Monday, February 21, 2011

दलितों के पृथक शिक्षा-संस्थान हो

हमारे देश में अल्पसंख्यकों को उनकी पृथक सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत के आधार पर संवैधानिक रूप से उन्हें अपने शिक्षा-संस्थान खोलने और चलाने की अनुमति दी गई है और साथ ही राज्य को निर्देश दिया गया है कि वह न केवल ऐसी व्यवस्था करे वरन इन शिक्षा-संस्थाओं को चलाने के लिए आर्थिक मदद भी दे.पृथक शिक्षा-संस्थान खोलने व चलाने की अनुमति देने के पीछे संविधान-निर्मात्री सभा की मंशा अल्पसंख्यकों की सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को संरक्षण देने की थी।         

भारत, मूलत: बहुआयामी-संस्कृतियों का देश है। यहाँ पर संस्कृतियों की भिन्नता धार्मिक आधार पर है। यहाँ पर संस्कृतियों की विभिन्नता सामाजिक आधार पर है और यहाँ पर संस्कृतियों की विभिन्नता जाति/मूल-वंश के आधार पर है।  इस देश की  दलित जातियां, यद्यपि राजनितिक कारणों से हिदू बहुसंख्यकों में गिनी जाती हैं किन्तु, सांस्कृतिक आधार पर निश्चित रूप से वे हिन्दू और हिन्दू-संस्कृति से भिन्न हैं-
1.  हिन्दुओं के धार्मिक सोलह संस्कार दलित जातियों में नहीं होते है.
2.  सामाजिक-धार्मिक संस्कारों को सम्पन्न करने दलित जातियों में ब्राह्मण पंडित नहीं आता है। सवर्ण हिन्दुओं  में ब्राह्मण पंडित अनिवार्य है।
3.  दलित जातियां जनेऊ धारण नहीं करती है और नहीं चोटी रखती हैं। .जबकि जनेऊ और चोटी सवर्ण हिन्दुओं की पहचान है।
4.  वर्ण-व्यवस्था हिन्दुओं का आधारभूत सिद्धांत है जो असमानता की धार्मिक सम्मति  देता है। दलित जातियां इससे घृणा करती है।
5.  दलित संस्कृति सिद्धांत: मातृ-सत्तात्मक समाज है जबकि हिन्दू संस्कृति ,पितृ-सत्तात्मक समाज है।
6.  दलित जातियों के आराध्य देवी-देवता ,हिन्दू देवी-देवताओं से प्रथक हैं।
7.  दलित जातियों के आदर्श पुरुष, हिन्दुओं के आदर्श पुरुषों से अलग हैं।
8.  विधवा विवाह दलित जातियों में प्रचलित है जबकि हिन्दुओं में यह स्वीकार्य नहीं है।
9.  बाल-विवाह और सती-प्रथा हिन्दुओं में स्वीकृत है जबकि दलित जातियों में दोनों प्रथाएं अस्वीकृत हैं।
10. हिन्दुओं में नाम-करण संस्कार आदि दलित जातियों से भिन्न हैं।
11.  हिन्दू अपने को सूर और दलित जातियों को असुर मानते हैं।
12. दलित जातियां, हिन्दुओं के लिए अस्पृश्य हैं।
13.  दलित जातियों का हिन्दुओं के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध नहीं है।
14.  हिन्दुओं के मन्दिरों में दलित जातियों का प्रवेश शास्त्र-निषिद्ध है। 
15.  हिन्दुओं के धर्म-शास्त्र, दलित जातियों को स्वीकृत नहीं हैं ।
16.  हिन्दुओं में ब्राह्मण और गौ को पूज्य माना जाता है। जबकि दलित जातियां ब्राह्मण से घृणा और गाय का मांस खाती हैं।
17.  होम,यज्ञादि कार्य हिन्दू धार्मिक संस्कार हैं, जबकि दलित जातियों में ऐसा नहीं है।
18.  हिन्दू मिडिया, दलित जातियों से सम्बन्धित समाचारों की उपेक्षा करता है। दूसरे, दलित जातियों के पत्र- पत्रिकाएं, हिन्दू  नहीं पढ़ते।
19.  दलित जातियों का अपना दलित साहित्य है, जिसकी हिन्दू  उपेक्षा करते हैं।
20.  दलित, हिन्दुओं से पृथक रहते हैं।  इनके नाई तक पृथक होते हैं।

