Tuesday, February 4, 2014

बिकाऊ मीडिया

बिकाऊ मिडिया 

इस देश का हिन्दू मीडिया, दलित विरोधी है, यह हम काफी समय से कहते आ रहे हैं। किन्तु ,  मीडिया बिकाऊ है; इस बड़े खुलासे के साथ अब भोपाल(म प्र ) से प्रकाशित एक अख़बार सामने आया है। पत्रिका के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी ने अपने अख़बार ( अंक : 26 जन 2014 ) में इसका खुलासा बड़ी बेबाकी से किया है। आलेख के प्रमुख बिंदु दृष्टव्य हैं -

लोकतंत्र का स्वयंम्भू चौथा स्तम्भ - मीडिया की भूमिका लोकतन्त्र में एक सजग प्रहरी की है। लोकतंत्र के तीनों स्तम्भों; विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की स्थिति हमारे सामने हैं।  इनकी कमिया उजागर करने का काम मीडिया का था।  लेकिन, धीरे-धीरे मीडिया की अन्य तीनों स्तम्भों से दोस्ती परवान चढ़ी और एक दिन वह खुद ही चौथा स्तम्भ बन गया। मीडिया अगर चौथा स्तम्भ बन ही गया है तो क्या वह वर्तमान दुर्दशा के लिए अन्य तीन स्तम्भों की तरह जिम्मेदार नहीं है ?

मीडिया भ्रष्टतंत्र का हिस्सा - वास्तव में,  मीडिया लोकतंत्र का चौथा पाया बन कर भ्रष्टतंत्र में शामिल हो गया है। सच तो यह है कि आज सबसे अधिक मीडिया पर ही निगरानी की जरुरत है। क्योंकि,  मीडिया जन को छोड़ कर तंत्र के हितों को साधने में ज्यादा मशगूल है ।

ब्लैकमेलिंग एजेंसी - नि:संदेह देश में बढ़ते भ्रष्टाचार का एक बड़ा कारण मीडिया का चौथा पाया बन जाना है। यह चौथा पाया सरकारों से ताक़त की हिस्सेदारी करने लग गया है। यदि कोई सरकार उसे यह सब नहीं मुहैया कराती तो वह ब्लैकमेल करने से भी नहीं चूकता।

मीडिया सरकार के साथ -  मीडिया को जनता और सरकार के बीच सेतू होना  था। मगर, ऐसा न हो कर चुनाव होते ही मीडिया भी जनप्रतिनिधियों के साथ अन्य तीन पायों की तरह सरकार चलाने लग जाता है।

पेड न्यूज - पेड न्यूज के चलते विज्ञापनों को न्यूज की तरह पेश किया जाता है। प्रेस परिषद् की रिपोर्ट में बड़े-बड़े अख़बार और मीडिया घरानों के नाम सामने आए हैं। राज्य सभा में दी गई जानकारी के अनुसार, हाल ही में सम्पन्न  विधान सभा चुनाव के दौरान  म प्र में 165, राजस्थान में 81 और दिल्ली में पेड़ न्यूज के 25 मामले दर्ज किए गए।  इसी प्रकार कर्नाटक में 93 मामले दर्ज हुए थे।  सन 2012 में गुजरात और पंजाब में हुए चुनावों के दौरान क्रमश:: 414 और 523 पेड़ न्यूज के मामले दर्ज हुए थे (पत्रिका 6 फर 2014) ।    

हॉरिजेंटल ऑनरशिप का घालमेल -जब कोई मीडिया कम्पनी, मीडिया क्षेत्र यानि टी वी, अख़बार, रेडियो आदि में निवेश करती है तो उसे 'वर्टिकल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' कहते हैं।  मगर, जब इसके बाहर करे तो उसे 'होरिजेंटल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप' कहते हैं।  अमेरिका तथा ज्यादातर यूरोपीय देशों में होरिजेंटल क्रॉस मीडिया ऑनरशिप पर पाबन्दी है।  मगर, हमारे देश में ऐसी कोई रोक न होने से मीडिया में घालमेल का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है।

