गोतमी सुत्तं
एकं समयं भगवा सक्केसु(साक्यों के जनपद में) विहरति कपिलवत्थुस्मिं(कपिलवत्थु में स्थित) निगोधारामे(निग्रोधाराम विहार में)। अथ खो महापजापती गोतमी येन(जहां) भगवा तेनुपसंकमि(पहुंची); उपसंकमित्वा(पहुंच कर) भगवन्तं (भगवान को)अभिवादेत्वा(अभिवादन कर) एकमन्तं(एक ओर) अट्ठासि(खड़ी हो गई)। एकमन्तं ठिता(खड़ी) खो महापजापती गोतमी भगवन्तं एकतदवोच(ऐसा कहा)-
‘‘साधु(अच्छा हो), भन्ते, लभेय्य(लाभ हो) मातुगामो(महिलाओं को) तथागत -उप्पवेदिते(तथागत द्वारा उपदिष्ट) धम्मविनये(धम्म-विनय में) अगारस्मा(घर से) अनगारियं(बे-घर हुए को) पब्बज्जं’’न्ति(प्रव्रज्जा)।
‘‘अलं(बस), गोतमी! मा(न) ते(तुम्हे) रुच्चि(रुचिकर हो) मातुगामस्स(महिलाओं का) तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जा’’ति। दुतियम्पि खो पे..... ततियम्पि खो महापजापती गोतमी भगवन्तं एतदवोच- ‘साधु, भन्ते, लभेय्य मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति। ‘‘अलं, गोतमी! मा ते रुच्चि मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जा’’ति।
अथ खो महापजापती गोतमी ‘न भगवा अनुजानाति(अनुज्ञा देते हैं) मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्ज’न्ति दुक्खी दुम्मना(दुक्खी-मन) अस्सुमुखी(अश्रु-मुख) रुदमाना(रोते हुए) भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं(प्रणाम) कत्वा (कर) पक्कामि(चली गई)।
अथ खो भगवा कपिलवत्थुस्मिं यथाअभिरन्तं(इच्छानुसार) विहरित्वा येन वेसाली तेन चारिकं पक्कामि। तत्थ भगवा वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालायं।
अथ खो महापजापती गोतमी केसे(केस) छेदापेत्वा(कटवा कर) कासायानि(कासाय) वत्थानि(वस्त्रों को) अच्छादेत्वा(ओढ़ कर) सम्बहुलानि(कुछ) साकियानिहि(साक्य महिलाओं के) सद्धिं(साथ) येन वेसाली तेन पक्कामि। अथ खो महापजापती गोतमी सूनेहि(सूजे हुए) पादेहि(पैरों से) रजोकिण्णेन गत्तेन(धूल-धूसरित देह से) दुक्खी दुम्मना अस्सुमुखी रुदमाना बहिद्वारकोट्ठके(कमरे के बाहरी दरवाजे में) अट्ठासि(खड़ी हो गई)।
अद्दस्सा(देखा) खो आयस्मा आनन्दो(आयु. आनन्द ने) महापजापतिं गोतमिं(गोतमी को) ‘‘किं(क्यों) नु त्वं(तुम), गोतमि, सूनेहि पादेहि रजोकिण्णेन गत्तेन दुक्खी दुम्मना अस्सुमुखी रुदमाना बहीद्वाराकोट्ठके ठिता’’ति?
‘‘तथा हि पन(क्योंकि), भन्ते आनन्द, न भगवा अनुजानाति मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति।
‘‘तेन(तब) ही त्वं, गोतमि, मुहुत्तं(उचित समय) इध एव(यहीं) ताव होहि(आप ठहरें), याव(तब तक) अहं(मैं) भगवन्तं याचामि(याचना करता हूं)।
अथ खो आनन्दो येन भगवा तेन उपसंकमि; उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एमदवोच-
‘‘ऐसा, भन्ते, महापजापती गोतमी सूनेहि पादेहि रजोकिण्णेन गत्तेन दुक्खी दुम्मना अस्सुमुखी रुदमाना बहिद्वारकोट्ठके ठिता- ‘न भगवा अनुजानाति मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्ज’’न्ति। साधु, भन्ते, लभेय्य मातुगामो तथागत-उप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति।
‘‘अलं, आनन्द! मा ते रुच्चि मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जा’’ति।
दुतियम्पि खो पे.....ततियम्पि खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच- ‘‘साधु, भन्ते, लभेय्य मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति। ‘‘अलं, आनन्द! मा ते रुच्चि मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जा’’ति।
अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि- ‘‘न भगवा अनुजानाति मातुगामस्स तथागत-उप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं। यंनूनाहं अञ्ञेन पि परियायेन भगवन्तं याचेय्यं मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्ज’’न्ति। अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच-
‘‘भब्बो नु खो, भन्ते, मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जित्वा सोतापतिफलं वा सकदागामिफलं वा अनागामिफलं वा अरहत्तफलं वा सच्छिकातु‘‘न्ति?
