पालि व्याकरण परम्परा-
पालि में जो भी व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थ रचे गए हैं, उन सबके रचियता भिक्खु सिंहल द्वीप और बर्मा के थे। इन व्याकरण ग्रंथों की तीन परम्पराएं हैं -
1 . कच्चायन व्याकरण परम्परा।
2 . मोग्गल्लान व्याकरण परम्परा।
3 . अग्गवंस परम्परा।
इन तीन परम्पराओं से अलग कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थ भी मिलते हैं।
1 . कच्चायन व्याकरण परम्परा-
कच्चायन व्याकरण प्राचीनतम है। इसके रचियता कच्चायन है। इनके विषय में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती है। सनद रहे, बुद्ध के 80 महासावक शिष्यों में एक महाकच्चान भी थे। नेतिप्पकरण और पेटकोपदेस के रचियता भी कच्चायन थे।
कुछ भाषाविद बुद्धघोस और धम्मपाल आदि अट्ठकथाकारों की अट्ठकथाओं में कच्चायन व्याकरण का प्रयोग न देख कर संस्कृत व्याकरण को देखते हैं और इसलिए वे कच्चायन व्याकरण के प्रणयनकार को बुद्धघोस और धम्मपाल के बाद का बताते हैं।
कच्चायन व्याकरण में 675 सूत्र हैं जो 4 कप्पों एवं 23 परिच्छेदों में विभक्त हैं। कप्पों के नाम हैं- संधि कप्प, नाम कप्प एवं किब्बिधान कप्प। सञ्ञाविधान, संधिकप्प में निरूपित है। नामकप्प के अंतर्गत कारक कप्प, समास कप्प एवं तद्धित कप्प का निरूपण है। उणादि कप्प को किब्बिधान कप्प के अंतर्गत रखा गया है। इस प्रकार 4 कप्पों में अनेक कप्पों का समावेश कर सभी व्याकरण सम्बन्धी नियमों को निबद्ध किया गया है।
इस परम्परा के अन्य ग्रन्थ हैं -
1 . कच्चायन न्यास(मुखमत्त दीपनी)
2 . सुत्त निद्देस- कच्चायन व्याकरण पर टीका-ग्रन्थ। यह 1181 ईस्वी में लिखा गया था।
3 . सम्बन्ध चिंता- इसके लेखक संघरक्खित (1200 ईस्वी ) है.
4 . सद्दत्थभेद चिंता- यह कारिकाओं में निबद्ध एक व्याख्या ग्रन्थ है जिसमें शब्द, अर्थ तथा शब्दार्थ का विवेचन किया गया है। यह बर्मा के स्थविर सद्धम्मसिरि की कृति है तथा इसका रचना काल 12 वीं शताब्दी उत्तरार्द्ध है।
5. रूपसिद्धि(पदरूप सिद्धि) - इस ग्रन्थ के रचियता बुद्धपिय्य दीपंकर(1300 ईस्वी) थे। यह सात कांडों में विभक्त है। इसमें कित्तक और उणादि को एक साथ 7 वे परिच्छेद में रखा गया है। इसकी भाषा शैली पाण्डित्य और गंभीरता से परिपूर्ण है।
6. बलावतार- यह कच्चायन व्याकरण का संक्षिप्त रूप है। यह प्रारंभिक छात्रों के लिए उपयोगी है। यह बर्मा और स्याम में अत्यंत प्रिय है। यह सद्धम्म संगह के लेखक धम्मकित्ति(14वी शताब्दी) की कृति है।
7 . सद्दसारत्थ जालिनी- यह बर्मा के भिक्खु कण्टक खिप नागित की कृति है। इसका रचना कल 1356 ईस्वी है। 516 करीकाओं के इस ग्रन्थ में महत्वपूर्ण विषयों का विवेचन है।
8 . सद्दबिंदु- 21 करिकाओं के इस लघु ग्रन्थ को बर्मा के रजा क्यच्या ने 1481 ईस्वी में लिखा था।
9 . कच्चायन वण्णना - ये बर्मा के थेर महाविजितावी(17 वी शताब्दी ईस्वी) की रचना है। इसमें कच्चायन व्याकरण के संधिकप्प का विवेचन किया गया है। इस विवेचन में न्यास, रूप सिद्धि, सद्द नीति अदि ग्रंथों के मतों को प्रस्तुत कर उन पर विचार किया गया है।
10 . धातु मन्जूसा - कच्चायन व्याकरण में उल्लिखित धातुओं का पद्यबद्ध ढंग से इस ग्रन्थ में संग्रह किया गया है। इसके लेखक का नाम सिलवंस है।