जैसे 2 जी स्पेक्ट्रूम के लिए गैर-मीडिया क्षेत्रों की लॉबिंग जिस तरह उजागर हुई है, सर्व विदित है।  कोयला ब्लॉक घोटाले में कुछ मीडिया कम्पनियों की भागीदारी सीधे तौर पर सामने आई है।
    महाराष्ट्र में 'लोकमत ' छत्तीसगढ़ में 'हरिभूमि ' झारखण्ड में 'प्रभात खबर ' अख़बारों के खनन अथवा बिजली उत्पादन के गैर-मीडिया कारोबार हैं। कई राज्यों से प्रकाशित 'दैनिक भास्कर' के बिजली उत्पादन, खनन, रियल एस्टेट, खाद्य-तेल रिफायनिंग, कपड़ा उद्योग आदि कई गैर-मीडिया कारोबार हैं।


मीडिया मालिक राजनेता - मीडिया का सबसे बड़ा नुकसान राजनेताओं ने किया है।  आज कई प्रांतीय अख़बार और न्यूज चैनलों पर राजनेताओं का मालिकाना हक़ है।  मीडिया के जरिए गैर-मीडिया कारोबारों की तरह राजनीति को भी चमकाया जा रहा है।
हरियाणा के पूर्व केंद्रीय मंत्री विनोद शर्मा का 'इण्डिया न्यूज चैनल' ,  सांसद के डी सिंह का 'तहलका एवन ', राज्य के पूर्व गृह मंत्री और गीतिका कांड के आरोपी गोपाल कांडा का 'हरियाणा न्यूज ' चैनल  व 'आज समाज'  अख़बार, नवीन जिंदल का 'फोकस टीवी' ,  पंजाब में अकाली दल के नेता सुखवीर सिंह बादल का 'पीटीसी न्यूज ' चैनल, बंगाल में माकपा के अवीक दत्ता का 'आकाश बांगला ' व 24 घंटा'  न्यूज चैनल हैं।
- आंध्रप्रदेश में जगमोहन रेडी का 'साक्षी टीवी, के चंद्रशेखर राव का 'टी न्यूज,' तमिलनाडु में जयललिता का 'जया टीवी' , कलानिधि मारन का 'सन टीवी,कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एच डी कुमार स्वामी की पत्नी अनीता कुमार स्वामी का 'कस्तूरी टीवी, कांग्रेस के राजीव शुक्ला का 'न्यूज 24 ' आदि हैं।

गुणवत्ता का भयंकर अभाव - आज हमारे देश में  400 से अधिक न्यूज चैनल और 80, 000  के करीब अख़बार पंजीकृत हैं। मगर, अधिकतर न्यूज चैनलों में जो कुछ दिखाया जाता है उसका न्यूज से कोई लेना-देना नहीं होता।  नाग-नागिन का नाच , भूत-प्रेत और भविष्यवाणी क्या यह सब न्यूज हैं ?

गैर-जिम्मेदार रवैया - देश के हर घपले-घोटालों को उजागर करने की जिम्मेदारी मीडिया की है ।  मगर, जब मिडिया ही घोटालों में गले तक डूबा हो तो फिर,  उससे यह अपेक्षा कैसे हो सकती है ?

प्रेस क्लब - यहाँ पर खुले तौर पर लेन-देन होता है ।  

बिकते पत्रकार -सरकार और संस्थाओं के प्रबंधन द्वारा पत्रकार कालोनी, प्लॉट/फ्लैट रिजर्वेशन, टेलीफोन/गाड़ी सुविधा,  पत्रकार कल्याण कोष, मुप्त यात्रा आदि कई रास्तें दरअसल, पत्रकारों को खरीदने के लिये बनाए जाते हैं। इन सुविधाओं के चलते निजी स्तर पर पत्रकार तो प्राय: बिक ही जाते हैं।

बिकती खबरें - कोई खबर छपती है तो खबर के हिसाब से पैसा लिया जाता है। खबर नहीं छपने पर पैसा वापिस भी हो जाता है।

एकेडेमिक विशेषज्ञता की जरुरत नहीं - इस तरह की पत्रकारिता के चलते पत्रकार को पत्रकारिता में विशेषज्ञता की जरुरत नहीं होती। 

ट्रांसफर-पोस्टिंग करते पत्रकार - ट्रांसफर-पोस्टिंग में पत्रकार उसी तरह लिप्त है जिस तरह नेता।  असल में नेता और पत्रकार में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। कई जगह तो दोनों में अच्छी सांठ-गांठ दिखाई देती है।

फर्जी प्रसार संख्या - सम्पादक और मालिक मिल कर अपने अखबार की फर्जी प्रसार संख्या बतलाते हैं। इस फर्जी प्रसार संख्या से पाठकों को थोड़े समय तो बेवकूफ बनाया जा सकता है।  मगर, अंतत: कलई खुल जाती है।

