पिछले अप्रैल 2013 को मेरे जन्म स्थान गावं सालेबर्डी (जिला बालाघाट, म प्र ) प्रवास के दौरान हमें वहाँ दो नवयुवक नव-निर्माणाधीन बुद्ध विहार प्रांगण में मिले थे। बातों ही बातों में उन्होंने यहाँ से कुछ ही दूर सीताखोह नामक स्थान में चल रहे बुद्धिस्ट सेंटर का जिक्र किया था। उन्होंने निवेदन किया था कि मुझे अवसर निकाल कर वहाँ जरुर जाना चाहिए। किन्तु , तब बौद्ध बिहार निर्माण की व्यस्तता के चलते यह संभव नहीं हो पाया था। मगर, इस बार 20 अक्टू 2013 को बुद्ध विहार लोकार्पण कार्यक्रम के दौरान अपनी उत्सुकता को मैं अधिक दबा कर नहीं रख सका।
खजरी, छोटा-सा गावं है जो सीताखोह रोड पर स्थित है। बालाघाट-कटंगी पहुँच मार्ग से इस विकसित हो रहे बुद्धिस्ट सेंटर में जाया जा सकता है। इस ट्रेनिंग सेंटर के लिए गावं का माहौल मगर, गावं से दूर जिस स्थल का चुनाव किया गया है, वाकई यह इसके विकास के प्रति दूरदर्शिता को इंगित करता है।
प्रफुल्ल गढ़पाल, जिनका नौकरी के सिलसिले में वर्त्तमान प्रवास दिल्ली है, ने एक-दो बार बातों के दौरान इसका जिक्र किया था। प्रफुल्ल, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय दिल्ली के राष्ट्रीय संस्कृति संस्थान में असि. प्रोफ़ेसर हैं। सीताखोह जाने की बात कहने पर प्रफुल्ल ने मुझे घनश्याम गजभिए का कांटेक्ट नम्बर दिया।
हम जैसे ही बतलाए स्थल पहुंचे, घनश्याम जी गजभिए रोड पर हमारा इन्तजार ही कर रहे थे। देखने में विरक्त घनश्याम जी ने हमारा स्वागत दिल से किया। गजभिए जी बतौर शिक्षक शासकीय सेवा से निवृत हो चुके हैं। लम्बे समय तक सरकारी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने का अनुभव उनके चेहरे पर साफ़ झलक रहा था। हाव-भाव से गजभिए जी शौम्य,शांत और संयत नजर आये। समाज के लिए कुछ करने की तड़प जैसे उनकी रगों में बह रही थी। लम्बे समय के बाद मैं एक सीधे और सच्चे इंसान से रुबरूं हो रहा था।
बिना किसी औपचारिकता के मैंने अपनी जुगुप्सा सामने रखी। घनश्याम जी पहले तो थोडा सकुचाए मगर, फिर धीरे-धीरे खुलते गए। आपने बतलाया कि इस 'बुद्धिस्ट आंबेडकर मिशन प्रचार संघ ' की स्थापना में प्रफुल्ल गढ़पाल जैसे पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों का भारी सहयोग है। एक और सहयोगी चितरंजन वासनिक का उतना ही सहयोग है जितना कि उनका स्वयं का। चितरंजन वासनिक, नांदी के घनश्याम जी वासनिक के सुपुत्र हैं। घनश्याम वासनिकजी के इन सुपुत्र का जिक्र आते ही मेरे सामने एक फलेश-बैक हुआ। दरअसल, इन महाशय से मैं काफी पहले गुरु बालकदास साहेब के साथ सत्संग में अपने घर सालेबर्डी तथा एकाध जगह और मिल चूका था। ये महानुभाव तभी मुझे कुछ हटके लगे थे ठीक वैसे ही जैसे घनश्याम जी आज मेरे सामने विराजमान हैं।
एक बड़ा-सा हॉल है। हॉल में एक बड़ा बक्शा रखा है। हमें बतलाया गया कि इस बक्शे में कुछ गद्दे और बैठने की छोटी-छोटी गद्दीयां हैं जिन्हें किसी ने दान में दिया है। एक तखत और सोफा-सेट भी हॉल में दिखा। दीवार पर टंगे कई सारे बैनर हैं जिनमे प्रशिक्षण के दौरान काम आने वाली जानकारियां और निर्देश लिखे हुए थे। हॉल के सामने और आजु -बाजू में काफी खाली स्पेस है जहाँ पर आवश्यकता पड़ने पर कई अन्य गतिविधियां चलाई जा सकती है। इसी से सटा हुए एक मकान है जिसमे गजभिए जी बच्चों के साथ रहते हैं। बच्चों की परवरिश में सहायता के लिए गजभिए जी की मौसी बहन रहती है जो शादी-सुदा मगर , परित्यक्ता है।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मैंने घनश्याम जी से मुखातिब हो कर कहा कि यहाँ वर्त्तमान में चार छोटी-छोटी बच्चियां हैं जिन्हें आप, हम लोगों के आने के पहले यहाँ से लगे शहर कटंगी के अलग-अलग स्कूलों में ड्रॉप कर आए हैं और जिन्हें शाम को आप लेने भी जाएंगे। सवाल है, लड़कियां ही क्यों ? लड़के क्यों नहीं ?
