महिलाएं, अधिकतर परिवार/समाज के दड़बे में जीती हैं. वे उसी में रहती है, उसी में मरती हैं. शायद वे इसे 'रक्षा-कवच' के रूप में देखती हैं. ऐसा नहीं है, महिलाएं इन दड़बों को तोड़ कर बाहर नहीं आई हैं ? कुछ महिलाएं अन्यन्य कारणों से बाहर आयी हैं, मगर उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी हैं। दूसरी तरफ, पुरुष तो चाहता ही हैं कि वे दड़बों में ही रहें. शायद 'मालिक' अथवा 'स्वामी' की यही फितरत होती है ?
बहरहाल, समाज की चूलें हिलनी चाहिए. अच्छा हैं, दलित जातियों की तर्ज पर दड़बों से बाहर आने की पहल भुक्त-भोगी महिलाएं करें. यह सामाजिक परिवर्तन की पूर्व शर्त भी है.
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