Wednesday, May 8, 2019

लोक गति (उपाती धावन्ति सुत्त)

लोक गति 

एवं मे सुत्तं-
ऐसा मैंने सुना-
एकं समयं भगवा, सावत्थियं विहरति
एक समय भगवान सावत्थि में विहार करते थे।
रत्ति-तिमिसायं
अँधेरी रात में
अब्भोकासे निसिन्नो होति।
खुले आकाश में बैठे थे।

तेन समयेन बहुवो अधिपातका
उस समय बहुत पतंगे
तेल पदीपेसु आपज्जन्ति
तेल प्रदीपों में आ गिरते
उपाति-धावन्ति
दौड़ते-भागते
जलन्ति, मरन्ति।
जल- मर रहे थे ।

अद्दसा खो भगवा ते अधिपातके
देखा भगवान ने उन पतंगों को
तेल पदीपेसु आपज्जन्ते।
तेल प्रदीप में आ गिरते
उपाते-धावन्ते, जलन्ते च मरन्ते।
दौड़ते-भागते, जलते और मरते ।

तायं वेलायं भगवा,  इमं गाथं उदानेसि-
उस वेला में भगवान ने यह गाथा कही-
उपाति-धावन्ति, न सारमेन्ति ,
लोग भटकते हैं, दौड़ते हैं, सार को नहीं पाते हैं
नव-नव बंधनं वड्ढयन्ति।
नए-नए बंधनों को बढाते हैं।
पतन्ति पज्जोत विय पातका,
गिरते हैं, पतंगों के जैसे
दिट्ठे सुते  इतिहेके निविट्ठा
दृष्ट और श्रुत में आशक्त होकर ।
अ ला ऊके @amritlalukey.blogspot.com

No comments:

Post a Comment