विनायक सेन की गिरफ्तारी के विरोध में लोग लगातार सडकों पर उतर रहें हैं.मगर, लगता है देश का शाशन तन्त्र नींद से जाग नहीं रहा है.एक पी यु सी एल ही तो है जो मानव अधिकारों के हनन के प्रश्न पर सरकार और न्यायपालिका को कटघरे में खड़ा करता है.अब अगर इस संस्था के उपाध्यक्ष को ही जेल में डाल दिया जाता है तो फिर, देश में मानव अधिकारों के हनन के प्रश्न पर कौन बोलेगा ?
अब तक यह तो साफ है कि नक्सलाईट आन्दोलन पर सरकार अँधेरे में है.वह इसे साफ तौर पर सामाजिक-आर्थिक समस्या मानने को तैयार नहीं है,जबकि देश का बुद्धिजीवी वर्ग इसे सामाजिक-आर्थिक समस्या मानता है.अगर आप इसे सिर्फ कानून और व्यवस्था की बात कहेंगे तो डील भी आप उसे उसी तरह करेंगे.
देश की न्यायपालिका पर कुछ कहना आसान नहीं है.पर मुश्किल तो यह है कि जब सरकार ही अँधेरे में है, तो न्यायपालिका तत्सम्बंध में बिना गाइड लाइन के क्या कर सकती है ? न्यायिक कानून-कायदे इतने पुराने और गड-मड है कि न्यायपालिका जब जैसे साक्ष्य होतें है,वैसे फैसले देती है.ऐसे बहुतेरे फैसले गिनाये जा सकते हैं कि लोगों ने खुलम-खुल्ला आलोचना की है.तब भी मुझे लगता है कि न्यायपालिका के ऐसे विवादास्पद फैसलों का कारण सरकार की तत्सम्बंध में स्पष्ट नीति का न होना है. चाहे प्रकरण साहबानो केस का हो या पिछले दिनों आया अयोध्या-बनाम बाबरी मस्जिद पर फैसला.
लोग भूले नहीं होंगे की वर्षों पूर्व सुदूर दक्षिण अफ्रीका में मानव अधिकारों की रक्षा के लिए सडकों पर निकले नेलशन मंडेला की गिरफ्तारी पर हमारे देश में कितना हो-हल्ला मचा था.अच्छा होता सरकार नींद से शीघ्र उबरती.आप, '२ जी स्पेक्ट्रम' घोटाले में जो आज कर रहें हैं,वह पहले ही कर लेते तो शायद नौबत आज, यहाँ तक नहीं पहुँचती.
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