Thursday, November 5, 2020

दस बहादुर महिला पत्रकार: उत्तमकुमार

 दस दिन उन बहादुर महिला पत्रकारों के नाम जिनकेे कलम से कथित व्यवस्था हिल उठी

सोचा है नया उत्सव मनाया जाये। नौ दिन नौ महिला पत्रकारों को समर्पित कर रहा हूँ। जिन्होंने वर्तमान में पत्रकारिता को नया आयाम दिया है। और दसवें दिन एक ऐसे महिला पत्रकार को समर्पित है जिन्होंने धार्मिक अंधविश्वास के खिलाफ विज्ञान के स्थापना के लिये शहादत दी है।

गौरी लंकेश

पत्रकार गौरी लंकेश दक्षिणपंथियों की आलोचक रही है सितम्बर 2017 को बेंगलुरु में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। 55 साल की गौरी 'लंकेश पत्रिका' का संचालन कर रही थीं जो उनके पिता पी लंकेश ने शुरू की थी। इस पत्रिका के ज़रिए उन्होंने 'कम्युनल हार्मनी फ़ोरम' को काफी बढ़ावा दिया।

गौरी ने लेखिका और पत्रकार राणा अय्यूब की किताब 'गुजरात फ़ाइल्स' का कन्नड़ में अनुवाद किया था। गौरी को पिछले कुछ सालों से श्रीराम सेने जैसी दक्षिणपंथी विचारधारा वाले संगठनों से कथित तौर पर धमकियां मिल रही थीं। बीजेपी के एक नेता ने उनके ख़िलाफ़ मानहानि का दावा भी किया था। 

बंगलुरू में या कहें देश में वो अकेली महिला थीं जिनकी आवाज़ दक्षिणपंथी ताकतों के ख़िलाफ़ उठ रही थी और उनकी हत्या का काम उन्हीं का हो सकता है। गौरी लंकेश की विचारधारा, लेखों और भाषणों पर उन्हें हत्या की धमकियां मिलती रही है।

उनकी हत्या यक़ीनन विचारधारा के कारण हुई है। वो पिछले दो साल से दक्षिणपंथी ताकतों के निशाने पर थीं। और अंतत: वो उनकी हत्या करने में सफल हुए। अपने पिता पी लंकेश की तरह ही वो भी एक निर्भीक पत्रकार थीं। कन्नड़ पत्रकारिता और साहित्यिक पत्रकारिता में उनकी 'लंकेश पत्रिका' की प्रमुख भूमिका रही।

पिछले दो सालों से उनको अनेक तरह की धमकियां दी जा रही थीं। वो कहते हैं, "गौरी ने बार-बार लिखा कि मैं एक सेकुलर देश की इंसान हूं और मैं किसी भी तरह की धार्मिक कट्टरता के ख़िलाफ़ हूं। संघ परिवार के लोग किसी भी तरह से सत्ता हथियाना चाहते हैं। लोगों को डराना-धमकाना और अपना आतंक पैदा करना और लोगों को चुप कराने की कोशिश करना उसका एक तरीका है।

लंकेश पत्रिका काफ़ी लोकप्रिय थी और उसका समाज पर एक असर था। उस असर को मिटाने के लिए उन ताकतों को गौरी लंकेश को ही मिटाना पड़ा। इससे पहले वहां कलबुर्गी की हत्या हुई थी। नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे जी की जो हत्या हुई, पता चल रहा है कि उनको मारने का तरीका भी एक जैसा ही है। कई संस्थाओं का नाम सामने आया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।

क्षेत्रीय स्तर पर कई ताकतें सर उठा रही हैं और इन्हें समर्थन, प्रश्रय मिला हुआ है. अनेक बार इन हत्याओं के सिलसिले में सनातन संस्था का नाम आया है, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। हाल में गोवा में हिंदू सम्मेलन हुआ जिसमें सनातन संस्था ने शिरकत की. यह साफ है कि उन्हें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन मिला हुआ है। ये चिंता की बात है कि हमारे समय की सत्ताधारी राजनीति इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने वाली ताकतों के सर पर हाथ रखे हुए है।


