जब तक बहुजनवादी पार्टियों में जातीय भेदभाव दूर कर गाँव-गाँव ,गली-गली में पहुँचाकर लोगों को यह यकीन नही दिला देतें कि सत्ता और संगठन में जातिगत भेदभाव नही होगा, तब तक बहुजनवादी पार्टियों को जीत की उम्मीद नही करना चाहिए. उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में दोनों पार्टियों बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी पर जातिवाद का आरोप लगाये जा रहें हैं. इसका माकूल जवाब बीएसपी औए एसपी के नेताओं को देना चाहिये. ख़ुद गाँव गाँव पहुँच कर जातीय न्याय पसंद के हजारों नेता तैयार करना चाहिए, ताकि आने वालें समय मे इस सवाल से बच सकें. बीएसपी और एसपी में उनकी ही बिरादरी के नेताओ का राजनीतिक कैरियर सुरक्षित है, इसलिए मजबूत इच्छाशक्ति के साथ त्याग की भी जरूरत हैं.
चुनाव में अल्पसंख्यक समुदाय को “टेकेन फ़ॉर गारेंटेड” नही लिया जाना चाहिए. हमें नहीं सोचना चाहिए कि ये हमें छोड़कर कहा जाएंगे? उत्तर प्रदेश के 18% की आबादी वालें अल्पसंख्यक समुदाय को गठबंधन ने आबादी के अनुसार आधी सीटें भी नही दीं. यहीं हाल पिछड़ो में गैर यादवों और दलितों में गैर जाटव/ चमार की बिरादरी को साधने में एक बार नाकाम हुईं.
दलित, पिछड़ो और अल्पसंख्यक समाज में नई पीढियां आईं हैं, उनमें राजनीतिक इच्छाशक्ति तो है, लेकिन वैचारिक समझ नही हैं, विचारों की परिपक्वता नही हैं. BSP में जिन्हें नौकरी देकर यह काम सौंपा गया वो सब निकम्मे साबित हुए हैं. पैसा आया तो मध्यम वर्गीय दलित और उनके बच्चें भौतिकवादी हो गए. उनकी जीवन शैली बदल गई. लेकिन कैसी बदली हैं सब भूल चुके हैं. जिन्हें याद है, वो व्हाट्सएप से ही क्रांति लाना चाहता हैं.
वह मोहल्ले में अपनी बिरादरी में ही उठने बैठने से कतराता हैं, और दूसरे दलितों से घृणा करता हैं. मौका मिलने पर मोहल्ले से लेकर कार्यालय तक एक दलित दूसरे जाति के दलित को नीचा दिखाने में लगा रहता हैं. BSP की सरकारों में जातिवाद का विष औऱ गाढ़ा किया. गैर जाटव दलित सरकारी महकमों में जातीय भेदभाव के शिकार हुए. कुल मिलाकर इनके अंदर भाईचारा नही बन पाया हैं. जिससे इनकी एकता टूटकर विखर गईं और इसका लाभ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी/ BJP) ने उठाया.
दलित, पिछड़ो और अल्पसंख्यक समाज में नई पीढियां आईं हैं, उनमें राजनीतिक इच्छाशक्ति तो है, लेकिन वैचारिक समझ नही हैं, विचारों की परिपक्वता नही हैं. BSP में जिन्हें नौकरी देकर यह काम सौंपा गया वो सब निकम्मे साबित हुए हैं. पैसा आया तो मध्यम वर्गीय दलित और उनके बच्चें भौतिकवादी हो गए. उनकी जीवन शैली बदल गई. लेकिन कैसी बदली हैं सब भूल चुके हैं. जिन्हें याद है, वो व्हाट्सएप से ही क्रांति लाना चाहता हैं.
वह मोहल्ले में अपनी बिरादरी में ही उठने बैठने से कतराता हैं, और दूसरे दलितों से घृणा करता हैं. मौका मिलने पर मोहल्ले से लेकर कार्यालय तक एक दलित दूसरे जाति के दलित को नीचा दिखाने में लगा रहता हैं. BSP की सरकारों में जातिवाद का विष औऱ गाढ़ा किया. गैर जाटव दलित सरकारी महकमों में जातीय भेदभाव के शिकार हुए. कुल मिलाकर इनके अंदर भाईचारा नही बन पाया हैं. जिससे इनकी एकता टूटकर विखर गईं और इसका लाभ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी/ BJP) ने उठाया.
पिछड़ो की नुमाइंदगी करने वाली समाजवादी पार्टी में भी गैर यादव पिछड़ी और अतिपिछड़ी जातियों ने अपनी उपेक्षा तथा हकमारी से त्रस्त होते रहें हैं. इन्हें भी BJP और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस/ RSS) के लोगों ने उकसाकर अपने पाले में लेने में कामयाब हुए. उन पीड़ितों से गठबंधन के नेताओ को मिलना चाहिये उनके बीच बैठकर उन्हें न्याय दिलाना चाहिए ! यह बड़ा प्रश्न है कि क्या यह नेता न्याय के लिए अपनी ही जाति के अन्यायी ब्यक्तियों के ख़िलाफ़ पीड़ित जातियों के लिए संघर्ष करेंगे? अगर यह हिम्मत जुटा पाएं तो फिर देखिये की दलित, पिछड़ो, अल्पसंख्यकों की एक जुटता कैसे मोदी के जादू को धराशायी कर देती. दलितों पिछड़ो की पार्टियां जिस दिन सचमुच राजनीतिक न्याय देना शुरू कर देंगी. उस दिन फिर यहीं जनता इन्हें सर आंखों में बैठाएगी, और ताक़त बनकर इन्हें जिताएगी भी (लेख : अजय प्रकाश सरोज: शोधार्थी, पत्रकारिता एवं जनसंचार : द नेशनल प्रेस: 27 मई 2019) .
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