Monday, November 5, 2018

पुरुष

पुरुष
का लिखना
नारी पर
कुछ वैसे ही है, जैसे
किसी सवर्ण उच्च
जात्याभिमानी का
किसी अन्त्यज/अस्पृश्य की
जीवनी लिखना
या किसी
मिल-मालिक द्वारा
मजदूरों का नेतृत्व करना।

सहानुभूति-जन्य
अनुभूति
अलग है, और
भोगा हुआ सच
अलग

बेटा
जनने की पीड़ा
न बेटा जान सकता है
न बाप
वह तो माँ ही जानती है
कि बेटा हो या बेटी
पीड़ा
एक ही होती है
हाँ, फर्क है तो इतना
कि बेटा 'नर' होता है
और बेटी 'मादा'

पुरुष
का लेखन
मन बहलाने का साधन
भला,
संघर्ष की प्रेरणा
वह नारी को
क्यों देने लगा ?
जिसे 'पैर की जूती'
समझते आया
उसकी मुक्ति के लिए
वह क्यों लिखने लगा ?

पुरुष,
दम्भी और स्वार्थी
कभी उसकी
निस्वार्थ सेवा को
'नारी मर्यादा' की संज्ञा देता है
तो कभी भ्रूण-हत्या को
उसकी 'मुक्ति' बतलाता है
यह पुरुष ही है
जो अपनी चिता के साथ
उसे जिन्दा जलने
विवश करता है
और इस बेहयाई को
'सती' बतला
महिमामंडित करता है।

पुरुष लिखता है
खूब लिखता है
मगर, तब तक
जब तक
उसके दंभ और स्वार्थ को
'खतरा' नहीं होता
जब और जिस क्षण
वह 'खतरा' देखता है
तो सगी माँ को
'औरत की जात' कहने
नहीं हिचकता।
-अ ला उके   @amritlalukey.blogspot.com   Mob. 9630 826117
  

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