न किञ्चि अभेसज्जं अद्दसं
तेन समयेन तक्कसिलायं
उस समय तक्षशिला में
दिसा-पामोक्खो वेज्जो पटिवसति।
दिशाओं में प्रसिद्ध एक वैद्य रहता था।
तं पटिसुत्वा राजगहस्स कोमारभच्चो, जीवको
उसे सुनकर राजगृह का कौमार-भृत्य, जीवक
तं वेज्जस्स संन्तिके गच्छन्तं एतदवोच।
उस वैद्य के पास जा यह बोला-
‘‘इच्छामहं आचरिय, सिप्पं सिक्खितुं ’’ति
‘‘इच्छा है, आचार्य! शिल्प सीखने की।’’
‘‘तेन हि भणे जीवक! सिक्खस्सुं’’ति।
‘‘तो भणे जीवक! सीखो।’’
अथ खो जीवको कोमारभच्चो
तब जीवक कौमार-भृत्य
बहुं च गण्हाति लहुं च गण्हाति,
बहुत धारण करता था, जल्दी धारण करता था,
सुट्ठं च उपधारेति
और उत्तम समझता था
गहितं च तस्स न सम्मुस्सति।
धारण किए हुए को भूलता न था।
सत्तन्नं वस्सानं अच्चयेन
सात वर्ष के अनन्तर
अथ खो जीवको कोमारभच्चो
तब, जीवक कौमार-भृत्य ने
तं वेज्जं एतदवोच-
उस वैद्य से यह कहा-
‘‘अहं खो आचरिय,
‘‘मैं अब आचार्य
बहु च गण्हाति, लहुं च गण्हाति,
बहुत ग्रहण करता था, शीघ्रता से ग्रहण करता था
सुट्ठं च उपधारेति
और उत्तम धारण करता था
गहितं तं मे न सम्मुस्सति,
ग्रहण किए हुए को मैं न भूलता था.
सत्त च मे वस्सानि अधियन्तस्स,
सात वर्ष मेरे अध्ययन करते हुए
सिप्पस्स अन्तो न पञ्ञायति।
शिल्प का अन्त जान नहीं पड़ता।
कदा इमस्स सिप्पस्स अन्तो पञ्ञायिस्सति’’ति?
कब इस शिल्प का अन्त जान पड़ेगा?’’
‘‘तेनहि भणे, जीवक! खणितिं आदाय
‘‘तो भणे जीवक! खणति(कुदाल) लेकर
तक्क्सिलाय समन्ता योजनं आहिण्डित्वा
तक्षशिला के योजन-योजन चारों ओर घूमकर
यं किञ्चि अभेसज्जं पस्सेय्यासि, तं आहरा’’ति
जो कुछ अ-भेषज्ज(दवा के अयोग्य) देखो, ले आओ।’’
‘‘एवं आचरिया!’’ ति खो जीवको, कोमारभच्चो
‘‘अच्छा आचार्य!’’ कह जीवक, कौमार-भृत्य
तस्स वेज्जस्स पटिसुणित्वा खणित्तिं आदाय
उस वैद्य को सुन खणिति(कुदाल) लेकर
तक्कसिलाय समन्ता योजनं आहिण्डितो
तक्षशिला के योजन-योजन चारों ओर घूमकर
न किञ्चि अभेसज्जं अद्दस।
कुछ भी अ-भेषज्ज न देखा।
अथ खो जीवको, कोमारभच्चो
तब जीवक कौमार-भृत्य
येन सो वेज्जो तेनुपसंकमि।
जहां वह वैद्य थे, गया।
उपसंकमित्वा तं वेज्जं एतदवोच-
पास जाकर उस वैद्य को यह कहा-
‘‘आहिण्डिन्तोम्हि, आचरिय
‘‘धूम आया हूं, आचार्य
तक्कसिलाय समन्ता योजनं
तक्षशिला के योजन-योजन चारों ओर
न किञ्चि अभेसज्जं अद्दसं’’ति।
किन्तु कुछ भी अ-भेषज्ज न देखा।’’
कदा इमस्स सिप्पस्स अन्तो पञ्ञायिस्सति’’ति?
कब इस शिल्प का अन्त जान पड़ेगा?’’
‘‘तेनहि भणे, जीवक! खणितिं आदाय
‘‘तो भणे जीवक! खणति(कुदाल) लेकर
तक्क्सिलाय समन्ता योजनं आहिण्डित्वा
तक्षशिला के योजन-योजन चारों ओर घूमकर
यं किञ्चि अभेसज्जं पस्सेय्यासि, तं आहरा’’ति
जो कुछ अ-भेषज्ज(दवा के अयोग्य) देखो, ले आओ।’’
‘‘एवं आचरिया!’’ ति खो जीवको, कोमारभच्चो
‘‘अच्छा आचार्य!’’ कह जीवक, कौमार-भृत्य
तस्स वेज्जस्स पटिसुणित्वा खणित्तिं आदाय
उस वैद्य को सुन खणिति(कुदाल) लेकर
तक्कसिलाय समन्ता योजनं आहिण्डितो
तक्षशिला के योजन-योजन चारों ओर घूमकर
न किञ्चि अभेसज्जं अद्दस।
कुछ भी अ-भेषज्ज न देखा।
अथ खो जीवको, कोमारभच्चो
तब जीवक कौमार-भृत्य
येन सो वेज्जो तेनुपसंकमि।
जहां वह वैद्य थे, गया।
उपसंकमित्वा तं वेज्जं एतदवोच-
पास जाकर उस वैद्य को यह कहा-
‘‘आहिण्डिन्तोम्हि, आचरिय
‘‘धूम आया हूं, आचार्य
तक्कसिलाय समन्ता योजनं
तक्षशिला के योजन-योजन चारों ओर
न किञ्चि अभेसज्जं अद्दसं’’ति।
किन्तु कुछ भी अ-भेषज्ज न देखा।’’
‘‘सक्खितो, भणे जीवक,
‘‘सीख चुके भणे जीवक,
अलं ते एत्तकं जीविकाया’’ति।
यह तुम्हारी जीविका के लिए प्रयाप्त है।’’
स्रोत- महावग्गः विनय पिटक
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