इसके जवाब में गजभिए जी ने बतलाया कि उन्हें लावारिश लड़कियां ही मिली थी कहीं फैंकी हुई , कहीं पड़ी हुई। जब कोई बिन ब्याही लड़की गर्भवती हो जाती है तो समाज के सामने माता-पिता को और कोई रास्ता नहीं होता इस 'असामाजिक' स्थिति से उबरने का। दूसरे , कई बार लड़की को उसके पैदा होते ही बोझ समझ कहीं फैंक दिया जाता है।
एकाएक मुझे कुछ असहज-सा लगने लगा। मेरा मुंह बेहद कडुवा हो गया था। मैंने उठते हुए घनश्याम गजभिए जी से विदा ली और कहा कि फिर कभी मिलेंगे। करीब दो घंटे बीत चुके थे, यहाँ आए। हमें कहीं और भी जाना था ?
खजरी, छोटा-सा गावं है जो सीताखोह रोड पर स्थित है। बालाघाट-कटंगी पहुँच मार्ग से इस विकसित हो रहे बुद्धिस्ट सेंटर में जाया जा सकता है। इस ट्रेनिंग सेंटर के लिए गावं का माहौल मगर, गावं से दूर जिस स्थल का चुनाव किया गया है, वाकई यह इसके विकास के प्रति दूरदर्शिता को इंगित करता है।
प्रफुल्ल गढ़पाल, जिनका नौकरी के सिलसिले में वर्त्तमान प्रवास दिल्ली है, ने एक-दो बार बातों के दौरान इसका जिक्र किया था। प्रफुल्ल, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय दिल्ली के राष्ट्रीय संस्कृति संस्थान में असि. प्रोफ़ेसर हैं। सीताखोह जाने की बात कहने पर प्रफुल्ल ने मुझे घनश्याम गजभिए का कांटेक्ट नम्बर दिया।
हम जैसे ही बतलाए स्थल पहुंचे, घनश्याम जी गजभिए रोड पर हमारा इन्तजार ही कर रहे थे। देखने में विरक्त घनश्याम जी ने हमारा स्वागत दिल से किया। गजभिए जी बतौर शिक्षक शासकीय सेवा से निवृत हो चुके हैं। लम्बे समय तक सरकारी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने का अनुभव उनके चेहरे पर साफ़ झलक रहा था। हाव-भाव से गजभिए जी शौम्य,शांत और संयत नजर आये। समाज के लिए कुछ करने की तड़प जैसे उनकी रगों में बह रही थी। लम्बे समय के बाद मैं एक सीधे और सच्चे इंसान से रुबरूं हो रहा था।
बिना किसी औपचारिकता के मैंने अपनी जुगुप्सा सामने रखी। घनश्याम जी पहले तो थोडा सकुचाए मगर, फिर धीरे-धीरे खुलते गए। आपने बतलाया कि इस 'बुद्धिस्ट आंबेडकर मिशन प्रचार संघ ' की स्थापना में प्रफुल्ल गढ़पाल जैसे पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों का भारी सहयोग है। एक और सहयोगी चितरंजन वासनिक का उतना ही सहयोग है जितना कि उनका स्वयं का। चितरंजन वासनिक, नांदी के घनश्याम जी वासनिक के सुपुत्र हैं। घनश्याम वासनिकजी के इन सुपुत्र का जिक्र आते ही मेरे सामने एक फलेश-बैक हुआ। दरअसल, इन महाशय से मैं काफी पहले गुरु बालकदास साहेब के साथ सत्संग में अपने घर सालेबर्डी तथा एकाध जगह और मिल चूका था। ये महानुभाव तभी मुझे कुछ हटके लगे थे ठीक वैसे ही जैसे घनश्याम जी आज मेरे सामने विराजमान हैं।
एक बड़ा-सा हॉल है। हॉल में एक बड़ा बक्शा रखा है। हमें बतलाया गया कि इस बक्शे में कुछ गद्दे और बैठने की छोटी-छोटी गद्दीयां हैं जिन्हें किसी ने दान में दिया है। एक तखत और सोफा-सेट भी हॉल में दिखा। दीवार पर टंगे कई सारे बैनर हैं जिनमे प्रशिक्षण के दौरान काम आने वाली जानकारियां और निर्देश लिखे हुए थे। हॉल के सामने और आजु -बाजू में काफी खाली स्पेस है जहाँ पर आवश्यकता पड़ने पर कई अन्य गतिविधियां चलाई जा सकती है। इसी से सटा हुए एक मकान है जिसमे गजभिए जी बच्चों के साथ रहते हैं। बच्चों की परवरिश में सहायता के लिए गजभिए जी की मौसी बहन रहती है जो शादी-सुदा मगर , परित्यक्ता है।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मैंने घनश्याम जी से मुखातिब हो कर कहा कि यहाँ वर्त्तमान में चार छोटी-छोटी बच्चियां हैं जिन्हें आप, हम लोगों के आने के पहले यहाँ से लगे शहर कटंगी के अलग-अलग स्कूलों में ड्रॉप कर आए हैं और जिन्हें शाम को आप लेने भी जाएंगे। सवाल है, लड़कियां ही क्यों ? लड़के क्यों नहीं ?
इसके जवाब में गजभिए जी ने बतलाया कि उन्हें लावारिश लड़कियां ही मिली थी कहीं फैंकी हुई , कहीं पड़ी हुई। जब कोई बिन ब्याही लड़की गर्भवती हो जाती है तो समाज के सामने माता-पिता को और कोई रास्ता नहीं होता इस 'असामाजिक' स्थिति से उबरने का। दूसरे , कई बार लड़की को उसके पैदा होते ही बोझ समझ कहीं फैंक दिया जाता है।
एकाएक मुझे कुछ असहज-सा लगने लगा। मेरा मुंह बेहद कडुवा हो गया था। मैंने उठते हुए घनश्याम गजभिए जी से विदा ली और कहा कि फिर कभी मिलेंगे। करीब दो घंटे बीत चुके थे, यहाँ आए। हमें कहीं और भी जाना था ?
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