बुद्ध हमारे आराध्य है। हमारे इष्ट है, हमारे भगवान है। हम उनको नमन करते हैं, वंदना करते हैं। हम उन्हें पूजते हैं। मगर, हमारी यह आराधना और पूजा बुद्ध को वैसा 'देवत्व' प्रदान नहीं करती जैसे गैर-बुद्धिस्ट धर्म करते हैं। हम बुद्ध को भगवान तो मानते हैं किन्तु हमारा यह भगवान, हमें कुछ देता नहीं अथवा देने की ग्यारंटी नहीं देता जैसे अन्य भगवान अथवा अल्लाह/पैगम्बर देने का दावा करते हैं और भक्त तत्सम्बंध में आशा रखते हैं । बुद्ध न हमें देता है और न ही हम उनसे ऐसी अपेक्षा करते हैं। बुद्ध कहते हैं, मैं सिर्फ मार्ग-दाता हूँ। रास्ता दिखाने वाला हूँ। चलना तो आपको है।
हमने बुद्ध की मूर्तियाँ अपने घर अथवा बुद्ध विहारों में स्थापित किया है। हम बुद्ध की वन्दना मोमबत्ती, अगरबत्ती, पुष्पादि से करते भी हैं। मगर, फिर वही, हमारी तत्सम्बंध में कामना कुछ पाने की नहीं वरन उनके उपदेशों का अनुकरण करने की होती है। गैर बुद्धिस्ट अपने आराध्य/इष्ट के सामने नत-मस्तक हो कुछ याचना करते हैं। किन्तु एक बुद्धिस्ट 'याचक' नहीं होता, 'उपासक' होता है। वह धम्म का उपासक होता है। वह संघ का उपासक होता है। वह सीलों का उपासक होता है। वह पारमिताओं का उपासक हो सकता है।
अन्य धर्मीय देवता/भगवान, अल्लाह, पैगम्बरों की तर्ज पर बुद्ध को अलौकिक और लोकोत्तर मानने की सोच महायानी सोच है। यह सोच अशोक काल और उसके बाद में बुद्धिज्म के अन्दर ब्राह्मणवादी ने पैदा की। अशोक के द्वारा धम्म को राज्य की ओर से आर्थिक मदद किए जाने से कई ब्राह्मण, जो बौद्ध धर्म को फूटी आँखों देखना पसंद नहीं करते थे, बौद्ध धर्म में प्रवेश पा गए। यह ब्राह्मण मानसिकता कालांतर में बौद्ध धर्म के लिए बड़ी घातक साबित हुई । इस ब्राह्मणी सोच ने वे सारी चीजें बौद्ध में डाल दी जिसका बुद्ध, आजीवन विरोध करते रहे और जो ब्राह्मण ग्रंथों की बुनियाद हैं।
में उनका वर्गीय स्वार्थ उन्हें बौद्ध दर्शन को उत्पन्न महायानी चिंतन-धारा ने बुद्ध के मानवीय रूप और उनके बहुजन-कल्याण की धम्म देशना का अथाह नुकसान किया, जैसे की बाबा साहब डॉ अम्बेडकर ने अपनी अमर कृति 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' में कहा है. निस्संदेह, हमें बुद्ध की वंदना आँख बंद कर नहीं, वरन आँख खोल कर करना है. ति-पिटक ग्रंथों को पूजना नहीं, पढ़ना/अध्ययन करना है.
सनद रहे, आँख बंद कर पद्मासन में बैठने वाली बुद्ध की मूर्ति महायानी चिंतन-धारा है. बाबासाहब डॉ अम्बेडकर, बुद्ध की मूर्ति खड़े / चारिका करते हुए पसंद करते थे. क्योंकि इस में गति है. गति, धम्म का केंद्र है. रूकावट का विरोध है. परिवर्तन की चाह है.
हमने बुद्ध की मूर्तियाँ अपने घर अथवा बुद्ध विहारों में स्थापित किया है। हम बुद्ध की वन्दना मोमबत्ती, अगरबत्ती, पुष्पादि से करते भी हैं। मगर, फिर वही, हमारी तत्सम्बंध में कामना कुछ पाने की नहीं वरन उनके उपदेशों का अनुकरण करने की होती है। गैर बुद्धिस्ट अपने आराध्य/इष्ट के सामने नत-मस्तक हो कुछ याचना करते हैं। किन्तु एक बुद्धिस्ट 'याचक' नहीं होता, 'उपासक' होता है। वह धम्म का उपासक होता है। वह संघ का उपासक होता है। वह सीलों का उपासक होता है। वह पारमिताओं का उपासक हो सकता है।
अन्य धर्मीय देवता/भगवान, अल्लाह, पैगम्बरों की तर्ज पर बुद्ध को अलौकिक और लोकोत्तर मानने की सोच महायानी सोच है। यह सोच अशोक काल और उसके बाद में बुद्धिज्म के अन्दर ब्राह्मणवादी ने पैदा की। अशोक के द्वारा धम्म को राज्य की ओर से आर्थिक मदद किए जाने से कई ब्राह्मण, जो बौद्ध धर्म को फूटी आँखों देखना पसंद नहीं करते थे, बौद्ध धर्म में प्रवेश पा गए। यह ब्राह्मण मानसिकता कालांतर में बौद्ध धर्म के लिए बड़ी घातक साबित हुई । इस ब्राह्मणी सोच ने वे सारी चीजें बौद्ध में डाल दी जिसका बुद्ध, आजीवन विरोध करते रहे और जो ब्राह्मण ग्रंथों की बुनियाद हैं।
में उनका वर्गीय स्वार्थ उन्हें बौद्ध दर्शन को उत्पन्न महायानी चिंतन-धारा ने बुद्ध के मानवीय रूप और उनके बहुजन-कल्याण की धम्म देशना का अथाह नुकसान किया, जैसे की बाबा साहब डॉ अम्बेडकर ने अपनी अमर कृति 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' में कहा है. निस्संदेह, हमें बुद्ध की वंदना आँख बंद कर नहीं, वरन आँख खोल कर करना है. ति-पिटक ग्रंथों को पूजना नहीं, पढ़ना/अध्ययन करना है.
सनद रहे, आँख बंद कर पद्मासन में बैठने वाली बुद्ध की मूर्ति महायानी चिंतन-धारा है. बाबासाहब डॉ अम्बेडकर, बुद्ध की मूर्ति खड़े / चारिका करते हुए पसंद करते थे. क्योंकि इस में गति है. गति, धम्म का केंद्र है. रूकावट का विरोध है. परिवर्तन की चाह है.
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