाज के लिए पैसे कहाँ से लाते ? यही कारण था कि यशवंत का इलाज भी ठीक से नहीं पाया था।
 
गंगाधर के मृत्यु की ह्रदय विदारक घटना का जिक्र करते हुए एक बार बाबा साहब ने बतलाया था कि ठीक से इलाज न हो पाने से जब गंगाधर की मृत्यु हुई तो उसकी मृत देह को ढकने के लिए गली के लोगों ने नया कपडा लाने को कहा। मगर, उनके पास उतने पैसे नहीं थे। तब रमा ने अपनी साड़ी से कपडा फाड़ कर दिया था। वही मृत देह को ओढ़ा कर लोग शमशान घाट ले गए और पार्थिव शरीर को दफना आए थे ।
   
बाबा साहब के सबसे बड़े पुत्र यशवंतरॉव ही जीवित रहे थे। वह भी बीमार-सा रहता था। रमा को और बच्चे की चाह थी मगर, अब और बच्चा होने से डाक्टर के अनुसार, उसे टी बी होने का खतरा था। इस तारतम्य में डाक्टर ने बाबा साहब को सावधानी बरतने की सलाह दी थी।
   
Family group photo
बडौदा की नौकरी के समय भीमराव के पिताजी की तबियत ठीक नहीं रहती थी। रमा ताई दिन-रात ससुर की सेवा और इलाज में लगी रही। लम्बी बीमारी के बाद बडौदा से भीमरॉव  के लौटने के पहले ही वे चल बसे थे। पिता की मृत्यु के बाद भीमराव उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए थे।  वे 1914 से 1923  तक करीब 9 वर्ष  विदेश में रहे थे।    

भीमरॉव आम्बेकर हमेशा ज्ञानार्जन में रत रहते थे। ज्ञानार्जन की तड़प उन में  इतनी थी कि घर और परिवार का जरा भी उन्हें ध्यान नहीं रहता था। रमा इस बात का ध्यान रखती थी कि पति के काम में कोई बाधा न हो। वह पति के स्वास्थ्य और सुविधा का पूरा ध्यान रखती थी। बाबा साहब पढ़ते समय प्राय: अन्दर से दरवाजा बंद का देते थे। रमा कई बार जोर-जोर से दरवाजा खटखटाती परन्तु दरवाजा नहीं खुलता तब,  थक हार कर वह लौट जाती। इस चक्कर में कई बार भूखे ही रह जाती थी। पति भूखा हो और वह भोजन कर ले, उसे मंजूर नहीं था। डाक्टर की सलाह अनुसार बाबा साहब भी रमा से दूरी बना कर ही रहते थे। कई बार घर नहीं आते थे, आफिस में ही रहते थे।
 
रमा की घर-गृहस्थी के  शुरू का जीवन लम्बी आर्थिक तंगी का रहा था। तंगी की हालत ये थी कि दिन भर  मजदूरी करने के बाद शाम को वह घर से तीन-चार की मी दूर तक जाकर गोबर बिन कर लाती थी। गोबर से  वह कंडे थापती और फिर उन्हें वह बेच आती। पास-पडोस की स्त्रियाँ टोकती कि बैरिस्टर की पत्नी होते हुए भी वह सिर पर गोबर ढोती है। इस पर रमा कहती, ' घर का काम करने में लज्जा की क्या बात है ?'
 
रमा एक सीधी-सादी और कर्तव्य-परायण स्त्री थी। पति और परिवार की सेवा करना वह अपना धर्म समझती थी। चाहे जो भी विपत्ति हो, किसी से सहायता लेना उसे गंवारा नहीं था। ऐसे कई मौके आए जब परिचितों ने उन्हें मदद की पेशकश की।  किन्तु , रमा ने लेने से इंकार कर दिया।

रमाताई संतोष, सहयोग और सहनशीलता की मूर्ति थी। डा. आंबेडकर प्राय: घर से बाहर रहते थे। वे जो कुछ कमाते थे, उसे वे रमा को सौप देते और जब आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे।  रमाताई घर का खर्च चला कर कुछ पैसा जमा भी करती थी।  क्योंकि, उसे मालूम था कि डा. आंबेडकर को उच्च शिक्षा के लिए पैसे की जरुरत होती है। बाबा साहब की पक्की नौकरी न होने से उसे काफी दिक्कत होती थी। 
   