2 . मोग्गल्लान व्याकरण परम्परा- वैय्याकरण आचार्य मोग्गल्लान पराक्रम बाहु प्रथम के शासन काल (1153 -1186 ईस्वी) में अनुराधा पुर के थूपाराम नमक विहार में रहते थे। इसमें 817 सूत्र हैं, जिनमें सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, णवादी पाठ आदि व्याकरण सम्बन्धी विषयों का विवेचन किया गया है। प्रारंभिक कच्चायन व्याकरण के दोषों को इसमें दूर किया गया है।
मोग्गल्लान व्याकरण परम्परा के अन्य ग्रन्थ हैं -
पदसाधन - यह मोग्गल्लान व्याकरण का संक्षिप्त रूप है। इसके रचियता मोग्गल्लान के शिष्य पियदस्सी(12 वीं शताब्दी ) थे।
2 . पयोगसिद्धि- इसके रचियता वनरतन मेघंकर(13 वीं शताब्दी) है। ये इसी नाम के जिन चरित के लेखक से भिन्न है। यह मोग्गल्लान परम्परा का सर्व श्रेष्ठ ग्रन्थ है।
3 . मोग्गल्लान पञ्चिका पदीप- इसके रचियता राहुल वाचिस्सर है। इसका रचना काल 14 57 बताया जाता है। यह एक गंभीर और पांडित्य से भरपूर रचना है।
4 . धातुपाठ - इसके रचियता और रचना काल के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है. धातुपाठ में मोग्गल्लान व्याकरण के अनुसार धातुओं की सूचि दी गई है। यह गद्य में है।
3 . सद्दनीति और उसकी परम्परा - सद्दनीति इस परम्परा का प्रमुख ग्रन्थ है। इसके रचियता बर्मा के अग्गवन्स थे जिन्होंने सिंहल द्वीप परम्परा से हट कर 1154 ईस्वी में इसकी रचना की थी। इसके तीन भाग हैं - पदमाला , धातुमाला और सूत्रमाला। इस ग्रन्थ में 1391 सूत्र हैं जो 27 परिच्छेदों में विभक्त हैं। अग्गवन्स बर्मा के राजा नरपति सीथ (1167 -1202 ईस्वी ) के गुरु थे। सद्दनीति, मोग्गल्लान व्याकरण के पूर्व की रचना है।
धावथ दीपनी- इसमें सद्दनीति के धातुओं को संकलित किया गया है। इसके रचियता हिंगुबल जिनरतन है।
कोश ग्रन्थ-
1 . अभिधानप्पदीपिका- यह कोश ग्रन्थ पराक्रम बाहु प्रथम के शासन काल (1153 -1186 ईस्वी) में की गई थी। इसके रचियता मोग्गल्लान थेर है जो वैय्याकरण मोग्गल्लान थेर से अलग है। यह तीन कांडों में विभक्त है - सग्ग कंड, भूकंड और सामञ्ञ कंड। सग्ग कण्ड में गौतम बुद्ध, निर्वाण, अर्हत आदि से सम्बन्धित शब्दों का संकलन है। भूकंड में पृथ्वी से सम्बद्ध शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का संकलन है तथा सामञ्ञ कण्ड में अन्य शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का संकलन है।
2. एकक्खर कोस- इसकी रचना बर्मी भिक्खु सद्धम्म कित्ति द्वारा की गई थी। इसमें 123 गाथाएं हैं और उनमें सभी 41 वर्णों का अर्थ दिया गया है। इसके अतिरिक्त यह भी बतलाया गया है कि कौन-कौन-से वर्ण किस अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
3. सद्दत्थ रतनावली- इस ग्रन्थ के बारे में लेख है कि चार भिक्खुओं; सोभाभिसिरि, सूरिय, राजिन्द एवं ञान ने इस ग्रन्थ की रचना की थी वह भी यूरोपीय विद्वानों के अनुरोध पर। इसमें प्रत्येक शब्द का अर्थ देकर उसके सम्बन्ध में ति-पिटक से उद्धरण भी दिए गए हैं। यह ग्रन्थ 4 भागों में है जो 1927 से 1932 ईस्वी के मध्य मुद्रित हुए हैं। किन्तु इसमें अकार से लकार तक के ही शब्दों की व्याख्या है। स्पष्ट है, शेष भाग अमुद्रित है(स्रोत- पालि साहित्य का इतिहास : कोमलचंद्र जैन) ।
