आचार्य सरहपा
बौद्ध धर्म में सहस्त्रों दार्शनिक हुए हैं , जिनकी गिनती करना कठिन है। इन दार्शनिकों का आरंभ थेरवादी भिक्खु नागसेन से माना जा सकता है। इस कड़ी में आठवी शताब्दी में हुए बौद्धाचार्य सरहपा भारत के इतिहास की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है(डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक पृ 445)।
इस महान कवि, संत, सिद्ध, विचारक एवं दार्शनिक के प्रादुर्भाव से एक नए यूग की सूचना मिलती है। इससे एक शताब्दी पूर्व वसुबन्धु, दिनांग और धर्मकीर्ति जैसे महायानी दार्शनिक हो चुके थे और बौद्ध धर्म हीनयान और महायान की चरम सीमा पर पहुँच चुका था। और, अब इसे मंत्रयान, वज्रयान और सहजयान की उंचाईयां छूना था। आचार्य सरहपा इसके प्रणेता थे(वही)।
आचार्य सरहपा सहज जीवन के पक्ष धर थे। वे भक्ष्य-अभक्ष्य, गम्य-अगम्य की पुरानी धारणाओं और प्रत्ययों पर सीधी चोट करते थे। बुद्ध के समय की पालि भाषा अब विस्मृत हो चली थी। अब बौद्ध विद्वान और भिक्खु पालि के स्थान पर 'पालि- मिश्रित संस्कृत' में बौद्ध-ग्रन्थ लिखने लगे थे। सरहपा ने भी 'पालि-संस्कृत' को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया(वही)।
सरहपा के समय एक नवीन धार्मिक प्रवाह को हम प्रवाहित होते देखते हैं जो आज भी संत-परम्परा के रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित है। इस परम्परा में गुरु का वचन सर्वोपरि माना जाता है। सनद रहे, तिब्बती परम्परा में ला-मा का अर्थ गुरु होता है और यही वजह है कि तिब्बत में 'बुद्धं सरणं गच्छामि' ति-सरण के स्थान में इसके पूर्व 'गुरुं सरणं गच्छामि' कह चतु-सरण का अनुशरण किया जाता हैं। तिब्बती सरहपा की शिक्षाओं को बुद्ध से अधिक मान्यता देते हैं(वही, पृ 447 )।
सरहपा के जीवन के बारे में जानकारी हमें तिब्बती ग्रंथों से प्राप्त होती हैं। प्रतीत होता है सरहपा का पूर्व नाम राहुल भद्र अथवा सरोरुह था। उन्होंने नालंदा में विद्या-अध्ययन किया था। वे नालंदा में 'महापंडित' के रूप में प्रसिद्धि पा चुके थे। नालंदा में रहते हुए उनके एक अध्यापक हरिभद्र थे। हरिभद्र, धर्मकीर्ति के समान शांत रक्खित के शिष्य थे। हरिभद्र राजा धर्मपाल (770 -815 ई. ) के समकालीन थे(वही, पृ. 447 -450 )।
सरहपा ने अनेक ग्रंथों की रचना की। उन्होंने अनेक संस्कृत ग्रन्थ, विशेषकर तंत्रों की टिकाएं एवं व्याख्याएं लिखी जो तिब्बती टी-पिटक 'कंजूर' में मिलती हैं। सरहपा की उल्लेखनीय कृतियां 'दोहाकोश', गाथा-कोश(सप्तकोश) अतिप्रसिद्ध है(वही, पृ 451-452 )।
सरहपा परिवर्तनवादी क्रान्तिकारी विचारों के सन्देश-वाहक थे। यह सन्देश उनके दोहों में सीधे जनता तक पहुंचता है। शास्त्रों को सरहपा ने रेगिस्तान कह कर सम्बोधित किया है जिनकी भूल-भुलैया से आदमी कभी निकल नहीं सकता। सरहपा के युग में जातिभेद-भाव और छुआछूत खूब था। उन्होंने इसके लिए ब्राह्मण पंडितों की खूब धुलाई की। गेरुआ वस्त्र पहने पाखंडी साधुओं को उन्होंने खूब खरी-खोटी सुनाई(वही, पृ 453-457 )।
सरहपा सहजयान के आचार्य थे। उनके पंथ को सहजयान के नाम से जाना जाता है। सरहपा की भारत को यह सबसे बड़ी देन थी। वह पहले दार्शनिक थे जिन्होंने सहज या नैसर्गिक जीवन पर बल प्रदान किया। आज भारत में अनेक ऐसे पंथ प्रचलित हैं जो इस तारतम्य में बौद्धाचार्य सरहपा के ऋणी हैं। आगे चलकर कबीर ने भी इसी की वकालत की। आज ये विचार विद्रोही और अत्यधिक क्रांतिकारी लगते हैं किन्तु उस ज़माने में सरहपा ने जिस हौसले और बुलंदी से ये बातें कहीं, निस्संदेह आसान नहीं रही होगी(वही, पृ 458 -459 )।
