प्रतीत्य समुत्पाद
‘‘भन्ते नागसेन, यो उप्पज्जति
‘‘भन्ते! नागसेन, जो उत्पन्न होता है-
सो एव सो, उदाहु अञ्ञो?’’ राजा मिलिंदो आह।
वह वही है या दूसरा?’’ राजा मिलिंद ने कहा।
‘‘न च सो, न च अञ्ञो ।’’
‘‘न वही और न दूसरा ही ।’’ -नागसेन ने समाधान किया।
‘‘ओपम्मं करोहि।’’
‘‘उपमा दीजिए।’’
‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज
‘‘आप क्या सोचते हैं, महाराज,
यदा त्वं उत्तानसेय्यको
जब आप चित लेटे बच्चे,
तरुणो, दहरो अहोसि,
तरुण, प्रौढ़ हुआ करते हैं ;
सो येव त्वं, एतरहि महन्तो?’’
सो क्या आप, अब भी इतने बड़े होकर वही हैं ?’’
‘‘न हि भन्ते, एतरहि अहं अञ्ञो।’’
नहीं भंते, अब मैं दूसरा हूँ ।’’
‘‘एवं सन्ते खो, महाराज,
यदि ऐसा है, महाराज
माता-पिता अपि च अञ्ञो भविस्सति।
तो माता-पिता भी अन्य हो जाएंगे।
किं नु खो महाराज
क्या महाराज
अञ्ञा एव कललस्स माता, अञ्ञा महन्तस्स माता,
‘‘गर्भ अवस्था में माता अन्य, बड़े होने पर अन्य होगी,
अञ्ञो सिप्पं सिक्खति, अञ्ञो सिक्खितो भवति,
अन्य शिल्प सिखाता है, अन्य शिक्षित बनता है,
अञ्ञो पापकम्मं करोति, अञ्ञस्स हत्थपादा छिज्जन्ति!’’
अन्य पाप-कर्म करता है, अन्य के हाथ-पैर काटे जाते हैं!’’
‘‘न हि भंते !
ऐसा नहीं है, भंते !
त्वं पन एवं वुत्ते किं वदेय्यासि।’’
‘‘किन्तु आप, ऐसा कह क्या बताना चाहते हैं?’’
महाराज, उत्तानसेय्यको, दहरो, तरुणो च महन्तो
‘‘महाराज! बच्चा, यूवक, तरुण और प्रोढ़
इमं एव कायं निस्साय
इसी काया में ही होने से
सब्बे ते एक संगहिता।’’
सभी एक ही होते हैं। -थेरो ने कहा।
‘‘भिय्यो ओपम्मं करोहि।’’
"और भी उपमा दीजिए। "
‘‘यथा महाराज, कोचि पुरिसो पदीपं पदीपेय्य।
‘‘जैसे महाराज, कोई पुरुष दीपक जलाए।
किं सो सब्ब रत्तिं पदीपेय्य?’
’क्या वह सारी रात जलेगा ?’’
‘‘आम भन्ते, सब्ब रत्तिं पदीपेय्य।’’
"हाँ, भंते, सारी रात जलेगा ।"
‘‘किं नु खो महाराज, या पुरिमे यामे अच्चि,
‘‘किन्तु क्या महाराज, जो पूर्व याम में लौ थी,
सा मज्झिमे यामे अच्चि?"
’मध्य याम में वही लौ है?"
‘‘न हि भन्ते।’’
"या मज्झिमे यामे अच्चि, सा पच्छिमे यामे अच्चि ?’’
‘‘न हि भन्ते।’’
‘‘भिय्यो ओपम्मं करोहि।’’
‘‘यथा महाराज, खीरं दुहमानं
कालन्तरेन दधि परिवत्तेय,
दधितो नवनीतं।
नवनीततो धतं परिवत्तेय।
यो नु खो महाराज,
एवं वदेय्य- यं येव खीरं, ते येव दधि ?
यं येव दधि, तं येव नवनीतं ?
यं येव नवनीते, तं येव धतं ?
सम्मा नु खो सो, महाराज, वदमानो वदेय्य ?’’