एक पक्षीय खबरों का प्रकाशन - अधिकांश अखबारों और न्यूज चैनलों को कार्पोरेट जगत चला रहा है।  कार्पोरेट हित मीडिया पर इतनी हावी है कि अधिकांश खबरें एक पक्षीय हो कर रह गई है। दूसरा पक्ष सामने आ ही नहीं पाता। अपने-अपने  व्यवसायिक हितों के चलते खबरों का सत्यानाश हो गया है।

मालिकाना सम्पादकीय - पिछले कुछ वर्षों से बड़े-बड़े कार्पोरेट घरानों के मालिक मीडिया समूहों के मालिक बन गए हैं।  अम्बानी, बिड़ला जैसे पूंजीपतियों ने मीडिया कम्पनियां खरीद ली है। सिर्फ पूंजीपति ही नहीं बड़े राजनेता और उनके करीबी भी कई राज्यों में मीडिया के मालिक बन गए।  अधिकांश अख़बारों के सम्पादकीय  उनके मालिकों की सोच ही दिखाई देती है। क्या यह कृत्य देश के नागरिको की अभिव्यक्ति की स्व्तंत्रता के मौलिक अधिकारों के लिए घातक नहीं है ?

देश हित जाए भाड़ में -अनेक अख़बार और न्यूज चैनल देश हित के मुद्दों पर उतने आधारित दिखाई नहीं देते जितने मनोरजंन और अश्लीलता पर दिखाई देते हैं। इनको भारतीय जीवन शैली और मूल्यों से कोई वास्ता दिखाई नहीं देता।

बिकाऊ सोसल मीडिया -यद्यपि सोसल मीडिया मुप्त में सूचनाएं/खबरें दे रहा है।  मगर, इस  पर फॉलोवर्स और 'लाइक' ख़रीदे जा रहे हैं। थोक के भाव फॉलोअर्स और लाइक खरीद कर किसी की इमेज बनाना/बिगाड़ना क्या यही सोशल मीडिया का काम है ?  फ़ेक वीडिओ अपलोड कर दंगों के समय जिस तरह सनसनी और उत्तेजना फैलाई जाती है ,सोशल मीडिया का दूसरा भयानक चेहरा सामने आया है।

कारपोरेटाइजेशन -   भारत में बीबीसी के पूर्व ब्यूरो चीफ मार्क तुली अपने लेख में कहते हैं कि खोजी पत्रकारिता भारत में बहुत हो रही है।  लेकिन नकारात्मक पहलू यह है कि कारपोरेटाइजेशन के चलते मीडिया की विश्वनीयता में गिरावट आई है।
एडिटिंग मेनेजर के कब्जे में - मार्क तुली के अनुसार , जब वे भारत आए थे तो यहाँ बड़े-बड़े एडिटर थे, लेकिन आज ऐसा नहीं दीखता।  उस ज़माने में अख़बार एडिटर के कब्जे में हुआ करता था, लेकिन आज विज्ञापन या सर्कुलेशन मेनेजर के कब्जे में है।  इसलिए जो खबरें प्रकाशित हो रही है या दिखाई जा रही है बह विज्ञापन या प्रबंधन के सोच के हिसाब से होती है।  पाठकों का हित कहीं पीछे चला गया है। न्यूज कम हो गई है , जबकि मनोरंजन बढ़ गया है। न्यूज अगर मनोरंजक है तो प्रकाशित हो जाती है , जबकि सूचना प्रधान खबरों का प्रकाशन कम हो गया है।

सनसनीखेज मीडिया - आगे,  मार्क तुली कहते हैं कि जब उन्होंने बीबीसी ज्वॉइन की थी तब वह एकमात्र न्यूज ब्राडकास्टर था। लोग बीबीसी पर भरोसा करते थे।  मगर आज मीडिया इन्वेस्टिगेटिव तो है, लेकिन सनसनीखेज भी हो रहा है। खासकर टीवी चैनल छोटी-छोटी घटनाओं को बड़ा करके पेश करते हैं।  न्यूज चैंनल कहते हैं कि वे डिमांड और सप्लाई के आधार पर चलेंगे, तो यह स्थिति ठीक नहीं है। मीडिया की ओर से ऐसा सुनने पर बहुत निराशा होती है।    
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1. लेख स्रोत : पत्रिका : 26 जन 2014 भोपाल(म प्र) 

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