‘‘भब्बो, आनन्द, मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जित्वा सोतापतिफलं वा सकदागामिफलं वा अनागामिफलं वा अरहत्तफल वा सच्छिकातु‘‘न्ति?
‘‘सचे भन्ते, भब्बो मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जित्वा सोतापतिफलं वा सकदागामिफलं वा अनागामिफलं वा अरहत्तफलं वा सच्छिकातुं । बहुकारा(बहुत उपकार करने वाली है) भन्ते, महापजापति गोतमी भगवतो मातुच्छा(मौसी) आपादिका(दाई/अभिभाविका) पोसिका(पोसण करने वाली) खीरस्स दायिका(दूध देने वाली); भगवन्तं जनेत्तिया(भगवान की जननी के) कालं-कताय(मरने के बाद) थञ्ञं पायेसि(स्तन-पान कराया है)। साधु, भन्ते, लभेय्य मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति।
सच्चे(यदि) आनन्द, महापजापती गोतमी अट्ठ(आठ) गरुं(गम्भीर) धम्मे(बातें) पटिगण्हाति(स्वीकार करती है), सा तस्सा(यही उसकी) होतु उपसम्पदा(उपसम्पदा हो)।
1. वस्स(वर्ष) सत(सौ) उपसम्पन्नाय(उप-सम्पन्न), भिक्खुनिया(भिक्खुनियों को) तद(उसी दिन) उपसम्पन्नस्स(उप-सम्पन्न) भिक्खुनो(भिक्खु को) अभिवादनं पच्चुट्ठानं(प्रत्युप-स्थान) अंजलिकम्मं(अंजलि-बद्ध प्रणाम) सामिचिकम्मं(योग्य कर्म) कत्तब्बं(करना पड़ेगा)।
2. न भिक्खुनिया(भिक्खुनि को) अभिक्खुके आवासे(अ-भिक्खु आवास/गांव में) वस्सं उप-गन्तब्बं(रहना होगा)।
3. अन्वड्ढ मासं(आधे मास पर/पन्द्रहवें दिन) भिक्खुनिया(भिक्खुनियों को) भिक्खु-संघतो(भिक्खु-संघ से) द्वे धम्मा(दो बातों की) पच्चासोसितब्बा(प्रत्यासा करनी होगी) उपोसथ पुच्छकं(उपोसथ संबंधी पुच्छताछ) च ओवाद उपसंकमं(और उपदेश सुनने) च।
4. वस्सं वुट्ठाय(वर्षा-वास उठने/समाप्ति पर) भिक्खुनिया(भिक्खुनि को) उभतो संघे(दोनों संघों में) तीहि ठाने(तीनों स्थानों में अर्थात देखे, सुने और संदिग्ध प्रकार के दोषों को लेकर) ही पवारेतब्बं(पवारणा करनी होगी)।
5. गरुधम्मं(गम्भीर अपराध अर्थात संघादिसेस को) अज्झापनाय(सीखने-पढ़ने) भिक्खुनिया(भिक्खुनि को) उभतो(दोनों) संघे(संघों में) पक्ख-मानत्तं(पक्ष भर का मानत्व अर्थात प्रायश्चित) चरितब्बं(करनी होगा)।
6. द्वे वस्सानि(दो वर्षा-वास तक) छसु धम्मेसु(छह शीलों में) सिक्खितं(शि क्षित) सिक्खाय(सीखने) सिक्ख मानाय(शिक्षा मानने) उभतो संघे उप-सम्पदा परियेसितब्बा(खोजना होगा)।
7. न केनचि(किसी भी) परियायेन(कारण से) भिक्खुनिया(भिक्खुनि को) भिक्खु(भिक्खु को) अक्कोसितब्बो(आक्रोश करना होगा) परिभासितब्बो((बुरा-भला कहना होगा)।
8. ‘‘अज्जतग्गे(आज से) ओवटो(रास्ता बन्द हुआ) भिक्खुनीनं (भिक्खुणियों का) भिक्खूसु(भिक्खुओं पर) वचनपथो(वचनबद्ध), अन-ओवटो (खुला) भिक्खूनं(भिक्खुओं का) भिक्खुनीसु(भिक्खुणियों पर) वचनपथो(वचनबद्ध)।
अयं(यह) अपि धम्मो सक्कत्वा(स्वीकार कर) गरुं कत्वा(गर्व कर) मानेत्वा (मान कर) पूजेत्वा(पूज-कर) यावजीवं(जीवन भर) अनतिक्कमनीयो(अतिक्रमण नहीं करना है)।
सच्चे(यदि) आनन्द! महापजापती गोतमी, इमे अट्ठ(आठ) गरुं(गम्भीर) धम्मे(बातें) पटिगण्हाति(स्वीकार करती है), सा-अस्सा(यही उसकी) होतु उपसम्पदा’ति(उपसम्पदा हो)।