मसरत जहरा

पत्रकारों के खिलाफ लगातार होती कारवाईयों के बीच, जम्मू कश्मीर पुलिस ने श्रीनगर स्थित फोटो जर्नलिस्ट मसर्रत ज़हरा के खिलाफ, सोशल मीडिया पर “राष्ट्र-विरोधी” तस्वीरें अपलोड करने के लिए गैरकानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम (यूएपीए) के तहत केस दर्ज किया है। जहरा कश्मीर की दूसरी पत्रकार हैं जिनके खिलाफ कठोर यूएपीए कानून के तहत केस दर्ज किया गया है, इस कानून के तहत सरकार किसी भी व्यक्ति के खिलाफ जांच के आधार पर उसे आतंकवादी घोषित कर मुकदमा चला सकती है। इस कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सात साल तक की जेल हो सकती है। इससे पहले सितंबर 2018 में, कश्मीर नैरेटर के पत्रकार आसिफ सुल्तान को कथित रूप से एक प्रतिबंधित आतंकवादी समूह की मदद करने के आरोप में यूएपीए कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था। उन्हें अभी भी हिरासत में रखा गया है।


राणा अय्यूब

राणा अय्यूब तहलका समाचार पत्र समूह के लिए एक पत्रकार के रूप में काम कर चुकी है, और अब वॉशिंगटन पोस्ट के लिए लिखती हैं। वह तहलका के मुख्य संपादक तरुण तेजपाल के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप की हैंडलिंग के खिलाफ नवंबर 2013 में इस्तीफा दे दिया था। वह नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार की आलोचना करती आ रही है। गुजरात के फर्जी मुठभेड़ों की अय्यूब की जांच महानतम पत्रिका कहानियों में से एक के रूप में सूचीबद्ध की है। वे गुजरात फाइलज़: एनाटॉमी ऑफ ए कवर अप की लेखिका हैं। वह वॉशिंगटन पोस्ट में लिखे लेख में सफुरा जरागन का बचाव किया था । इन पर क्रिमिनल केस फाइल हुआ था और कोर्ट ने जमानत याचिका भी खारिज़ कर दी थी।


रोहणी सिंह

सुप्रीम कोर्ट 'द वायर' की पत्रकार रोहिणी सिंह की याचिका पर सुनवाई कर रहा है। रोहिणी ने गुजरात हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी। द वायर की पत्रकार रोहिणी सिंह की याचिका को खारिज कर दिया था जिसमें उन्होंने जय शाह द्वारा दाखिल आपराधिक मानहानि केस को रद्द करने की मांग की थी। वेबसाइट ने दावा किया था कि एनडीए के सत्ता में आने के एक साल बाद उनकी कंपनी का कारोबार 16,000 गुना बढ़ गया था। सन 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कंपनी ने अपने कारोबार में भारी वृद्धि की। एक साल में इसकी आय 50,000 रुपये से बढ़कर 80 करोड़ रुपये हो गई। जय शाह ने लेख की लेखिका रोहिणी सिंह के खिलाफ एक आपराधिक मानहानि मुकदमा दायर किया है। आपराधिक मानहानि के मामले में, महानगर मजिस्ट्रेट ने 13 नवंबर को सभी उत्तरदाताओं को बुलाया था।


शजीला-अली-फातिमा

सबरीमाला में  शजीला की आंखों से आंसू उनके गालों तक उतर आए, फिर भी वह महिलाओं के अधिकारों को अपने कैमरे में कैद करते हुए रोते हुए अपना काम पूरी करते रहीं, जो लोग यह मानते हैं कि पत्रकारिता आसान है उन लोगों के लिए यह दुखद घटना है, मगर शजीला ने अपनी ड्यूटी बखूबी निभाई।

केरल में मंदिर प्रवेश को लेकर लाखों महिलाओं ने दो आंदोलनकारी महिलाओं के समर्थन में हाथ ऊपर कर समर्थन कर रहे थे। ये लाखों हाथ महिलाओं के ऊपर तमाम अत्याचारों के साथ पितृसत्ता रूपी शोषण का प्रतिकार है। आपको मालूम हो कि जब केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर प्रदर्शन हो रहे थे ठीक उसी वक्त एक और तस्वीर आपके नजरों के सामने से होकर गुजरी होगी? यह तस्वीर कैराली टीवी की बहादुर फोटो-जर्नलिस्ट ‘शजीला-अली-फातिमा अब्दुलरहमान’ की है। 

