लोकसभा चुनाव में बंपर बहुमत मिलने के बाद 25 मई 2019 को जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संविधान पर माथा टेक रहे थे. ठीक उसी समय तीन ब्राह्मणवादी महिला डाक्टरों डॉक्टर हेमा आहूजा, डॉक्टर भक्ति मेहर और डॉक्टर अंकिता खंडेलवाल की ओर से किए गए जातीय, नस्लीय और अमानवीय प्रताड़ना से तंग आकर महाराष्ट्र के जलगांव निवासी 26 साल की भील आदिवासी महिला डॉक्टर पायल तड़वी की आत्महत्या की खबरें सोशल मीडिया पर तैर रही थीं. इससे आहत लोग इस ब्राह्मणवादी संस्थागत हत्या के खिलाफ न्याय की मांग कर रहे थे.
इस बीच 26 मई 2018 को बीफ खाने को लेकर 29 मई 2017 को किए गए फेसबुक पोस्ट के आधार पर झारखंड के जमशेदपुर निवासी संताल आदिवासी प्रोफेसर जितराई हांसदा को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. पुलिस ने बताया कि प्रोफेसर जितराई हांसदा के बीफ खाने से संबंधित फेसबुक पोस्ट ने लोगों के धार्मिक भावनाओं को आहत कर दिया था, इसलिए उन्हें गिरफ्तार करना पड़ा. इन दोनों घटनाओं का संबंध आदिवासियों से ब्राह्मणवाद के आहत होने से जुड़ा है. पहली घटना में एक भील आदिवासी लड़की का डॉक्टर बनना तीन ब्राह्मणवादी डॉक्टरों को पच नहीं रहा था. इन डॉक्टरों ने पायल तड़वी को ड्यूटी के समय जमकर प्रताड़ित किया. फिर भी जब उनका मन नहीं भरा तब उन्होंने वाट्सप ग्रुप में पायल के खिलाफ जातीय और नस्लीय संदेश भेजा. उनका वाट्सऐप संदेश उनके अंदर कूट-कूटकर भरी जातीय और नस्लीय नफरत को दर्शाता है.
वाट्सऐप संदेश में उन्होंने लिखा, ''तुम आदिवासी लोग जंगली होते हो, तुमको अक्कल नहीं होती...तू आरक्षण के कारण यहां आई है...तेरी औकात है क्या हम ब्राह्मणों से बराबरी करने की...तू किसी भी मरीज को हाथ मत लगाया कर वे अपवित्र हो जाएंगे...तू आदिवासी नीच जाति की लड़की मरीजों को भी अपवित्र कर देगी...! डॉक्टर पायल तड़वी ने हॉस्पिटल प्रशासक से इसके बारे में मौखिक शिकायत की थी लेकिन इन डॉक्टरों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई. इससे स्पष्ट है कि एक आदिवासी लड़की के डॉक्टर बनने से न सिर्फ ये तीन ब्राह्मणवादी डाक्टरों को दिक्कत थी बल्कि हॉस्पिटल प्रशासक भी आहत थे. इन ब्राह्मणवादी डॉक्टरों को यह नहीं मालूम था कि आदिवासी भारत के वर्ण व्यवस्था से निकले जाति व्यवस्था के तहत नहीं आते हैं. इसलिए यदि वे उच्च जातियों में नहीं गिने जाते हैं तो वे नीच जातियों में भी नहीं हैं, बल्कि उनकी अपनी अलग व्यवस्था है, जिसका मूल आधार सामूहिकता, समानता, स्वायत्तता, न्याय और भाईचारा है.
आदिवासी ‘ब्राह्मा’ के किसी भी अंग से पैदा नहीं हुए हैं. इसलिए आदिवासियों को नीच जाति के लोग कहना ब्राह्मणवादियों की अज्ञानता का प्रतीक है. सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले 'कैलाश बनाम अन्य और महाराष्ट्र सरकार' में कहा है कि देश के 8 फीसदी आदिवासी ही भारत के प्रथम निवासी और मालिक हैं. और अन्य 92 फीसदी प्रतिशत लोग आक्रमणकारियों और व्यापारियों के वंशज हैं. इसलिए ब्राह्मणवादियों को यह मालूम होना चाहिए के वे भारत के निवासी नहीं हैं. उन्हें आदिवासियों के साथ अमानवीय व्यवहार करने का कोई हक नहीं है.