बाबा साहब को पुस्तकें खरीदने का बेहद शौक था।  वे इस मामले में पैसों की परवाह किए बिना पुस्तकें खरीद लेते थे। एक बार इंग्लैंड के कानून का पांच खंडों वाला ग्रन्थ उन्होंने 500 रूपए में खरीद लिया।  घर आ कर खुश होते हुए वे रमा को बताने लगे कि कैसे बहुत ही सस्ते में उन्होंने ये पुस्तकें खरीदी है ? पुस्तके देख रमा ने कहा,  ' पति को पत्नी और घर-परिवार पर भी ध्यान देना चाहिए- ऐसा कुछ नहीं लिखा है क्या इन पुस्तकों में ? '  रमा के उलाहने पर बाबा साहब मुस्करा देते।

जहाँ तक डॉ आंबेडकर के सामाजिक आंदोलनों में सहभागिता की बात है, रमाताई  ने ऐसे कई आन्दोलनों और सत्याग्रहों में शिरकत की थी।  वैसे भी , डा. आम्बेडकर के आन्दोलनों में महिलाएं जम कर भाग लेती थी। दलित समाज के लोग रमाताई  को 'आईसाहेब' और डा. आम्बेडकर को 'बाबासाहब' कह कर पुकारा थे. 
 
तब, बाबा साहब दादर (मुम्बई) के मकान राजगृह में रह्ते थे,  जो रेल्वे लाइन के निकट था।  एक बार बाबासाहब के मित्र ने पूछ लिया कि उन्होंने अपने रहने के लिए स्थान रेल्वे लाइन के इतना निकट क्यों चुना ? क्या इससे आपके ध्यान मे विघ्न नहीं पहुन्चता और पढाई मे बाधा नहीं पहुचती ? इस पर बाबा साहब कुछ कहते इसके पहले ही पास खडी रमा ने जवाब दिया, ' क्यों बेकार की बात करते हैं ? बडी मुश्किल से तो हम ने यह बसेरा बनाया है। इसे भी आप मन से उतार रहे हो ? जब 'साहब' पढने बैठते हैं तो उन्हें अंधी-तूफान, भूख-प्यास किसी चीज की कोई सुध नहीं होती तो रेल के इंजन की आवाज कहाँ लगती है ?' रमा की इस हाजिर जवाबी को डॉ आंबेडकर और उनके मित्र देखते रह गए थे।

 Documentary: Asmita theater group
रमाताई  सदाचारी और धार्मिक प्रवृति की गृहणी थी।  उसे पंढरपुर जाने की बहुत इच्छा रही। महाराष्ट्र के पंढरपुर में विठ्ठल-रुक्मणी का प्रसिध्द मंदिर है। मगर, तब हिन्दू-मंदिरों में अछूतों के प्रवेश की मनाही थी। आंबेडकर, रमा को समझाते कि ऐसे मन्दिरों में जाने से उनका उध्दार नहीं हो सकता जहाँ, उन्हें अन्दर जाने की मनाही हो। मगर, रमा नहीं मानती थी।  एक बार रमा के बहुत जिद करने पर बाबा साहब पंढरपुर ले ही गए। किन्तु , अछूत होने के कारण उन्हें मन्दिर के अन्दर  प्रवेश नहीं करने दिया गया था। विठोबा के बिना दर्शन किये ही उन्हें लौटना पड़ा।  
 
राजगृह की भव्यता और बाबा साहब की चारों ओर फैलती कीर्ति भी रमाताई की बिगड़ती तबियत में कोई सुधार न ला पायी। उलटे,  वह पति की व्यस्तता और सुरक्षा के लिए बेहद चिंतित दिखी। कभी-कभी वह उन लोगों को डांट लगाती जो 'साहब' को उनके आराम के क्षणों में मिलने आते थे।  रमाताई बीमारी के हालत में भी, डा. आंबेडकर की सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखती थी। उसे अपने स्वाथ्य की उतनी चिंता नहीं होती थी जितनी के  पति को घर में आराम पहुँचाने की।

दूसरी ओर , डा.आंबेडकर अपने कामों में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण रमाताई और घर पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाते थे। एक दिन उनके पारिवारिक मित्र उपशाम गुरूजी से रमाताई ने अपना दुःखडा कह सुनाया -  'गुरूजी , मैं कई महीनों से बीमार हूँ।  डॉ साहब को मेरा हाल-चाल पूछने की फुर्सत नहीं है। वे हाई कोर्ट जाते समय केवल दरवाजे के पास खड़े हो कर मेरे स्वास्थ्य के सम्बन्ध में पूछते हैं और वही से चले जाते हैं।  क्या यही पति का कर्त्तव्य है ? पत्नी की भी कुछ आशाएं होती है। उनके ऐसे व्यव्हार से मेरा मन बड़ा दुखी होता है।  आप हीबताइएं,  इस प्रकार मेरा स्वास्थ्य कैसे ठीक रह सकता है ?' 