पालि में जो भी व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थ रचे गए हैं, उन सबके रचियता भिक्खु सिंहल द्वीप और बर्मा के थे। इन व्याकरण ग्रंथों की तीन परम्पराएं हैं -
1 . कच्चायन व्याकरण परम्परा।
2 . मोग्गल्लान व्याकरण परम्परा।
3 . अग्गवंस परम्परा।
इन तीन परम्पराओं से अलग कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थ भी मिलते हैं।
1 . कच्चायन व्याकरण परम्परा-
कच्चायन व्याकरण प्राचीनतम है। इसके रचियता कच्चायन है। इनके विषय में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती है। सनद रहे, बुद्ध के 80 महासावक शिष्यों में एक महाकच्चान भी थे। नेतिप्पकरण और पेटकोपदेस के रचियता भी कच्चायन थे।
कुछ भाषाविद बुद्धघोस और धम्मपाल आदि अट्ठकथाकारों की अट्ठकथाओं में कच्चायन व्याकरण का प्रयोग न देख कर संस्कृत व्याकरण को देखते हैं और इसलिए वे कच्चायन व्याकरण के प्रणयनकार को बुद्धघोस और धम्मपाल के बाद का बताते हैं।
कच्चायन व्याकरण में 675 सूत्र हैं जो 4 कप्पों एवं 23 परिच्छेदों में विभक्त हैं। कप्पों के नाम हैं- संधि कप्प, नाम कप्प एवं किब्बिधान कप्प। सञ्ञाविधान, संधिकप्प में निरूपित है। नामकप्प के अंतर्गत कारक कप्प, समास कप्प एवं तद्धित कप्प का निरूपण है। उणादि कप्प को किब्बिधान कप्प के अंतर्गत रखा गया है। इस प्रकार 4 कप्पों में अनेक कप्पों का समावेश कर सभी व्याकरण सम्बन्धी नियमों को निबद्ध किया गया है।
इस परम्परा के अन्य ग्रन्थ हैं -
1 . कच्चायन न्यास(मुखमत्त दीपनी)
2 . सुत्त निद्देस- कच्चायन व्याकरण पर टीका-ग्रन्थ। यह 1181 ईस्वी में लिखा गया था।
3 . सम्बन्ध चिंता- इसके लेखक संघरक्खित (1200 ईस्वी ) है.
4 . सद्दत्थभेद चिंता- यह कारिकाओं में निबद्ध एक व्याख्या ग्रन्थ है जिसमें शब्द, अर्थ तथा शब्दार्थ का विवेचन किया गया है। यह बर्मा के स्थविर सद्धम्मसिरि की कृति है तथा इसका रचना काल 12 वीं शताब्दी उत्तरार्द्ध है।
5. रूपसिद्धि(पदरूप सिद्धि) - इस ग्रन्थ के रचियता बुद्धपिय्य दीपंकर(1300 ईस्वी) थे। यह सात कांडों में विभक्त है। इसमें कित्तक और उणादि को एक साथ 7 वे परिच्छेद में रखा गया है। इसकी भाषा शैली पाण्डित्य और गंभीरता से परिपूर्ण है।
6. बलावतार- यह कच्चायन व्याकरण का संक्षिप्त रूप है। यह प्रारंभिक छात्रों के लिए उपयोगी है। यह बर्मा और स्याम में अत्यंत प्रिय है। यह सद्धम्म संगह के लेखक धम्मकित्ति(14वी शताब्दी) की कृति है।
7 . सद्दसारत्थ जालिनी- यह बर्मा के भिक्खु कण्टक खिप नागित की कृति है। इसका रचना कल 1356 ईस्वी है। 516 करीकाओं के इस ग्रन्थ में महत्वपूर्ण विषयों का विवेचन है।
8 . सद्दबिंदु- 21 करिकाओं के इस लघु ग्रन्थ को बर्मा के रजा क्यच्या ने 1481 ईस्वी में लिखा था।
9 . कच्चायन वण्णना - ये बर्मा के थेर महाविजितावी(17 वी शताब्दी ईस्वी) की रचना है। इसमें कच्चायन व्याकरण के संधिकप्प का विवेचन किया गया है। इस विवेचन में न्यास, रूप सिद्धि, सद्द नीति अदि ग्रंथों के मतों को प्रस्तुत कर उन पर विचार किया गया है।
10 . धातु मन्जूसा - कच्चायन व्याकरण में उल्लिखित धातुओं का पद्यबद्ध ढंग से इस ग्रन्थ में संग्रह किया गया है। इसके लेखक का नाम सिलवंस है।
