बुद्धवचन की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं के परिणाम-स्वरूप बुद्ध का संघ स्थिरवाद(थेरवाद) और महासांघिक वर्गों में विभाजित हो गया था। बाद में स्थविरवाद को हीनयान और महासांघिक एवं उसकी उप शाखाओं को महायान नाम से पुकारा जाने लगा था। हीनयान(स्थविरवाद) बुद्ध को अलौकिक(अवलौकिक) नहीं मानता, लेकिन महायान शाक्य-मुनि को अलौकिक और लोकोत्तर मानता है। महायानी मानते हैं कि बुद्ध इस लोक में नहीं आए थे और न ही उन्होंने उपदेश दिया था। जिस बुद्ध ने उपदेश दिया था, वह केवल बुद्ध द्वारा निर्मित एक रूप था। उनके अनुसार बुद्ध का संसार में आना और धर्मोपदेश करना मात्र एक माया थी। बुद्ध लोक में पिता और स्वयंभू हैं और सदा से गृह्कूट पर्वत पर निवास करते हैं। लेकिन हीनयान की मान्यता है कि पारमिताओं को पूर्ण कर बुद्ध इस जगत में जन्म लेते हैं, उपदेश देते हैं और महापरिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं। वह सदा जीवित रहने वाले नहीं हैं। उनका महापरिनिर्वाण हो जाने पर वह कहाँ जाते हैं, इसका कोई पता नहीं है(डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक, पृ 294)।
थेरवादी(हीनयानी) विचारधारा ने क्रमश: दो दार्शनिक सिद्धांतों; वैभाषिक(बाह्यवाद) एवं सौत्रान्तिक (बाह्यतरवाद) को जन्म दिया। इसी प्रकार महायान में दो दार्शनिक सिद्धांत; योगाचार(विज्ञानवाद) और माध्यामिक(शून्यवाद) विकसित हुए। इन दार्शनिक सिद्धांतों ने भारतीय दर्शन को विकास की चरम सीमा तक पहुंचा दिया। अफगानिस्तान के महान दार्शनिक असंग और वसुबन्धु दोनों भाइयों ने बौद्ध दर्शन के क्षेत्र में अक्षुण्य सेवा की। आचार्य नागार्जुन के द्वारा प्रतिपादित शून्यता के सिद्धांत(शून्यवाद) ने बौद्ध दर्शन को सर्वोच्च स्थान पर पहुंचा दिया और उसकी श्रेष्ठता और उच्चता से बौद्ध दर्शन ही नहीं, बल्कि शंकराचार्य जैसे हिन्दू दार्शनिक प्रभावित रहे बिना नहीं रह सके। शंकराचार्य ने अपने अद्वेत वेदांत की आधारशिला शून्यता के सिद्धांत (शून्यवाद) पर रखी। शंकराचार्य के गुरु गोविन्दाचार्य थे। गोविन्दाचार्य के गुरु गौडपादाचार्य के प्रसिद्द ग्रन्थ मांडूक्यकारिका पर नागार्जुन के माध्यमिककारिका का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। इस ग्रन्थ का प्रभाव शंकर पर भी पड़ा। इसलिए आज भी विश्व के अनेक दार्शनिक शंकराचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध कह कर पुकारते हैं(वही, पृ 294 -295)।
हीनयान अर्थात स्थविरवाद ने शील, सदाचार और वैयक्तिक निर्वाण पर अत्यधिक बल दिया था। उसके बुद्ध के दर्शन और शिक्षाओं को यथाशक्ति मूल रूप में रखने का प्रयास किया था। उधर, महायान ने भी हीनयान(थेरवाद) के शील-सदाचार, भिक्खु-चर्या को बहुत कुछ स्वीकार कर लिया था। यथार्थ में महायानी भिक्खु भी उन्हीं विनय-नियमों को मानते थे, जिन्हें हिनयानी भिक्खु भी मानते थे। इन दोनों में अंतर केवल इतना था कि महायानी आदर्श और साध्य