Saturday, November 10, 2018

गणपति; विघ्नहर्ता या विघ्नकर्ता ?

गणपति; विघ्नकर्ता-
गणपति सदा से देवता नहीं थे,कम-से-कम आधुनिक अर्थ में तो नहीं। प्राचीन पौराणिक कथाकारों और नियम बनाने वालों की दृष्टि में भी गणपति का कोई श्रेष्ठ स्थान नहीं था। यह तो बहुत बाद में देवता बने (देवीप्रसाद चटोपाध्याय:लोकायत, पृ 101)।

विचित्र विसंगतियां-
लेकिन यह प्रक्रिया अकेले गणपति पर ही लागू नहीं होती,  अन्य प्राचीन देवताओं यथा शिव, कृष्ण आदि पर भी लागु होती है। किन्तु बाद में इन विचित्र विसंगतियों को छिपाने के लिए गल्प कथाएँ रची गई ।

गणपति
गणपति अर्थात गणों का मुखिया। गणपति का दूसरा समानार्थक शब्द है, गणेश अर्थात गणों का ईश या  देवता। छठी शताब्दी में गणपति को गणनायक कहा जाता था। जिसका अर्थ था किसी जन-समुदाय का मुखिया(पृ 101 )।

विपत्तियों का अवतार बनाम सफलता का देवता
गणपति की सबसे महत्त्व पूर्ण बात उनके नामों में नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि गणपति के प्रति भावनाओं में बड़ा विचित्र परिवर्तन आया । पहले तो गणपति को कष्ट और विपत्तियाँ लाने वाला माना जाता था और बाद में वह सद्भाव और सफलता का देवता बन गया । हम सदा यही समझते रहे हैं कि गणपति केवल मनोकामनाएं पूर्ण करने वाले देवता हैं।  लेकिन प्रत्यक्षत: यह भावना तो बाद में पहले वली भावना पर थोपी गई। पहले तो गणपति को विपत्तियों का अवतार माना जाता था। इस तरह के विचार पहली 5 वीं शताब्दी में विद्मान थे (पृ 102)।

'गृह सूत्र' और 'स्मृति' आदि में गणपति के प्रति घृणा-
गृह्य सूत्र काल' अर्थात 5 वीं शताब्दी में यह गणपति या विनायक केवल भय या तिरस्कार की भावना उत्पन नहीं करते थे। वरन गणपति को अव-मंगल का सूचक माना जाता था।  गणपति के सम्बन्ध में यह धारणा बहुत समय तक बनी रही। 'मानव सूत्र' से कई शताब्दियों के अन्तर पर याज्ञवल्क्य द्वारा लिखी संहिता में यही स्थिति वर्णित है। मनुस्मृति काल में गणपति के प्रति तिरस्कार ही था(103)। मनु ने गणपति को शूद्रों का देवता घोषित किया था(पृ 108 )।

गणपति के कुछ प्रसिद्द नाम हैं- विघ्नकृत, विघ्नेश, विघ्नराज, विघ्नेश्वर आदि। इन सब का विशुद्ध शाब्दिक अर्थ है, विघ्न डालने वाला। वि-नायक अर्थात विपत्तियों का नायक।  किन्तु बाद में इन नामों के शाब्दिक अर्थ की अनदेखी कर नए अर्थ किए गए यथा- नमो गणेशाय विघ्नेश्वराय' अर्थ 'मैं विघ्नों के देवता गणेश के सम्मुख नमन करता हूँ' किया गया (104)।

याज्ञवल्क्य के अनुसार, विनायक,  गुणों का देवता इसलिए बना की वह बाधाएं उत्पन्न कर सकें।  बौद्धायण ने 'धर्मसूत्र' में गणपति को सीधे 'विघ्न' कहा अर्थात बाधा। पौराणिक साहित्य में गणपति न केवल विघ्न उत्पन्न करने वाले थे वरन ऐसा करते हुए रक्त भी बहा देते थे(वही)।

