आज के 'हिन्दुस्तान' में प्रसिद्ध इतिहासकार रामचन्द्र गुहा का लेख "अतीत से चिपके वाम का भविष्य" छपा है। इसका अर्थ यही है 'अतीत पंथी वाम पंथी।' रामचन्द्र गुहा ने कम्युनिस्टों को अपनी सोच का भारतीयकरण करने की सलाह दी है। वे लिखते हैं कि 'भारतीय वामपंथियों ने अपने नायकों को देश में नहीं, बल्कि देश से बाहर ही पाया है। लेनिन और माओ जैसों की भारत या भारतीय समाज के बारे में न तो कोई समझ थी और न उनमें बहुदलीय लोकतंत्र की ख़ूबियों के प्रति प्रशंसा भाव था। गांधी और आंबेडकर जैसे स्वदेशी चिन्तकों की क़ीमत पर विदेशी नायकों को पूजते हुए वामपंथी भारतीय सच्चाइयों से परे चले गए।'
यह बात डॉ. आंबेडकर अपने पूरे जीवन भर कहते रहे कि कम्युनिस्ट अपना भारतीयकरण करें, पर उन पर कोई असर नहीं हुआ था। इसलिए आंबेडकर कम्युनिस्टों से इस क़दर नाराज़ थे कि कहते थे कि वे दुनिया भर से समझौता कर लेंगे, पर कम्युनिस्टों से कभी समझौता नहीं करेंगे। वे कहते थे कि इनके एजेंडे में जाति के सवाल ही नहीं हैं, इसलिए ये क्रांति करने नहीं, बल्कि क्रांति को रोकने आए हैं। आंबेडकर ने यह ग़लत नहीं कहा था। आज तक वे कोई क्रांति नहीं कर सके।
मैं स्वयं काफ़ी सालों से कह रहा हूँ कि अगर भारत में वामपंथियों को सफल होना है, तो उन्हें तीन काम करने होंगे-- (1) अपनी सोच और शब्दावली दोनों का भारतीयकरण करना होगा। कम्युनिस्ट शब्द खत्म करना होगा, क्योंकि यह भारत के शोषित वर्गों में कोई क्रांतिबोध पैदा नहीं करता है। यह बात रामचंद्र गुहा ने भी कही है। (2) आंबेडकर, पेरियार, फुले और कबीर की वैचारिकी को अपनाना होगा, और (3) जाति और ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखना होगा।
भारत में कम्युनिज़्म की विफलता इन्हीं तीन कामों को न करने से हुई। वामपंथी जिस वर्ग नामक चीज पर जोर देते हैं, वह अस्तित्व में ही नहीं है। ग़रीब ब्राह्मण भी ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ नहीं जाता।
यह स्पष्ट रूप से समझना होगा कि भारत में दो विचारधाराएँ हैं, एक समतावादी और दूसरी ब्राह्मणवादी। कबीर और तुलसीदास इन्ही दो विचारधाराओं के स्तम्भ हैं। आंबेडकर और गांधी भी इन्हीं दो विचारधाराओं के स्तम्भ हैं। तथाकथित मार्क्सवादी आलोचक राम विलास शर्मा ने एक जगह लिखा है कि 'अगर भारत में फ़ासीवाद क़ायम हुआ, तो उसकी पहली जिम्मेदारी कम्युनिस्टों की होगी।' पर हक़ीक़त में रामविलास शर्मा भी तुलसीवादी थे, कबीरवादी नहीं थे। यह उनका नहीं, बल्कि अधिकांश मार्क्सवादियों का चरित्र था और है। मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह तक ने यह बयान दिया था कि वह सुबह नहाधोकर रामचरितमानस का पाठ करते हैं। अब जो तुलसीवादी है, वह समतावादी छोड़ो, मार्क्सवादी भी नहीं हुआ। इन लोगों ने कुछ भी तो नहीं त्यागा, जनेऊ तक नहीं तोड़ी। बंगाली कम्युनिस्ट दुर्गापूजा में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। जो ब्राह्मणी पाखण्ड नहीं छोड़ सकता, उससे क्या उम्मीद की जा सकती है? बंगाल का सारा कम्युनिस्ट वोट ज्यों ही थोड़े ही चला गया भाजपा में, वह उसका घर है, इसलिए वह उसमें आराम से चला गया।
इसलिए मैं कहता हूँ कि ब्राह्मण के कई मुँह हैं, वह एक मुँह से मार्क्स की बात करेगा, तो दूसरे मुँह से तुलसीदास की प्रशंसा करेगा। वह एक मुँह से आंबेडकर की बात करेगा, तो दूसरे मुँह से जयश्रीराम के नारे लगाएगा। यह क्रांतिकारी और विश्वसनीय प्राणी नहीं है। वेदों से गीता तक की जो धारा है, वह उसी में जायेगा।