2 . मोग्गल्लान व्याकरण परम्परा- वैय्याकरण आचार्य मोग्गल्लान पराक्रम बाहु प्रथम के शासन काल (1153 -1186 ईस्वी) में अनुराधा पुर के थूपाराम नमक विहार में रहते थे। इसमें 817 सूत्र हैं, जिनमें सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, णवादी पाठ आदि व्याकरण सम्बन्धी विषयों का विवेचन किया गया है। प्रारंभिक कच्चायन व्याकरण के दोषों को इसमें दूर किया गया है।
मोग्गल्लान व्याकरण परम्परा के अन्य ग्रन्थ हैं -
पदसाधन - यह मोग्गल्लान व्याकरण का संक्षिप्त रूप है। इसके रचियता मोग्गल्लान के शिष्य पियदस्सी(12 वीं शताब्दी ) थे।
2 . पयोगसिद्धि- इसके रचियता वनरतन मेघंकर(13 वीं शताब्दी) है। ये इसी नाम के जिन चरित के लेखक से भिन्न है। यह मोग्गल्लान परम्परा का सर्व श्रेष्ठ ग्रन्थ है।
3 . मोग्गल्लान पञ्चिका पदीप- इसके रचियता राहुल वाचिस्सर है। इसका रचना काल 14 57 बताया जाता है। यह एक गंभीर और पांडित्य से भरपूर रचना है।
4 . धातुपाठ - इसके रचियता और रचना काल के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है. धातुपाठ में मोग्गल्लान व्याकरण के अनुसार धातुओं की सूचि दी गई है। यह गद्य में है।
3 . सद्दनीति और उसकी परम्परा - सद्दनीति इस परम्परा का प्रमुख ग्रन्थ है। इसके रचियता बर्मा के अग्गवन्स थे जिन्होंने सिंहल द्वीप परम्परा से हट कर 1154 ईस्वी में इसकी रचना की थी। इसके तीन भाग हैं - पदमाला , धातुमाला और सूत्रमाला। इस ग्रन्थ में 1391 सूत्र हैं जो 27 परिच्छेदों में विभक्त हैं। अग्गवन्स बर्मा के राजा नरपति सीथ (1167 -1202 ईस्वी ) के गुरु थे। सद्दनीति, मोग्गल्लान व्याकरण के पूर्व की रचना है।
धावथ दीपनी- इसमें सद्दनीति के धातुओं को संकलित किया गया है। इसके रचियता हिंगुबल जिनरतन है।
कोश ग्रन्थ-
1 . अभिधानप्पदीपिका- यह कोश ग्रन्थ पराक्रम बाहु प्रथम के शासन काल (1153 -1186 ईस्वी) में की गई थी। इसके रचियता मोग्गल्लान थेर है जो वैय्याकरण मोग्गल्लान थेर से अलग है। यह तीन कांडों में विभक्त है - सग्ग कंड, भूकंड और सामञ्ञ कंड। सग्ग कण्ड में गौतम बुद्ध, निर्वाण, अर्हत आदि से सम्बन्धित शब्दों का संकलन है। भूकंड में पृथ्वी से सम्बद्ध शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का संकलन है तथा सामञ्ञ कण्ड में अन्य शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का संकलन है।
2. एकक्खर कोस- इसकी रचना बर्मी भिक्खु सद्धम्म कित्ति द्वारा की गई थी। इसमें 123 गाथाएं हैं और उनमें सभी 41 वर्णों का अर्थ दिया गया है। इसके अतिरिक्त यह भी बतलाया गया है कि कौन-कौन-से वर्ण किस अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
3. सद्दत्थ रतनावली- इस ग्रन्थ के बारे में लेख है कि चार भिक्खुओं; सोभाभिसिरि, सूरिय, राजिन्द एवं ञान ने इस ग्रन्थ की रचना की थी वह भी यूरोपीय विद्वानों के अनुरोध पर। इसमें प्रत्येक शब्द का अर्थ देकर उसके सम्बन्ध में ति-पिटक से उद्धरण भी दिए गए हैं। यह ग्रन्थ 4 भागों में है जो 1927 से 1932 ईस्वी के मध्य मुद्रित हुए हैं। किन्तु इसमें अकार से लकार तक के ही शब्दों की व्याख्या है। स्पष्ट है, शेष भाग अमुद्रित है(स्रोत- पालि साहित्य का इतिहास : कोमलचंद्र जैन) ।
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