यही कारण है कि दलित जातियों को पृथक सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई स्वीकार करते हुए हमारे देश के संविधान में अलग से प्रावधान किये गए हैं। चूँकि, हिन्दू और दलित जातियों में न सिर्फ सामाजिक-सांस्कृतिक भिन्नता है वरन, परस्पर वैमनश्यता के बीज भी पर्याप्त है। इसलिए संवैधानिक प्रावधान किये गए-
-संसद और विधान सभाओं में।
-राज्य की सेवाओं और पदों में उनकी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व।
-राज्य की शैक्षणिक-संस्थाओं में आरक्षण।
-शासन की विभिन्न योजनाओं में उचित भागीदारी। 

प्रत्येक समाज का अपना इतिहास होता है।  उसकी अपनी संस्कृति होती है, उनके अपने महापुरुष होते हैं। ये महापुरुष उस समाज के आदर्श होते हैं। सच तो यह है कि जिस समाज का इतिहास नहीं होता, वह समाज ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रह सकता।  आखिर,बिना इतिहास और संस्कृति के कोई समाज कब तक जिन्दा रह सकता है ?
शिक्षा एक ऐसा माध्यम है, जिससे लोग शिक्षित होते हैं; अपने इतिहास और संस्कृति को जानते हैं। शिक्षा के द्वारा ही तार्किक समझ पैदा होती है. शिक्षा से अच्छे-बुरे की पहचान होती है। शिक्षा, सफलता की समस्त मंजिलों  का प्रवेश द्वार है।  जबकि, अशिक्षा,सब बिमारियों की जड़ है और यही कारण है कि दलित जातियों को हमेशा-हमेशा गुलाम बनाये रखने के लिए उनकी शिक्षा का निषेध किया गया।  दूसरे,उनके इतिहास को न सिर्फ विकृत किया गया बल्कि,उसे घृणास्पद रूप से पेश किया गया।  नतीजा ये हुआ की दलित जातियों के बच्चें अपने ही इतिहास को घृणा से देखते हैं।  अपने मूल-वंश/जाति का नाम बतलाने शर्म महसूस करते हैं।  जिसे अपने मूल-वंश पर गर्व न हो, भला उससे आप क्या उम्मीद कर सकते हैं ? कम-से कम अपने समाज के लिए उसकी कोई उपयोगिया नहीं हो सकती और जिसकी उपयोगिता उसके अपने समाज के लिए नहीं हो सकती, देश के लिए उससे क्या उम्मीद की जा सकती है ?

दलित जातियों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार का प्रयास अंग्रेजी हुकूमत ने किया।  कारण जो भी हो, किन्तु, यह सच है। स्वतंत्रता के बाद इसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी नैतिक रूप से शासित जाति हिन्दुओं पर आन पड़ी।  किन्तु, शासित जातियों को शायद लगने लगा कि अगर, दलित जातियां शिक्षित हो गई तो शीघ्र ही इन पर  उनका प्रभुत्व ख़त्म हो जायेगा. फिर, वे किसके भरोसे गद्दी पर बैठेंगे ? उन्हें वोट कौन देगा ? अत: शासक जातियों ने इसका हल दोहरी शिक्षा-नीति से निकाला और व्यापक स्तर पर इसे लागू किया।  दोहरी शिक्षा नीति का लम्बा असर यह हुआ कि सरकारी स्कूलों में पढाई होती नहीं और गैर-सरकारी स्कूलों में इतनी पढ़ाई होती है कि  बच्चों को साँस लेने कि फुर्सत नहीं होती।  किन्तु, गैर-सरकारी स्कूलों में फ़ीस इतनी तगड़ी होती है कि दलित जाति के लोग इसका बोझ नहीं उठा सकते।  अब दलित जातियों के पास दो ही रास्तें हैं कि वे अपना सब कुछ दांव पर लगा कर बच्चों को इन गैर-सरकारी स्कूलों में भेजे या सरकारी स्कूलों में भेजकर उनको किसी काम के लायक न रहने दे।  सरकारी स्कूलों से निकले बच्चे न किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठ सकते हैं और न ही पूंजी के अभाव में कोई व्यवसाय खोल सकते हैं. 

