बिहार में विधानसभा चुनाव आसन्न है। यदि महामारी के कारण नवम्बर में चुनाव नहीं हुआ तो भी अप्रैल 2021 के पहले-पहले तक चुनाव होना ही होना है।
इन चुनावों में महिलाओं की भागीदारी सबसे चिंताजनक होती है। बिहार उन राज्यों में रहा है जो महिलाओं के मताधिकार के सवाल पर 1929 तक दकियानूस ख्याल रखता था। वहां की परिषद में इस सम्बंध में होने वाली तीन बहसों में अधिकांश माननीय का ख्याल होता था कि महिलाएं घर तो सम्भाल नहीं पा रहीं हैं, राजनीति क्या सम्भालेंगी।
लेकिन बिहार ही पहला राज्य है जिसने 2005 में स्थानीय निकायों में महिलाओं को 50% आरक्षण दे दिया। इसके पहले राजस्थान आदि में स्थानीय निकायों में मिला आरक्षण 50 से नीचे था। पिछले 30 सालों की हकीकत यह है कि महिलाएं पब्लिक स्फीयर में आज दिखती हैं। लालू प्रसाद के समय से शुरू हुआ यह बदलाव नीतीश कुमार के जमाने में ठोस होता गया-हालांकि स्थानीय निकायों के प्रतिनिधित्व को कमजोर करने का काम भी पिछले 10-15 सालों में ही नौकरशाही ने किया।
पब्लिक स्फीयर में भागीदारी के बावजूद महिलाओं की सदनों में उपस्थिति न के बराबर है। आज बिहार विधानसभा में कुल 28 महिला-सदस्य हैं, जो विधानसभा की पूरी सदस्य संख्या का लगभग 11-12% है। वहीं बिहार विधानपरिषद में 75 सदस्यों में 5 महिलाएं ( लगभग 6-7%) हैं।
बिहार में अबतक 15वीं विधानसभा में सर्वाधिक महिलाएं थीं। 243 की सदस्य संख्या वाली विधानसभा में 35 महिलाएं, यानी 14-15%। जबकि इसके पहले सबसे ज्यादा संख्या 1957 में दूसरी विधानसभा में थी, चौतीस। यद्यपि तब विधानसभा की कुल संख्या 330 थी, कुल प्रतिशत 10-11।
पहली विधान सभा (1952) में 13 महिला सदस्यों से शुरुआत करने के बाद बिहार में महिला-प्रतिनिधित्व में शुरुआती बढ़त जरूर हुई, 1957 (34), 1962 (25) लेकिन समाजिक न्याय की राजनीति के उदय के साथ 1967 से महिलाओं की संख्या घटकर 10 हो गई। इसे इस रूप में भी शायद देखा जा सकता है कि छूट गये समूहों की राजनीतिक आकांक्षा जब आकार लेती है, तो महिलाओं का स्वप्न उसमें जरूर शामिल होता है लेकिन प्रतिनिधित्व उसी अनुपात में हो जरूरी नहीं। कई वर्ष तक यह संख्या 15 के नीचे रही। 1969-72 में तो मात्र चार महिलाएं विधानसभा पहुंचीं।
आगे चलकर इसी सामाजिक न्याय का असर दिखा और महिलाओं की संख्या बढ़ने लगी। लेकिन कुलमिलाकर आज भी यह संख्या संतोषप्रद नहीं है।
इसके पहले 26 जनवरी 2019 को यहां मैंने पोस्ट लिखा था:
महिलाओं के मताधिकार के सवाल पर बिहार विधान परिषद में 1921, 1925, 1929 में हुई बहस पढ़ रहा हूँ। अजब-गजब तर्क दिये जा रहे हैं महिलाओं के मताधिकार के खिलाफ। इन बहसों को आज की उन बहसों के साथ देखा जा सकता है जो संसद में महिलाओं के आरक्षण के सवाल पर होती रही हैं
भारत में त्रावणकोर और मद्रास प्रोविंस ने 1921 में सीमित मताधिकार महिलाओं को दे दिया था। बिहार में 1929 में मिला। दो बार प्रस्ताव गिरा। 1921 में 21 वोट मताधिकार प्रस्ताव के पक्ष में गिरा और 32 वोट खिलाफ में। 1925 में 18 के मुकाबले 32 वोट से यह प्रस्ताव गिरा लेकिन 1929 में 14 के मुकाबले 47 वोट से प्रस्ताव पारित हुआ।
कुछ दिनों तक महात्मा गांधी भी महिलाओं के मताधिकार के खिलाफ थे। उनका मानना था कि महिलाओं को आजादी की लड़ाई में पुरुषों की मदद करनी चाहिए। हालांकि उनका यह विचार बदला भी। बिहार में शिक्षा के लिए अपने योगदान के लिए जाने जाने वाले सर गणेश दत्त सिंह ने 1929 में भी इस मताधिकार के खिलाफ वोट किया था।
बिहार प्रोविंस के माननीय सदस्य बहस में बता रहे हैं कि कैसे महिलाएं बच्चा पालन की अपनी मुख्य भूमिका को भी नहीं निभा पा रही हैं और बच्चे मर रहे हैं। यह वोट के लिए उनकी अयोग्यता के पक्ष में एक तर्क है। माननीय सदस्य लोग महिलाओं की भलाइ घर के भीतर होने में ही बता रहे हैं। चहारदीवारी में ही उनका सर्वांगीन विकास संभव है। कुछ माननीय उनके मताधिकार के बाद कॉउंसिल मे उनके चुने जाने से भयभीत हैं। यहां पुरुषों द्वारा संचालित कॉउंसिल में पुरुषों के डिबेट का फूहड़ दृश्य है-उसपर से दावा यह कि वे महिलाओं से बेहतर महिलाओ का पक्ष समझते हैं। तर्क यह भी कि यूं ही नहीं पुरुषों को महिलाओं का हसबैंड बनाया गया है-हसबैंड मतलब स्वामी-पुरुषों में काबिलियत है और महिलाओं में अक्षमता।
सर गणेश दत्त सिंह तो प्रस्ताव का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि 'उन्होंने कहा कि पुरुषों ने महिलाओं पर बहुत वर्षों तक शासन किया है। तो क्या वे महिलाओं द्वारा शासित होना चाहते हैं? हंसते हुए पूछते हैं कि क्या सभी क्षेत्रों में?' महिलाओ में निरक्षरता एव अशिक्षा का जिम्मेदार भी वे महिलाओ को ही बताते हैं।
ये इतिहास के दस्तावेज हैं और आज लगभग 100 बाद भी इस बात की बानगी कि क्यों भारत की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 से 12 प्रतिशत तक आज भी सिमटा है और महिला आरक्षण बिल की रुकावटें क्या-क्या हैं?
2014 में स्त्रीकाल ने 1921, 1925 और 1929 में बिहार विधानसभा मे महिला मताधिकार की बहसों का संक्षेप प्रकाशित किया था। (अरुण नारायण द्वारा सम्पादित एक पत्रिका में मुसाफिर बैठा द्वारा प्रस्तुत सारांश था वह)
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