Monday, October 1, 2018

SC/ST एट्रोसिटी एक्ट के विरोध में लामबंद सवर्ण

SC/ST एट्रोसिटी एक्ट के विरोध में मुट्ठी भर सवर्ण जातियों का लामबंद होना देश की जातिय राजनीति के चेहरे को बड़े विभत्स तरीके से विश्व-पटल पर रखता है। विश्व-पटल पर इसलिए कि अब आयसोलेट रहने के दिन लद गए। चाहे मसला हिन्दू-मुस्लिम तनाव का हो या दलित- अत्याचारों का, विश्व-मंच पर आपको जवाब देना होता है। आप, देश का 'आतंरिक मसला' कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकते।

यह विचित्र ही लगता है कि SC/ST एट्रोसिटी एक्ट दलितों के लिए बना था, पुलिस और प्रशासन द्वारा उनकी आवाज न दबाने के लिए बना था। इसमें जो भी कमियां अथवा शिकायतें थी, दलितों को थी।  विरोध उन्हें करना था ? सड़क पर उन्हें उतरना था ? किन्तु इसके विरोध में सवर्ण जातियों का सड़क पर उतरना ?  निस्सन्देह हिन्दू-जाति व्यवस्था का यह वीभत्स और भयानक चेहरा है।

सभी जानते हैं, दलितों पर आए दिनों ब्राह्मणादि सवर्ण जातियां अत्याचार करती हैं।  पिछड़ी जातियों के लोग इन मुट्ठी भर सवर्ण जातियों के झांसे में आ कर दलित जातियों पर अत्याचार करने उनका मोहरा बनती हैं। पुलिस, जज जेलर आदि तमाम पदों पर इन्हीं जातियों के लोग होते हैं और वे पूरी तरह सवर्ण जातियों का बचाव करते हैं। किसी दलित की बेटी किसी उच्च जाति के बेटे की हवस की शिकार होती है तो अव्वल तो रिपोर्ट ही लिखी नहीं जाती और अगर खूब हो-हल्ला हुआ तो 'जांच' करने की बात कह कर साक्ष्यों को मिटाने का काम किया जाता है । इस बीच मार-पीट से लेकर खरीद-फरोख्त तक सारे कुकर्म किए जाते हैं। कोई सीने पर हाथ रख कर कह सकता है कि क्या ऐसा नहीं होता ? और तब, दलित की माँ-बेटी बिक जाती है, उसे बिकना पड़ता है।  बिकेगी नहीं तो जाएगी कहाँ ?

आज, देश में SC/ST एट्रोसिटी एक्ट के विरोध में सवर्ण और अवर्णों के बीच जो जातिय युद्ध छिड़ा है, वह हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता से भी भयंकर है। हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता को हिन्दू,  बतौर बहुसंख्यक शक्ति से कुचल सकते हैं किन्तु सवर्ण-अवर्ण की आग को कैसे बुझा पाएंगे ? निस्संदेह, आगे आने वाले दिनों में ब्राह्मण आदि सवर्ण जाति के लोगों को खुश करने और भी आग लगाने वाले कार्य किए जाएंगे। क्योंकि आज भी, ब्राह्मण जाति वर्चस्व की लड़ाई लड़ रही है। उसे अपने पावों तले अन्य जातियों को रखने की आदत जो है ?  वह समानता और समरसता का समझौता आसानी से नहीं करेगी। 

उंच-नीच की जाति-व्यवस्था निस्संदेह हिन्दू समाज पर कलंक है, जैसे की बाबासाहब डॉ आंबेडकर ने कहा। बाबासाहब ने जब देखा की उंच-नीचता हिन्दू धर्म में सिक्के के दो पहलू हैं, और तब उन्होंने नतीजा निकाला कि अगर सम्मान से जीना है तो इस दलदल से ही निकलना होगा। और तब उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया।  क्या यह सत्य नहीं ? बाबासाहब लगातार 20 वर्ष इन्तजार करते रहे कि हिन्दू अपनी इस उंच-नीचता के कलंक को धोने प्रयास करेंगे किन्तु गांधीजी सहित सब सवर्ण जाति के लोग आत्म-मुग्धता के नशे में ही डूबे  रहे।

बुद्ध का धम्म निस्संदेह उंच-नीच की जाति-व्यवस्था का एंटीडोट है, इलाज है। त्रैलोक्य सहाय्यक गण के  महास्थविर संघरक्खित के शब्दों में छ: या सात सौ वर्ष पूर्व, बौद्ध धर्म का भारत से प्राय: लुप्त होना यह उसके स्वयं के लिए केवल एक जबरदस्त धक्का नहीं था, वरन उस देश के लिए जबरदस्त धक्का था, जहाँ उसका जन्म हुआ(डॉ अम्बेडकर की धम्म क्रांति)। काश कि बौद्ध धर्म सतत जिन्दा रहता तो उंच-नीचता की यह सड़ांध कब की ख़त्म हो चुकी होती।

जो लोग देश की समृद्धता में विश्वास रखते हैं, निस्संदेह वे ऊंच-नीच की हजारों जातियों में बंटी इस चातुर्य वर्ण की व्यवस्था को ख़त्म देखना चाहेंगे, जातिवाद को मरते देखना चाहेंगे। ब्राह्मण जो बहुत कम संख्या में हैं, किन्तु तमाम बड़े-बड़े पदों पर विराजमान हैं, निस्संदेह हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता के साथ दलित अत्याचारों के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार हैं। वे अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते।  और बच भी गए तो कब तक ? इतिहास गवाह है,  रूस की जारशाही को एक दिन जाना ही पड़ा ।  

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