Wednesday, October 31, 2018

गृह त्याग के पूर्व सिद्धार्थ गोतम की मन-स्थिति

परम्परागत मान्यता है कि सिद्धार्थ गोतम ने एक बूढ़े, रोगी, एक मृत तथा एक साधु को देख कर गृह-त्याग किया। यह कुत्सित और हास्यास्पद प्रचार जान-बूझ कर किया गया। यह और इस तरह के कई प्रसंग बुद्ध की जीवनी में न सिर्फ जोड़े गए वरन स्कूल-कालेजीय पाठ्यक्रमों में शामिल कर बुद्धोपदेशों  के प्रति यूवा-पीढ़ी को  भ्रमित किया गया। उद्देश्य साफ था, बुद्ध की सोच से आम जन लाभान्वित न हो । जिन अंतर्विरोधों और फन से ब्राह्मण-ग्रन्थ और दार्शनिक भरे पड़े हैं, वे चाहते हैं कि वह भ्रम बना रहे । 'अंडा और मुर्गी' के चक्कर लगाते रहे।

यदि '29 वर्ष की आयु होने तक भी सिद्धार्थ एक बूढ़े, एक रोगी और एक मृत व्यक्ति को न देखें' तो यह हास्यास्पद नहीं तो क्या है ? जिसका हेतु ही गंभीर नहीं है, उसका देशना गंभीर कैसे हो सकती है ? और इसलिए, बुद्ध के चार अरिय सत्य को उन्होंने  'निराशाजनक' घोषित कर दिया ! बोधि वृक्ष 'भूत-प्रेतों का डेरा' बन गया ! बुद्ध  'लाफिंग बुद्धा' बन गया ! 'मुंडे-मुंडे मति भिन्ने' की कहावत चरितार्थ हुई ? बुद्ध का अर्थ 'मुर्ख' बतलाया गया !

डॉ भदंत आनंद कोसल्यायान के अनुसार अट्ठकथाओं को छोड़ कर सारे ति-पिटक में इस कथानक की साक्षी नहीं है(बुद्धा एंड धम्मा: नम्र निवेदन )। अट्ठ- कथाएँ जो बुद्ध के 1000 वर्ष बाद परम्परागत सिंहल अट्ठ कथाओं का आश्रय ग्रहण कर लिखी गई थी, में इस तरह का कथानक जान-बूझ कर कल्पित किया गया था । और अट्ठ- कथाएँ ही क्यों, दीघनिकाय सहित सारे-ति-पिटक में इस तरह के ढेरों कथानक, जो बोधिसत्व को देवताओं की इच्छानुसार तुषित लोक से च्युत होकर माता की कोख में प्रविष्ट होने('महापदान सुत्त) या तुषित लोक में जा कर माता को उपदेश देने जैसी गप्प कथाओं से भरे पड़े हैं।

जाहिर है, इन कपोल काल्पनिक कथानकों को उपनिषदों और पुराणों की तर्ज पर बुद्धचरित में, चाहे बुद्धघोस/ अश्वघोस द्वारा या आचार्य शान्तिदेव द्वारा हो, जान-बूझ कर घुसेड़ा गया ताकि दुक्ख के मूलोच्छेद के निमित्त बुद्ध द्वारा  किए गए 'उपाय-कोसल्य' की धार कुंद हो सकें, और आम जन भाग्य और भगवान के भरोसे रहने को विवश हों । यह स्थापित तथ्य है कि 'ब्राह्मणवाद' की जड़ 'भाग्य' और 'भगवान' है। जब तक ये जड़ें लोगों के दिमाग में घुसी रहेगी, चाहे जो हो, 'ब्राह्मणवाद' फलता-फूलता रहेगा।

सिद्धार्थ गोतम के गृह त्याग के पूर्व उनकी मन-स्थिति का विश्लेषण करते प्रतीत होती कुछ गाथाएँ ति-पिटक (सुत्त निपात: अट्ठ वग्ग : अत्तदंड सुत्त) उदृत करते हुए भदंत आनंद कोसल्यायान, बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के मत(वाही, बुद्धा एंड धम्मा ) से अपनी सहमति प्रगट करते हैं। पहले गाथा देखें-
अत्त दंडा भयं जातं,
दण्ड धारण भयावह लगा,
जनं पस्सथ मेधगं।
लोगों का कलह(मेधगं) देखो(पस्सथ)।
संवेग कित्तयिस्सामि,
संवेग का कारण बतलाता हूँ
यथा संविजितं मया ।।1।।
जैसे मुझ में उत्पन्न हुआ ।

फंदमानं पजं दिस्वा,
देख कर फंदे में फंसते हुए(फंदमानं) प्रजा(पजं),
मच्छे अप्पोदके यथा
जैसे अल्प-जल के पोखर में(अप्पोदके) मछलियाँ
अञ्ञमञ्ञेहि व्यारुद्धे,
परस्पर(अञ्ञमञ्ञेहि) विरोध कर तड़फड़ाती है,
दिस्वा  मं भयमाविसि।।2।।
देख कर(दिस्वा) मुझे(मं) भय उत्पन्न हुआ (भयमाविसि)।

समन्तमसरो लोको,
चारों ओर असारता से(समन्तमसरो) जगत की,
दिसा सब्बा समेरिता।
जैसे सब दिशाएं कांप रही हो(समेरिता)।
इच्छं भवनमत्तमो,
और उसमें आश्रय का स्थान(भवनमत्तमो),
नाद्दसामि अनोसितं।।3।।
खोजने पर कहीं नहीं देखता मैं(ना-द्दसामि) ।

ओसाने त्वेव व्यारुद्धे,
अंत तक(ओसाने) जारी यह परस्पर कलह,
दिस्वा मे अरति अहु।
देखकर मुझे(मे) अरति हुई(अहु )
अथेत्थ सल्लं  अद्दक्खिं,
इस तरह पीड़ा(सल्ल) देख(अद्दक्खिं),
दुद्दसं ह्रदय निस्सितं।।4।।
ह्रदय विदीर्ण हुआ

भदन्तजी द्वारा उदृत उपर्युक्त गाथा के तुरंत बाद की एक और गाथा दिलचस्प है-
येन सल्लेन ओतिण्णो,
उस(येन) दुक्ख से पीड़ित(ओतिण्णो) मनुष्य,
दिसा सब्बा वि-धावति।
सब दिशाओं में भागता है
तमेव सल्लं अब्बुय्ह,
परन्तु कांटा निकलने पर(अब्बुय्ह)
न धावति निसीदति।।5।।
न भाग शांत बैठ(निसीदति) जाता है ।


क्रमश:-----
-अ  ला ऊके  मो. 9630826117     @amritlalukey.blogspot.com

  

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