ऐसा मैंने सुना- एक समय आयु. महाकात्यायन मथुरा में वृदावन में विहार कर रहे थे।
एवं मे सुत्तं- एकं समयं आयस्मा महाकच्चानो मधुरायं विहरति गुंदावने।
मथुरा के राजा अवंतिपुत्र ने सुना- समण कच्यायन मथुरा के बृन्दावन में विहार कर रहे हैं।
अस्सोसि खो राजा माधुरो अवन्तिपुत्तो- समण खलु, भो कच्चानो मधुरायं विहरति गुण्दावने।
तब मथुरा का राजा अवंतिपुत्र एक बड़े राजा के अनुकूल आयु. महाकच्चायन के दर्शनार्थ निकला।
अथ खो राजा माधुरो अवंतिपुत्तो मधुराय निय्यासि महच्च राजानुभावेन आयस्मंतं महाकच्चानं दस्सानाय।
जितना यान का रास्ता था, उतना यान से जाकर,
यावतिका यानस्स भूमि यानेन गंत्वा
फिर यान से उतर पैदल ही जहाँ आयु. महाकच्चायन थे, गया।
याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव येन आयस्मा महाकच्चानो तेनुपसंकमि
वहां जाकर आयु. कच्चायन के साथ कुशल क्षेम पूछ कर एक और बैठ गया।
उपसंकमित्वा आयस्मता महाकच्चानेन संध्दि सम्मोदनीयं कथं वितिसारेत्वा एकमंतं निसीदि
एक ओर बैठे राजा माधुरो अवंतिपुत्र ने आयु. महाकच्चायन से यह कहा-
एकमंतं निसिन्नो खो राजा अवंतिपुत्तो आयस्मंतं महाकच्चानं एतद वोच-
"भो कच्चायन ! ब्राहण कहते हैं, ब्राहमण ही श्रेष्ठ हैं, और वर्ण हीन हैं ? ब्राह्मण ही शुद्ध हैं, अ-ब्राह्मण नहीं; आप क्या सोचते हैं ?"
"ब्राह्मणा, भो कच्चान एवं आहंसु- ब्राह्मणो एव सेट्ठो, हीनो अञ्ञो वण्णो, ब्राह्मणा येव सुज्झन्ति नो अ-ब्राह्मणा; भवं किं मञ्ञति ?"
"तो क्या मानते हो महाराज, क्षत्रिय यदि प्राणी हिंसक हो, मिथ्याचारी हो, मृषावादी हो, चुगली करने वाला, कटुवचन बोलने वाला , बकवाद करने वाला हो, लोभी, द्वेषी, मिथ्या-दृष्टि वाला हो तो उसकी दुर्गति होगी या नहीं ?
तं किं मञ्ञसि, महाराज, इधस्स खत्तियो पाणातिपाती, अदिन्नादायी, कामेसु मिच्छाचारी, मुसावादी पिसुणवाचो, फरुसवाचो, सम्फप्पलापी, अभिज्झालु, व्यापन्नचित्तो, मिच्छा दिट्ठि सम्पन्नो; तं दुग्गतिं भवेय्य वा ?
"तो क्या मानते हो महाराज, ब्राह्मण यदि प्राणी हिंसक हो, मिथ्याचारी हो, मृषावादी हो, चुगली करने वाला, कटुवचन बोलने वाला , बकवाद करने वाला हो, लोभी, द्वेषी, मिथ्या-दृष्टि वाला हो तो उसकी दुर्गति होगी या नहीं ?
तं किं मञ्ञसि, महाराज, इधस्स ब्राह्मणो अपि पाणातिपाती, अदिन्नादायी, कामेसु मिच्छाचारी, मुसावादी पिसुणवाचो, फरुसवाचो, सम्फप्पलापी, अभिज्झालु, व्यापन्नचित्तो, मिच्छा दिट्ठि सम्पन्नो; तं दुग्गतिं भवेय्य वा ?
"तो क्या मानते हो महाराज, वैश्य, शूद्र भी यदि प्राणी हिंसक हो, मिथ्याचारी हो, मृषावादी हो, चुगली करने वाला, कटुवचन बोलने वाला, बकवाद करने वाला हो, लोभी, द्वेषी, मिथ्या-दृष्टि वाला हो तो उसकी दुर्गति होगी या नहीं ?
तं किं मञ्ञसि, महाराज, इधस्स वेस्सो, सुद्दो अपि पाणातिपाती, अदिन्नादायी, कामेसु मिच्छाचारी, मुसावादी पिसुणवाचो, फरुसवाचो, सम्फप्पलापी, अभिज्झालु, व्यापन्नचित्तो, मिच्छा दिट्ठि सम्पन्नो; तं दुग्गतिं भवेय्य वा ?