‘‘न हि भन्ते, तं येव निस्साय सम्भूतं।’’
‘‘एवमेव खो महाराज, धम्म सन्तति सन्दहति,
अञ्ञो उप्पज्जति, अञ्ञो निरुज्झति।
अपुब्बं अचरिमं विय सन्दहति,
तेन न च सो, न च अञ्ञो।
पुरिम विञ्ञाणे पच्छिम विञ्ञाणं संगहं गच्छति।’’
(स्रोत- धम्मसन्तति पन्हो: अध्दान वग्गो: पन्नरसमो : मिलिंद पण्ह)
-अ ला ऊके @amritlalukey.blogspot.com
‘‘भन्ते नागसेन, यो उप्पज्जति
‘‘भन्ते! नागसेन, जो उत्पन्न होता है-
सो एव सो, उदाहु अञ्ञो?’’ राजा मिलिंदो आह।
वह वही है या दूसरा?’’ राजा मिलिंद ने कहा।
‘‘न च सो, न च अञ्ञो ।’’
‘‘न वही और न दूसरा ही ।’’ -नागसेन ने समाधान किया।
‘‘ओपम्मं करोहि।’’
‘‘उपमा दीजिए।’’
‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज
‘‘आप क्या सोचते हैं, महाराज,
यदा त्वं उत्तानसेय्यको
जब आप चित लेटे बच्चे,
तरुणो, दहरो अहोसि,
तरुण, प्रौढ़ हुआ करते हैं ;
सो येव त्वं, एतरहि महन्तो?’’
सो क्या आप, अब भी इतने बड़े होकर वही हैं ?’’
‘‘न हि भन्ते, एतरहि अहं अञ्ञो।’’
नहीं भंते, अब मैं दूसरा हूँ ।’’
‘‘एवं सन्ते खो, महाराज,
यदि ऐसा है, महाराज
माता-पिता अपि च अञ्ञो भविस्सति।
तो माता-पिता भी अन्य हो जाएंगे।
किं नु खो महाराज
क्या महाराज
अञ्ञा एव कललस्स माता, अञ्ञा महन्तस्स माता,
‘‘गर्भ अवस्था में माता अन्य, बड़े होने पर अन्य होगी,
अञ्ञो सिप्पं सिक्खति, अञ्ञो सिक्खितो भवति,
अन्य शिल्प सिखाता है, अन्य शिक्षित बनता है,
अञ्ञो पापकम्मं करोति, अञ्ञस्स हत्थपादा छिज्जन्ति!’’
अन्य पाप-कर्म करता है, अन्य के हाथ-पैर काटे जाते हैं!’’
‘‘न हि भंते !
ऐसा नहीं है, भंते !
त्वं पन एवं वुत्ते किं वदेय्यासि।’’
‘‘किन्तु आप, ऐसा कह क्या बताना चाहते हैं?’’
महाराज, उत्तानसेय्यको, दहरो, तरुणो च महन्तो
‘‘महाराज! बच्चा, यूवक, तरुण और प्रोढ़
इमं एव कायं निस्साय
इसी काया में ही होने से
सब्बे ते एक संगहिता।’’
सभी एक ही होते हैं। -थेरो ने कहा।
‘‘भिय्यो ओपम्मं करोहि।’’
"और भी उपमा दीजिए। "
‘‘यथा महाराज, कोचि पुरिसो पदीपं पदीपेय्य।
‘‘जैसे महाराज, कोई पुरुष दीपक जलाए।
किं सो सब्ब रत्तिं पदीपेय्य?’
’क्या वह सारी रात जलेगा ?’’
‘‘आम भन्ते, सब्ब रत्तिं पदीपेय्य।’’
"हाँ, भंते, सारी रात जलेगा ।"
‘‘किं नु खो महाराज, या पुरिमे यामे अच्चि,
‘‘किन्तु क्या महाराज, जो पूर्व याम में लौ थी,
सा मज्झिमे यामे अच्चि?"
’मध्य याम में वही लौ है?"
‘‘न हि भन्ते।’’
"या मज्झिमे यामे अच्चि, सा पच्छिमे यामे अच्चि ?’’
‘‘न हि भन्ते।’’
‘‘भिय्यो ओपम्मं करोहि।’’
‘‘यथा महाराज, खीरं दुहमानं
कालन्तरेन दधि परिवत्तेय,
दधितो नवनीतं।
नवनीततो धतं परिवत्तेय।
यो नु खो महाराज,
एवं वदेय्य- यं येव खीरं, ते येव दधि ?
यं येव दधि, तं येव नवनीतं ?
यं येव नवनीते, तं येव धतं ?
सम्मा नु खो सो, महाराज, वदमानो वदेय्य ?’’
‘‘न हि भन्ते, तं येव निस्साय सम्भूतं।’’
‘‘एवमेव खो महाराज, धम्म सन्तति सन्दहति,
अञ्ञो उप्पज्जति, अञ्ञो निरुज्झति।
अपुब्बं अचरिमं विय सन्दहति,
तेन न च सो, न च अञ्ञो।
पुरिम विञ्ञाणे पच्छिम विञ्ञाणं संगहं गच्छति।’’
(स्रोत- धम्मसन्तति पन्हो: अध्दान वग्गो: पन्नरसमो : मिलिंद पण्ह)
-अ ला ऊके @amritlalukey.blogspot.com
No comments:
Post a Comment