इन ब्राह्मणवादी डॉक्टरों के वाट्सऐप संदेश में यह साफ दिखता है कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद इन तथाकथित उच्च जातियों के लोगों में मानव होने का गुण अबतक विकसित नहीं हुआ है. प्रोफेसर जितराई हांसदा के मसले का विश्लेषण यह साबित करता है कि ब्राह्मणवादी अपने अनैतिक कार्यों को न्यायोचित ठहराने और उसे छुपाने में माहिर हैं. प्रोफेसर जितराई हांसदा के साथ हुए असंवैधानिक कार्रवाई ने स्पष्ट कर दिया है कि ब्राह्मणवादी लोग सिर्फ उनके आदिवासी होने के कारण आहत थे न कि बीफ से क्योंकि बीफ को लेकर हकीकत कुछ और ही है.
देश में पिछले पांच साल से बीफ पर राजनीति करने वाले संघ परिवार की पार्टी भाजपा की सरकार है. लेकिन यहां बीफ का कारोबार फल-फूल रहा है. 2018 में भारत विश्व का दूसरा बीफ निर्यातक देश बना है जबकि ब्राजील प्रथम देश है. पिछले साल ब्राजील ने 18.55 लाख मिट्रिक टन और भारत ने 18.50 लाख मिट्रिक टन बीफ का निर्यात किया. इसके लिए कितने गाय-बैल और भैंसों को काटा गया होगा कल्पना नहीं की जा सकती है. लेकिन इससे ब्राह्मणवादी आहत नहीं हुए हैं. उन्होंने न भाजपा नेताओं पर सवाल किया और न ही पार्टी का विरोध?
सबसे रोचक बात यह है कि देश की सबसे बड़ी बीफ निर्यातक कंपनी है ‘अल कबीर एक्सपोर्टस प्राइवेट लिमिटेड है. इसने बीफ से 650 करोड़ रुपये कमाया. इस कंपनी का मालिक सतीश सब्बरवाल है. इसी तरह अरेबियन एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड के मालिक सुनील कपूर हैं. एमकेआर फ्रोजेन फूड एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड के मालिक मदन अबोट, पीएफएल इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड के मालिक एएस बिंद्रा, एओबी एक्सपोर्टस प्राइवेट लिमिटेड के मालिक ओपी अरोड़ा, स्टैन्डर्स फ्रोजेन फूड एक्सपोर्टस प्राइवेट लिमिटेड के मालिक कमल वर्मा और महाराष्ट्र फूड प्रोसेसिंग एंड कोल्ड स्टोरेज प्राइवेट लिमिटेड के मालिक सन्नी कट्टर हैं.
इनके अलावा और कई बीफ निर्यातक कंपनियां हैं, जिनके मालिक खुद सवर्ण हिंदू हैं. लेकिन इससे भी ब्राह्मणवादियों की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होती हैं. संघी लोग न इनके उपर हमला करते हैं और न ही उनके खिलाफ कोई मुकदमा. यदि कोई आदिवासी बीफ एक्पोर्ट कंपनी चलाता तब क्या होता? निश्चित ही तब ब्राह्मणवादी, मनुवादी और संघियों की धार्मिक भवनाएं आहत होतीं. मजेदार बात यह है कि संघियों और ब्राह्मणवादियों की पार्टी भाजपा ने बीफ निर्यातक कंपनियों से चंदा लिया है. चुनाव आयोग की वेबसाइट के मुताबिक बीफ निर्यातक कंपनी फ्राइगोरीफिको अल्लाना प्राइवेट लिमिटेड ने भाजपा को चेक के माध्यम से 2013-14 में 75 लाख रुपये और 2014-15 में 50 लाख रुपये का चंदा दिया था. इसी तरह बीफ निर्यातक कंपनी इनडाग्रो फूट्स लिमिटेड ने भाजपा को 75 लाख रुपये और फ्राइगेरिया कॉनवेरवा अल्लाना लिमिटेड ने 50 लाख रुपये चंदा दिया.