आज, प्राइवेट स्कूलों ने एक व्यवसाय का रूप ले लिया है। जिन दलित जातियों के कर्मचारी-अधिकारियो  के पास पैसा हैं, वे ही इन स्कूलों में अपने बच्चों को भेज पा रहे हैं।  किन्तु, ऐसा कर दलित जाति के ये कर्मचारी-अधिकारी अपनी गाढ़ी कमाई के पैसो से शासक जातियों के उद्देश्य को ही सफल बना रहे हैं ! यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि सरकारी स्कूलों के साथ-साथ अन्य प्राइवेट स्कूलों में दलित जातियों के इतिहास और संस्कृति के बारे, कोई शिक्षा नहीं दी जाती।  दलित जाति के नायक-नायिकाओं के बारे में जानकारी देने में चुप्पी बरती जाती है।  कुछ नायक-नायिकाओं को घृणा और हंसी के पात्र के रूप में पेश किया जाता है।  रावण, जो असुर संस्कृति का प्रतीक है, घृणा के रूप में चित्रित किया जाता है। आर्य, खुद को सुर-संस्कृति के वाहक बतलाते हैं। दलित जातियां,जब खुद को असुर संस्कृति से जोडती है , तब असुरों को राक्षस, दैत्यों के रूप में चित्रित करने का क्या तुक है ? आर्य-अनार्य की थ्योरी आप खुद पढ़ा रहे हैं।  यहाँ के मूल-निवासियों को असुर, आप खुद बतला रहे है तब, असुरों को घृणित पेश करने का क्या तुक है ? क्या इसके पीछे भावना यह नहीं कि दलित जातियां बनाम मूल-निवासी/असुर, अपने आप से घृणा करे ? राम को इश्वर चित्रित करना एक बात है किन्तु , रावण को असुर संस्कृति से जोड़कर घृणित चित्रित करना दूसरी बात है। इसी तरह, अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धारी सिद्ध करने के लिए एकलव्य का अंगूठा काटने का क्या तुक है ? इससे आप क्या सन्देश देना चाहते हैं ? आज, रामास्वामी की मूर्ति स्थापित किये जाए पर बवाल खड़ा किया जाता है ! इसलिए कि रामास्वामी ने इन षड्यंत्रों का पर्दाफाश किया।  तर्क दिया जाता है कि यह उनके आस्था का सवाल है ! किन्तु, यही आस्था का सवाल दलित जातियों के साथ लागू क्यों नहीं होता ? राम अगर आपके आस्था-पुरुष हैं तो रावण हमारे आस्था-पुरुष क्यों नहीं हो सकते ? जगदलपुर (बस्तर) में परम्परा से चले आ रहे आदिवासियों के दशहरा-उत्सव में सेंध लगा कर राम की जगह रावण के पुतले को आग लगाने की हिन्दू-परम्परा शुरू करने का क्या तुक है ?

शिक्षण संस्थानों में इस तरह की  घृणा और वैमनश्यता अल्पसंख्यकों को भी रास नहीं आती।  किन्तु, इसके लिए उनके अपने शिक्षण-संस्थान हैं. दलित जातियों के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। पृथक  शिक्षा-संस्थान न सिर्फ दलित जातियों के इतिहास एवं संस्कृति के बारे में जानकारी देंगे, वरन शासक जातियों द्वारा प्रचारित /प्रसारित घृणित दलित इतिहास और संस्कृति को दुरुस्त करेंगे। अल्पसंख्यकों के शिक्षा-संस्थानों को देख कर शासक हिन्दुओं ने सरस्वती शिशु-मन्दिरों की श्रंखला तैयार की और वहां बच्चों को नैतिक शिक्षा के नाम पर हिन्दू-संस्कृति थोपना शुरू किया। इसके आलावा, विवेकानंद-आश्रम, बनवासी-आश्रम आदि हजारों पाठशालाएं खोलकर हिंदुत्व का प्रचार-प्रसार आरम्भ किय। . आखिर, जिनके हाथों में सत्ता है, उन्हें पृथक शिक्षा-संस्थान खोलने की क्या आवश्यकता है ? किन्तु, इस तरह का विचार करने के लिए भी समाज में शिक्षा की चेतना जरुरी है जिसका अभाव, दलित जातियों में जान-भूझ कर पैदा किया गया।

