पालि अर्थात बुद्धवचन
बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति के बाद 45 साल तक समस्त उत्तर-भारत और मध्य मण्डल में धूम-घूम कर धम्म का प्रचार किया था। उनके भिक्खु-संघ में सभी वर्गों के कुलपुत्र प्रव्रजित हो सम्मिलित हुए थे। चाहे मगध, वेसाली, कासी, मिथिला अथवा कोसल के हो या राज, श्रेष्ठि अथवा शूद्र कुल; सभी भिक्खु समान रूप से साथ रहते थे। निस्संदेह, भिन्न-भिन्न प्रांत और समाज के होने से उनकी अपनी-अपनी बोली थी। बावजूद सभी साथ रहने पर साधारण भाषा मागधी का ही प्रयोग करते थे।
वास्तव में, मागधी भाषा का पूरा विकास भिक्खु-संघ में ही हुआ था। यह सारे मध्य-मण्डल की एक जीवित अन्तर-प्रांतीय भाषा थी, जिसे सभ्य समुदाय बड़े गौरव के साथ बोलता था। यही भाषा मगध सम्राटों की राज-भाषा बनी, क्योंकि मगध राज्य के विस्तार के बाद ऐसी ही व्यापक भाषा की आवश्यकता थी। राज-भाषा होने से इस भाषा का सम्मान और भी बढ़ गया; तथा मगध राज्य की भाषा होने के कारण इसका नाम भी ‘मागधी’ पड़ा।
विनयपिटक के चुल्लवग्ग में एक कथा आती है जिसमें बुद्ध, भिक्खुओं का सम्बोधित करते हुए कहते हैं- अनुजानामि भिक्खवे, सकाय निरुत्तिया बुद्धवचनं परियापुणितं। जिसका अर्थ है- भिक्खुओं, अनुमति देता हूॅं अपनी भाषा में बुद्धवचन सीखने की।
दरअसल, ब्राह्मण जाति के दो भिक्खुओं ने बुद्ध से, उनके कहे हुए वचनों को, वैदिक छंद में संग्रह किए जाने का आग्रह किया था। बुद्ध ने उन्हें फटकारते हुए उक्त गाथा कही।
लेख है कि सम्राट अशोक(राज्यकाल 272-232 ई. पू.) पुत्र महिन्द, जो धम्म प्रचारार्थ भिक्खु प्रतिनिधि-मंडल के साथ सिंहलदीप गए थे, मूल ति-पिटक ग्रंथों के साथ उन पर लिखी अट्ठकथाएं भी ले गए थे।
महिन्द के लगभग 650 वर्ष बाद, सिंहलदीप जाकर मूल ति-पिटक ग्रंथों पर बड़े पैमाने पर अट्ठकथाएं लिखने का काम बुद्धघोष(380-440 ईस्वी) ने किया था।
बुद्धघोष ने अपनी अट्ठकथा में ‘सकाय निरुत्तिया’ का अर्थ ‘मागधी भाषा’ किया है। चूंकि बुद्धघोष, ति-पिटक ग्रंथों पर अट्ठकथाएं लिखने वालों में एक हस्ताक्षर है, अतः इसके बाद के सभी लोगों ने बुद्धवचन का अर्थ मागधी-भाषा ही किया। मागधी-भाषा अर्थात बुद्धवचन। प्रश्न है कि इस मागधी भाषा का नाम ‘पालि’ कैसे पड़ा?
