प्रसंग वश-
जातक कथा के अलावा दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय, धम्मपद आदि तमाम बौद्ध-ग्रंथों में आर्य-अनार्य, ‘स्वर्ग-नरक’, ‘पाप-पुण्य’, ‘देव’, ‘भूत’, ‘पंडित’, ‘बाह्मण’, ‘ब्रह्मा’, ‘सिरि’, ‘भगवान’ जैसे कई शब्दों का प्रयोग प्रचुरता से हुआ है। कई स्थानों पर ये शब्द स्वाभाविक लगते हैं और कई बार अस्वाभाविक। जैसे, प्रारम्भ करते ही बुद्ध पूजा में- ‘सिरिपाद सरोरुहे’। यहां ‘सिरि’ शब्द से बचा जा सकता था। क्योंकि, ‘सिरि(श्री)’ के मायने लक्ष्मी होता है। प्रसंग पूजा का है और यह शब्दावली ब्राह्मण-धर्म की रीढ़ है। स्पष्ट है, भाणकों के द्वारा इन शब्दों का प्रयोग अप्रयास हुआ था। वहीं, ‘चत्तारि अरिय सच्चानि’ में ‘आर्य’(अरिय) शब्द स्वाभाविक जान पड़ता है। क्योंकि, तब यह उसी अर्थ में रूढ़ था। दूसरे, तब यह उतना विवादास्पद नहीं था जितना कि आज है। तब भी, आज सवाल तो खड़े हो रहे हैं ?
सर्व विदित है कि बुद्ध की धम्म-देशना जन-सामान्य की भाषा थी। उन्होंने उन्हीं शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया था जो जन-सामान्य की बोली-भाषा में प्रचलित थे। सुभ नामक ब्राह्मण परिव्राजक को ‘ब्रह्म-विहार’ के मायने उन्होंने उसी के शब्दों में बतलाया था। खैर, पूजा से संबंधित जितने भी प्रसंग हैं, वहां इन शब्दों की प्रचुरता को समझा जा सकता है। किन्तु, दीघ निकाय, संयुत्त निकाय, मज्झिम निकाय आदि बौद्ध-ग्रंथों में ऐसी शब्दावली खटकती है। क्योंकि, ‘बौद्ध सुधारों का कार्यक्रम, एक प्रकार से विकृत-समाज व्यवस्था के विरुद्ध एक ‘नैतिक प्रतिक्रिया’ कहा जाता है (The Essence of Buddhism: P Lakshmi Narasu) । यथा जाति-भेद के विरुद्ध वासेट्ठसुत्त(मज्झिमनिकाय/सुत्तनिपात), जाति-भेद के आर्थिक आधार के विरुद्ध माधुरिय सुत्त(मज्झिमनिकाय), ब्राह्मण-श्रेष्ठता के विरुद्ध अस्सलायनसुत्त(मज्झिमनिकाय), ब्राह्मण-कर्मयोग के विरुद्ध एसुकारित सुत्त आदि दृष्टव्य है।
‘धम्मपदः गाथा और कथा’ में दिल्ली विश्वविद्यालय के बौद्ध अध्ययन विभाग के रीडर डाॅ. संघसेनसिंह लिखते हैं कि ब्राह्मण-वग्ग में ब्राह्मण शब्द को पारिभाषिक पद के रूप में व्याख्यायित किया गया है। पूरे वग्ग में ब्राह्मण शब्द एक-दो स्थानों को छोड़कर सर्वत्र ‘अरहन्त’ के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। अरहन्त-पद(स्थान) प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में सर्वश्रेष्ठ पद है, निब्बान(निर्वाण) है, मोक्ष है(प्राक्कथन पृ. 14-15)।
परित्तं-गाथाओं में देवता के स्थान पर ‘अरहन्त’ शब्द हमें पढ़ने को मिलता है, यथाः ‘अरहन्तानं च तेजेन, रक्खं बन्धामि सब्ब सो’ आदि। किन्तु बाद के पाठों में कई स्थानों पर ‘देवता’ शब्द खटकता है। प्रस्तुत ग्रंथ में इसे दुरुस्त करने का प्रयास किया गया है। आखिर, कब तक हम ‘भवन्तु सब्ब मंगलं, रक्खन्तु सब्ब देवता’ का पाठ करते रहेंगे(पाक्कथन: धम्म परित्तं)?
कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत को इतना गुढ़ार्थ बना दिया गया है कि पाठक को समझ नहीं आता, लाख जतन के बाद भी कि पुनर्जन्म के चक्कर से वह मुक्त होगा भी या नहीं? बाबा साहेब डाॅ. अम्बेडकर ने अपने ग्रंथ ‘दी बुद्धा एन्ड हिज धम्मा’ में कई मारक तर्क दिए कि बुद्ध के कर्म का सिद्धांत का संबंध मात्र कर्म से है और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म(बुद्ध और उनका धम्मः चतुर्थ काण्ड-दूसरा भाग पृ. 295) से। किन्तु, लोग हैं कि मानते ही नहीं। वे तब भी ‘स्वर्ग और नर्क’ तथा ‘पाप और पुण्य’ के चक्कर में पडे़ रहते हैं। मुझे तो इसमें लोगों का कम बौद्ध-ग्रंथों का दोष ही अधिक नजर आता है। वैसे, ‘कर्म’ और ‘पुनर्जन्म’ के बारे में बुद्धवचनों के गलत प्रस्तुतीकरण के अवसर सामान्य बात है। चूंकि, इन सिद्धांतों का ‘ब्राह्मणी-धर्म’ में भी स्थान प्राप्त है। परिणाम-स्वरूप भाणकों के लिए ब्राह्मणी-मत को बौद्ध धम्म में सम्मिलित कर लेना सुगम था। इसलिए ति-पिटक में जिसे भी ‘बुद्ध-वचन’ के रूप में माना गया है, समझने में बहुत सावधानी की आवश्यकता है। मान लो, आपने कुछ पके आम बाजार से खरीद लाए और चुसकर एक आम का बीज बगीचे में रोप दिया। कुछ समय के बाद वह आम का पौधा बड़ा होकर फल देने लगा तो वह उस आम के बीज का, जो आप बाजार से खरीदकर लाए थे, पुनर्भव (पुनर्जन्म) हुआ या नहीं? पेड़-पौधे चेतन होते हैं, विज्ञान खुद इसका साक्षी है। लेकिन यहां ‘आत्मा’ कहीं भी नहीं है। डाॅ. अम्बेडकर के इस तरह समझाने के तरीके के जैसा क्या इन गुढ़ार्थ बनाये गए शब्दों को बौद्ध विद्वान अपनी लेखनी का विषय बनाएंगे, इसी प्रतीक्षा और विश्वास के साथ(धम्म परित्तं- लेखक द्वय अ. ला. ऊके : प्रो. हेमलता महिस्वर )।
जातक कथा के अलावा दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय, धम्मपद आदि तमाम बौद्ध-ग्रंथों में आर्य-अनार्य, ‘स्वर्ग-नरक’, ‘पाप-पुण्य’, ‘देव’, ‘भूत’, ‘पंडित’, ‘बाह्मण’, ‘ब्रह्मा’, ‘सिरि’, ‘भगवान’ जैसे कई शब्दों का प्रयोग प्रचुरता से हुआ है। कई स्थानों पर ये शब्द स्वाभाविक लगते हैं और कई बार अस्वाभाविक। जैसे, प्रारम्भ करते ही बुद्ध पूजा में- ‘सिरिपाद सरोरुहे’। यहां ‘सिरि’ शब्द से बचा जा सकता था। क्योंकि, ‘सिरि(श्री)’ के मायने लक्ष्मी होता है। प्रसंग पूजा का है और यह शब्दावली ब्राह्मण-धर्म की रीढ़ है। स्पष्ट है, भाणकों के द्वारा इन शब्दों का प्रयोग अप्रयास हुआ था। वहीं, ‘चत्तारि अरिय सच्चानि’ में ‘आर्य’(अरिय) शब्द स्वाभाविक जान पड़ता है। क्योंकि, तब यह उसी अर्थ में रूढ़ था। दूसरे, तब यह उतना विवादास्पद नहीं था जितना कि आज है। तब भी, आज सवाल तो खड़े हो रहे हैं ?