कबीर ने इन लोगों को पहिचान लिया था, इसलिए खुलकर कहा था---
अति पुनीत ऊँचे कुल कहिए, सभा माहिं अधिकाई।
इनसे दिच्छा सब कोई माँगे, हंसीआवे मोहि भाई।
यह बात डॉ. आंबेडकर अपने पूरे जीवन भर कहते रहे कि कम्युनिस्ट अपना भारतीयकरण करें, पर उन पर कोई असर नहीं हुआ था। इसलिए आंबेडकर कम्युनिस्टों से इस क़दर नाराज़ थे कि कहते थे कि वे दुनिया भर से समझौता कर लेंगे, पर कम्युनिस्टों से कभी समझौता नहीं करेंगे। वे कहते थे कि इनके एजेंडे में जाति के सवाल ही नहीं हैं, इसलिए ये क्रांति करने नहीं, बल्कि क्रांति को रोकने आए हैं। आंबेडकर ने यह ग़लत नहीं कहा था। आज तक वे कोई क्रांति नहीं कर सके।
मैं स्वयं काफ़ी सालों से कह रहा हूँ कि अगर भारत में वामपंथियों को सफल होना है, तो उन्हें तीन काम करने होंगे-- (1) अपनी सोच और शब्दावली दोनों का भारतीयकरण करना होगा। कम्युनिस्ट शब्द खत्म करना होगा, क्योंकि यह भारत के शोषित वर्गों में कोई क्रांतिबोध पैदा नहीं करता है। यह बात रामचंद्र गुहा ने भी कही है। (2) आंबेडकर, पेरियार, फुले और कबीर की वैचारिकी को अपनाना होगा, और (3) जाति और ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखना होगा।
भारत में कम्युनिज़्म की विफलता इन्हीं तीन कामों को न करने से हुई। वामपंथी जिस वर्ग नामक चीज पर जोर देते हैं, वह अस्तित्व में ही नहीं है। ग़रीब ब्राह्मण भी ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ नहीं जाता।
यह स्पष्ट रूप से समझना होगा कि भारत में दो विचारधाराएँ हैं, एक समतावादी और दूसरी ब्राह्मणवादी। कबीर और तुलसीदास इन्ही दो विचारधाराओं के स्तम्भ हैं। आंबेडकर और गांधी भी इन्हीं दो विचारधाराओं के स्तम्भ हैं। तथाकथित मार्क्सवादी आलोचक राम विलास शर्मा ने एक जगह लिखा है कि 'अगर भारत में फ़ासीवाद क़ायम हुआ, तो उसकी पहली जिम्मेदारी कम्युनिस्टों की होगी।' पर हक़ीक़त में रामविलास शर्मा भी तुलसीवादी थे, कबीरवादी नहीं थे। यह उनका नहीं, बल्कि अधिकांश मार्क्सवादियों का चरित्र था और है। मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह तक ने यह बयान दिया था कि वह सुबह नहाधोकर रामचरितमानस का पाठ करते हैं। अब जो तुलसीवादी है, वह समतावादी छोड़ो, मार्क्सवादी भी नहीं हुआ। इन लोगों ने कुछ भी तो नहीं त्यागा, जनेऊ तक नहीं तोड़ी। बंगाली कम्युनिस्ट दुर्गापूजा में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। जो ब्राह्मणी पाखण्ड नहीं छोड़ सकता, उससे क्या उम्मीद की जा सकती है? बंगाल का सारा कम्युनिस्ट वोट ज्यों ही थोड़े ही चला गया भाजपा में, वह उसका घर है, इसलिए वह उसमें आराम से चला गया।
इसलिए मैं कहता हूँ कि ब्राह्मण के कई मुँह हैं, वह एक मुँह से मार्क्स की बात करेगा, तो दूसरे मुँह से तुलसीदास की प्रशंसा करेगा। वह एक मुँह से आंबेडकर की बात करेगा, तो दूसरे मुँह से जयश्रीराम के नारे लगाएगा। यह क्रांतिकारी और विश्वसनीय प्राणी नहीं है। वेदों से गीता तक की जो धारा है, वह उसी में जायेगा।
कबीर ने इन लोगों को पहिचान लिया था, इसलिए खुलकर कहा था---
अति पुनीत ऊँचे कुल कहिए, सभा माहिं अधिकाई।
इनसे दिच्छा सब कोई माँगे, हंसीआवे मोहि भाई।
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