सेय्याथापि(जैसे) भंते आनन्द! इत्थी(स्त्री) वा(या) पुरिसो(पुरुस) वा दहरो(तरुण) सीसं(सिर से) न्हातो(स्नान करने के अनन्तर) उप्पल मालं(उप्पल माला) वा(या) वस्सिक मालं(जूही माला) वा मुत्तकं मालं(मोतियों की माला) वा लभित्वा(प्राप्त कर) उभोहि हत्थेहि(दोनों ही हाथों से) पटिग्गहेत्वा(लेकर) उत्तमङगे सिरस्मिं(उत्तम अंग सिर पर) पतिटठापेय्य(धारण करें),
एवमेव खो (इस प्रकार) आनन्द, इमे(ये) अट्ठ(आठ) गरु धम्मे(गरु धर्म्मों को) पटिग्गण्हामि(स्वीकार करती हूं) यावजीवं(जीवन भर) अनतिक्कमनीया’’ति(अतिक्रमण न करने के लिए)।
अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवा एतदवोच- "पटिग्गहिता, भन्ते! महापजापतिया गोतमिया अट्ठ गरुं धम्मा यावजीवं अतिकम्मनीया"ति।
तब आनन्द ने भगवान से यह कहा- "भंते! महाप्रजापति गोतमी ने आठों गंभीर धर्मों को जीवन भर पालन करने के लिए अंगीकार कर लिया है।"
‘‘सचे आनन्द, नालभिस्स मातुगामो तथागत उपवेदिते धम्म-विनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं, चिरट्ठितिकं अभविस्स।
"आनन्द! यदि स्त्रियों को तथागत द्वारा उपदिष्ट धर्म के अनुसार घर से बेघर होने की अनुमति न मिली होती तो यह श्रेष्ठ धम्म विनय चिरस्थायी होता।
यतो च खो आनन्द! मातुगामो तथागत उपवेदिते धम्म-विनयं अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, न इदानि आनन्द, चिरट्ठितिकं भविस्सति। पञ्चेव इदानि आनन्द, वस्ससतानि सद्धम्मो ठस्सति।
लेकिन क्योंकि आनन्द! अब स्त्रियां तथागत के उपदिष्ट धर्म-विनय शासन में घर से बेघर हो प्रव्रजित हो गई, तो अब यह श्रेष्ठ विनय चिरस्थायी नहीं होगा। अब यह सद्धर्म केवल पांच सौ वर्षों तक ही स्थिर रहेगा।
सेय्याथापि आनन्द, यानि कानि चि कुलानि बहुत्थिकानि अप्पुरिसकानि, तानि सुप्पधंसियानि होन्ति। एवमेव खो आनन्द, यस्मिं धम्मविनये लभति मातुगामो अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं, न तं चिरट्ठितिकं होति।"
आनन्द! जैसे एक कुल को जिसमें पुरुष कम हों और स्त्रियां अधिक हों, नष्ट कर डालता है, उसी प्रकार धर्म-विनय संगठन में स्त्रियों को घर से बेघर हो प्रव्रजित होने की अनुज्ञा मिल जाती है, वह श्रेष्ठ जीवन चिरस्थायी नहीं होता "(अट्ठक निपातोः अंगुत्तर निकाय)।
‘‘साधु(अच्छा हो), भन्ते, लभेय्य(लाभ हो) मातुगामो(महिलाओं को) तथागत -उप्पवेदिते(तथागत द्वारा उपदिष्ट) धम्मविनये(धम्म-विनय में) अगारस्मा(घर से) अनगारियं(बे-घर हुए को) पब्बज्जं’’न्ति(प्रव्रज्जा)।
‘‘अलं(बस), गोतमी! मा(न) ते(तुम्हे) रुच्चि(रुचिकर हो) मातुगामस्स(महिलाओं का) तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जा’’ति। दुतियम्पि खो पे..... ततियम्पि खो महापजापती गोतमी भगवन्तं एतदवोच- ‘साधु, भन्ते, लभेय्य मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति। ‘‘अलं, गोतमी! मा ते रुच्चि मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जा’’ति।