भिन्न-भिन्न मत-
1. आचार्य मोग्गल्लान तथा दूसरे वैयाकरण ‘पालि’ शब्द का अर्थ ‘पंक्ति’ अथवा ‘मूल ग्रंथ की पंक्ति’ बताते हैं (भूमिकाः पालि परिचयः डाॅ. प्रियसेन सिंह)।
2. भदन्त कौसल्यायन के अनुसार भी, प्रचलित मतों में जो सबसे अधिक स्वीकार करने लायक मत मालूम देता है, वह यह है कि ‘पालि’ शब्द का प्रयोग ‘पंक्ति’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
भदन्तजी के अनुसार, आगे चलकर जब शास्त्रीय ग्रंथों पर भाष्य लिखे जाने की तरह बुद्धवचन पर भी अट्ठकथाएं लिखी जाने लगी तो उनमें और मूल बुद्धवचनों में भेद करने के लिए मूल बुद्धवचनों को ‘पालि’ नाम दिया गया। अट्ठकथाओं में अथवा पालिभाषा में लिखे गए इतर वांगमय में ‘इदं पालियं वुत्तं’ प्रयोग इसका साक्षी है(पालि परिचयः आवश्यक पालिः इकत्तीस दिन में)।
3. डाॅ. प्रियसेन सिंह के अनुसार निस्संदेह, ‘पालि’ शब्द का प्रयोग मूल ति-पिटक के लिए आया है। यथा-
1. ‘पालिमत्तं इध आनितं, नत्थि अट्ठकथा इध’।
2. नेव पालियं न अट्ठकथायं दिस्सति।
3. इमिस्सा पन पालिया एवमत्थो वेदितब्बो; आदि।
ति-पिटक ग्रंथों में जगह-जगह पर बुद्धवचन के अर्थ में ‘धम्म परियाय’ शब्द का पाठ मिलता है। यथा-
1. ‘तस्मातिह त्वं आनन्द! इमं धम्म-परियायं अत्थ जालन्ति पि नं धारेहि....अनुत्तरो संगाामविजयो ति पि नं धारेहि(ब्रह्मजाल सुत्तः दीघनिकाय)।
2. ‘एवं वुत्ते मुण्डो राजा आयस्मतं नारदं एतदवोच- ‘‘को नामो अयं भन्ते! धम्मपरियायो ति?’’ ‘‘सोकसल्ल -हरणो नामं अयं महाराज! धम्मपरियायो ति’’(नारद सुत्तः अंगुत्तर निकाय)।
पालि परिचय नामक अपने ग्रंथ की भूमिका में लेखक डाॅ. प्रियसेन सिंह ने उक्त उद्धरण देते हुए लिखा है कि अशोक ने भी, इसी अर्थ में अपने धम्म-लेख में इस शब्द का प्रयोग किया। लेखक के अनुसार ‘पारियाय’ शब्द जो बुध्दवचन के लिए प्रयुक्त किया जाता था, कालान्तर में ‘पलियाय’ से ‘पालियाय’ और बाद में लघु-रूप ‘पालि’ हो गया।
रायस डेविड्स और गाइगर दोनों विद्वान् इससे सहमत है
सिंहल द्वीप में जब ति-पिटक के साथ 'पालि' शब्द पहुंचा, उस समय 'परियाय/पलियाय या पालियाय से इसका सम्बन्ध टूट चुका था और लोगों को यह एक पृथक नया शब्द मालूम हुआ। वैयाकरणों ने इसका अर्थ 'पा'(रक्खति) धातु से करना प्रारंभ किया। पा- पालेति रक्खति इति 'पालि'(भूमिका: पालि महा व्याकरण : भिक्खु जगदीश काश्यप )।
- अ. ला. उके
बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति के बाद 45 साल तक समस्त उत्तर-भारत और मध्य मण्डल में धूम-घूम कर धम्म का प्रचार किया था। उनके भिक्खु-संघ में सभी वर्गों के कुलपुत्र प्रव्रजित हो सम्मिलित हुए थे। चाहे मगध, वेसाली, कासी, मिथिला अथवा कोसल के हो या राज, श्रेष्ठि अथवा शूद्र कुल; सभी भिक्खु समान रूप से साथ रहते थे। निस्संदेह, भिन्न-भिन्न प्रांत और समाज के होने से उनकी अपनी-अपनी बोली थी। बावजूद सभी साथ रहने पर साधारण भाषा मागधी का ही प्रयोग करते थे।
वास्तव में, मागधी भाषा का पूरा विकास भिक्खु-संघ में ही हुआ था। यह सारे मध्य-मण्डल की एक जीवित अन्तर-प्रांतीय भाषा थी, जिसे सभ्य समुदाय बड़े गौरव के साथ बोलता था। यही भाषा मगध सम्राटों की राज-भाषा बनी, क्योंकि मगध राज्य के विस्तार के बाद ऐसी ही व्यापक भाषा की आवश्यकता थी। राज-भाषा होने से इस भाषा का सम्मान और भी बढ़ गया; तथा मगध राज्य की भाषा होने के कारण इसका नाम भी ‘मागधी’ पड़ा।
विनयपिटक के चुल्लवग्ग में एक कथा आती है जिसमें बुद्ध, भिक्खुओं का सम्बोधित करते हुए कहते हैं- अनुजानामि भिक्खवे, सकाय निरुत्तिया बुद्धवचनं परियापुणितं। जिसका अर्थ है- भिक्खुओं, अनुमति देता हूॅं अपनी भाषा में बुद्धवचन सीखने की।
दरअसल, ब्राह्मण जाति के दो भिक्खुओं ने बुद्ध से, उनके कहे हुए वचनों को, वैदिक छंद में संग्रह किए जाने का आग्रह किया था। बुद्ध ने उन्हें फटकारते हुए उक्त गाथा कही।
लेख है कि सम्राट अशोक(राज्यकाल 272-232 ई. पू.) पुत्र महिन्द, जो धम्म प्रचारार्थ भिक्खु प्रतिनिधि-मंडल के साथ सिंहलदीप गए थे, मूल ति-पिटक ग्रंथों के साथ उन पर लिखी अट्ठकथाएं भी ले गए थे।
महिन्द के लगभग 650 वर्ष बाद, सिंहलदीप जाकर मूल ति-पिटक ग्रंथों पर बड़े पैमाने पर अट्ठकथाएं लिखने का काम बुद्धघोष(380-440 ईस्वी) ने किया था।
बुद्धघोष ने अपनी अट्ठकथा में ‘सकाय निरुत्तिया’ का अर्थ ‘मागधी भाषा’ किया है। चूंकि बुद्धघोष, ति-पिटक ग्रंथों पर अट्ठकथाएं लिखने वालों में एक हस्ताक्षर है, अतः इसके बाद के सभी लोगों ने बुद्धवचन का अर्थ मागधी-भाषा ही किया। मागधी-भाषा अर्थात बुद्धवचन। प्रश्न है कि इस मागधी भाषा का नाम ‘पालि’ कैसे पड़ा?