"हे कच्चायन, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी यदि प्राणी हिंसक हो, मिथ्याचारी हो, मृषावादी हो, चुगली करने वाला, कटुवचन बोलने वाला , बकवाद करने वाला हो, लोभी, द्वेषी, मिथ्या-दृष्टि वाला हो तो उसकी दुर्गति होगी। ऐसा मुझे लगता है, अरहतों से भी ऐसा सुना है।"
"भो कच्चानो, ब्राह्मणो, खत्तियो, वेस्सो सुद्दो अपि पाणातिपाती अदिन्नादायी कामेसु मिच्छाचारी मुसावादी पिसुणवाचो फरुसवाचो सम्फप्पलापी अभिज्झालु व्यापन्न चित्तो मिच्छा दिट्ठि सम्पन्नो; तं दुग्गतिं भविस्सति। एवं मे एत्थ होति, एवं च मे एतं अरहतं सुतं।"
"साधु, साधु, महाराज ! साधुवाद है इसके लिए महाराज। ऐसा हो रहा है और तुमने ठीक ही अर्हतों से सुना है।"
"साधु, साधु, महाराज! साधु खो ते एतं महाराज। एवं होति, साधु च पन ते एतं अरहतं सुतं।"
"तो क्या मानते हो महाराज! ऐसा होने पर चारों वर्ण सम होते हैं या नहीं ? यहाँ तुम्हें कैसा लगता है ?"
"तं किं मञ्ञसि महाराज! यदि एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा सम समा होन्ति नो वा ? कथं वा ते एत्थ होति?"
"अवश्य, हे कच्चायन ! ऐसा होने पर चारों वर्ण सम होते हैं। यहाँ मैं कोई भेद नहीं देखता। "
"अद्धा खो भो कच्चान, एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा सम समा होन्ति। नेसं एत्थ किन्चि नाना कारणं समनुपस्सामि।"
"इस प्रकार महाराज, तुम्हें समझना चाहिए कि लोक में यह हल्ला भर ही है कि ब्राह्मण श्रेष्ठ वर्ण है, अन्य हीन वर्ण है ।"
"इमिना पि खो महाराज, परियायेन वेदितब्बं यथा घोसो येव सो लोकस्मिं- ब्राह्मणो सेट्ठो, हीनो अञ्ञो वण्णो(माधुरिय सुत्त: म.नि. 2.4.4 )।"
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निय्याति- बाहर जाना। पत्तिकोव - पैदल ही।
एवं मे सुत्तं- एकं समयं आयस्मा महाकच्चानो मधुरायं विहरति गुंदावने।
मथुरा के राजा अवंतिपुत्र ने सुना- समण कच्यायन मथुरा के बृन्दावन में विहार कर रहे हैं।
अस्सोसि खो राजा माधुरो अवन्तिपुत्तो- समण खलु, भो कच्चानो मधुरायं विहरति गुण्दावने।
तब मथुरा का राजा अवंतिपुत्र एक बड़े राजा के अनुकूल आयु. महाकच्चायन के दर्शनार्थ निकला।
अथ खो राजा माधुरो अवंतिपुत्तो मधुराय निय्यासि महच्च राजानुभावेन आयस्मंतं महाकच्चानं दस्सानाय।
जितना यान का रास्ता था, उतना यान से जाकर,
यावतिका यानस्स भूमि यानेन गंत्वा
फिर यान से उतर पैदल ही जहाँ आयु. महाकच्चायन थे, गया।
याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव येन आयस्मा महाकच्चानो तेनुपसंकमि
वहां जाकर आयु. कच्चायन के साथ कुशल क्षेम पूछ कर एक और बैठ गया।
उपसंकमित्वा आयस्मता महाकच्चानेन संध्दि सम्मोदनीयं कथं वितिसारेत्वा एकमंतं निसीदि
एक ओर बैठे राजा माधुरो अवंतिपुत्र ने आयु. महाकच्चायन से यह कहा-
एकमंतं निसिन्नो खो राजा अवंतिपुत्तो आयस्मंतं महाकच्चानं एतद वोच-
"भो कच्चायन ! ब्राहण कहते हैं, ब्राहमण ही श्रेष्ठ हैं, और वर्ण हीन हैं ? ब्राह्मण ही शुद्ध हैं, अ-ब्राह्मण नहीं; आप क्या सोचते हैं ?"
"ब्राह्मणा, भो कच्चान एवं आहंसु- ब्राह्मणो एव सेट्ठो, हीनो अञ्ञो वण्णो, ब्राह्मणा येव सुज्झन्ति नो अ-ब्राह्मणा; भवं किं मञ्ञति ?"
