बौद्ध-ग्रंथों का पुनर्लेखन आवश्यक-
बौद्ध-ग्रंथों में गले तक 'ब्राह्मणवाद' भरा हुआ है। जो भी ग्रन्थ आप उठाएंगे, ब्राह्मणवाद ठूंस-ठूंस कर है। चाहे ति-पिटक ग्रन्थ हों अथवा बाह्य ग्रन्थ, स्थान-स्थान पर ब्राह्मणवाद की दुर्गन्ध आती है। सवाल यह है कि बुद्ध के नाम पर हम ब्राह्मणवाद को क्यों ढोएं ? कब तक ढोएं ? ब्राह्मण, जिसने बुद्ध को उसकी मातृ-भूमि में ही दफ़न कर दिया, हम उनका यशो-गान क्यों करें ?
हम जानते हैं कि बुद्ध ने उंच-नीच की बात नहीं की, समता का उपदेश दिया। किन्तु तब क्या 'ललित विस्तर' को मनुस्मृति की तरह आग लगा दें ? आप कीचड़ को सिर पर रख कर श्वेत वस्त्र नहीं पहन सकते ? हम किस तरह इसे उचित कहें ? वर्ण और उंच-नीच के घृणा की विभाजनकारी बातें हम क्यों पढ़ें ? क्या यह कीचड़ को छिपाना नहीं है ? कई बार पढ़ते-पढ़ते जी मचलाने लगता है. उबकाई आती है।
यह ठीक है कि बाबासाहब ने हमें बौद्ध धर्म दिया। किन्तु क्या यह आधार पर्याप्त है कि हम उस सड़ांध को बर्दाश्त करते रहें ? हमारे पास दो विकल्प हैं - एक, बुद्ध और उनके धर्म के बारे में हम 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' के अतिरिक्त कोई अन्य ग्रन्थ न पढ़े। दूसरा, तमाम बौद्ध ग्रंथों का डॉ अम्बेडकर की दृष्टी से पुनर्लेखन और सम्पादन हो।
कुछ हिन्दू संस्कारों में संस्कारित बुद्धिस्ट धर्म-ग्रंथों में किसी बदलाव को नकारते हैं। वे इसे बुद्धवचन के साथ 'छेड़-छाड़' कहते हैं. सनद रहे, बुद्धवचनों का प्रारंभ से ही संगायन और संशोधन होते रहा है। अब तक जितनी भी बौद्ध-संगीतियाँ हुई, उनमें बुद्धवचनों का संगायन और संशोधन होते रहा है। -amritlalukey.blogspot.com
बौद्ध-ग्रंथों में गले तक 'ब्राह्मणवाद' भरा हुआ है। जो भी ग्रन्थ आप उठाएंगे, ब्राह्मणवाद ठूंस-ठूंस कर है। चाहे ति-पिटक ग्रन्थ हों अथवा बाह्य ग्रन्थ, स्थान-स्थान पर ब्राह्मणवाद की दुर्गन्ध आती है। सवाल यह है कि बुद्ध के नाम पर हम ब्राह्मणवाद को क्यों ढोएं ? कब तक ढोएं ? ब्राह्मण, जिसने बुद्ध को उसकी मातृ-भूमि में ही दफ़न कर दिया, हम उनका यशो-गान क्यों करें ?
हम जानते हैं कि बुद्ध ने उंच-नीच की बात नहीं की, समता का उपदेश दिया। किन्तु तब क्या 'ललित विस्तर' को मनुस्मृति की तरह आग लगा दें ? आप कीचड़ को सिर पर रख कर श्वेत वस्त्र नहीं पहन सकते ? हम किस तरह इसे उचित कहें ? वर्ण और उंच-नीच के घृणा की विभाजनकारी बातें हम क्यों पढ़ें ? क्या यह कीचड़ को छिपाना नहीं है ? कई बार पढ़ते-पढ़ते जी मचलाने लगता है. उबकाई आती है।
यह ठीक है कि बाबासाहब ने हमें बौद्ध धर्म दिया। किन्तु क्या यह आधार पर्याप्त है कि हम उस सड़ांध को बर्दाश्त करते रहें ? हमारे पास दो विकल्प हैं - एक, बुद्ध और उनके धर्म के बारे में हम 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' के अतिरिक्त कोई अन्य ग्रन्थ न पढ़े। दूसरा, तमाम बौद्ध ग्रंथों का डॉ अम्बेडकर की दृष्टी से पुनर्लेखन और सम्पादन हो।
कुछ हिन्दू संस्कारों में संस्कारित बुद्धिस्ट धर्म-ग्रंथों में किसी बदलाव को नकारते हैं। वे इसे बुद्धवचन के साथ 'छेड़-छाड़' कहते हैं. सनद रहे, बुद्धवचनों का प्रारंभ से ही संगायन और संशोधन होते रहा है। अब तक जितनी भी बौद्ध-संगीतियाँ हुई, उनमें बुद्धवचनों का संगायन और संशोधन होते रहा है। -amritlalukey.blogspot.com
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