बौद्धों की 'पूजा-पाठ' हिन्दुओं का अनुकरण
वर्तमान में, हमारे यहाँ जो 'बुद्ध वंदना' की जाती है, चाहे घरों में हो या बुद्ध विहारों में, उसका विधि-विधान हिन्दुओं का अनुकरण है, ऐसा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है. यद्यपि इस बात से खुश हुआ जा सकता है कि बौद्ध 'पूजा-पाठ' में उपासक कुछ माँगता नहीं है जैसे एक हिन्दू अपने इष्ट देवता से मांगता है. अधिक से अधिक बौद्ध उपासक अपने या अपने परिवार के मंगल होने की कामना करता है जैसे 'भवतु मे जय मंगलं' से प्रतीत होता है.
दरअसल, बौद्धों में बुद्ध को 'भगवान' या 'देवता' नहीं समझा जाता। और, जब बुद्ध 'भगवान' या 'देवता' नहीं है तो उसके पास वह 'शक्ति' भी नहीं है कि किसी की मांग पूरी हो. बौद्धों में चमत्कार और रहस्यों को हीन दृष्टी से देखा जाता है. बुद्ध स्वत: ही चमत्कारों और रहस्यों के विरुद्ध देशना करते हैं. ति-पिटक ग्रंथों में ऐसे कई प्रसंग हैं जिनसे इसकी पुष्टि होती है.
बौद्धों पर, चाहे वे भारत के हो या अन्य देशों के, उनकी पूजा-पद्दति पर हिन्दुओं का प्रभाव साफ देखा जा सकता है और यह स्वाभाविक भी है. कारण यह है कि 'बुद्धिस्ट कल्चर' जिसे एक तरह से भारत से पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया था, उसका पुनरुद्धार जो बाबासाहब के धर्मांतरण के बाद हुआ, उसका 'संस्करण' या तो बाहरी बुद्धिस्ट देशों से आया है अथवा हिन्दुओं के अनुकरण से .
बाबासाहब अम्बेडकर, जब वे बुद्धिज़्म की ओर प्रवृत हुए, कई बार बुद्धिस्ट देशों की यात्रा पर गए थे और उनके पूजा विधि-विधानों का अध्ययन कर तत्सम्बंध में एक पुस्तिका भी तैयार की. उन्होंने उनमें से कई 'अपच' चीजें निकालने का प्रयास भी किया। भारत जैसे 'हिन्दू संस्कृति' प्रधान देश में बाबा साहब अम्बेडकर 'पूजा' का महत्त्व अच्छी तरह समझते थे. तात्कालिक रूप से उन्हें अपने समाज के लोगों के लिए 'हिन्दू संस्कृति' का विस्थापन चाहिए था. अपेक्षित सुधार तो बाद में भी किया जा सकता था.
और इसलिए वर्तमान में, हमारे यहाँ 'बुद्ध वंदना' के नाम पर जो भी 'पूजा-पाठ' किया जाता है, उस पर हिन्दू 'पूजा-पाठ' का असर साफ-साफ देखा जा सकता है. ति-रत्न वंदना के पहले जो पुष्प पूजा, धूप पूजा, सुगंधी पूजा पदीप पूजा, बोधि पूजा आदि की जाती हैं, उसमें कई स्थानों पर 'पूजा' शब्द आता है. यथा 'पूजयामि मुनिंदस्स सिरिपाद सरोरूहे आदि. यह हिन्दू पूजा-पाठ का अनुकरण नहीं तो क्या है ?
यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु 'परित्राण पाठ' क्या है ? इसमें बाकायदा देवताओं का आव्हान किया जाता है! 'परित्राण-पाठ', जो सिंहल द्वीप, म्यामार आदि से आयात हुआ है, वह 'सत्य नारायण की कथा' से कम नहीं है! इसमें 'ब्रह्मा' आदि देवताओं को नमन किया जाता है ! स्वर्ग-नरक का उपदेश दिया जाता है ! अगर कुछ 'सुधार' की बात करो तो 'बाहरी दुश्मनों' का भय दिखा कर चुप करा दिया जाता है ?