 इतिहास में भारत को विश्व-गुरु सम्बोधित किया गया।  विश्व-गुरु की यह उपाधि भारत को बुद्धिस्ट पांच विश्वविद्यालय के कारण प्राप्त थी. जगत प्रसिद्द ये पांच विश्वविद्यालय थे-नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, राउरकेला एवं वल्लभी विश्वविद्यालय जहाँ, संसार के कोने-कोने से लोग पढने आते थे। आज, विश्व के जिस कोने में आप जाइये,हिन्दू नहीं, बौद्ध जन्म-भूमि के नाम से भारत को जाना-पहचाना जाता है.बुद्ध प्रथम वे व्यक्ति थे, जिन्होंने कुल/जाति वंश के परे 'बहुजन हिताय-बहिजन सुखाय' की बात कही थी। बुद्ध,शुद्ध मानवता की बात करते थे। वे हर शोषण के खिलाफ थे। उनकी शिक्षा में दोगली बातें नहीं थी।  वे किसी गैर-बराबरी की देशना नहीं करते थे। वे किसी अस्प्रश्यता की बात नहीं करते थे और इसलिए, दलित जातियां बुद्ध को अपना प्रेरणा-स्रोत मानती है।  इसके उल्ट, हिन्दुओं ने बुद्ध को न सिर्फ उनकी जन्म-भूमि में, ख़त्म कर दिया वरन ऐसा प्रयास भी किया कि यहाँ फिर, कोई बुद्ध पैदा न हो सके। जब विश्व प्रसिद्द बुद्धगया का बौद्ध-मन्दिर ही, आज भी हिदुओं के कब्जे में हैं तो अन्य  बौद्ध-स्थलों की बात दूसरी है। किन्तु, इतना सब होते हुए भी बाबासाहब डा. आंबेडकर ने न सिर्फ यहाँ बौद्ध धर्म का झंडा फहराया वरन दलित जातियों को भारत को  पुन: बौद्धमय करने का आव्हान किया।  बेशक, दलित जातियां बुद्ध को अपना धर्म गुरु मानती हैं। स्पष्ट है, दलितों के शिक्षा संस्थान बुद्ध से अनुप्रेरित होना चाहिए। वे शिक्षा संस्थान अम्बेडकरी-मिशनरी शिक्षा के केंद्र होने चाहिए। 

वर्तमान में, दलित जातियों की राजनितिक पार्टी है। धार्मिक आस्था के लिए बौद्ध धर्म है  किन्तु,शिक्षा के कोई पृथक शिक्षा-संस्थान नहीं हैं। दलित जातियों को अपने उद्धारक और मसीहा डा. आम्बेडकर की देशना- शिक्षित करो,संघर्ष करो और संघठित करो' के अनुपालन में प्रथक शिक्षा-संस्थानों की स्थापना जरुर करनी चाहिए।  इन शिक्षा-संस्थानों में अपना स्कूल, अपने बच्चें और अपने शिक्षक की गाइड-लाइन पर कार्य होना चाहिए तभी लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। दलित जातियों ने आज तक अपने मसीहा की प्रथम देशना-'एजुकेट' की गलत व्याख्या कर अपनी सीमित शक्ति का उपयोग 'शिक्षित बनो' पर किया. बेशक इसका परिणाम भी निकला किन्तु वह सीमित था। दलित जातियां अगर, अपना ध्यान 'शिक्षित बनो' के स्थान पर 'शिक्षित करो' में लगाती तो निश्चित रूप से परिणाम व्यापक होता. बहरहाल, देर आयद, दुरुस्त आयद। दलितों को अपने शिक्षा-संस्थान खोलने में देर नहीं करना चाहिए।    
          

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