उपशाम गुरूजी ने राजगृह की ऊपरी मंजिल पर अपने कमरे में अध्ययनरत बाबा साहब को जब यह बात  बतलाई तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ।  पुस्तक से ध्यान हटाते हुए बाबा साहब ने कहा - 'उपशाम, रमा के इलाज के लिए मैंने अच्छे डॉक्टरों और दवा की व्यवस्था की है।  दवा आदि देने के लिए उनके पास उनका लड़का है।  मेरा भतीजा है।  उनका अपना भाई भी है।  फिर भी वह चाहती है कि मैं उनके पास बैठा रहूँ।  यह कैसे सम्भव है ? मेरी पत्नी की बीमारी के आलावा इस देश के सात करोड़ अछूत हैं जो उनसे भी ज्यादा सदियों से बीमार हैं ।  वे अनाथ और असहाय हैं।  उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। मुझे रमा के साथ-साथ इन सात करोड़ अछूतों की भी चिंता है ? रमा को इस बात का ध्यान होना चाहिए ?  यह कहते-कहते बाबा साहब का गला भर आया था।   
     
रमा ताई  काफी लम्बे समय तक बीमार रही और अंतत: 27 मई 1935 में डा. आंबेडकर को अकेला छोड़ इस दुनिया से विदा हो  गई।  रमाताई के मृत्यु से डा. आंबेडकर को गहरा आघात लगा।  वे बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोये थे।

जाति-पंचायतें और महिला

जाति-पंचायतें और महिला
-दलित महिला पर किसी सवर्ण से सम्बन्ध होने के आरोप पर जाति-पंचायत महिला के साथ अपने ही समाज के 10 लोगों को बलात्कार करने का दंड सुनती है.

Thursday, December 15, 2011

वाल्टेयर

वाल्टेयर (1694-1778)
         वाल्टेयर का जन्म फ़्रांस में हुआ था. उसने ईसाई धर्म के पादरियों के शासन के विरुध्द प्रखर संघर्ष किया.वाल्टेयर के इसी विरोध के चलते उन्हें फ़्रांस से देश निकला किया गया. वह जिनेवा के पास फ़र्नी में रहा.जीवन के अन्तिम दिनों में वह फ़्रांस लौटा.अन्याय और कट्टरपन के खिलाफ उसने नारा दिया-इन बदनाम चीजों को नष्ट कर डालो.
        वाल्टेयर की मृत्यु के बाद फ़्रांस की राज्य-क्रांति आरम्भ हुई और  21 जन. 1793 को फ़्रांस के अन्तिम सम्राट लुइ 16 वे का सर उड़ा दिया गया. स्वत्रंता .समता और भाई-चारे के आधार पर प्रजातन्त्र की स्थापना हुई.

जात-पांत साथ में

बस में सफ़र के दौरान एक महाशय ने अपने सहयात्री नौजवान की तरफ देखते हुए पूछा-
"किस जात के हो ?"
"जी, मैं धोबी हूँ ." - युवक ने जवाब दिया.
"अरे ! तो हटो...तौलिया छोडो....उसी पर बैठ गया.तुरंत धुलवाने देना पडेगा..." - महाशय बुदबुदाए.
"जी , कल ही धो कर पहुंचवा दूंगा. आपने शायद, पहचाना नहीं, मैं आपके धोबी का बड़ा लड़का चंदू हूँ." - युवक ने परे खिसकते हुए जवाब दिया.