भिन्न-भिन्न मत-
1. आचार्य मोग्गल्लान तथा दूसरे वैयाकरण ‘पालि’ शब्द का अर्थ ‘पंक्ति’ अथवा ‘मूल ग्रंथ की पंक्ति’ बताते हैं (भूमिकाः पालि परिचयः डाॅ. प्रियसेन सिंह)।
2. भदन्त कौसल्यायन के अनुसार भी, प्रचलित मतों में जो सबसे अधिक स्वीकार करने लायक मत मालूम देता है, वह यह है कि ‘पालि’ शब्द का प्रयोग ‘पंक्ति’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
भदन्तजी के अनुसार, आगे चलकर जब शास्त्रीय ग्रंथों पर भाष्य लिखे जाने की तरह बुद्धवचन पर भी अट्ठकथाएं लिखी जाने लगी तो उनमें और मूल बुद्धवचनों में भेद करने के लिए मूल बुद्धवचनों को ‘पालि’ नाम दिया गया। अट्ठकथाओं में अथवा पालिभाषा में लिखे गए इतर वांगमय में ‘इदं पालियं वुत्तं’ प्रयोग इसका साक्षी है(पालि परिचयः आवश्यक पालिः इकत्तीस दिन में)।
3. डाॅ. प्रियसेन सिंह के अनुसार निस्संदेह, ‘पालि’ शब्द का प्रयोग मूल ति-पिटक के लिए आया है। यथा-
1. ‘पालिमत्तं इध आनितं, नत्थि अट्ठकथा इध’।
2. नेव पालियं न अट्ठकथायं दिस्सति।
3. इमिस्सा पन पालिया एवमत्थो वेदितब्बो; आदि।
ति-पिटक ग्रंथों में जगह-जगह पर बुद्धवचन के अर्थ में ‘धम्म परियाय’ शब्द का पाठ मिलता है। यथा-
1. ‘तस्मातिह त्वं आनन्द! इमं धम्म-परियायं अत्थ जालन्ति पि नं धारेहि....अनुत्तरो संगाामविजयो ति पि नं धारेहि(ब्रह्मजाल सुत्तः दीघनिकाय)।
2. ‘एवं वुत्ते मुण्डो राजा आयस्मतं नारदं एतदवोच- ‘‘को नामो अयं भन्ते! धम्मपरियायो ति?’’ ‘‘सोकसल्ल -हरणो नामं अयं महाराज! धम्मपरियायो ति’’(नारद सुत्तः अंगुत्तर निकाय)।
पालि परिचय नामक अपने ग्रंथ की भूमिका में लेखक डाॅ. प्रियसेन सिंह ने उक्त उद्धरण देते हुए लिखा है कि अशोक ने भी, इसी अर्थ में अपने धम्म-लेख में इस शब्द का प्रयोग किया। लेखक के अनुसार ‘पारियाय’ शब्द जो बुध्दवचन के लिए प्रयुक्त किया जाता था, कालान्तर में ‘पलियाय’ से ‘पालियाय’ और बाद में लघु-रूप ‘पालि’ हो गया।
रायस डेविड्स और गाइगर दोनों विद्वान् इससे सहमत है
सिंहल द्वीप में जब ति-पिटक के साथ 'पालि' शब्द पहुंचा, उस समय 'परियाय/पलियाय या पालियाय से इसका सम्बन्ध टूट चुका था और लोगों को यह एक पृथक नया शब्द मालूम हुआ। वैयाकरणों ने इसका अर्थ 'पा'(रक्खति) धातु से करना प्रारंभ किया। पा- पालेति रक्खति इति 'पालि'(भूमिका: पालि महा व्याकरण : भिक्खु जगदीश काश्यप )।
- अ. ला. उके
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