वैदिक समाज में स्त्री
वैदिक ऋचा ओं के लगभग 300 ऋषि हैं पर इनमें गिनी-चुनी ही महिलायें हैं- जुहू, शची, घोषा, लोमशा, लोपामुद्रा और विश्वा पारा। इन सुधि महिलाओं के होते हुए भी वैदिक-ग्रंथों में स्त्री यौन सुख, पुत्रोत्पादन और दासकर्म के निमित्त समझी जाती थी। ऋग्वेद मंडल 10 के सूक्त 95 के मन्त्र 15 में उर्वशी नामक एक स्त्री के ही मुख से स्त्री को भेड़िया जैसी बताया गया है(मुद्रा राक्षस : धर्म-ग्रंथों का पुनर्पाठ , पृ 47 )।
वैदिक समाज में स्त्रियाँ घरों में कूटने-पीसने का ही काम करती थी। मंडल 9 सूक्त 112 मन्त्र 3 में स्त्री को 'सोम कूटने-पीसने वाली' कहा गया है। मंडल 1 सूक्त 28 में स्त्री को मूसल चलाती, सील बट्टे से पीसती, ओखली में कूटती, मथानी पेय मथती बताया गया है(वही, पृ 48)।
मंडल 1, सूक्त 122 मन्त्र 2 में स्त्री को पति द्वारा पुकारे जाने पर शीघ्र उपस्थित होने वाली दासी सदृश्य कहा गया है। मंडल 1 सूक्त 32 मन्त्र 9 में बड़ी बर्बरता से इंद्र के द्वारा पुत्र की रक्षा करती माँ का वध बछड़े के साथ गाय जैसे गया है(वही, पृ 48 )।
अर्थवेद अध्याय 3 सूक्त 25 मन्त्र 5-6 में बानगी देखें- कुशा से पीटता हुआ, हे स्त्री ! मैं तुम्हें माता-पिता के घर से लाता हूँ, ताकि तू मेरी आज्ञा माने। अध्याय 6 सूक्त 102 के मन्त्र 1-2 में कहा गया है- हे देवता ! शिक्षित घोड़े का मालिक खूंटे से रस्सी खोल कर घोड़ी को अपनी तरफ खींचता है, उसी प्रकार स्त्री मेरी और खिंची रहे। इससे पहले सूक्त का अंत इस प्रकार होता है- तुम बैल की तरह अपनी पत्नी के पास जाओ। इसी अध्याय के सूक्त 77 में स्त्री को घोड़े की तरह रस्सी से घर में बांध कर रखने को कहा गया है(वही, पृ 49)।
ऋग्वेद में; मंडल 1 सूक्त 69, अनु. 117 सूक्त 116, मंडल 5 सूक्त 30 मन्त्र 9, मंडल 6 सूक्त 26, मंडल 10, सूक्त 65 आदि में इंद्र से रमणीय स्त्रियों, कन्याओं को दिलाने की प्रार्थनाएं हैं । संस्कृत में विवाह के लिए शब्द 'परिणय' या परिणयन है। परिणयन का अर्थ है, लूट कर या उठा कर ये जाना। निस्संदेह, वैदिक समुदाय के धर्म-ग्रंथों में स्त्री की स्थिति बेहद अपमान-जनक रही है। उन्हें यज्ञ ही नहीं शिक्षा का भी अधिकार नहीं था(मुद्रा राक्षस : धर्म-ग्रंथों का पुनर्पाठ , पृ 50)।
वैदिक ऋचा ओं के लगभग 300 ऋषि हैं पर इनमें गिनी-चुनी ही महिलायें हैं- जुहू, शची, घोषा, लोमशा, लोपामुद्रा और विश्वा पारा। इन सुधि महिलाओं के होते हुए भी वैदिक-ग्रंथों में स्त्री यौन सुख, पुत्रोत्पादन और दासकर्म के निमित्त समझी जाती थी। ऋग्वेद मंडल 10 के सूक्त 95 के मन्त्र 15 में उर्वशी नामक एक स्त्री के ही मुख से स्त्री को भेड़िया जैसी बताया गया है(मुद्रा राक्षस : धर्म-ग्रंथों का पुनर्पाठ , पृ 47 )।
वैदिक समाज में स्त्रियाँ घरों में कूटने-पीसने का ही काम करती थी। मंडल 9 सूक्त 112 मन्त्र 3 में स्त्री को 'सोम कूटने-पीसने वाली' कहा गया है। मंडल 1 सूक्त 28 में स्त्री को मूसल चलाती, सील बट्टे से पीसती, ओखली में कूटती, मथानी पेय मथती बताया गया है(वही, पृ 48)।
मंडल 1, सूक्त 122 मन्त्र 2 में स्त्री को पति द्वारा पुकारे जाने पर शीघ्र उपस्थित होने वाली दासी सदृश्य कहा गया है। मंडल 1 सूक्त 32 मन्त्र 9 में बड़ी बर्बरता से इंद्र के द्वारा पुत्र की रक्षा करती माँ का वध बछड़े के साथ गाय जैसे गया है(वही, पृ 48 )।
अर्थवेद अध्याय 3 सूक्त 25 मन्त्र 5-6 में बानगी देखें- कुशा से पीटता हुआ, हे स्त्री ! मैं तुम्हें माता-पिता के घर से लाता हूँ, ताकि तू मेरी आज्ञा माने। अध्याय 6 सूक्त 102 के मन्त्र 1-2 में कहा गया है- हे देवता ! शिक्षित घोड़े का मालिक खूंटे से रस्सी खोल कर घोड़ी को अपनी तरफ खींचता है, उसी प्रकार स्त्री मेरी और खिंची रहे। इससे पहले सूक्त का अंत इस प्रकार होता है- तुम बैल की तरह अपनी पत्नी के पास जाओ। इसी अध्याय के सूक्त 77 में स्त्री को घोड़े की तरह रस्सी से घर में बांध कर रखने को कहा गया है(वही, पृ 49)।
ऋग्वेद में; मंडल 1 सूक्त 69, अनु. 117 सूक्त 116, मंडल 5 सूक्त 30 मन्त्र 9, मंडल 6 सूक्त 26, मंडल 10, सूक्त 65 आदि में इंद्र से रमणीय स्त्रियों, कन्याओं को दिलाने की प्रार्थनाएं हैं । संस्कृत में विवाह के लिए शब्द 'परिणय' या परिणयन है। परिणयन का अर्थ है, लूट कर या उठा कर ये जाना। निस्संदेह, वैदिक समुदाय के धर्म-ग्रंथों में स्त्री की स्थिति बेहद अपमान-जनक रही है। उन्हें यज्ञ ही नहीं शिक्षा का भी अधिकार नहीं था(मुद्रा राक्षस : धर्म-ग्रंथों का पुनर्पाठ , पृ 50)।
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