दैनिक भास्कर ६ अक्टू जबलपुर के लेख "अयोध्या के आगे" में डॉ वेदप्रताप वैदिक लिखते हैं-
राम कोई इतिहास पुरुष तो थे नहीं । वे इतिहास के आर-पार रहे है। वे आस्था-पुरुष है । स्मृति-पुरुष है, भाव -पुरुष हैं । ऐसी आस्था, ऐसी स्मृति और ऐसा भाव जो करोड़ों लोगों के ह्रदय में सदा-सनातन से, अविरल और अविछिन्न रहा है । यह भाव ऐसा है जो सिर्फ हिन्दुओं में ही नहीं पाया जाता है, मुसलमानों, ईसाईयों ,यहूदियों, काले -गोरों सब में पाया जाता है । यह भाव, तर्क और बुद्धि से परे होता है ।
निश्चित ही राम एक आस्था-पुरुष है , भाव-पुरुष है न की इतिहास-पुरुष जैसे की वैदिकजी लिखते हैं। मगर, दूसरी ओर राम को इतिहास-पुरुष मानने वाले भी कम नहीं हैं ? विश्वविद्यालयों में ढेरों थीसिस मिल जायेंगे, राम को इतिहास-पुरुष सिद्ध करने के लिए। न्यूज़ चेनल वाले भी लोगों के दिल-दिमाग में ठूसते रहते हैं कि राम इतिहास-पुरुष हैं.
दुसरे, राम आस्था-पुरुष हैं । मगर, सिर्फ वैदिकजी जैसे ब्राह्मणों के और पुरे ब्रह्मण वर्ग के। राम, ब्राह्मण वर्ग के आलावा अन्य वर्ग/जातियों के आस्था का विषय नहीं हो सकते। सवाल ये है की राम के क्या आदर्श हैं ? सीता की अग्नि-परिक्षहा लेकर और शम्बूक का वध कर राम कोनसे आदर्श स्थापित करते हैं ? क्या ये आदर्श कम से कम हिन्दू नारियों के लिए आस्था का विषय है ? क्या इन आदर्शों पर इस देश के दलित-आदिवासियों को आस्था है ? राम, वैदिकजी के आस्था-पुरुष हो सकते हैं, उच्च जाति हिन्दुओं के आस्था-पुरुष हो सकते है जिनके लिए मानस में लिखा है- पुजिय विप्र शील गुन हीना, शूद्र न गुन ग्यान प्रवीना'। मगर हिन्दू नारी, जो आज भी अग्नि-परीक्षहा देने को बाध्य हो , राम को आदर्श क्यों माने ? ढोल गवांर शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी 'मानस' को क्यों माने ? इस देश का आदिवासी, जो आज भी आदिम शैली में जंगलों में रहने अभिशप्त है, कथित रामराज्य को आदर्श क्यों माने ? ऊँच-नीच की घृणा और जातिगत श्रेष्ठता की वकालत करने वाले 'रामराज्य' को दलित क्यों माने ?
mukesh
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