धम्मप्रचारक इसे भली-भांति जानते हैं किन्तु, निहित स्वार्थ-वश यह 'खेल' चलता रहता है। धम्मप्रचारक किसी न किसी 'धम्म-प्रतिष्ठान' से सम्बद्ध होते हैं. धम्म-प्रचारकों की प्रतिष्ठा इन प्रतिष्ठानों से होती है. 'परित्राण-पाठ' न करने से धम्म-प्रचारकों की मांग कम होती है जो इन प्रतिष्ठानों की सेहत के लिए अरुचिकर है. चूँकि इन प्रतिष्ठानों में 'हिन्दू मिशनरियों' का काफी पैसा लगा होता है और इसलिए ये 'खेल' मिली-भगत से चलता रहता है.
बाबासाहब अम्बेडकर इन प्रतिष्ठानों/बुद्धविहारों को शिक्षा के केंद्र बनाना चाहते थे. किन्तु वर्तमान में ये प्रतिष्ठान विपस्सना और पूजा के केंद्र बन कर रह गए हैं. यहाँ सामाजिक-शैक्षणिक बातें करना यहाँ के प्रबंधकों को 'राजनीति' की बातें लगती है ! वे तुरंत इस विषय पर बात करने को मना कर देते हैं !
जो नव दीक्षित बौद्ध हैं, वे तो बहुत कुछ ठीक है, तिब्बती जैसे परम्परागत बुद्धिस्टों की पूजा-पाठ तो हिन्दुओं से भी अधिक लम्बी है. आप अधिक दूर नहीं, बुद्धगया अथवा सारनाथ जाईए, वहां आप भारत में ही होकर किसी 'दिव्य लोक' में होते हैं. हाँ, मगर इन बुद्ध विहारों में एक शुकून भरी शांति दिखाई देती है जो हिन्दू मंदिरों में नदारत है.
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डॉ अम्बेड कर द्वारा बौद्ध देशों की यात्रा-
1950 सिंहल द्वीप में संपन्न प्रथम विश्व बौद्ध सम्मलेन
1952 रंगून विश्व बौद्ध सम्मलेन
1956 नेपाल काठमांडू विश्व बौद्ध बौद्ध सम्मलेन
वर्तमान में, हमारे यहाँ जो 'बुद्ध वंदना' की जाती है, चाहे घरों में हो या बुद्ध विहारों में, उसका विधि-विधान हिन्दुओं का अनुकरण है, ऐसा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है. यद्यपि इस बात से खुश हुआ जा सकता है कि बौद्ध 'पूजा-पाठ' में उपासक कुछ माँगता नहीं है जैसे एक हिन्दू अपने इष्ट देवता से मांगता है. अधिक से अधिक बौद्ध उपासक अपने या अपने परिवार के मंगल होने की कामना करता है जैसे 'भवतु मे जय मंगलं' से प्रतीत होता है.
दरअसल, बौद्धों में बुद्ध को 'भगवान' या 'देवता' नहीं समझा जाता। और, जब बुद्ध 'भगवान' या 'देवता' नहीं है तो उसके पास वह 'शक्ति' भी नहीं है कि किसी की मांग पूरी हो. बौद्धों में चमत्कार और रहस्यों को हीन दृष्टी से देखा जाता है. बुद्ध स्वत: ही चमत्कारों और रहस्यों के विरुद्ध देशना करते हैं. ति-पिटक ग्रंथों में ऐसे कई प्रसंग हैं जिनसे इसकी पुष्टि होती है.
बौद्धों पर, चाहे वे भारत के हो या अन्य देशों के, उनकी पूजा-पद्दति पर हिन्दुओं का प्रभाव साफ देखा जा सकता है और यह स्वाभाविक भी है. कारण यह है कि 'बुद्धिस्ट कल्चर' जिसे एक तरह से भारत से पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया था, उसका पुनरुद्धार जो बाबासाहब के धर्मांतरण के बाद हुआ, उसका 'संस्करण' या तो बाहरी बुद्धिस्ट देशों से आया है अथवा हिन्दुओं के अनुकरण से .