में हीनयान के वैयक्तिक निर्वाण को हीन, स्वार्थपूर्ण मानते थे और वैयक्तिक मुक्ति के स्थान पर प्राणी-मात्र को दुक्ख से मुक्त करने के लिए अपने अनंत जन्मों का उत्सर्ग करना एकमात्र जीवन का परम एवं सर्वोच्च साध्य मानते थे। बौद्ध-धर्म के क्षणिक और अनात्मवादी दर्शन को और आगे बढ़ाते हुए महायानी भिक्खुओं ने नागार्जुन के माध्यमिक और शून्यवाद-दर्शन एवं असंग के योगाचार अथवा विज्ञानवादी दर्शन को शिखर तक पहुंचाया (डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक : पृ 446)।
थेरवादी(हीनयानी) विचारधारा ने क्रमश: दो दार्शनिक सिद्धांतों; वैभाषिक(बाह्यवाद) एवं सौत्रान्तिक (बाह्यतरवाद) को जन्म दिया। इसी प्रकार महायान में दो दार्शनिक सिद्धांत; योगाचार(विज्ञानवाद) और माध्यामिक(शून्यवाद) विकसित हुए। इन दार्शनिक सिद्धांतों ने भारतीय दर्शन को विकास की चरम सीमा तक पहुंचा दिया। अफगानिस्तान के महान दार्शनिक असंग और वसुबन्धु दोनों भाइयों ने बौद्ध दर्शन के क्षेत्र में अक्षुण्य सेवा की। आचार्य नागार्जुन के द्वारा प्रतिपादित शून्यता के सिद्धांत(शून्यवाद) ने बौद्ध दर्शन को सर्वोच्च स्थान पर पहुंचा दिया और उसकी श्रेष्ठता और उच्चता से बौद्ध दर्शन ही नहीं, बल्कि शंकराचार्य जैसे हिन्दू दार्शनिक प्रभावित रहे बिना नहीं रह सके। शंकराचार्य ने अपने अद्वेत वेदांत की आधारशिला शून्यता के सिद्धांत (शून्यवाद) पर रखी। शंकराचार्य के गुरु गोविन्दाचार्य थे। गोविन्दाचार्य के गुरु गौडपादाचार्य के प्रसिद्द ग्रन्थ मांडूक्यकारिका पर नागार्जुन के माध्यमिककारिका का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। इस ग्रन्थ का प्रभाव शंकर पर भी पड़ा। इसलिए आज भी विश्व के अनेक दार्शनिक शंकराचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध कह कर पुकारते हैं(वही, पृ 294 -295)।
हीनयान अर्थात स्थविरवाद ने शील, सदाचार और वैयक्तिक निर्वाण पर अत्यधिक बल दिया था। उसके बुद्ध के दर्शन और शिक्षाओं को यथाशक्ति मूल रूप में रखने का प्रयास किया था। उधर, महायान ने भी हीनयान(थेरवाद) के शील-सदाचार, भिक्खु-चर्या को बहुत कुछ स्वीकार कर लिया था। यथार्थ में महायानी भिक्खु भी उन्हीं विनय-नियमों को मानते थे, जिन्हें हिनयानी भिक्खु भी मानते थे। इन दोनों में अंतर केवल इतना था कि महायानी आदर्श और साध्य में हीनयान के वैयक्तिक निर्वाण को हीन, स्वार्थपूर्ण मानते थे और वैयक्तिक मुक्ति के स्थान पर प्राणी-मात्र को दुक्ख से मुक्त करने के लिए अपने अनंत जन्मों का उत्सर्ग करना एकमात्र जीवन का परम एवं सर्वोच्च साध्य मानते थे। बौद्ध-धर्म के क्षणिक और अनात्मवादी दर्शन को और आगे बढ़ाते हुए महायानी भिक्खुओं ने नागार्जुन के माध्यमिक और शून्यवाद-दर्शन एवं असंग के योगाचार अथवा विज्ञानवादी दर्शन को शिखर तक पहुंचाया (डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक : पृ 446)।
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