अथ खो महापजापती गोतमी ‘न भगवा अनुजानाति(अनुज्ञा देते हैं) मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्ज’न्ति दुक्खी दुम्मना(दुक्खी-मन) अस्सुमुखी(अश्रु-मुख) रुदमाना(रोते हुए) भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं(प्रणाम) कत्वा (कर) पक्कामि(चली गई)।
अथ खो भगवा कपिलवत्थुस्मिं यथाअभिरन्तं(इच्छानुसार) विहरित्वा येन वेसाली तेन चारिकं पक्कामि। तत्थ भगवा वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालायं।
अथ खो महापजापती गोतमी केसे(केस) छेदापेत्वा(कटवा कर) कासायानि(कासाय) वत्थानि(वस्त्रों को) अच्छादेत्वा(ओढ़ कर) सम्बहुलानि(कुछ) साकियानिहि(साक्य महिलाओं के) सद्धिं(साथ) येन वेसाली तेन पक्कामि। अथ खो महापजापती गोतमी सूनेहि(सूजे हुए) पादेहि(पैरों से) रजोकिण्णेन गत्तेन(धूल-धूसरित देह से) दुक्खी दुम्मना अस्सुमुखी रुदमाना बहिद्वारकोट्ठके(कमरे के बाहरी दरवाजे में) अट्ठासि(खड़ी हो गई)।
अद्दस्सा(देखा) खो आयस्मा आनन्दो(आयु. आनन्द ने) महापजापतिं गोतमिं(गोतमी को) ‘‘किं(क्यों) नु त्वं(तुम), गोतमि, सूनेहि पादेहि रजोकिण्णेन गत्तेन दुक्खी दुम्मना अस्सुमुखी रुदमाना बहीद्वाराकोट्ठके ठिता’’ति?
‘‘तथा हि पन(क्योंकि), भन्ते आनन्द, न भगवा अनुजानाति मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति।
‘‘तेन(तब) ही त्वं, गोतमि, मुहुत्तं(उचित समय) इध एव(यहीं) ताव होहि(आप ठहरें), याव(तब तक) अहं(मैं) भगवन्तं याचामि(याचना करता हूं)।
अथ खो आनन्दो येन भगवा तेन उपसंकमि; उपसंकमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एमदवोच-
‘‘ऐसा, भन्ते, महापजापती गोतमी सूनेहि पादेहि रजोकिण्णेन गत्तेन दुक्खी दुम्मना अस्सुमुखी रुदमाना बहिद्वारकोट्ठके ठिता- ‘न भगवा अनुजानाति मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्ज’’न्ति। साधु, भन्ते, लभेय्य मातुगामो तथागत-उप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति।
‘‘अलं, आनन्द! मा ते रुच्चि मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जा’’ति।
दुतियम्पि खो पे.....ततियम्पि खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच- ‘‘साधु, भन्ते, लभेय्य मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति। ‘‘अलं, आनन्द! मा ते रुच्चि मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जा’’ति।
अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि- ‘‘न भगवा अनुजानाति मातुगामस्स तथागत-उप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं। यंनूनाहं अञ्ञेन पि परियायेन भगवन्तं याचेय्यं मातुगामस्स तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्ज’’न्ति। अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच-
‘‘भब्बो नु खो, भन्ते, मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जित्वा सोतापतिफलं वा सकदागामिफलं वा अनागामिफलं वा अरहत्तफलं वा सच्छिकातु‘‘न्ति?
‘‘भब्बो, आनन्द, मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जित्वा सोतापतिफलं वा सकदागामिफलं वा अनागामिफलं वा अरहत्तफल वा सच्छिकातु‘‘न्ति?