बाबासाहब अम्बेडकर, जब वे बुद्धिज़्म की ओर प्रवृत हुए, कई बार बुद्धिस्ट देशों की यात्रा पर गए थे और उनके पूजा विधि-विधानों का अध्ययन कर तत्सम्बंध में एक पुस्तिका भी तैयार की. उन्होंने उनमें से कई 'अपच' चीजें निकालने का प्रयास भी किया। भारत जैसे 'हिन्दू संस्कृति' प्रधान देश में बाबा साहब अम्बेडकर 'पूजा' का महत्त्व अच्छी तरह समझते थे. तात्कालिक रूप से उन्हें अपने समाज के लोगों के लिए 'हिन्दू संस्कृति' का विस्थापन चाहिए था. अपेक्षित सुधार तो बाद में भी किया जा सकता था.
और इसलिए वर्तमान में, हमारे यहाँ 'बुद्ध वंदना' के नाम पर जो भी 'पूजा-पाठ' किया जाता है, उस पर हिन्दू 'पूजा-पाठ' का असर साफ-साफ देखा जा सकता है. ति-रत्न वंदना के पहले जो पुष्प पूजा, धूप पूजा, सुगंधी पूजा पदीप पूजा, बोधि पूजा आदि की जाती हैं, उसमें कई स्थानों पर 'पूजा' शब्द आता है. यथा 'पूजयामि मुनिंदस्स सिरिपाद सरोरूहे आदि. यह हिन्दू पूजा-पाठ का अनुकरण नहीं तो क्या है ?
यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु 'परित्राण पाठ' क्या है ? इसमें बाकायदा देवताओं का आव्हान किया जाता है! 'परित्राण-पाठ', जो सिंहल द्वीप, म्यामार आदि से आयात हुआ है, वह 'सत्य नारायण की कथा' से कम नहीं है! इसमें 'ब्रह्मा' आदि देवताओं को नमन किया जाता है ! स्वर्ग-नरक का उपदेश दिया जाता है ! अगर कुछ 'सुधार' की बात करो तो 'बाहरी दुश्मनों' का भय दिखा कर चुप करा दिया जाता है ?
धम्मप्रचारक इसे भली-भांति जानते हैं किन्तु, निहित स्वार्थ-वश यह 'खेल' चलता रहता है। धम्मप्रचारक किसी न किसी 'धम्म-प्रतिष्ठान' से सम्बद्ध होते हैं. धम्म-प्रचारकों की प्रतिष्ठा इन प्रतिष्ठानों से होती है. 'परित्राण-पाठ' न करने से धम्म-प्रचारकों की मांग कम होती है जो इन प्रतिष्ठानों की सेहत के लिए अरुचिकर है. चूँकि इन प्रतिष्ठानों में 'हिन्दू मिशनरियों' का काफी पैसा लगा होता है और इसलिए ये 'खेल' मिली-भगत से चलता रहता है.
बाबासाहब अम्बेडकर इन प्रतिष्ठानों/बुद्धविहारों को शिक्षा के केंद्र बनाना चाहते थे. किन्तु वर्तमान में ये प्रतिष्ठान विपस्सना और पूजा के केंद्र बन कर रह गए हैं. यहाँ सामाजिक-शैक्षणिक बातें करना यहाँ के प्रबंधकों को 'राजनीति' की बातें लगती है ! वे तुरंत इस विषय पर बात करने को मना कर देते हैं !
जो नव दीक्षित बौद्ध हैं, वे तो बहुत कुछ ठीक है, तिब्बती जैसे परम्परागत बुद्धिस्टों की पूजा-पाठ तो हिन्दुओं से भी अधिक लम्बी है. आप अधिक दूर नहीं, बुद्धगया अथवा सारनाथ जाईए, वहां आप भारत में ही होकर किसी 'दिव्य लोक' में होते हैं. हाँ, मगर इन बुद्ध विहारों में एक शुकून भरी शांति दिखाई देती है जो हिन्दू मंदिरों में नदारत है.
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डॉ अम्बेड कर द्वारा बौद्ध देशों की यात्रा-
1950 सिंहल द्वीप में संपन्न प्रथम विश्व बौद्ध सम्मलेन
1952 रंगून विश्व बौद्ध सम्मलेन
1956 नेपाल काठमांडू विश्व बौद्ध बौद्ध सम्मलेन
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