गणपति का एक दांत, 'ब्रह्म वैवर्त पुराण' में आयी एक कथा के अनुसार परशुराम ने कुल्हाड़े से तोड़ दिया था।  और,  इसलिए गणपति को  'एकदन्त' कहा जाता है । जैसा कि सभी जानते हैं कि परशुराम ब्राह्मणों अथवा पुरोहित वर्ग की सर्वोच्च स्थिति के घोर समर्थक थे। स्पष्ट है, उस काल में गणपति का प्रमुख शत्रु पुरोहित वर्ग था (वही)।

गणपति के प्रति घृणा साहित्य के स्रोतों तक ही सीमित नहीं थी वरन गणपति की प्रतिमाओं में भी यह परिलक्षित होता था। कुछ प्रतिमाओं में तो उन्हें भोंडी नग्नता और भयानक दानव के रूप में दिखाया गया था(वही, पृ  105 )।

बौद्ध-ग्रंथों में गणपति के प्रति घृणा
मंजुश्री द्वारा गणपति को पद-दलित करने के दृश्य वाली मूर्तियां भी हैं। इससे पता चलता है कि एक समय बौद्ध भी गणपति से उतनी ही घृणा करते थे जितने कि हिन्दू(पृ  106 )।

विघ्नेश्वर से सिद्धिदाता-
परिवर्तिति काल में रक्त रंजित हस्ति दन्त वाले विघ्न उत्पन्न करने वाले गणपति मनोकामना सफल होने का वरदान देने वाले देवता बन गए।  विघ्न राज, सिद्धिदाता बन गए। स्वाभाविक रूप से इस परिवर्तित रूप को लोकप्रिय बनाने के लिए व्यापक प्रचारात्मक साहित्य लिखा गया और इस प्रचार को पुराणों में प्रमुखता दी गई । 'स्कन्द पुराण' में गणपति को स्वयं ईश्वर का अवतार बताया गया। गणपति की स्तुति के लिए 'गणेश पुराण' और 'गणपति उपनिषद' लिखे गए( वही)।

आगे चलकर, जिस गणपति को 'मानव गृह्य' सूत्र' और 'याज्ञवल्क्य स्मृति' में जहाँ विद्या अध्ययन में विघ्न कारक कहा गया था, उन्हें  प्रज्ञा और विद्वता के देवता घोषित किया गया। गणपति को अचानक ही जिन गुणों से संपन्न बना दिया गया उसे उचित बताने किए लिए  वेदव्यास द्वारा रचित और उच्चरित महाभारत को लिखने की अति कठिन कार्य करने के योग्य वाली 'देव कथा' गढ़ी गई । यही नहीं, गणपति को प्रज्ञावान दिखाने के लिए 'श्रीमद भगवत गीता' की तर्ज पर  'गणेश गीता' रची गई(पृ 107 )।

परस्पर विरोधी पौराणिक गाथाएँ-
जो विघ्नकर्ता, सिद्धिकर्ता बन गया, उसे उच्च वंश का बताना आवश्यक था।  'स्कंध पुराण' और  'ब्रह्म वैवर्त पुराण' के अनुसार, पार्वती ने खेल ही खेल में अपने शरीर के मल को विचित्र आकृति देकर इसमें प्राण फूंके थे। एक अन्य कथा के अनुसार, पार्वती अपने शारीर पर जिस उबटन को मलती थी, उस में अपना मल मिश्रित करके वह गंगा के उद्गम स्थल पर गई और एक हस्तिमुख वाली मालिनी नमक राक्षसी को यह मिश्रण पीने को बाध्य किया। गणपति, मालिनी के गर्भ से उत्पन्न ही बालक था, जिसे पर्वतो ले गई थी(पृ 108)।

ब्रह्म वैवर्त पुराण की इस कथा के अनुसार, जन्म के बाद  गणेश पर शनि की दृष्टि पड़ी और गणेश का सिर धड से अलग हो गया ।  इसलिए विष्णु ने शोक ग्रस्त माता पर दया करके एक हाथी का सिर उस बालक एक सिर पर लगा दिया। किन्तु स्कन्द पुराण के अनुसार, गणेश का सिर जन्म के पूर्व ही नहीं था।  सिंदूर नामक एक दैत्य, माता के गर्भ में प्रविष्ट हो गया और उन्होंने गर्भस्थ बालक का सिर खा लिया। गर्भस्थ बालक जब जन्मा तो उसने देखा कि उसका सिर नहीं हैं ! उसने गजासुर नामक हस्ति दानव का सिर काटा और अपने सिर पर लगा दिया(वही)।