"तो क्या मानते हो महाराज, क्षत्रिय यदि प्राणी हिंसक हो, मिथ्याचारी हो, मृषावादी हो, चुगली करने वाला, कटुवचन बोलने वाला , बकवाद करने वाला हो, लोभी, द्वेषी, मिथ्या-दृष्टि वाला हो तो उसकी दुर्गति होगी या नहीं ?
तं किं मञ्ञसि, महाराज, इधस्स खत्तियो पाणातिपाती, अदिन्नादायी, कामेसु मिच्छाचारी, मुसावादी पिसुणवाचो, फरुसवाचो, सम्फप्पलापी, अभिज्झालु, व्यापन्नचित्तो, मिच्छा दिट्ठि सम्पन्नो; तं दुग्गतिं भवेय्य वा ?
"तो क्या मानते हो महाराज, ब्राह्मण यदि प्राणी हिंसक हो, मिथ्याचारी हो, मृषावादी हो, चुगली करने वाला, कटुवचन बोलने वाला , बकवाद करने वाला हो, लोभी, द्वेषी, मिथ्या-दृष्टि वाला हो तो उसकी दुर्गति होगी या नहीं ?
तं किं मञ्ञसि, महाराज, इधस्स ब्राह्मणो अपि पाणातिपाती, अदिन्नादायी, कामेसु मिच्छाचारी, मुसावादी पिसुणवाचो, फरुसवाचो, सम्फप्पलापी, अभिज्झालु, व्यापन्नचित्तो, मिच्छा दिट्ठि सम्पन्नो; तं दुग्गतिं भवेय्य वा ?
"तो क्या मानते हो महाराज, वैश्य, शूद्र भी यदि प्राणी हिंसक हो, मिथ्याचारी हो, मृषावादी हो, चुगली करने वाला, कटुवचन बोलने वाला, बकवाद करने वाला हो, लोभी, द्वेषी, मिथ्या-दृष्टि वाला हो तो उसकी दुर्गति होगी या नहीं ?
तं किं मञ्ञसि, महाराज, इधस्स वेस्सो, सुद्दो अपि पाणातिपाती, अदिन्नादायी, कामेसु मिच्छाचारी, मुसावादी पिसुणवाचो, फरुसवाचो, सम्फप्पलापी, अभिज्झालु, व्यापन्नचित्तो, मिच्छा दिट्ठि सम्पन्नो; तं दुग्गतिं भवेय्य वा ?
"हे कच्चायन, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी यदि प्राणी हिंसक हो, मिथ्याचारी हो, मृषावादी हो, चुगली करने वाला, कटुवचन बोलने वाला , बकवाद करने वाला हो, लोभी, द्वेषी, मिथ्या-दृष्टि वाला हो तो उसकी दुर्गति होगी। ऐसा मुझे लगता है, अरहतों से भी ऐसा सुना है।"
"भो कच्चानो, ब्राह्मणो, खत्तियो, वेस्सो सुद्दो अपि पाणातिपाती अदिन्नादायी कामेसु मिच्छाचारी मुसावादी पिसुणवाचो फरुसवाचो सम्फप्पलापी अभिज्झालु व्यापन्न चित्तो मिच्छा दिट्ठि सम्पन्नो; तं दुग्गतिं भविस्सति। एवं मे एत्थ होति, एवं च मे एतं अरहतं सुतं।"
"साधु, साधु, महाराज ! साधुवाद है इसके लिए महाराज। ऐसा हो रहा है और तुमने ठीक ही अर्हतों से सुना है।"
"साधु, साधु, महाराज! साधु खो ते एतं महाराज। एवं होति, साधु च पन ते एतं अरहतं सुतं।"
"तो क्या मानते हो महाराज! ऐसा होने पर चारों वर्ण सम होते हैं या नहीं ? यहाँ तुम्हें कैसा लगता है ?"
"तं किं मञ्ञसि महाराज! यदि एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा सम समा होन्ति नो वा ? कथं वा ते एत्थ होति?"
"अवश्य, हे कच्चायन ! ऐसा होने पर चारों वर्ण सम होते हैं। यहाँ मैं कोई भेद नहीं देखता। "
"अद्धा खो भो कच्चान, एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा सम समा होन्ति। नेसं एत्थ किन्चि नाना कारणं समनुपस्सामि।"
"इस प्रकार महाराज, तुम्हें समझना चाहिए कि लोक में यह हल्ला भर ही है कि ब्राह्मण श्रेष्ठ वर्ण है, अन्य हीन वर्ण है ।"
"इमिना पि खो महाराज, परियायेन वेदितब्बं यथा घोसो येव सो लोकस्मिं- ब्राह्मणो सेट्ठो, हीनो अञ्ञो वण्णो(माधुरिय सुत्त: म.नि. 2.4.4 )।"
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निय्याति- बाहर जाना। पत्तिकोव - पैदल ही।
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