सर्व विदित है कि बुद्ध की धम्म-देशना जन-सामान्य की भाषा थी। उन्होंने उन्हीं शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया था जो जन-सामान्य की बोली-भाषा में प्रचलित थे। सुभ नामक ब्राह्मण परिव्राजक को ‘ब्रह्म-विहार’ के मायने उन्होंने उसी के शब्दों में बतलाया था। खैर, पूजा से संबंधित जितने भी प्रसंग हैं, वहां इन शब्दों की प्रचुरता को समझा जा सकता है। किन्तु, दीघ निकाय, संयुत्त निकाय, मज्झिम निकाय आदि बौद्ध-ग्रंथों में ऐसी शब्दावली खटकती है। क्योंकि, ‘बौद्ध सुधारों का कार्यक्रम, एक प्रकार से विकृत-समाज व्यवस्था के विरुद्ध एक ‘नैतिक प्रतिक्रिया’ कहा जाता है (The Essence of Buddhism: P Lakshmi Narasu) । यथा जाति-भेद के विरुद्ध वासेट्ठसुत्त(मज्झिमनिकाय/सुत्तनिपात), जाति-भेद के आर्थिक आधार के विरुद्ध माधुरिय सुत्त(मज्झिमनिकाय), ब्राह्मण-श्रेष्ठता के विरुद्ध अस्सलायनसुत्त(मज्झिमनिकाय), ब्राह्मण-कर्मयोग के विरुद्ध एसुकारित सुत्त आदि दृष्टव्य है।
‘धम्मपदः गाथा और कथा’ में दिल्ली विश्वविद्यालय के बौद्ध अध्ययन विभाग के रीडर डाॅ. संघसेनसिंह लिखते हैं कि ब्राह्मण-वग्ग में ब्राह्मण शब्द को पारिभाषिक पद के रूप में व्याख्यायित किया गया है। पूरे वग्ग में ब्राह्मण शब्द एक-दो स्थानों को छोड़कर सर्वत्र ‘अरहन्त’ के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। अरहन्त-पद(स्थान) प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में सर्वश्रेष्ठ पद है, निब्बान(निर्वाण) है, मोक्ष है(प्राक्कथन पृ. 14-15)।
परित्तं-गाथाओं में देवता के स्थान पर ‘अरहन्त’ शब्द हमें पढ़ने को मिलता है, यथाः ‘अरहन्तानं च तेजेन, रक्खं बन्धामि सब्ब सो’ आदि। किन्तु बाद के पाठों में कई स्थानों पर ‘देवता’ शब्द खटकता है। प्रस्तुत ग्रंथ में इसे दुरुस्त करने का प्रयास किया गया है। आखिर, कब तक हम ‘भवन्तु सब्ब मंगलं, रक्खन्तु सब्ब देवता’ का पाठ करते रहेंगे(पाक्कथन: धम्म परित्तं)?
कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत को इतना गुढ़ार्थ बना दिया गया है कि पाठक को समझ नहीं आता, लाख जतन के बाद भी कि पुनर्जन्म के चक्कर से वह मुक्त होगा भी या नहीं? बाबा साहेब डाॅ. अम्बेडकर ने अपने ग्रंथ ‘दी बुद्धा एन्ड हिज धम्मा’ में कई मारक तर्क दिए कि बुद्ध के कर्म का सिद्धांत का संबंध मात्र कर्म से है और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म(बुद्ध और उनका धम्मः चतुर्थ काण्ड-दूसरा भाग पृ. 295) से। किन्तु, लोग हैं कि मानते ही नहीं। वे तब भी ‘स्वर्ग और नर्क’ तथा ‘पाप और पुण्य’ के चक्कर में पडे़ रहते हैं। मुझे तो इसमें लोगों का कम बौद्ध-ग्रंथों का दोष ही अधिक नजर आता है। वैसे, ‘कर्म’ और ‘पुनर्जन्म’ के बारे में बुद्धवचनों के गलत प्रस्तुतीकरण के अवसर सामान्य बात है। चूंकि, इन सिद्धांतों का ‘ब्राह्मणी-धर्म’ में भी स्थान प्राप्त है। परिणाम-स्वरूप भाणकों के लिए ब्राह्मणी-मत को बौद्ध धम्म में सम्मिलित कर लेना सुगम था। इसलिए ति-पिटक में जिसे भी ‘बुद्ध-वचन’ के रूप में माना गया है, समझने में बहुत सावधानी की आवश्यकता है। मान लो, आपने कुछ पके आम बाजार से खरीद लाए और चुसकर एक आम का बीज बगीचे में रोप दिया। कुछ समय के बाद वह आम का पौधा बड़ा होकर फल देने लगा तो वह उस आम के बीज का, जो आप बाजार से खरीदकर लाए थे, पुनर्भव (पुनर्जन्म) हुआ या नहीं? पेड़-पौधे चेतन होते हैं, विज्ञान खुद इसका साक्षी है। लेकिन यहां ‘आत्मा’ कहीं भी नहीं है। डाॅ. अम्बेडकर के इस तरह समझाने के तरीके के जैसा क्या इन गुढ़ार्थ बनाये गए शब्दों को बौद्ध विद्वान अपनी लेखनी का विषय बनाएंगे, इसी प्रतीक्षा और विश्वास के साथ(धम्म परित्तं- लेखक द्वय अ. ला. ऊके : प्रो. हेमलता महिस्वर )।
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