गोरा कुम्भार


       संत गोरोबा का नाम महाराष्ट्र में बहुत प्रसिध्द है.विठ्ठल-भक्ति में उनका कोई जोड़ नहीं है.महाराष्ट्र के  पंढरपुर में विठ्ठल-रुक्मणी का प्रसिध्द मन्दिर है.इस मंदिर में 365 दिन पूरी-सब्जी बांटी जाती है.गरीबों को मुफ्त में वर्ष भर खाना खिलाने के पीछे एक घटना है और उस घटना के नायक है, गोरा कुम्भार.
         गोरोबा के जन्म के बारे में कोई उपलब्ध इतिहास नहीं है. चूँकि, गोरोबा और संत ज्ञानेश्वर समकालीन है अत: इनका जन्म सन 1260  के आस-पास माना जाता है.कहा जाता है कि ये महाराष्ट्र के तेरधोकी नामक गावं में पैदा हुए थे.तेरधोकी, पंढरपुर से करीब 60-70 की. मी. दूर उस्मानाबाद जिले में स्थित है.
      संत गोरोबा, बर्तन बनाने का काम करते थे.बरतन बनाने वाले को कुम्भार कहा जाता है.शायद, इसी के कारण इन्हें गोरा कुम्भार के नाम से जाना जाता है.उनकी पत्नी का नाम तुलसा बाई था.उनका एक छोटा-सा पुत्र था, नाम था हरी.गोरोबा भगवान् विठ्ठल के अनन्य भक्त थे. वे खाते-पीते, उठते-बैठते हमेशा भगवान् के भजन-कीर्तन में तल्लीन रहते थे. विठ्ठल-भक्ति में गोरोबा इतने तल्लीन रहते थे कि उन्हें पता  ही नहीं होता था कि उनके आस-पास क्या हो रहा है ? मिटटी के बरतन लेकर वे बाजार में जाते और कोई ग्राहक जितने में कहता, उसी कीमत में वे उसे दे देते.
      एक समय की बात है जब गोरोबा, मिटटी के बरतन बनाने के लिए गारा तैयार कर रहे थे. काम के आलावा वे  विठ्ठल-ध्यान में इतने मग्न थे कि कब उनका छोटा-सा पुत्र हरी कहीं से खेलते-खेलते आ कर पानी-मिटटी के गारे में में गिर गया, गोरोबा को पता ही नहीं चला.
      इसी बीच गोरोबा की पत्नी आ कर हरी के बार में पूछती है. विठ्ठल के भक्ति में तल्लीन गोरोबा कहते है कि हरी तो सब जगह है, पेड़ में, फूल में, पत्ती में... कण-कण में... पत्नी गुस्सा हो कर पूछती है कि वह अपने पुत्र हरी के बार में पूछ रही है ?  तब, एकाएक गोरोबा की भक्ति भंग होती है.उसे ध्यान आता है कि तुलसा उनके पुत्र हरी के बारे में पूछ रही है.वह बताता है कि कहीं खेल रहा होगा.वे काफी इधर-उधर देखते है. तभी पानी-मिटटी के गारे में उनको हरी का पैर नजर आता है. तुलसा दहाड़ मर कर रो पड़ती है.
      गोरोबा पुत्र को गारे से निकालता है. वह मर चूका होता है.गावं के लोग गोरोबा के पुत्र का अन्तिम संस्कार करते हैं. गोरोबा पत्नी तुलसा को समझाता है कि हो सकता है, उनके पुत्र की इतनी ही उम्र हो ? भगवान् विठ्ठल की यही मर्जी हो.मगर, गोरोबा की पत्नी शांत नहीं होती और वह गोरोबा को छोड़ कर अपने माँ-बाप के घर चली जाती है.    
      गोरोबा, भगवान् विठ्ठल के भजन-कीर्तन में इतने रमे रहते थे कि उन्हें तुलसा और अपने घर-परिवार की चिंता ही नहीं रहती.मगर, तुलसा के माँ-बाप परेशान होते है. वे सोचते हैं कि शायद पति-पत्नी में पट नहीं रही है.वे तुलसा को समझाते हैं किन्तु, तुलसा वापिस जाने को तैयार नहीं होती. अंतत: वे अपनी छोटी लड़की शांति का विवाह कर देने के लिए गोरोबा को राजी कर लेते हैं.
      शांति से विवाह हो जाने के बाद तुलसा भी गोरोबा के पास आती है.मगर,दोनों के रहने के बाद भी गोरोबा की विठ्ठल-भक्ति में कोई फर्क नहीं आता.इधर, गोरोबा का घर चलाना मुश्किल हो जाता है. बढ़ता कर्ज अदा करने के लिए गोरोबा अपना पुस्तैनी मकान बेच देते है.अब वे अपने भगवान् विठ्ठल के दरबार पंढरपुर आ कर रहने लगे.
        पंढरपुर में विठ्ठल-रुक्मणी मन्दिर के पास गोरोबा आ कर रहने लगे.अब उनकी भक्ति में कोई विघ्न नहीं था. एक दिन एक युवक गोरोबा के पास आ कर दंडवत साष्टांग-प्रणाम करता है. वह बतलाता है कि उसका नाम रंगन है और वह यहीं पास के मकान में रहता है. यह जान कर कि गोरोबा यहीं आ कर रहने लगे हैं, युवक बतलाता है कि पहले वह भी मिटटी के बर्तनों का काम करता था.गोरोबा के पास से लिए हुए बर्तनों से उसने बहुत सारी दौलत कमाई है. वह गोरोबा के ऋण से दबा हुआ है. युवक, गोरोबा से विनंती करता है कि वे आ कर उसके मकान में रहे. वे पति-पत्नी गोरोबा के पुत्र और पुत्र-वधु की तरह उनकी सेवा करेंगे.युवक पुन: अनुरोध करता है कि  गोरोबा की याद में उनके भगवान् विठ्ठल-रुक्मणी के मंदिर में पूरे वर्ष 365 दिन गरीबों को मुप्त पूरी-सब्जी खिलायेगा और गोरोबा को इसका प्रबंध देखना होगा.
      गोरोबा युवक का प्रेम और भगवान् विठ्ठल की भक्ति देख कर खुश हो जाते हैं.वह रंगन के घर जा भगवान् विठ्ठल की भक्ति में फिर लीन हो जाते हैं.गोरोबा की मृत्यु के बारे में भी कोई निश्चित मत नहीं है. मगर, तय है कि वे काफी वर्ष जिए.उनकी समाधि आज भी तेरधोकी में स्थित है.

