पुष्कर मेला -
पुष्कर कहते हैं , कमल को। पुष्कर मेला अर्थात ऐसा मेला जहाँ कमल ही कमल पुष्प हो। जैसे नीदरलैंड, फूलों का अंतर्राष्ट्रीय मार्केट है, भारत में पुष्कर, कमल के फूलों के लिए वैसा ही मार्केट होना चाहिए, मैं सोच रहा था। मगर, मुझे झील में शायद ही कोई कमल का फूल दिखा हो। दरअसल, पुष्कर के मायने तो कमल ही है किन्तु इस का सम्बन्ध बगीचे और मार्केट से नहीं, पौराणिक कथा से है। अब पौराणिक कथाओं को पुराणों में ही रहने दे, तो बेहतर है।
सुना है, पुष्कर मेले में ऊंट, घोड़े, गाय, भेड़, बकरी जैसे जानवरों की बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त होती है। इस अवसर पर विविध कई सांस्कृतिक कार्यक्रम- पुरुष और महिलाओं के बीच 'मटका फोड़ प्रतियोगिता', पुरुषों के लिए लम्बी मूछों के प्रदर्शन की प्रतियोगिता, ऊँट-दौड़ आदि आयोजित किए जाते हैं। यह मेला कार्तिक माह की पहली तिथि(अक्टू-नव) को शुरू होकर इसके पंद्रह दिन बाद पूर्णिमा को समाप्त होता है
चूँकि हम लोग मेले के अवसर पर नहीं आए थे, अतएव न तो लोगों का मेला देख पाए न ऊंट, घोड़े और दीगर जानवरों की खरीद-फरोख्त। हाँ, पुष्कर झील जरूर देखे जहाँ लोग एकादसी से पूर्णिमा के बीच स्नान कर खुद को पाक-साफ़ करते हैं।
झील के ऊपर घाट बने हैं। घाट इस प्रकार बनाए गए हैं कि एक घाट में आया श्रद्धालु दूसरा घाट चढ़ नहीं सकता। अगर झील किनारे बैठ कर पीछे ऊपर नजर दौड़ायें तो घाट वाले पुरोहित/ पंडितजी का दरबार दिखता है।
यद्यपि हम स्नान करने नहीं आए थे तो भी आरती की थाली लिए एक पंडितजी टकरा ही गए। बड़े मुश्किल से समझा पाएं कि हम श्रद्धालु नहीं, पर्यटक हैं। हमारे यहाँ जनता श्रद्धालु होती है, भक्ति-भाव वाली होती है। हमारी सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था भी उसे श्रद्धालु बनाएं रखना चाहती है। उन्हें डर होता है कि जनता अपने ज्ञान-चक्षु न खोल दे। जनता का ज्ञान-चक्षु खोलना व्यवस्था के लिए खतरा होता है। जनता श्रद्धालु बनी रहे, इसलिए ये सारे तीर्थ और और मंदिरों का निर्माण किया जाता हैं।
घाट के स्लेब पर बैठ कर मैं सोच रहा था कि मेले के अवसर पर जब यहाँ पावं रखने जगह नहीं होती होगी तब नजारा कैसा होता होगा। झील में स्नान और पूजा-अर्चना करते लोग, श्रद्धालुओं को घेरे मन्त्र बुदबुदाते पंडितजी। बड़ा भक्ति-भाव वाला दृश्य होता होगा, मैं सोच रहा था।
अभी, जब कि यहाँ हमारे आलावा एक-दो- श्रद्धालु और थे, झील का पानी स्नान करने लायक तो कतई नहीं था। किन्तु जब यहाँ हजारों और लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते होंगे, इस पवित्र जल की स्थिति क्या होती होगी, अंदाज लगाना मुश्किल है। हमारे देखते-देखते एक श्रद्धालु आया और स्नान करने वह पानी में उतरा भी किन्तु शायद उसकी हिम्मत जवाब दे गई। वह पवित्र जल के कुछ छींटे सर पर छिड़क कर बाहर आ गया।
ब्रम्हाजी का मंदिर-
पंडितजी बतला रहे थे, ब्रह्माजी का मंदिर हर जगह नहीं होता। सिर्फ पुष्कर में यह मंदिर है। जिज्ञासा-वश मैंने कहा, हनुमानजी का मंदिर तो सब जगह होता है, बीच सड़क में, गली के नुक्कड़ पर, चौराहे में तो कहीं पहाड़ी पर। पंडितजी ने बतलाया कि यही तो ब्रम्हाजी और हनुमानजी में फर्क है
! यूँ मुझे देवी-देवता की कथा में जरा भी दिलचस्पी नही । पंडितजी बतलाते रहे और मैं सोच रहा था कि वह क्या बात है कि यह मंदिर इतना प्रसिद्द है ? मैंने देखा कि सीढ़ी से ले कर मंदिर और मंदिर परिसर की हर दिवार पर लगी टाइलें दान दाताओं के नाम से गुदी है। मुझे यह कार्य प्रेरणास्पद लगा। शुरू में ही मुझे एक टाइल पर अपने इधर के एक गावं के सज्जन का नाम दिख गया था। मैं पहले ही अभिभूत था। मंदिर किसने बनाया, अज्ञात है।