पत्रकारिता करते हुए तमाम पुरूषों के अत्याचारों के खिलाफ अपने ड्यूटी में पहाड़ की तरह खड़ी है। इस आंदोलन में एक नया मोड़ उस वक्त आया जब साल के पहले दिन छह लाख महिलाओं ने पूरे राज्य में एक मानव दीवार बनाई। इसके एक दिन बाद, बुधवार की सुबह साढ़े तीन बजे बिंदु और कनकदुर्गा नाम की दो आंदोलनकारी महिलाओं ने मंदिर में प्रवेश कर भगवान अयप्पा के दर्शन किए। इस घटना के विरोध में अगले दिन से मंदिर परिसर के नजदीक और केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम में संघ परिवार, भाजपा ने संगठित विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिया और मंदिर के पुजारियों ने मंदिर शुद्धिकरण का नाटक रचा। हालांकि मैं शोषण का द्वार मंदिर के प्रवेश के विवाद में न जाते हुए इतना कहना चाहता हूं कि केरल में संघर्षरत महिलाओं का इतिहास संघर्षों का इतिहास है, विशेषकर पुरुष वर्गों द्वारा शोषण का यहां लंबा इतिहास है। कैराली टीवी की फोटो-जर्नलिस्ट शजीला को फोटो पत्रकारिता करने से पहले संघ के कार्यकर्ता घेर कर डराने-धमकाने की कोशिश किया है। 

उनके कार्य करने के दौरान दक्षिणपंथियों ने शजीला को पीछे से लात भी मारी। आपको जानकार हैरत होगी कि जिस समय शजीला पर ये शारीरिक हमले हो रहे थे, ठीक उस समय वे बिना टस से मस हुए अपने कैमरे से विरोध-प्रदर्शन की रिकॉर्डिंग कर रहीं थीं। मीडिया में वायरल तस्वीर में साफ तौर पर देखा जा सकता है कि शजीला की आंखों से आंसू उनके गालों तक उतर आए हैं, फिर भी शजीला महिलाओं के अधिकारों को अपने कैमरे में कैद करते हुए रोते हुए अपना काम पूरी कर रही हैं। जो लोग यह मानते हैं कि पत्रकारिता आसान है उन लोगों के लिए यह दुखद घटना है, लेकिन आखिर शजीला ने अपनी ड्यूटी पितृसत्ता के खिलाफ बखूबी निभाई। शजीला जैसे महिलाएं सदियों से सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ मोर्चा सम्हालते हुए आ रही हैं और लगातार सफलता उनके कदमों को चूम रही है।


मीना कोतवाल

बीबीसी हिंदी में काम कर चुकी मीना कोतवाल का आरोप है कि दबावों की वजह से उन्हें अपनी नौकरी गंवानी पड़ी। आरोपों पर बीबीसी का कहना है कि वह जिस देश में भी काम करता है, वहां के कानून का पालन करता है। बीबीसी ने ‘निजी मामलों’ टिप्पणी से भी इंकार किया है।

मीना का कहना है कि  बीबीसी हिंदी ने उनके साथ आठ लोगों को चुना। लेकिन सिर्फ मुझे ही एक साल के कॉन्ट्रैक्ट पर रखा गया। बाकी भाषाओं में भी लोग एक साल के कॉन्ट्रैक्ट पर आए। लेकिन उन्हें स्थायी कर दिया गया। उनके आरोपों के जवाब में बीबीसी ने कहा, ‘हमारे साथ कई लोग एक सीमित समय के कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे थे। इसको आगे बढ़ाने के लिए कई बातें अहम होती हैं।’

बीबीसी में उच्च पदस्थ एक सूत्र का कहना है कि कॉन्ट्रैक्ट समाप्त होने के बाद मीना के लिए कोई ऐसा पद बचा ही नहीं था। हालांकि, बीबीसी हिंदी में काम कर रहे एक पत्रकार ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि बीते छह महीने में बीबीसी हिंदी में दो अतिरिक्त पदों पर नियुक्तियां आईं थीं। अगर संस्था चाहती तो मीना को स्थायी कर सकती थी।

मीना का आरोप कि बीबीसी में पहुंचने के साथ वहां उनकी जाति पहुंच गई। दो महीने में ही उन्हें सुनने को मिल गया था कि अब उनके जैसे लोग यहां के लोगों के साथ काम करेंगे। बीबीसी में उच्च पदस्थ एक सूत्र का पक्ष है कि मीना ने ही अपनी जाति का विषय नौकरी में इंटरव्यू में उठाया था।