संत शिरोमणि नामदेवजी महाराज

      संत शिरोमणि नामदेव का जन्म 26 अक्टू. 1270 में महाराष्ट्र के नरसी-बमनी जिले में हुआ था.नामदेव के माता का नाम गोजा बाई और पिता का नाम दामाशेट था.नामदेव का विवाह 7 वर्ष की आयु में कर दिया गया था.उनकी चार संतान हुई थी.किन्तु नामदेव का मन गृहस्थी में कभी नहीं लगा.
     नामदेव और ज्ञानदेव समकालीन थे और उन्होंने एक साथ भारत में कई जगहों की यात्रा की थी.नामदेव की यात्रा- मंडळी में निवृति नाथ,मुक्ता बाई,चोखा,परिसा भगत , सोपान देव प्राय: एक साथ रहते थे.
      नामदेव पंजाब में काफी समय रहे थे.अमृतसर के भूतविंद नगर में उनके प्रथम पंजाबी शिष्य बोहरदास द्वारा निर्मित नामदेव मदिर उनके पंजाब यात्रा का गवाह है.गुरदासपुर के घूमान में भी नामदेव का बड़ा-सा मन्दिर है. नामदेव के कुछ अभंग गुरु-ग्रन्थ साहिब में आये हैं.
         नामदेव ने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा पंढरपुर में बिताया था. उन्होंने 80 वर्ष की उम्र में 3 जुला. सन 1350 में समाधी ली थी.नामदेव ने हमेशा जाति और सम्प्रदाय के विरुध्द प्रचार किया.

Wednesday, December 14, 2011

जनाबाई(1270-1350)

 जनाबाई  (1270-1350)
जनाबाई का नाम मैंने गुरूजी से सुना था।  वे अपने प्रवचन/कीर्तन में जनाबाई, मुक्ताबाई आदि के दृष्ट्रांत दिया करते थे। गावं देहातों में लोग अकसर भजन-कीर्तन का आयोजन करते हैं। यह एक ऐसा कार्क्रम है जिस में महिलाऐं भारी संख्या में उपस्थित होती हैं। इस अवसर पर परिवार और समाज के लोगों को अच्छी-अच्छी सांसारिक बातें सुननी मिलती हैं।

 भजन-कीर्तनकार चूँकि परिचित होते हैं अत: वे आपके घर-परिवार की बातें करते हैं, आपके आस-पास बिखरे नायक-नायिकाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व का बड़े सरल और मनोरंजक शैली में वर्णन सदाचार की बातें बताते हैं। निस्संदेह, समाज-सुधार में साधु-संतों का भारी योगदान है। अगर संत न हो तो सामाजिक व्यवस्था ठप्प हो जाए।

जनाबाई का जन्म महाराष्ट्र के गंगाखेड़ गावं में हुआ था। जनाबाई जब बहुत छोटी थी, तभी उनके पिताजी का देहांत हो गया था।  पति की मृत्यु के बाद जनाबाई की माँ अपनी छोटी-सी बिटिया को लेकर रोजी-रोटी की तलाश में पंढरपुर आयी। पंढरपुर में वह दामाशेटी नामक एक वारकरी सम्प्रदाय के परिवार में घर के काम-काज करने लगी थी। स्मरण रहे, यह वही दामाशेटी है जिनका पुत्र आगे चल कर 'संत नामदेव' के नाम से प्रसिद्द हुआ।
जनाबाई उम्र में नामदेव से कुछ बड़ी है। जनाबाई के अभंग मराठी में काफी मिलते।

दामाजी पंत

दामाजी के बारे में मैंने, अपने गुरु बालकदास साहेब से सुना था।  गुरूजी अपने प्रवचन/कीर्तन में दामाजी प्रसंग पर एक बेहद मार्मिक वर्णन किया करते थे।