‘‘सचे भन्ते, भब्बो मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जित्वा सोतापतिफलं वा सकदागामिफलं वा अनागामिफलं वा अरहत्तफलं वा सच्छिकातुं । बहुकारा(बहुत उपकार करने वाली है) भन्ते, महापजापति गोतमी भगवतो मातुच्छा(मौसी) आपादिका(दाई/अभिभाविका) पोसिका(पोसण करने वाली) खीरस्स दायिका(दूध देने वाली); भगवन्तं जनेत्तिया(भगवान की जननी के) कालं-कताय(मरने के बाद) थञ्ञं पायेसि(स्तन-पान कराया है)। साधु, भन्ते, लभेय्य मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं’’न्ति।
सच्चे(यदि) आनन्द, महापजापती गोतमी अट्ठ(आठ) गरुं(गम्भीर) धम्मे(बातें) पटिगण्हाति(स्वीकार करती है), सा तस्सा(यही उसकी) होतु उपसम्पदा(उपसम्पदा हो)।
1. वस्स(वर्ष) सत(सौ) उपसम्पन्नाय(उप-सम्पन्न), भिक्खुनिया(भिक्खुनियों को) तद(उसी दिन) उपसम्पन्नस्स(उप-सम्पन्न) भिक्खुनो(भिक्खु को) अभिवादनं पच्चुट्ठानं(प्रत्युप-स्थान) अंजलिकम्मं(अंजलि-बद्ध प्रणाम) सामिचिकम्मं(योग्य कर्म) कत्तब्बं(करना पड़ेगा)।
2. न भिक्खुनिया(भिक्खुनि को) अभिक्खुके आवासे(अ-भिक्खु आवास/गांव में) वस्सं उप-गन्तब्बं(रहना होगा)।
3. अन्वड्ढ मासं(आधे मास पर/पन्द्रहवें दिन) भिक्खुनिया(भिक्खुनियों को) भिक्खु-संघतो(भिक्खु-संघ से) द्वे धम्मा(दो बातों की) पच्चासोसितब्बा(प्रत्यासा करनी होगी) उपोसथ पुच्छकं(उपोसथ संबंधी पुच्छताछ) च ओवाद उपसंकमं(और उपदेश सुनने) च।
4. वस्सं वुट्ठाय(वर्षा-वास उठने/समाप्ति पर) भिक्खुनिया(भिक्खुनि को) उभतो संघे(दोनों संघों में) तीहि ठाने(तीनों स्थानों में अर्थात देखे, सुने और संदिग्ध प्रकार के दोषों को लेकर) ही पवारेतब्बं(पवारणा करनी होगी)।
5. गरुधम्मं(गम्भीर अपराध अर्थात संघादिसेस को) अज्झापनाय(सीखने-पढ़ने) भिक्खुनिया(भिक्खुनि को) उभतो(दोनों) संघे(संघों में) पक्ख-मानत्तं(पक्ष भर का मानत्व अर्थात प्रायश्चित) चरितब्बं(करनी होगा)।
6. द्वे वस्सानि(दो वर्षा-वास तक) छसु धम्मेसु(छह शीलों में) सिक्खितं(शि क्षित) सिक्खाय(सीखने) सिक्ख मानाय(शिक्षा मानने) उभतो संघे उप-सम्पदा परियेसितब्बा(खोजना होगा)।
7. न केनचि(किसी भी) परियायेन(कारण से) भिक्खुनिया(भिक्खुनि को) भिक्खु(भिक्खु को) अक्कोसितब्बो(आक्रोश करना होगा) परिभासितब्बो((बुरा-भला कहना होगा)।
8. ‘‘अज्जतग्गे(आज से) ओवटो(रास्ता बन्द हुआ) भिक्खुनीनं (भिक्खुणियों का) भिक्खूसु(भिक्खुओं पर) वचनपथो(वचनबद्ध), अन-ओवटो (खुला) भिक्खूनं(भिक्खुओं का) भिक्खुनीसु(भिक्खुणियों पर) वचनपथो(वचनबद्ध)।
अयं(यह) अपि धम्मो सक्कत्वा(स्वीकार कर) गरुं कत्वा(गर्व कर) मानेत्वा (मान कर) पूजेत्वा(पूज-कर) यावजीवं(जीवन भर) अनतिक्कमनीयो(अतिक्रमण नहीं करना है)।
सच्चे(यदि) आनन्द! महापजापती गोतमी, इमे अट्ठ(आठ) गरुं(गम्भीर) धम्मे(बातें) पटिगण्हाति(स्वीकार करती है), सा-अस्सा(यही उसकी) होतु उपसम्पदा’ति(उपसम्पदा हो)।