मीना ने भेदभाव का मामला बीबीसी हिंदी के संपादक और भारतीय भाषाओं की संपादक के सामने उठाया था। उन्हें शिकायतों को दूर करने का आश्वासन भी दिया गया। बीबीसी हिंदी के एक संपादक पर आरोप है कि उन्होंने मीना की छवि बिगाड़ने का काम किया।

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक। मीना ने कहा, ‘ऑफिस में मेरी छवि ऐसी बना दी गई कि मुझे कुछ नहीं आता है। लगातार आलोचना की वजह से मुझे अवसाद की गोलियां खानी पड़ी. मैंने दो बार आत्महत्या की भी कोशिश की।’ हालांकि, बीबीसी में उच्च पदस्थ एक सूत्र का कहना है कि मीना को डेस्क के बाद रिपोर्टिंग का भी मौका मिला।

मीना एकमात्र दलित कर्मचारी थीं। बीबीसी का कहना है कि संस्था में हर तरह की पहचान के लोग काम करते हैं। ये कोशिश की जाती है कि सबको बराबर मौक़ा दिया जाए, चाहे वो समाज के किसी भी तबके से आता हो। आरोप है कि ऐसी कोशिश के बावजूद जातिवाद का मर्ज यहां बना हुआ है। बताया जाता है कि बीबीसी कर्मचारी एक-दूसरे के लिए जातिसूचक संबोधन का इस्तेमाल करते हैं। ‘पंडितजी’ और ‘भूमिहार’ बुलाया जाना आम बोलचाल में शामिल है।


आरफ़ा ख़ानम शेरवानी

आरफ़ा ख़ानम शेरवानी 2014 के अफ़गानिस्तानी चुनावों की रिपोर्टिंग करने वाली एकमात्र भारतीय पत्रकार थीं।इन्हें रेड इंक सम्मान, हिंदी एकेडमी का साहित्य सम्मान अवार्ड, और चमेली देवी जैन पुरस्कार दिया जा चुका है। टेलिविजन दुनिया के जानी-मानी एंकर आरफा खानम शेरवानी एक बार फिर दर्शकों के बीच नजर आने वाली हैं। इस बार वे टीवी स्क्रीन पर नहीं, बल्कि डिजिटल प्लेटफॉर्म नजर आएंगी और यह प्लेटफॉर्म है हिंदी न्यूज पोर्टल ‘द वायर’। इस पोर्टल पर आरफा खानम 'हम भी भारत' नाम से एक प्रोग्राम लेकर आ रही हैं, जोकि इस हफ्ते शुरू हो रहा है।

दरअसल, आरफा खानम इसके पहले राज्यसभा टीवी में सीनियर एंकर के पद पर कार्यरत थीं। वे पिछले 6 साल से यहां थीं, कुछ महीने पहले उनका राज्यसभा टीवी के साथ कॉन्टैकट खत्म हुआ है। वे जर्मनी में भारत की मीडिया एंबेस्डर भी रह चुकी हैं, जहां उनका कार्यकाल तीन महीने का था। कार्यक्रम के बारे में बताते हुए वे अपने फेसबुक पर लिखती हैं, ‘अंध-भक्ति और फे़क न्यूज के दौर में जहां गरीबी, बेरोजगारी, न्याय और बराबरी जैसी असली समस्याओं से आपका ध्यान भटकाकर, हर शाम टीवी स्टूडियो से नफरत व सांप्रदायिक द्वेष के नारों और झूठे विकास के दावों में आपको उलझाने की कोशिश हो रही है, वहीं इस कार्यक्रम के जरिये हर उस भारतीय की आवाज उठाने की कोशिश होगी जो आज भारतीय लोकतंत्र के हाशिये पर फेंक दिया गया है।

