पालि में गाथा अर्थात काव्य-रचना को बुद्ध काल से ही सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था।
तब भी ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में राज दरबारी कवियों के द्वारा राजा की प्रशस्ति में जब संस्कृत काव्य-ग्रन्थ लिखे जाने लगे, तब बौद्ध भिक्खु भला कैसे पीछे रहते ? उन्होंने भी संस्कृत और पालि में कई गाथा ग्रन्थ रच डाले। चाहे अश्वघोष (100 ईस्वी) का 'बुद्धचरित' हो या शांतरक्खित(740 -840 ईस्वी) की 'बुद्धचरिया'।
इसमें, अश्वघोष का 'बुद्धचरित' संस्कृत और शांतरक्खित की 'बुद्धचरिया' दोनों संस्कृत काव्य-ग्रन्थ हैं। इसी के आस-पास लिखा गया 'ललित विस्तर', जिसके लेखक का पता नहीं है, भी संस्कृत काव्य ग्रन्थ हैं। इन ब्राह्मण लेखकों ने जाति और वंश के वशीभूत लिख मारा कि बुद्ध सिर्फ उच्च कुल; ब्राह्मण/क्षत्रिय कुल में ही पैदा हो सकते हैं, चंडाल जैसी 'नीच' जाति में नहीं !
भारत के इस काव्य-लेखन का पडोसी देशों पर प्रभाव पड़ना अवश्य संभाव्य था। तेरहवीं शताब्दी में सिंहल द्वीप में भी बुद्ध के जीवन पर 'जिनचरित' लिखा गया। इसके रचियता कवि वनरतन मेघंकर थे। इन कवियों ने अपने काव्य रचनाओं में पौराणिक, अतिशयोक्तिपूर्ण और असंभवताओं से भरपूर इतना अतार्किक ललित वर्णन किया है कि पुराणकार भी कोसों पीछे छूट गए हैं(पालि साहित्य का इतिहास:कोमल चन्द्र जैन )।
सिंहल द्वीप के ग्रन्थ 'दीपवंश' और 'महावंस'; जिनमें वहां के इतिहास के साथ ही भारत का इतिहास दर्ज है, संस्कृत काव्य ग्रंथों की नक़ल पर यहाँ भी ढेरों गाथा-साहित्य रच डाला गया। उल्लेखनीय है कि इन दोनों ही ग्रंथों में बुद्ध के तीन बार सिंहल द्वीप जाकर वहां 'यक्ष-दमन' और 'नाग दमन' किये जाने का वर्णन है(महावंश :सम्पादकीय: डॉ परमानन्द सिंह), जबकि बाबासाहब डॉ अम्बेडकर नागों राजाओं को बुद्धिस्ट बताते हैं।
यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु पश्चिमी विद्वानों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. सर एडविन आरनोल्ड ने भी 'लाईट आफ एशिया' नामक काव्य लिखा और उसमें बुद्ध से सम्बंधित पौराणिक कथाओं को दुनिया के सामने रखा। स्मरण रहे, यह विश्व प्रसिद्ध कृति 1879 ईस्वी में प्रकाशित हुई थी। इसका 1922 ईस्वी में हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार रामचंद्र शुक्ल ने 'बुद्धचरित' नाम से ब्रज-भाषा में पद्यानुवाद किया था(डॉ सुरेन्द अज्ञात; प्राक्कथन: त्रिरत्न )।
तब भी ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में राज दरबारी कवियों के द्वारा राजा की प्रशस्ति में जब संस्कृत काव्य-ग्रन्थ लिखे जाने लगे, तब बौद्ध भिक्खु भला कैसे पीछे रहते ? उन्होंने भी संस्कृत और पालि में कई गाथा ग्रन्थ रच डाले। चाहे अश्वघोष (100 ईस्वी) का 'बुद्धचरित' हो या शांतरक्खित(740 -840 ईस्वी) की 'बुद्धचरिया'।
इसमें, अश्वघोष का 'बुद्धचरित' संस्कृत और शांतरक्खित की 'बुद्धचरिया' दोनों संस्कृत काव्य-ग्रन्थ हैं। इसी के आस-पास लिखा गया 'ललित विस्तर', जिसके लेखक का पता नहीं है, भी संस्कृत काव्य ग्रन्थ हैं। इन ब्राह्मण लेखकों ने जाति और वंश के वशीभूत लिख मारा कि बुद्ध सिर्फ उच्च कुल; ब्राह्मण/क्षत्रिय कुल में ही पैदा हो सकते हैं, चंडाल जैसी 'नीच' जाति में नहीं !
भारत के इस काव्य-लेखन का पडोसी देशों पर प्रभाव पड़ना अवश्य संभाव्य था। तेरहवीं शताब्दी में सिंहल द्वीप में भी बुद्ध के जीवन पर 'जिनचरित' लिखा गया। इसके रचियता कवि वनरतन मेघंकर थे। इन कवियों ने अपने काव्य रचनाओं में पौराणिक, अतिशयोक्तिपूर्ण और असंभवताओं से भरपूर इतना अतार्किक ललित वर्णन किया है कि पुराणकार भी कोसों पीछे छूट गए हैं(पालि साहित्य का इतिहास:कोमल चन्द्र जैन )।
सिंहल द्वीप के ग्रन्थ 'दीपवंश' और 'महावंस'; जिनमें वहां के इतिहास के साथ ही भारत का इतिहास दर्ज है, संस्कृत काव्य ग्रंथों की नक़ल पर यहाँ भी ढेरों गाथा-साहित्य रच डाला गया। उल्लेखनीय है कि इन दोनों ही ग्रंथों में बुद्ध के तीन बार सिंहल द्वीप जाकर वहां 'यक्ष-दमन' और 'नाग दमन' किये जाने का वर्णन है(महावंश :सम्पादकीय: डॉ परमानन्द सिंह), जबकि बाबासाहब डॉ अम्बेडकर नागों राजाओं को बुद्धिस्ट बताते हैं।
यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु पश्चिमी विद्वानों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. सर एडविन आरनोल्ड ने भी 'लाईट आफ एशिया' नामक काव्य लिखा और उसमें बुद्ध से सम्बंधित पौराणिक कथाओं को दुनिया के सामने रखा। स्मरण रहे, यह विश्व प्रसिद्ध कृति 1879 ईस्वी में प्रकाशित हुई थी। इसका 1922 ईस्वी में हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार रामचंद्र शुक्ल ने 'बुद्धचरित' नाम से ब्रज-भाषा में पद्यानुवाद किया था(डॉ सुरेन्द अज्ञात; प्राक्कथन: त्रिरत्न )।
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