दामाजी, बिदर के बादशाह के यहाँ अनाज वसूली का काम करते थे। वे मुस्लिम बादशाह शासित  मंगलवेधा और उसके आस-पास के क्षेत्र के किसानों से बादशाह के लिए अनाज की वसूली करते थे। वसूल किये गए अनाज के भंडारण के लिए वहां एक बड़ा-सा गोदाम था। तब, मंगलवेधा और उसके आस-पास के क्षेत्र में भारी अकाल पड़ा था। अनाज और भोजन की त्राहि-त्राहि मची हुई थी. हजारों आदमी और मवेशी इस त्राहि से बेमौत मर रहे थे।

दामाजी बड़े दयालु स्वभाव के थे। एक बार भूख से व्याकुल एक गरीब ब्राह्मण को देख कर दामाजी को दया आ गई। दयालु स्वभाव-वश दामाजी ने कुछ अनाज उसकी झोली में डाल दिया। गरीब भूखा ब्राह्मण जब कुछ तृप्त हुआ तो वह एकाएक रोने लगा।  दामाजी के पूछने पर उसने बताया कि उसके घर में बाल-बच्चें कई दिनों से भूखें हैं। यह जान कर दामाजी ने अपने मातहत को कहा कि वह उसे पर्याप्त अनाज दे  दे।

दामाजी द्वारा दिया अन्नाज लेकर ब्राह्मण जब जाने लगा तब रास्तें में लोगों ने उसके पास काफी अनाज देख कर पूछा कि ये अनाज वे कहाँ से ला रहे हैं। तब, उसने दामाजी की दयालुता की बातें कह सुनाई। लोगों को दामाजी की सह्रदयता अच्छी लगी।  तब, वे भी दामाजी के पास जा कर याचना करने लगे कि उनके क्षेत्र में अकाल से लोग त्राहि-त्राहि कर रहे है. दामाजी को उनकी भी मदद करनी चाहिए। दामाजी ने अपने मातहत से कहा कि अनाज की कोठी से इनको भी कुछ अनाज दे दे।

इस बीच बादशाह के गुप्तचर विभाग ने ये सारी घटना बादशाह को लिख भेजी। गुप्तचर की रिपोर्ट पर बादशाह को बड़ा गुस्सा आया। बादशाह ने हकीकत जानने के लिए अपने एक कमांडर के साथ कुछ सैनिकों को रवाना किया। दामाजी ने कहा कि लोग अकाल की वजह से मर रहे थे।  उन्हें लोगों की भूख देखी नहीं गयी और उन्होंने  कोठी का कुछ अनाज बादशाह के पूछे बिना दे दिया। वे चाहे तो उन्हें गिरफ्तार करके बीदर ले जा सकते हैं। दामाजी ने विनंती किया कि हो सके तो उन्हें एक बार पंढरपुर में विठ्ठल-रुक्माई के दर्शन करने दिया जाए. सैनिक कमांडर ने दामाजी की विनंती पर एतराज नहीं किया।

दामाजी को पंढरपुर ले जाया गया। पंढरपुर में दामाजी ने चन्द्रभागा नदी में स्नान किया और विठ्ठल-रुक्मणी में पहुँच कर भगवान् से अपनी व्यथा कह सुनाई। दामाजी ने भगवान से कहा कि लोगों को भूख से तडपते देख उन्होंने वैसे किया जैसे उनको समझ में आया। भगवान को जो समझता हो, वैसा करे। दामाजी ने कहा कि हो सकता है, लौटकर वे पुन: मन्दिर में भगवान के दर्शन करने न आने पाएं।

उधर, बिदर बादशाह के दरबार में एक संदेशवाहक पहुंचता है। बादशाह को सलाम कर वह अपना नाम 'विठोबानाक  ' बताता है । युवक कहता है कि वह दामाजी का नौकर है । उसने बतलाया कि उसके पास रखे बोरों से भरे सिक्कें दामाजी ने भेजे हैं। युवक ने यह भी बताया कि दामाजी ने बादशाह के नाम एक चिट्ठी भेजी है। चिट्ठी पढ़ कर बादशाह खुश होते हैं ।  चिट्ठी में दामाजी लिखते हैं कि काफी लाभ पर बादशाह के कोठी का अनाज पंढरपुर के एक  व्यापारी को बेच दिया गया है जिसकी रकम उसके पास रखे बोरों में भरी है। बादशाह आदेश  देता है कि रकम प्राप्त कर रसीद नौकर के पास वापिस भिजवा दिया जाए।