यह हैरान करने वाली बात है कि बीफ बेचने वाली कंपनियों से चंदा लेने के बावजूद भाजपा से ब्राह्मणवादियों की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होती हैं. लेकिन एक फेसबुक पोस्ट से उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचता है. ऐसा क्यों? इतना ही नहीं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 2 जुलाई 2017 को कहा था कि गोवा में बीफ पर प्रतिबंध नहीं लगेगा. इसी तरह 18 जुलाई 2017 को भाजपा नेता और गोवा के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने विधानसभा में कहा था कि गोवा में बीफ की कमी न हो यह सुनिश्चित किया जाएगा. गोवा के अलावा पूर्वात्तर के जिन राज्यों में भाजपा की सरकार है, वहां बीफ का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है. लेकिन बीफ पर दिए गए भाजपा नेताओं के बयान और भाजपा सरकारों के द्वारा बीफ उधोग को दिए गए संरक्षण से ब्राह्मणवादी आहत नहीं होते हैं. लोग हैरान हैं कि आदिवासियों के बीफ खाने से ब्राह्मणवादियों की भावनाएं क्यों आहत होती हैं?
सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना करने वाले संघियों के हृदयसम्राट विनायक दामोदर सावरकर ने मराठी भाषा में लिखी गई किताब 'विज्ञाननिष्ठ निबंध' में लिखा है, ''गाय की देखभाल कीजिए लेकिन पूजा नहीं.'' वे लिखते हैं, ''ईश्वर सर्वोच्च है, फिर मनुष्य का स्थान है और उसके बाद पशु जगत है. गाय तो एक ऐसा पशु है जिसके पास मुर्ख से मुर्ख मनुष्य के बराबर भी बुद्धि नहीं होती. गाय को दैवीय मानना और इस तरह से मनुष्य से ऊपर समझना, मनुष्य का अपमान है.'' वे आगे लिखते हैं, ''गाय एक तरफ से खाती है और दूसरी तरह से गोबर और मूत्र विसर्जित करती रहती है. जब वह थक जाती है तो अपनी ही गंदगी पर बैठ जाती है. फिर वह अपनी पूंछ से यह गंदगी अपने पूरे शरीर पर फैला देती है, एक ऐसा प्राणी जो स्वच्छता को नहीं समझता उसे देवी कैसे माना जा सकता है.?'' लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि ब्राह्मणवादियों की धार्मिक भावना को सावरकर भी आहत नहीं करते हैं लेकिन प्रोफेसर जितराई हांसदा का एक फेसबुक पोस्ट आहत करता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रारंभ से ही ब्राह्मणवादी लोग अपने कुकर्मों को न्यायोचित ठहराते रहे हैं. उनकी कथनी और करनी में जमीन-असमान का फर्क है. वे हमेशा दोहरी नीति अपनाते हैं. जब वे बीफ खाते या बीफ से पैसा कमाते हैं तब वह कार्य पवित्र होता है लेकिन जब वही काम दूसरे करते हैं तब वे उसे पाप का दर्जा देते हैं.
इसलिए हमें यह समझना पड़ेगा कि कैमरे के सामने संविधान पर माथा टेकने का अभिनय करना और संविधान को जमीन पर लागू करना दोनों अलग-अलग बातें हैं. अवसर की समता और भोजन का अधिकार हमारा मौलिक आधिकार है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15, 16 और 21 में प्रदत्त है. इसके अलावा अनुच्छेद 17 के जरिए छुआछूत और भेदभाव को खत्म कर दिया गया है. इसलिए देश के प्रत्येक नागरिक को समान अवसर और भोजन के अधिकार को सुनिश्चित करना सरकार की पहली जिम्मेदारी है. लोग बीफ, मटन, चिकन, डॉग या कैट खाएं यह उनका मौलिक अधिकार है. इसलिए प्रश्न उठता है कि संविधान पर माथा टेकने वालों ने डॉक्टर पायल तड़वी और प्रोफेसर जितराई हांसदा के मौलिक अधिकारों की रक्षा क्यों नहीं की? क्या उनके दिलो-दिमाग में भी ब्राह्मणवाद राज्य करता है, जो आदिवासियों से आहत हो चुका है?
ग्लैडसन डुंगडुंग: लेखक एक्टिविस्ट
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