Thursday, November 8, 2018

'दीपदानोत्सव' या बौद्धों का 'हिन्दुकरण'

'दीपदानोत्सव' या बौद्धों का 'हिन्दुकरण'
भारत में, अल्पसंख्यक समुदाय यथा मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, इनके हिन्दुकरण के प्रयास होते रहे हैं।  बहुसंख्यक हिन्दू हमेशा उनकी संख्या पर 'चैक' रखते हैं। हिन्दुओं को यह भय दो कारणों से रहता है - प्रथम कि उनका बहु-संख्यक के तौर पर दबदबा कम न हो जाए और दूसरे, अपनी संख्या-बल पर वे हमारी इच्छा के विरुद्ध कोई कानून न पास कर लें। 

हिन्दू, अल्पसंख्यकों पर तो ठीक है, दलित-आदिवासियों पर भी यह 'चैक' रखते हैं और इसके लिए वे विभिन्न स्लम एरिया में दीपावली, दशहरा, गणेशोत्सव और आदिवासी बहुल क्षेत्रों में उन्हें  'मुख्य धारा में लाने/जोड़ने के नाम पर 'बनवासी बाल आश्रम' आदि कई तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ चलाते हैं।

दलित आदिवासी तो ठीक है, किन्तु इसका क्या किया जाए कि धर्मान्तरित बौद्ध, जो खुद को बाबासाहब डॉ अम्बेडकर का अनुयायी बतलाते हैं, हिन्दू-मठाधीशों की इस चाल में बड़ी जल्दी आ जाते हैं। इस में विपस्सना केन्द्रों की भूमिका अहम हैं। इन केन्द्रों के संचालक/विपस्सनाचारयों ने, जो अम्बेडकर के अनुयायी नहीं हैं, विपस्सना को बुद्ध से जोड़ कर धर्मान्तरित बौद्धों के ह्रदय में गहरी पैठ बना ली है। अम्बेडकर के अनुयायी भी इन विपस्सना केन्द्रों की वैभवता देख घंटों और महीनों आँखें मूंदे पड़े रहते हैं। 

हिन्दू मठाधीश, दलित-आदिवासियों का हिन्दुकरण करने नए-नए प्रयोग करते हैं। इन प्रयोगों में सामाजिक-सास्कृतिक प्रयोग बड़े कारगर साबित होते हैं। राष्ट्र और राष्ट्रीय-अस्मिता के नाम से चलाये गए कार्य-क्रम बड़ी जल्दी परिणाम दिखाते हैं, वही विरोधियों को कुचलने में भी आसानी होती है। दीपावली, दशहरा, गणेशोत्सव आदि इस तरह की सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ हैं। लोकमान्य तिलक द्वारा महाराष्ट्र में शुरू किया 'गणेशोत्सव' हमारे सामने है। अभी कुछ वर्षों पूर्व तक म प्र के आदिवासी बहुल क्षेत्र बस्तर में दशहरा के समय रावण के पुतले की पूजा होती थी।  किन्तु इधर,  पिछले दो-तीन वर्षों से आरएसएस ने वहां रावण का पुतला जला सेंधमारी कर, आदिवासियों को दो हिस्सों में बाँट दिया है !

बौद्ध तो ठीक है, इधर धर्मान्तरित बौद्धों में भी यह हिन्दू संस्कृतिकरण तेजी से हो रहा है। दीपावली, हिन्दुओं का त्यौहार है। पाठ्य-पुस्तकों में अभी तक यही पढ़ाया जाता है। इधर, कुछ हमारे धम्म-बन्धु  महावंस, असोकवदान आदि कुछ संस्कृत बौद्ध-ग्रंथों का हवाला देकर दीपावली को 'दीपदानोत्सव' के नाम से बौद्धों का त्यौहार बतला रहे हैं ! निस्संदेह, इससे हमारे उन बच्चों के दिमाग में तो भ्रम फैलेगा जो अब तक इसे हिन्दुओं का त्यौहार पढ़ते रहे हैं ?