इधर, दामाजी को हथकड़ी लगा कर बादशाह के सामने पेश किया गया।  बादशाह देख कर चकित रह जाते  हैं।  वे तुरंत अपने सैनिको को दामाजी की हथकड़ी खोलने का हुक्म देते हैं। वे दामाजी की चिट्ठी अपने दरबार में जोर से पढ़ कर सुनाते हैं। दामाजी समझ जाते हैं कि उनके विठ्ठल को उनके लिए 'विठोबानाक' बन कर बादशाह के दरबार में पेश होना पड़ा।

दामाजी, महाराष्ट्र के वारकरी सम्प्रदाय में एक बड़े संत के रूप में प्रसिद्द हैं। 'विकिपीडिया' में इनका नाम  दामाजी पंत देशपांडे(15  वीं  सदी ) और 'विठोबानाक' को 'महार' बताया गया है। अब पाठकों को 'गरीब ब्राह्मण' का कथानक समझ में आ रहा होगा । हमारे आस-पास ऐसे कई कथानक हैं जिस में 'ब्राह्मण देवता' को अगर गरीब भी दिखाना हो तो  एक 'गरीब ब्राह्मण' दिखा कर लोगों के दिलों-दिमाग में उसके प्रति श्रद्धा का भाव बरकरार रखा जाता है। दूसरे, इस कथानक से यह भी रहस्योदघाट्न होता है कि 'सूचना-संवाहक' के रूप में 'महार' सदियों से 'कोटवार' का काम करते रहे हैं।

पंढरपुर, जो विठोबा मंदिर के लिए प्रसिद्द है, महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में भीमा नदी के तट स्थित है । रमाबाई, बाबासाहब डा अम्बेडकर के पीछे काफी पड़ी थी कि उसे पंढरपुर में विठोबा के दर्शन करना है किन्तु बाबासाहब उन्हें हर बार  यह कह कर रोकते रहें कि जिस मंदिर में उन्हें प्रवेश करने की मनाही हो, उसके विठोबा उसका कौनसा भला कर सकते हैं ?  सनद रहे, बाबासाहब ने इस विठोबा की मूर्ति को बुद्ध की प्रतिमा बताया है जिसे परवर्तित काल  में ब्राह्मणों ने बुद्ध की अन्य प्रतिमाओं की तरह अपने किसी देवी-देवता की मूर्ति बता कर प्रचारित किया । 

Friday, December 9, 2011

मेरी कविताएँ

30.04.11

जूतियाँ


शो रूम में सजी जूतियाँ देख कर
वे बोले
पैरों की जूती, पैरों में रहनी चाहिए
*               *                     *                       *

07.12.11

ख्वाहिश 


गुम हो जाएँगे हम,
तुम देखते रह जाओगे
अगर मिलना भी चाहो,
तो मिल न पाओगे

हालाकि, हम चाहते हैं
जनाजा यहीं से निकले
दुआ हो या बद-दुआ
तुम से निकले
*            *             *                   *

झोपड़-पट्टी


ऐसा क्यों होता है कि
जहाँ बस्ती ख़त्म होती है
ऊग आती है, वहां  दलदल
घास-फूस और थर्ड क्लास पोलीथिन से
अपनी इज्जत ढांकती झोपड़ियाँ ?

आखिर क्यों वही आवारा कुत्ते
छिनाल कुत्तियों को सूंघते हैं ?
क्यों कच्ची दारू की बोतलों से
झोपड़े बजबजाते हैं ?
और मन्दिर की घंटियाँ
सबसे ज्यादा यही टन-टनाटी है ?
*            *               *                 *

स्त्री-विमर्श की कविताएँ ; संकलन

 एस. जया; कर्नूल (आन्ध्र प्रदेश)

तेरी कूची से निकली तस्वीर तो नहीं हूँ मैं
कि तुम रंग भरो और मैं मुस्कराने लगूँ 

तीन दशकों की धूप-छावं में रहे साथ 
फिर भी एक-दूसरे को नहीं जानते
टटोलते ललखडाते चल रहे हैं साथ.
*             *              *                   *                  *                     *
मंदरपु हेमवती; विजयवाडा (आन्ध्र प्रदेश)

कवि और चित्रकार के लिए
स्त्री एक देह है
वर्णन करने लायक वस्तु
चल-चित्रों और विज्ञापनों की पूँजी
औरत का अंग-प्रत्यंग.
*           *            *               *                     *                     *
सुखविन्दर अमृत लुधियाना (पंजाब)

      शुभ चिन्तक
उसने मेरे पंख काट कर कहा-
देख, मैंने तुम्हें थोडा-सा संवारा
और तुम, कितनी सुन्दर हो गई.