बौद्ध धर्म में सहस्त्रों दार्शनिक हुए हैं , जिनकी गिनती करना कठिन है। इन दार्शनिकों का आरंभ थेरवादी भिक्खु नागसेन से माना जा सकता है। इस कड़ी में आठवी शताब्दी में हुए बौद्धाचार्य सरहपा भारत के इतिहास की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है(डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक पृ 445)।
इस महान कवि, संत, सिद्ध, विचारक एवं दार्शनिक के प्रादुर्भाव से एक नए यूग की सूचना मिलती है। इससे एक शताब्दी पूर्व वसुबन्धु, दिनांग और धर्मकीर्ति जैसे महायानी दार्शनिक हो चुके थे और बौद्ध धर्म हीनयान और महायान की चरम सीमा पर पहुँच चुका था। और, अब इसे मंत्रयान, वज्रयान और सहजयान की उंचाईयां छूना था। आचार्य सरहपा इसके प्रणेता थे(वही)।
आचार्य सरहपा सहज जीवन के पक्ष धर थे। वे भक्ष्य-अभक्ष्य, गम्य-अगम्य की पुरानी धारणाओं और प्रत्ययों पर सीधी चोट करते थे। बुद्ध के समय की पालि भाषा अब विस्मृत हो चली थी। अब बौद्ध विद्वान और भिक्खु पालि के स्थान पर 'पालि- मिश्रित संस्कृत' में बौद्ध-ग्रन्थ लिखने लगे थे। सरहपा ने भी 'पालि-संस्कृत' को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया(वही)।
सरहपा के समय एक नवीन धार्मिक प्रवाह को हम प्रवाहित होते देखते हैं जो आज भी संत-परम्परा के रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित है। इस परम्परा में गुरु का वचन सर्वोपरि माना जाता है। सनद रहे, तिब्बती परम्परा में ला-मा का अर्थ गुरु होता है और यही वजह है कि तिब्बत में 'बुद्धं सरणं गच्छामि' ति-सरण के स्थान में इसके पूर्व 'गुरुं सरणं गच्छामि' कह चतु-सरण का अनुशरण किया जाता हैं। तिब्बती सरहपा की शिक्षाओं को बुद्ध से अधिक मान्यता देते हैं(वही, पृ 447 )।
सरहपा के जीवन के बारे में जानकारी हमें तिब्बती ग्रंथों से प्राप्त होती हैं। प्रतीत होता है सरहपा का पूर्व नाम राहुल भद्र अथवा सरोरुह था। उन्होंने नालंदा में विद्या-अध्ययन किया था। वे नालंदा में 'महापंडित' के रूप में प्रसिद्धि पा चुके थे। नालंदा में रहते हुए उनके एक अध्यापक हरिभद्र थे। हरिभद्र, धर्मकीर्ति के समान शांत रक्खित के शिष्य थे। हरिभद्र राजा धर्मपाल (770 -815 ई. ) के समकालीन थे(वही, पृ. 447 -450 )।
सरहपा ने अनेक ग्रंथों की रचना की। उन्होंने अनेक संस्कृत ग्रन्थ, विशेषकर तंत्रों की टिकाएं एवं व्याख्याएं लिखी जो तिब्बती टी-पिटक 'कंजूर' में मिलती हैं। सरहपा की उल्लेखनीय कृतियां 'दोहाकोश', गाथा-कोश(सप्तकोश) अतिप्रसिद्ध है(वही, पृ 451-452 )।
सरहपा परिवर्तनवादी क्रान्तिकारी विचारों के सन्देश-वाहक थे। यह सन्देश उनके दोहों में सीधे जनता तक पहुंचता है। शास्त्रों को सरहपा ने रेगिस्तान कह कर सम्बोधित किया है जिनकी भूल-भुलैया से आदमी कभी निकल नहीं सकता। सरहपा के युग में जातिभेद-भाव और छुआछूत खूब था। उन्होंने इसके लिए ब्राह्मण पंडितों की खूब धुलाई की। गेरुआ वस्त्र पहने पाखंडी साधुओं को उन्होंने खूब खरी-खोटी सुनाई(वही, पृ 453-457 )।
सरहपा सहजयान के आचार्य थे। उनके पंथ को सहजयान के नाम से जाना जाता है। सरहपा की भारत को यह सबसे बड़ी देन थी। वह पहले दार्शनिक थे जिन्होंने सहज या नैसर्गिक जीवन पर बल प्रदान किया। आज भारत में अनेक ऐसे पंथ प्रचलित हैं जो इस तारतम्य में बौद्धाचार्य सरहपा के ऋणी हैं। आगे चलकर कबीर ने भी इसी की वकालत की। आज ये विचार विद्रोही और अत्यधिक क्रांतिकारी लगते हैं किन्तु उस ज़माने में सरहपा ने जिस हौसले और बुलंदी से ये बातें कहीं, निस्संदेह आसान नहीं रही होगी(वही, पृ 458 -459 )।
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