सेय्याथापि(जैसे) भंते आनन्द! इत्थी(स्त्री) वा(या) पुरिसो(पुरुस) वा दहरो(तरुण) सीसं(सिर से) न्हातो(स्नान करने के अनन्तर) उप्पल मालं(उप्पल माला) वा(या) वस्सिक मालं(जूही माला) वा मुत्तकं मालं(मोतियों की माला) वा लभित्वा(प्राप्त कर) उभोहि हत्थेहि(दोनों ही हाथों से) पटिग्गहेत्वा(लेकर) उत्तमङगे सिरस्मिं(उत्तम अंग सिर पर) पतिटठापेय्य(धारण करें),
एवमेव खो (इस प्रकार) आनन्द, इमे(ये) अट्ठ(आठ) गरु धम्मे(गरु धर्म्मों को) पटिग्गण्हामि(स्वीकार करती हूं) यावजीवं(जीवन भर) अनतिक्कमनीया’’ति(अतिक्रमण न करने के लिए)।
अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवा एतदवोच- "पटिग्गहिता, भन्ते! महापजापतिया गोतमिया अट्ठ गरुं धम्मा यावजीवं अतिकम्मनीया"ति।
तब आनन्द ने भगवान से यह कहा- "भंते! महाप्रजापति गोतमी ने आठों गंभीर धर्मों को जीवन भर पालन करने के लिए अंगीकार कर लिया है।"
‘‘सचे आनन्द, नालभिस्स मातुगामो तथागत उपवेदिते धम्म-विनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं, चिरट्ठितिकं अभविस्स।
"आनन्द! यदि स्त्रियों को तथागत द्वारा उपदिष्ट धर्म के अनुसार घर से बेघर होने की अनुमति न मिली होती तो यह श्रेष्ठ धम्म विनय चिरस्थायी होता।
यतो च खो आनन्द! मातुगामो तथागत उपवेदिते धम्म-विनयं अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, न इदानि आनन्द, चिरट्ठितिकं भविस्सति। पञ्चेव इदानि आनन्द, वस्ससतानि सद्धम्मो ठस्सति।
लेकिन क्योंकि आनन्द! अब स्त्रियां तथागत के उपदिष्ट धर्म-विनय शासन में घर से बेघर हो प्रव्रजित हो गई, तो अब यह श्रेष्ठ विनय चिरस्थायी नहीं होगा। अब यह सद्धर्म केवल पांच सौ वर्षों तक ही स्थिर रहेगा।
सेय्याथापि आनन्द, यानि कानि चि कुलानि बहुत्थिकानि अप्पुरिसकानि, तानि सुप्पधंसियानि होन्ति। एवमेव खो आनन्द, यस्मिं धम्मविनये लभति मातुगामो अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जं, न तं चिरट्ठितिकं होति।"
आनन्द! जैसे एक कुल को जिसमें पुरुष कम हों और स्त्रियां अधिक हों, नष्ट कर डालता है, उसी प्रकार धर्म-विनय संगठन में स्त्रियों को घर से बेघर हो प्रव्रजित होने की अनुज्ञा मिल जाती है, वह श्रेष्ठ जीवन चिरस्थायी नहीं होता "(अट्ठक निपातोः अंगुत्तर निकाय)।
स्त्रियों के प्रति भिक्खु-संघ के नजरिये को एक बार समझा भी जा सकता है. क्योंकि कदम-कदम पर उन्हें फिसलने का खतरा रहता था. किन्तु बुद्ध का नजरिया ? बुद्ध के मुख से जो कुछ कहलवाया गया है, मन व्यथित हो उठता है ! तत्सम्बंध में बुद्ध से कहलवाया गया है कि स्त्रियों को संघ में प्रव्रजित कर उनके धम्म का भविष्य अन्धकारमय हो गया है ! हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि बौद्ध धर्म के इस भारत भूमि से ख़त्म होने के बाह्य कम अंतर्भूत कारण अधिक थे. बुद्ध विरोधी तत्वों, जो निस्संदेह ब्राह्मण थे, ने इसमें घुस कर इसे नष्ट किया था.
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