*          *                *                *                      *                     *
जयदेव पट्टी (दरभंगा)

रास्ते पर चलती हुई लड़की                                 खुद को सम्भालना पड़ता है
एक अजूबा होती है                                              हजार फब्तियों की ओट से
लज्जा से सर झुकाए                                           अपने को लुकाना/छिपाना पड़ता है
एक मूक मूरत                                                    हजार क़दमों की रफ़्तार से
जिसे हजार आँखों के इशारों से                             अपने को दौडाना पड़ता है
*               *                  *                *                   *                     *
मल्लिका सेन गुप्ता; कोलकता subodhmallika @yahooo.com

ओ आदमी,
मैंने कभी नहीं उठाई बाहें
तुम्हारे खिलाफ
जब तुमने मेरी कोख चिरी
और लगा दिया खून का सिन्दूर
मुझे दर्द महसूस हुआ
पर मैंने तुम्हे नहीं बताया
*            *              *               *                    *                       *
तसलीमा नसरीन  taslima.nasreen@gmail.कॉम             
                                                                                    युवावस्था       
प्रकृति का कोई भी प्राणी                                          पुरुष खोजता है, कुँवारी लड़कियों को   
मादा के जन्म को, गैर मुनासिब नहीं मानता            कि  कर सके, उनकी चिर-फाड़
केवल मनुष्य ही मानता है                                       कोई, प्यार के नाम पर
इसे विचित्र                                                               तो कोई, ब्याह के नाम पर
*           *              *                *                *                   *
सी.वृंदा

इसलिए                                                          मेरी यात्राएं
लक्ष्मण-रेखा के भीतर                                    स्वतंत्र हूँ
खिलते है मेरे विचार                                        सिर्फ  साँस लेने को 
खड़ी होने पर, रौंदता हैं आकाश                         इसलिए
जितना भी रेंगले                                              जिन्दा हूँ , अब भी
वृत्त में ही, ख़त्म होती है
*               *            *             *                   *                   *
डा.प्रतीमा मुदलियार;  मैसूर विश्व-विद्यालय(हिंदी विभाग) मैसूर

यशोधरे !  कब तक खोजेगी                              पार्श्व में प्रतीमा-सी खड़ी होना
सांसें, महल की चार-दिवारी में                          अब इतिहास बन चूका है
आसूं की हर बूँद पर                                          अब, तुम्हे डालनी है
करेगा प्रश्न, प्रति-प्रश्न                                     नींव 
राहुल                                                               नए इतिहास की
                                                                                                                      
गौतम-सा                                                         इसलिए उठो     
फिर कोई,सोते हुए                                            जागो, तोड़ो
छोड़ जाएगा                                                      लान्घो देहरी
और कहलायेगा                                                  प्रतीक्षारत है
तथागत                                                             एक नया इतिहास
युग-दर-युग                                                       बनाने
यशोधरे                                                              यशोधरे

*          *              *                 *                  *                    *
दस सेंटीमीटर की खबर 
एक महिला को                                                  खबर से हटकर
डायन करार देकर                                              हत्या की दूसरी खबर
पत्थर से मारा गया                                            तलाशी जाती है
सरे आम                                                            प्रतिक्रिया में
                                                                       
अखबार की सुर्ख़ियों में                                         मौन                                  
दस सेंटीमीटर की खबर                                       और गहरा होता है
छप जाती है                                                         चेहरा
कहीं कुछ भी नहीं होता                                         स्पष्ट सपाट और सफेद
न कोई हलचल
बस,एक सामूहिक मौन
हत्या का होना
अब कितना सहज हो गया है
*            *              *            *                *                      *
कमलादास ; केरल

द्वीप से                                                             वापस अयोध्या जाते हुए
महाद्वीप की ओर                                               फर्क मात्र इतना है कि
उड़ता पुष्पक देख                                                विमान चालक
टूटे मन से                                                           स्वदेश हो या विदेश
मैं देती हूँ चेतावनी                                               कहीं भी तो नहीं है तुझे
हे जनक-पुत्री                                                       सुख
हे भाग्य-दोष से जन्मी                                          
*            *             *              *                  *                         *
नीरू असीम

दो गज जमीन बहुत है                                           या
मरने के लिए                                                        अपनी शाखाएँ
जीने के लिए                                                         कटवा कर
बाँहों को पसारने                                                    बोनसाई बन कर
जीतनी तो हो                                                        गमले में सजने के लिए
*          *           *              *                 *                *                 *
प्रीतम कौर

दुःख होता है                                                          और मैं
जब  तुम                                                               खड़ी रह जाती हूँ
मुझे समझने की कोशिश में                                   तुम्हारे फिर से
मेरी समझ के दायरे से                                          लौटने के इन्तजार में
आगे निकल जाते  हो
*            *             *                 *                 *                   *