Friday, April 9, 2021

ति-पिटक लेखन

 ति-पिटक लेखन

कंठस्थ बौद्ध ग्रंथों की शुद्धता तथा सुरक्षा के लिए दूसरी संगीति के 125 वर्षों बाद तीसरी संगति असोक के समय पटना में हुई थी. इसी के निर्णयानुसार असोक के पुत्र स्थविर महेंद्र ई. पू. तीसरी सदी में सिंहल आये और यह देश कासाय धारी भिक्खुओं से आलोकित हो उठा. पर पिटक की परम्परा अभी भी मौखिक ही थी और यह सूत्रधरों, विनयधरों तथा मात्रिकाधरों के ह्रदय में निहित था. ऐसी विशाल सामग्री का ह्रदय जैसे कोमल भंगुर पात्र में सुरक्षित रखना अत्यंत कठिन है, अतयव सिंहल राज वट्ट गामणि (ई. पू. प्रथम शताब्दी) के समय निर्णय लिया गया और इसके अनुसार 'अलोक विहार' में ति-पिटक ताल-पत्रों पर लिखा गया(पृ. 191). 

सूत्र, विनय तथा अभिधर्म को पढ़ाते समय आचार्य परम्परा के अनुसार जो व्याख्या करते थे, वही सिंहली अट्ठकथाओं के रूप में प्रस्तुत हुई और इन्हें भी लिपिबद्ध किया गया था. ईस्वी सदी के प्रारंभ होते ही सिंहल थेरवाद का गढ हो गया. वहां पर लिपिबद्ध किये गए पिटक ग्रन्थ बाहर भी पहुँच जाते थे, पर सिंहल अट्ठकथाएं सिंहल प्राकृत भासा में थी और शायद ही उनमें से कुछ दक्षिण या उत्तर भारत में पंहुची हों. उनकी भासा सिंहल-प्राकृत थी, जो तीसरी-चौथी सदी के सिंहल शिलालेखों में मिलती है. प्राकृत होने से यह बहुत कठिन नहीं थी. समयानुसार पीछे यह मांग होने लगी की उन्हें मागधी में कर दिया तो बड़ा लाभ हो, क्योंकि इनके प्रयोग का क्षेत्र विस्तृत हो जाता. इसी आवश्यकता की पूर्ति बुद्धघोस , बुद्धदत्त तथा धर्मपाल आदि आचार्यों ने की(बुद्धघोस युग :पाली भासा का इतिहास: राहुल सांस्कृत्यायन).

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