Friday, February 11, 2011

सड़े आदर्श


           अक्सर मुझे कोफ़्त होती है हमारे यहाँ के लोगों की नैतिकता के प्रति उनकी सोच देख कर. यह बात नहीं कि दूसरे देशों में लोग १०० प्रतिशत नैतिक हैं ? लोग वहां भी अनैतिक हैं, चोर-लुटेरे हैं,भ्रष्ट हैं. लोगों की नैतिकता में गिरावट वहां भी है मगर, गिरावट का स्तर निश्चित रूप से हमारे यहाँ से कम है.
          आप विकसित देशों में जाइए. वहां की ख़बरें सुनिए,पत्र-पत्रिकाएँ पढ़िए,आप को लगता है की नैतिकता के लेवल पर हम काफ़ी नीचे हैं.चाहे बात व्यक्तिगत नैतिकता की हो, सामाजिक नैतिकता की  या फिर, राष्ट्र के प्रति उनके सोच की. निश्चित रूप से हमारी औसत सोच बहुत घटिया है.
        हमें फक्र है कि हमारी धरती पर हजारों ऋषि-मुनियों ने जन्म लिया है. संत और महात्मा यहाँ पैदा हुए हैं.खुद इश्वर ने जब-तब विविध रूपों में अवतार लेकर पापियों का नाश किया है.महात्मा बुद्ध की यही धरती है,भगवान् महावीर यहीं हुए हैं.
            तब, ऐसी पवित्र भूमि के बाशिंदों की नैतिकता में गिरावट का लेवल इतना नीचे कैसे हो सकता है ? जबकि, दिन-रात टीवी चैनलों में विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों के 'बाबा' लोगों को नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे हो, जन्म-कुंडली और  ग्रह-दशा देख आगाह कर रहे हो ?
        नैतिकता के प्रति लोगों का 'दोगलापन' समझ के परे हैं. लोग उपदेश तो दुसरे को बहुतेरे देते हैं मगर,खुद इसका पालन कतई नहीं करते.
          नैतिकता के दोगलेपन की विवेचना के तई में  हमें अपने धर्म-ग्रंथों पर जाना होगा.क्योंकि, यही इसके स्रोत हैं. धर्म-ग्रन्थ, और वह भी हिन्दुओं के.यह तो मान्य सिद्धांत है कि किसी भी देश में वहां के बहुसंख्यकों की संकृति ही पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है.अल्पसंख्यक हमेशा ही बहुसंख्यकों का अनुकरण करते है.अर्थात, बहुसंख्यकों की धार्मिक-सामाजिक धरोहर और संस्कृति लोगों के रूटीन लाइफ का अंग होती है.वह उनके सोच को प्रभावित करती हैं.
           हमारे देश के बहुसंख्यक हिन्दू हैं. हिन्दुओं के पवित्र ग्रन्थ वेद है. मगर वेद, अल्पसंख्यकों को जाने दीजिये, खुद हिन्दू समाज में ही घृणा का प्रचार करते हैं.विवादास्पद चातुर्य वर्ण-व्यवस्था की उपज यही वेद है. हिन्दू लाख दुहाई दें किन्तु ,यह सच है की ९५% हिन्दुओं के बीच आपस में रोटी-बेटी के सम्बन्ध को इसी वर्ण-व्यवस्था ने प्रतिबंधित कर रखा है.जबकि,हिन्दू दर्शन के क्षेत्र में 'वसुधैव-कुटुम्बकम' की बात करते हैं.
           हिन्दुओं का दूसरा पवित्र, धार्मिक ग्रन्थ रामायण है. रामायण का प्रमुख पात्र, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम है. हिन्दू , राम को आराध्य मानते हैं. मगर राम,जहाँ ब्राह्मणों के पैर पूजते हैं वही ब्राह्मणों के उकसाने पर निर- अपराध शम्बूक का वध कर ८५% शूद्रों के लिए अपयश का सबब बनते हैं.रामायण में जगह-जगह  ऐसे कई प्रसंग हैं जहाँ राम, ब्राह्मणों के तो प्रिय बनते जाते हैं किन्तु, दूसरे वर्ग/वर्णों के लिए निन्दित होते जाते हैं. हिन्दू ,राम को 'भगवान्' और 'मर्यादा पुरुषोत्तम' कहते हैं किन्तु 'भगवान्' और मर्यादा पुरुषोत्तम' की परिधि में राम का समूचा व्यक्तित्व कहीं भी आदर्श नहीं लगता. रामायण की दूसरी प्रमुख पात्र है-सीता. सीता, हिन्दू नारियों को स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की जगह दासता का सन्देश देती है, हमेशा पुरुष की जूती रहने को विवश करती है.
             हिन्दुओं का तीसरा पवित्र धार्मिक ग्रन्थ है- महाभारत. महाभारत में जगह-जगह इतनी पोंगा-पंथी है कि लोग इसे पढ़ना पसंद नहीं करते. अन्य अल्पसंख्यक मुस्लिम, इसाई, सिख,बौद्ध, जैन और पारसियों के धार्मिक ग्रंथों में भी कई उलुल-जलूल बातें हैं किन्तु , जिस तरह महाभारत में वर्णित है, इसे आदर्श धार्मिक ग्रन्थ कहना ज्यादती होगा.महाभारत के मुख्य पात्र है- कृष्ण. भगवान् कृष्ण भी हिन्दुओं के आराध्य हैं. किन्तु ,कृष्ण का पूर्ण व्यक्तित्व छल-प्रपंच का है.हिन्दू लाख अगर-मगर करें किन्तु हमारे लिए कृष्ण आदर्श है, कोई छाती ठोंक कर नहीं कह सकता.
           यहाँ मैं, स्पष्ट कर दूँ  की इस लेख का उद्देश्य हिन्दुओं के धार्मिक ग्रन्थ और अराध्य देवी-देवताओं की  विवेचना करना  नहीं है. बल्कि, नैतिकता के संदर्भ में सम्बंधित कारणों को ट्रेस करना है.मैं सर्च करना चाहता हूँ कि नैतिकता के प्रति हमारे दोहरे मानदंडों की असली वजह क्या है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके पीछे हमारे सड़े आदर्श हों ?
     

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