भारत में जब बौद्ध ग्रन्थ जलाये जा रहे थे, विश्व-विद्यालयों को लूटा जा रहा था, बौद्ध भिक्खु और धम्म आचार्यों की हत्या की जा रही थी ठीक उसी समय पड़ोस के सिंहल देश में पालि भाषा की अन्यन्य विधाओं पर उत्कर्ष ग्रन्थ रचे जा रहे थे।
सिंहल द्वीप में पालि- साहित्य सर्जन की उक्त गतिविधियों का सारा श्रेय वहां के तत्कालीन राजा पराक्रमबाहु प्रथम( 1153 -1186 ईस्वी ) एवं पराक्रमबाहु द्वितीय (1236 -1271 ईस्वी ) को जाता है।
पराक्रमबाहु प्रथम के शासन काल में मोग्गल्लान व्याकरण की रचना की गई तथा सारिपुत्त एवं उनके प्रमुख शिष्यों द्वारा ति-पिटक के टीका साहित्य के सर्जन का महान कार्य संपन्न हुआ। पराक्रम बाहु द्वितीय के शासन काल में पालि के काव्य, अलंकार, छंद शास्त्र आदि से सम्बंधित ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
पालि ग्रंथों की लिए भारत के प्रकांड पंडितों को बुलाया गया। इन पंडित भिक्खुओं ने संस्कृत के भिन्न-भिन्न ग्रंथों को आधार बनाकर पालि में ग्रन्थ रचना की। कवियों ने अपने काव्य-ग्रंथों में सजाने और संवारने के लिए ज्ञेयावरण प्रहाण, महाकरुणा, भक्ति-भावना, धर्मकाय एवं निर्माणकाय जैसी महायानी मान्यताओं को भी बिना किसी संकोच के अपनाया था(स्रोत- पालि साहित्य का इतिहास: कोमल चन्द्र जैन)।
सिंहल द्वीप में पालि- साहित्य सर्जन की उक्त गतिविधियों का सारा श्रेय वहां के तत्कालीन राजा पराक्रमबाहु प्रथम( 1153 -1186 ईस्वी ) एवं पराक्रमबाहु द्वितीय (1236 -1271 ईस्वी ) को जाता है।
पराक्रमबाहु प्रथम के शासन काल में मोग्गल्लान व्याकरण की रचना की गई तथा सारिपुत्त एवं उनके प्रमुख शिष्यों द्वारा ति-पिटक के टीका साहित्य के सर्जन का महान कार्य संपन्न हुआ। पराक्रम बाहु द्वितीय के शासन काल में पालि के काव्य, अलंकार, छंद शास्त्र आदि से सम्बंधित ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
पालि ग्रंथों की लिए भारत के प्रकांड पंडितों को बुलाया गया। इन पंडित भिक्खुओं ने संस्कृत के भिन्न-भिन्न ग्रंथों को आधार बनाकर पालि में ग्रन्थ रचना की। कवियों ने अपने काव्य-ग्रंथों में सजाने और संवारने के लिए ज्ञेयावरण प्रहाण, महाकरुणा, भक्ति-भावना, धर्मकाय एवं निर्माणकाय जैसी महायानी मान्यताओं को भी बिना किसी संकोच के अपनाया था(स्रोत- पालि साहित्य का इतिहास: कोमल चन्द्र जैन)।
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