वे लिखती हैं, ‘आजाद भारत में हमारी रूहों को गुलाम बनाने की कोशिश है। हर उस आवाज का गला घोंटने की कोशिश है जो एक खास तरह के संकीर्ण और धर्मांध भारत के विचार का विरोध कर रही है। आपसे वादा है कि हम किसी हुकूमती फरमान से नहीं डरेंगे और पत्रकारिता के उच्चतम सिद्धांतों का पालन करते हुए देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचेगे।’ बता दें कि 'हम भी भारत' कार्यक्रम में दर्शक भी इसका हिस्सा बन सकते हैं। इसमें एक सेगमेंट होगा, जिसमें दर्शक विषयों का चयन कर सकते हैं। वे बता सकते हैं कि किस विषय पर चर्चा होनी चाहिए। इतना ही नहीं एक पूरे सेगमेंट में दर्शक विडियो के जरिए भी इसमें हिस्सा ले सकते हैं। वे फीडबैक के तौर पर अपना विडियो भेज सकते हैं, जिसे कार्यक्रम के दौरान दिखाया भी जाएगा।  

1980 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर खुर्जा में जन्मीं आरफा ने यहीं से ही 12वीं तक की पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने मेरठ के सीसीएस विश्वविद्यालय से विज्ञान मेंबैचलर डिग्री ली और फिर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा किया। 2000 में वे दिल्ली आ गईं और ‘द पॉयनियर’ में इंटर्न के तौर पर पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखा। इसके बाद कुछ समय तक उन्होंने ‘एशियन एज’ में बतौर ट्रेनी सब-एडिटर काम किया। फिर वे ‘सहारा टीवी’ से प्रॉडक्शन एग्जिक्यूटिव के तौर पर जुड़ गईं। सहारा से अलग होने के बाद आरफा ने 2003 में एनडीटीवी जॉइन किया। यहां उन्होंने प्रिसिंपल कॉरेस्पोंडेंट के साथ-साथ न्यूज एंकर की भूमिका निभाई। कुछ वर्षों तक एनडीटीवी में काम करने के दौरान उन्होंने विदेशी व अल्पसंख्यक मामलों को कवर किया। एनडीटीवी से अलग होने के बाद उन्होंने आमिर खान के प्रॉडक्शन हाउस के तहत काम किया और ‘सत्यमेव जयते’ शो के लिए अपना योगदान दिया। प्रॉडक्शन हाउस छोड़ने के बाद ही उन्होंने राज्यसभा टीवी जॉइन किया। उन्होंने यहां ‘देश देशांतर’ शो को भी होस्ट किया है। 6 साल बाद तक अपना योगदान देने के बाद वे अब 'द वायर' से जुड़ गईं हैं।


मालिनी सुब्रमण्यम

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बस्तर में पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता कर रहीं पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम को नक्सलियों से सहानुभूति रखने के आरोप में जेलों में बंद गरीब आदिवासियों के लिए आवाज उठाने के बदले बस्तर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है। वह जगदलपुर शहर में किराये के एक मकान में रह रही थीं। गुरुवार को उनके मकान मालिक ने उनसे घर खाली करने को कहा। साथ ही, जगदलपुर कानूनी सहायता समूह (जीएजीएलएजी) के कुछ प्रो-बोनो वकीलों को भी उनके मकान मालिकों ने घर खाली करने का नोटिस दिया। इसके बाद इन वकीलों को आधी रात के समय घर खाली करना पड़ा। मालूम हो कि प्रो-बोनो वकील कानूनी मामलों में गरीबों और मजबूर लोगों को मदद करते हैं। ये वकील लंबे समय से नक्सली होने के आरोप में जेल के अंदर बंद आदिवासियों के लिए अदालत में कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे।

मालिनी न्यूज वेबसाइट स्क्रॉल.इन के लिए काम करती हैं। वह बस्तर में आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों व पुलिस ज्यादतियों की रिपोर्टिंग करती रही हैं। पिछले हफ्ते ही माओवादियों की विरोधी एक संस्था, सामाजिक एकता मंच के सदस्यों ने मालिनी के घर और कार पर हमला किया था। मालिनी का आरोप है कि उनके परिवार को दबाव में और बेहद जल्दबाजी में मजबूरन शहर छोड़ना पड़ा। उन्होंने आरोप लगाया है कि पिछले 5 हफ्ते से पुलिस लगातार उन्हें व उनके परिवार को धमकियां दे रही थी। मालिनी ने कहा, 'जब धमकियों से बात नहीं बनी, तो पुलिस ने उन लोगों को निशाना बनाया जो मेरे लिए काम करते हैं या फिर उन्हें जिन्होंने रहने के लिए मुझे अपना घर किराये पर दिया है।'

टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए स्क्रॉल.इन की न्यूज संपादक सुप्रिया शर्मा ने कहा, 'पुलिस ने मालिनी के घर में काम करने वाली को और उनके मकानमालिक को बुधवार को हिरासत में लेकर पूछताछ की। मकानमालिक को कहा गया कि वह मालिनी को घर खाली करने का नोटिस दें। साथ ही, मालिनी व जगदलपुर कानूनी सहायता समूह के साथ काम करने वाली महिला वकीलों के मकानमालिकों को भी मजबूर किया गया कि वे अपने-अपने घरों से इन वकीलों को निकाल दें। क्या यह एक अजीब संयोग नहीं है कि इन वकीलों के मकानमालिकों ने उन्हें जिस दिन घर खाली करने को कहा, उसी दिन एक ऑनलाइन न्यूज पॉर्टल ने पुलिस द्वारा पत्रकारों को धमकाए जाने की खबर छापी थी।'


इरा झा

18 जून 2020 को द वायर द्वारा 'बोधघाट पनबिजली परियोजना: जंगल उजाड़कर जंगल के कल्याण की बात' शीर्षक से प्रकाशित लेख पर छत्तीसगढ़ शासन की ओर उठाए गए सवाल का इरा झा ने जवाब दिया है। बीते दिनों केंद्र सरकार ने छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा दंतेवाड़ा के पास इंद्रावती नदी पर प्रस्तावित पनबिजली परियोजना को पर्यावरणीय मंज़ूरी दी है। हालांकि इसके लिए चिह्नित ज़मीन पर वन्य प्रदेश और आदिवासियों की रिहाइश होने के चलते इसके उद्देश्य पर सवाल उठ रहे हैं।

इस विषय पर द वायर द्वारा 18 जून 2020 को वरिष्ठ पत्रकार इरा झा का एक लेख प्रकाशित किया गया था। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा इस आलेख पर आपत्ति जताते हुए कई सवाल उठाए गए हैं। राज्य सरकार के अनुसार लेख तथ्यों से परे और पूर्वाग्रह से लिखा गया नजर आता है। सरकार का कहना है कि बोधघाट परियोजना सिंचाई परियोजना है जिसका उद्देश्य बस्तर के वर्षो से सिंचाईविहीन क्षेत्रों में किसानों को सिंचाई का जल उपलब्ध कराना है लेकिन प्रकाशित लेख में इसे केवल बिजली परियोजना के रूप में बताया गया है।

शासन की ओर से यह भी कहा गया है कि परियोजना के कारण प्रभावित होने वाले वनों के स्थान पर विभाग ने पहले से ही वृक्षारोपण कर दिया था और इसी आधार पर वन एवं पर्यावरण विभाग ने इसे स्वीकृति दी है लेकिन लेख यह दर्शाने के कोशिश करता है कि परियोजना से जिन वनों को नुकसान होगा वो कभी भी लगाए नहीं जाएंगे।

राज्य सरकार ने यह भी कहा है कि पहले वे परियोजना से प्रभावित रहवासियों का पुनर्वास करेगी, उसके बाद ही योजना पर कार्य शुरू होगा। इसके अलावा अपने पत्र के साथ छत्तीसगढ़ सरकार ने परियोजना से संबंधित और जानकारी भी दी है. उनके सवालों और दी गई सूचनाओं पर इरा झा ने क्रमवार प्रतिक्रिया दी है।


पूजा पवार

सोशल मीडिया में आदिवासियों के हित में पत्रकारिता के लिये चर्चित पत्रकार पूजा पवार लगातार सच के साथ उपस्थित होती है। वह आदिवासियों के साथ महिलाओं की आज़ादी पर खुलकर लिखती आ रही है। यही नहीं वह आदिवासियों की अंतरराष्ट्रीय रीति रिवाज, परम्परा, रूढ़ि प्रथा, अस्तित्व और उनके मानवाधिकार पर मुखर हैं। प्रख्यात वेबसाइटों के साथ अखबारों में भी वह लगातार छपते आ रही हैं। सोशल मीडिया में उनकी उपस्थिति जनसरोकार के साथ निष्पक्ष, निडर और निर्भीकता को दर्शाती है। आने वाले समय में वेबसाइटों के भविष्य और उनकी चुनौतियों के बीच पूजा पवार एक जनपक्षधर पत्रकार के रूप में अपनी अलग पहचान साबित करने की ओर अग्रसर है।

Uttam Kumar

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