'देव भाषा' संस्कृत में लिखे बौद्ध-ग्रन्थ-
संस्कृत भाषा में प्राप्त होने वाला यह साहित्य मूलत: महायानी साहित्य कहलाता है। थेरवादी परम्परा से मतभेद के परिणाम स्वरूप सम्राट अशोक के शासन काल के पश्चात इस महायानी साहित्य परम्परा का आविर्भाव हुआ। इस परम्परा ने संस्कृत को अपनी साहित्य की भाषा के रूप में स्वीकारा। संस्कृत बौद्ध ग्रन्थ थेरवाद से महायान के संक्रमण काल के दौरान रचे गए थे। इस काल में ब्राह्मण बौद्ध विद्वानों ने 'पालि भाषा' का परित्याग करते हुए संस्कृत भाषा में अपना साहित्य लिखना शुरू किया ।

जातक कथा
बौद्ध साहित्य में जातक कथा साहित्य विशेष उल्लेखनीय है। ये जातक बोधिसत्वों के पुनर्जन्मों की कथाएं हैं।  इन में बोधिसत्व नायक के रूप में रहते हैं। यद्यपि ये जातक कथाएं मनुष्य को श्रेष्ठ आचरण जीवन जीने के लिए आदर्श के रूप में स्थापित की गई हैं किन्तु इस प्रक्रिया में उन में जबरदस्त ब्राह्मणवाद प्रवेश कर गया है।

अवदान साहित्य-
दिव्यादान आदि 'अवदान' साहित्य यद्यपि बौद्ध धर्म और अशोक काल के इतिहास के ये मान्य स्रोत ग्रन्थ हैं, तथापि इसी आधार पर इन में वर्णित सारी बातें इतिहास नहीं हैं। कुणालावदान में अशोक के पूर्व जन्म की कथा भी वर्णित है। महावंश हो या अवदान साहित्य, अगर इन में कही गई सब की सब बातें सही है तो वेद- उपनिषदों और पुराणों में ऋषि-मुनियों के द्वारा कही गई बातें किस तरह गलत है ?

सम्राट अशोक की जीवन चर्या एवं महान कार्यों का प्रामाणिक विवरण 'दीव्यादान' नामक संस्कृत ग्रंथ में उपलब्ध है। दिव्यादान में कुणालावदान,  वीतसोकावदान, अशोकावदान आदि  38 अवदान हैं। बौद्ध धर्म की महायान शाखा में सर्वास्तिवादी साहित्य, दिव्यादान का विशेष महत्त्व है। यह सही है कि ऐतिहासिक, साहित्यिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यंत महत्त्व पूर्ण तथा उपयोगी हैं। बौद्धकालीन इतिहास और संस्कृति का विवरण हमें इन्हीं से प्राप्त होता है।

महावंस
यह ठीक है कि पालि वांग्मय में, ति-पिटक और उसकी अट्टह-कथाओं के बाद इतिहास वर्णन की दृष्टि से 'दीपवंस' एवं 'महावंस' ग्रंथों का अपना एक विशष्ट स्थान है।  इन दोनों ही ग्रंथों में बुद्ध काल से 4 थी शताब्दी तक सिंहल द्वीप के बौद्ध राजाओं का तथा प्रसंग-वश तत्कालीन भारतीय राजाओं का, तत्कालीन बौद्ध स्थविरों का एवं महाविहारों का तथा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का प्रमाणिक विवरण दर्ज है। किन्तु  डॉ भदंत आनंद कोसल्यायान के अनुसार, महावंस में जो कुछ लिखा है, वह सारा का सारा तो किसी हालत में मानने योग्य नही है, छलनी से छान कर ही ग्रहण करने योग्य है(भूमिका: महावंस)।

महावंस में अतिशयोक्ति-
महावंसकार ने अपनी इस रचना में पहले ही परिच्छेद में भगवान बुद्ध का लंका द्वीप में तीन बार आगमन दिखाया है। पहला यक्ष दमन हेतु, दूसरा नाग दमन हेतु और तीसरा कल्याणी नदी पर नागों पर कृपा करने हेतु।  जबकि सम्पूर्ण ति-पिटक में इन तीनों यात्राओं का कहीं संकेत नहीं है।  इन्हीं इतिहास ग्रंथों के आधार पर सिंहल द्वीप वासी जनता वहां के सामंत कूट पर्वत पर अंकित चरण-चिन्हों को भगवान बुद्ध का मानती है। इसी तरह सम्राट असोक के राज्य-रोहण के बाद उसके प्रसाद में देवताओं द्वारा प्रतिदिन खाद्य-सामग्री, पेय, लेह्य, चोष्य सामग्री पहुँचाने का वर्णन है(वही)।
अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com 

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