दक्षिण भारत के सुप्रभेदागम' के अनुसार शिव- पार्वती ने हस्ति मुद्रा में सम्भोग किया जिससे हस्तिमुख वाला बालक पैदा हुआ।  एक और कथा जो कई पुराणों में आयी है, के अनुसार इंद्र के नेतृत्व वाले अभिजात देवतागण शिव के निवास स्थल सोमनाथ के पर्वतीय क्षेत्र में, 'नीच जाति' वाले शूद्रों और उनकी स्त्रियों के एक समागम से डर गए।  देवताओं ने शिव से प्रार्थना की, किन्तु उन्होंने इस सभा को नहीं रोका। तब सब देवता शिव पत्नी पार्वती के पास पहुंचे।  उन्होंने इस जन-समूह के विनाश के लिए अपने शरीर के मल से एक विपत्ति कारक देवता का सृजन किया(वही )।

विघ्नराज का रूपांतरण-
कुमारस्वामी के अनुसार, गुप्त राजाओं के शासन काल से पहले के मूर्तिशिल्प में  गणेश की मूर्ति नहीं थी। गणेश की प्रतिमाएं अचानक ही गुप्तकाल(500 ईस्वी) में बनी। काणे के अनुसार भी गणेश की प्रतिमाएं ईस्वीं 500-600 में होने लगी थी।  यह स्थापित किया जा चूका है कि गुप्त काल में ब्राह्मण साहित्य नए सिरे से लिखा गया था(पृ 109 )।

मध्य युग के ग्रंथों में गणेश के हस्तिमुख, कुम्भाकार उदर, मूषक वाहन आदि विचित्र विशेषताओं का जो वर्णन हैं वह वैदिक साहित्य में नहीं है । हाँ. बौद्धायण के धर्मसूत्र में विनायक को हस्तिमुख, वक्रतुंड, एकदंत और लम्बोदर कहा गया है, ये सभी विशेषताएँ बाद में जोड़ी गई(वही )।

एक नहीं, अनेक गणपति
कुछेक स्थानों पर कई गणपतियों की बात कही गई है । 'वाजसनेयी संहिता' में यह शब्द बहुवचन में हैं। 'मानव गृह्य सूत्र' में चार विनायकों का उल्लेख हैं और याज्ञवल्क्य ने इन्हें अनेक बताया है। महाभारत के अनुशासन  पर्व में भी गनेश्वरों और विनायकों के सम्बन्ध में बहुवचन का प्रयोग है। भंडारकर के अनुसार मूलत: जो चार विनायक थे, कालान्तर में एक हो गए(वही)।

संभवत: विभिन्न गणपतियों के विभिन्न आकार और विशेषताएँ थी। 'तैतरीय संहिता' के अनुसार इन गणपति यों की शक्ल पशुओं जैसी थी। तांत्रिक ग्रंथों में कुछ गणपतियों के चिन्ह बैल जैसे थे तो कुछ के चिन्ह सांप जैसे थे। इन में प्राचीन टोटमवादी विश्वास भी हो सकते हैं(वही)।

मातंग राजवंश-
डी डी कोसंबी के अनुसार कोसल के बाद के काल के सिक्कों को यदि काल क्रम से देखा जाए तो मातंग(हाथी) राजवंश की स्थापना के क्रमिक इतिहास का पता चलता है(वही)।

वेदों में गणपति
वेदों के कवियों को गणपति का तो पता है किन्तु उन्हें उनके हस्तिमुख की कोई जानकारी नहीं है। यह गणपति न तो विघ्नराज था और न ही बाद का सिद्धिदाता(पृ  114 -115 )। जहाँ तक वैदिक साहित्य का सवाल है, हमें गणों और गणपतियों की प्रतिष्ठा और वैभव के प्रमाण मिलते हैं(पृ  117 )।
-अ ला ऊके  amritlalukey.blogspot.com

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