पुष्कर कहते हैं , कमल को। पुष्कर मेला अर्थात ऐसा मेला जहाँ कमल ही कमल पुष्प हो। जैसे नीदरलैंड, फूलों का अंतर्राष्ट्रीय मार्केट है, भारत में पुष्कर, कमल के फूलों के लिए वैसा ही मार्केट होना चाहिए, मैं सोच रहा था। मगर, मुझे झील में शायद ही कोई कमल का फूल दिखा हो। दरअसल, पुष्कर के मायने तो कमल ही है किन्तु इस का सम्बन्ध बगीचे और मार्केट से नहीं, पौराणिक कथा से है। अब पौराणिक कथाओं को पुराणों में ही रहने दे, तो बेहतर है।
सुना है, पुष्कर मेले में ऊंट, घोड़े, गाय, भेड़, बकरी जैसे जानवरों की बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त होती है। इस अवसर पर विविध कई सांस्कृतिक कार्यक्रम- पुरुष और महिलाओं के बीच 'मटका फोड़ प्रतियोगिता', पुरुषों के लिए लम्बी मूछों के प्रदर्शन की प्रतियोगिता, ऊँट-दौड़ आदि आयोजित किए जाते हैं। यह मेला कार्तिक माह की पहली तिथि(अक्टू-नव) को शुरू होकर इसके पंद्रह दिन बाद पूर्णिमा को समाप्त होता है
चूँकि हम लोग मेले के अवसर पर नहीं आए थे, अतएव न तो लोगों का मेला देख पाए न ऊंट, घोड़े और दीगर जानवरों की खरीद-फरोख्त। हाँ, पुष्कर झील जरूर देखे जहाँ लोग एकादसी से पूर्णिमा के बीच स्नान कर खुद को पाक-साफ़ करते हैं।
झील के ऊपर घाट बने हैं। घाट इस प्रकार बनाए गए हैं कि एक घाट में आया श्रद्धालु दूसरा घाट चढ़ नहीं सकता। अगर झील किनारे बैठ कर पीछे ऊपर नजर दौड़ायें तो घाट वाले पुरोहित/ पंडितजी का दरबार दिखता है।
यद्यपि हम स्नान करने नहीं आए थे तो भी आरती की थाली लिए एक पंडितजी टकरा ही गए। बड़े मुश्किल से समझा पाएं कि हम श्रद्धालु नहीं, पर्यटक हैं। हमारे यहाँ जनता श्रद्धालु होती है, भक्ति-भाव वाली होती है। हमारी सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था भी उसे श्रद्धालु बनाएं रखना चाहती है। उन्हें डर होता है कि जनता अपने ज्ञान-चक्षु न खोल दे। जनता का ज्ञान-चक्षु खोलना व्यवस्था के लिए खतरा होता है। जनता श्रद्धालु बनी रहे, इसलिए ये सारे तीर्थ और और मंदिरों का निर्माण किया जाता हैं।
घाट के स्लेब पर बैठ कर मैं सोच रहा था कि मेले के अवसर पर जब यहाँ पावं रखने जगह नहीं होती होगी तब नजारा कैसा होता होगा। झील में स्नान और पूजा-अर्चना करते लोग, श्रद्धालुओं को घेरे मन्त्र बुदबुदाते पंडितजी। बड़ा भक्ति-भाव वाला दृश्य होता होगा, मैं सोच रहा था।
अभी, जब कि यहाँ हमारे आलावा एक-दो- श्रद्धालु और थे, झील का पानी स्नान करने लायक तो कतई नहीं था। किन्तु जब यहाँ हजारों और लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते होंगे, इस पवित्र जल की स्थिति क्या होती होगी, अंदाज लगाना मुश्किल है। हमारे देखते-देखते एक श्रद्धालु आया और स्नान करने वह पानी में उतरा भी किन्तु शायद उसकी हिम्मत जवाब दे गई। वह पवित्र जल के कुछ छींटे सर पर छिड़क कर बाहर आ गया।
ब्रम्हाजी का मंदिर-
पंडितजी बतला रहे थे, ब्रह्माजी का मंदिर हर जगह नहीं होता। सिर्फ पुष्कर में यह मंदिर है। जिज्ञासा-वश मैंने कहा, हनुमानजी का मंदिर तो सब जगह होता है, बीच सड़क में, गली के नुक्कड़ पर, चौराहे में तो कहीं पहाड़ी पर। पंडितजी ने बतलाया कि यही तो ब्रम्हाजी और हनुमानजी में फर्क है
! यूँ मुझे देवी-देवता की कथा में जरा भी दिलचस्पी नही । पंडितजी बतलाते रहे और मैं सोच रहा था कि वह क्या बात है कि यह मंदिर इतना प्रसिद्द है ? मैंने देखा कि सीढ़ी से ले कर मंदिर और मंदिर परिसर की हर दिवार पर लगी टाइलें दान दाताओं के नाम से गुदी है। मुझे यह कार्य प्रेरणास्पद लगा। शुरू में ही मुझे एक टाइल पर अपने इधर के एक गावं के सज्जन का नाम दिख गया था। मैं पहले ही अभिभूत था। मंदिर किसने बनाया, अज्ञात है।
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