Tuesday, April 6, 2021

आरक्षण के विरोध में प्रेमचन्द: कँवल भारती

1934 में पहली बार भारत सरकार ने मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों में 25 प्रतिशत आरक्षण की विज्ञप्ति जारी की थी। प्रेमचंद ने उसका भरपूर विरोध किया। उनका हिंदू मन आहत हो गया. जिस राष्ट्रवादी सोच के तहत प्रेमचन्द ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचन के अध्किार का विरोध किया, उसी सोच के तहत उन्होंने मुसलमानों के आरक्षण का भी विरोध किया। उन्होंने जुलाई 1934 के ‘हंस’ में लिखा: ‘साम्प्रदायिकता के नाम पर, मुसलमानों के लिए पच्चीस प्रतिशत स्थान सुरक्षित कर दिए गए हैं। हमारी समझ में इसका अर्थ यही है कि सरकार हमारी राष्ट्रीय प्रगति को कुचलने का प्रयत्न कर रही है। वह नहीं चाहती कि हममें जीवन आ जाए। इस प्रकार साम्प्रदायिकता का पोषण करके वह हमारी राष्ट्रीयता को हवा में उड़ा देना चाहती है। सरकार का यह रुख बड़ा भयावह है। राष्ट्र के लिए यह कितना खतरनाक सिद्ध होगा, इसकी कल्पना करते ही महान खेद होता है। लेकिन सरकार को इसकी क्या परवाह है? उसे तो राष्ट्रीयता छिन्न-भिन्न करनी है। प्रत्येक समझदार व्यक्ति ने स्पष्ट शब्दों में नौकरियों के साम्प्रदायिक विभाजन का विरोध किया है।’

नौकरियों के साम्प्रदायिक विभाजन का विरोध करने वाले समझदार राष्ट्रवादी हिन्दू आज भी हैं, जो नौकरियों के जातीय विभाजन का विरोध करते हैं। और ये समझदार राष्ट्रवादी भला ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य और कायस्थों के सिवा कौन हो सकते हैं? प्रेमचन्द कितने तुच्छ दिमाग के थे कि मुसलमानों को भारत-राष्ट्र का अंग ही नहीं मान रहे थे! जैसे आज हिन्दुत्ववादी दलितों को भारत-राष्ट्र का अंग नहीं मानते, वरना सुप्रीम कोर्ट पूछता कि उन्हें कितनी पीढ़ियों तक आरक्षण चाहिए? विचारणीय सवाल यह है कि कोई राष्ट्र नीचे कैसे गिर सकता है, अगर उसके कमजोर वर्ग को विशेष प्रावधान से ऊपर उठाने की व्यवस्था की जाती है? मुसलमानों के लिए नौकरियों में आरक्षण की विज्ञप्ति 1934 में जारी हुई थी। उस समय तक भारत का विभाजन नहीं हुआ था। मुसलमान भारत-राष्ट्र के ही अंग थे। इसका मतलब यह हुआ कि 1934 तक सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं था। दलित और पिछड़ी जातियों को तो खैर शिक्षित ही नहीं किया गया था। फिर सरकारी नौकरियों में किनकी इजारेदारी थी। जाहिर है कि सवर्ण हिन्दुओं की। फिर मुसलमानों को 25 प्रतिशत नौकरियाँ देने से किस हिन्दू राष्ट्र को खतरा महसूस कर रहा था? ज़ाहिर है हिन्दू राष्ट्र को!
आगे प्रेमचन्द एक और निहायत बचकाना तर्क देते हैं, जैसे आज भी कुछ छद्म प्रगतिशील लोग दलितों के आरक्षण के सम्बन्ध में देते है---‘इसका यह अर्थ नहीं कि हम मुसलमानों की उन्नति के विरोधी हैं। हमें उनके लिए 25 प्रतिशत स्थानों के सुरक्षित होने पर भी खेद नहीं है, खेद है इस साम्प्रदायिक मनोवृत्ति पर, जिससे राष्ट्रीयता का गला घुट रहा है।’ वाह रे, प्रेमचन्द, मुस्लिम-विरोधी हैं, पर नहीं हैं, बस खेद है कि मुसलमानों को नौकरियाॅं देने से राष्ट्रीयता का गला घुट रहा है। कौन मूर्ख कहेगा कि यह प्रेमचन्द का मुस्लिम-विरोधी वक्तव्य नहीं है? छद्म प्रगतिशील भी ऐसे ही बोलते हैं कि ‘हम दलितों के विरोधी नहीं हैं, हम दलितों की तरक्की चाहते हैं। पर उनको आरक्षण देने से राष्ट्रीयता का गला घुट रहा है।’
मुसलमानों के सवाल पर प्रेमचन्द आगे और भी घोर सनातनी हिन्दूवादी दृष्टिकोण से लिखते हैं--'नौकरियों के इस प्रकार विभाजन से क्या होगा?साम्प्रदायिक द्वेष की मनोवृत्ति पनपनेगी, धर्मान्धता बढ़ेगी, हृदय ईर्ष्यालु होंगे, योग्यता का मूल्य गिर जायगा। मूल्य रहेगा साम्प्रदायिकता का। उसी का भयानक ताण्डव दृष्टिगोचर होगा, और यह राष्ट्र के लिए कितना घातक हो सकता है, यह किसी भी समझदार व्यक्ति की समझ से बाहर की बात नहीं है। प्रत्येक समझदार व्यक्ति इस दृष्टिकोण का विरोध करेगा और चाहेगा कि नौकरियाँ सम्प्रदाय के नाम पर नहीं, योग्यता के नाम पर दी जाएॅं।’
ये ठीक वही तर्क हैं, जो सनातनी हिन्दू और छद्म प्रगतिशील हिन्दू दलितों के आरक्षण के बारे में आज भी देते हैं। इन तर्को में सबसे बेहूदा तर्क योग्यता का है। यह तर्क इसलिए दिया जाता है, क्योंकि द्विज हिन्दू अपने सिवा किसी अन्य को योग्य मानते ही नहीं, और दलितों को तो बिल्कुल भी नहीं। जब मुलायम सिंह यादव पहली बार उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री बने थे, तो इन्हीं ‘योग्य’ हिन्दुओं ने दीवालों पर नारा लिखा था--‘अहीर का काम भैंस चराना है, शासन करना नहीं।’ असल में द्विज हिन्दू और खास तौर से ब्राह्मण समझते हैं कि वे योग्य और श्रेष्ठ पैदा हुए हैं, इसीलिए वे शासन-प्रशासन और न्यायपालिका में मुख्य पदों पर हैं। पर यह सच नहीं है, सच यह है कि सत्ता उनको चाहती है, इसलिए वे हर जगह मुख्य पदों पर हैं। चूॅंकि सत्ता उन्हीं के हाथों में है, इसलिए योग्य-अयोग्य का पैमाना भी उन्हीं के हाथों में है।
हिन्दुओं की इसी विषैली मनोवृत्ति के कारण भारत का विभाजन हुआ, और पाकिस्तान बना। यह ठीक ही हुआ, वरना हिन्दू कभी भी किसी मुसलमान को यहाँ प्रधानमंत्री नहीं बनने देते।
(6/4/2021)
Bharti Kanwal

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