Friday, November 16, 2018

बुद्ध को अपनी प्रशंसा पसंद नहीं थी

एक समय बुद्ध नालंदा में पावारिक आम्रवन में विहार करते थे।
एकं समयं भगवा नालंदायं विहरति पावारिक अम्बवने।
एक और बैठे आयु. सारिपुत्त तथागत से बोले-
अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो तेनुपसंकमित्वा भगवन्तं एतदवोच-
"भंते! भगवान पर मेरी दृढ़ आस्था है
"एवं पसन्नो अहं, भंते ! भगवति
ज्ञान में भगवान से बढ़ कर समण या ब्राहमण न कोई हुआ है, न वर्तमान में है और न कोई होगा।"
न च अहु न च भविस्सति, न च एतरहि विज्जति अञ्ञो समणो व बाहमणो वा भगवता भिय्यो भिञ्ञतरो, यदिदं सम्बोधियं ।"
 "सारिपुत्त! तुमने बड़ी ऊंची बात कह डाली है। एक लपेट में सभी को ले लिया है--
"उलाळा खो त्वं अयं सारिपुत्त, आसभि वाचा भासिता, एकं सो गहितो--

सारिपुत्त ! क्या तुमने अतीत काल में जो अर्हत, सम्यक सम्बुद्ध हुए हैं
किंं नु सारिपुत्त, ये ते अहेसुंं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मा सम्बुद्धा
सबको अपने चित्त से जान लिया है-
सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता-
कि वे इस विनय वाले थे, इस प्रज्ञा  वाले थे...?"
एवं सीला ते भगवन्तो अहेसुंं, एवं पञ्ञा ते भगवन्तो अहेसुंं वा ?"
"नहीं भंते !"
"नो हेतं भंते !"

सारिपुत्त ! क्या तुमने भविष्य काल में जो अर्हत, सम्यक सम्बुद्ध होंगे,
किंं पन ते सारिपुत्त, ये ते भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मा सम्बुद्धा,
सबको अपने चित्त से जान लिया है
सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता-
कि वे इस विनय वाले होंगे, इस प्रज्ञा  वाले होंगे...?"
एवं सीला ते भगवन्तो भविस्सन्ति, एवं पञ्ञा ते भगवन्तो भविस्सन्ति वा  ?"
"नहीं भंते !"
"नो हेतं भंते !"

सारिपुत्त ! जो वर्त्तमान में अर्हत सम्मा सम्बुद्ध हैं
किंं पन ते सारिपुत्त, एतरहि अरहं सम्मा सम्बुद्धो
अपने चित्त से जान लिया है कि
चेतसा चेतो परिच्च विदितो-
वे इस विनय वाले हैं, इस प्रज्ञा  वाले हैं ?"
एवं सीलो भगवा वा , एवं पञ्ञो भगवा वा ?"
"नहीं भंते !"
"नो हेतं भंते !"

"सारिपुत्त! जब तुमने न अतीत, न भविष्य, न वर्तमान के अर्हत  सम्यक सम्बुद्धों को अपने चित्त से जाना
"एत्थ च ते सारिपुत्त ! अतीत अनागत पच्चुपन्नेसु अरहन्तेसु सम्मा सम्बुद्धेसु चेतो परियाय ञाणं नत्थि।
तब, क्यों सरिपुत्त ! तुमने बड़ी ऊंची बात कह डाली है, एक लपेट में सभी को ले लिया है
अथ किंं एतरहि त्यायं सारिपुत्त,  उलाळा आसभि वाचा भासिता, एकं सो गहितो
कि ज्ञान में भगवान से बढ़ कर समण या ब्राहमण न कोई हुआ है, न वर्तमान में है और न कोई होगा।"
न च अहु न च भविस्सति, न च एतरहि विज्जति अञ्ञो समणो  व बाहमणो वा भगवता भिय्यो भिञ्ञतरो, यदिदं सम्बोधियं ?"

"भगवान ! मैंने अतीत, भविष्य और  वर्तमान के अर्हत  सम्यक सम्बुद्धों को अपने चित्त से नहीं जाना है
"न खो मे तं भंते ! अतीत अनागत पच्चुपन्नेसु  अरहन्तेसु सम्मा सम्बुद्धेसु चेतो परियाय ञाणं  अत्थि,
किन्तु 'धम्म-विनय' को अच्छी तरह समझ लिया है।"
अपि च मे धम्मन्वयो विदितो।"

"ठीक है, ठीक है ! सरिपुत्त,  धम्म की इस बात को तुम, भिक्खु, भिक्खुनी, उपासक, उपासिकाओं के बीच बताते रहना।
साधु, साधु साधु ! सरिपुत्त !  तस्मातिह त्वं इमं धम्म परियायं अभिक्खणं भासेय्यासि भिक्खुनं भिक्खनीनं उपासकानं, उपासिकानं।
सारिपुत्त, जिन अज्ञ लोगों को बुद्ध में शंका या विमति होगी, यह बात सुनकर दूर होगी
 येसं अपि  हि, सारिपुत्त, मोघ पुरिसानं भविस्सति तथागते कंखा वा विमति वा, तेसं अपि मं धम्म परियायं सुत्वा या तथागते कंखा या विमति वा सा पहीयस्सति(नालन्द सुत्त : संयुक्त निकाय :45-2-2 )।
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आसभि- आर्ष भी, वृषभ/सांड/बैल के समान। परिच्च- समझ कर। अभिक्खण- क्षण प्रति-क्षण/निरंतर। भिय्यो भिञ्ञतरो- अत्यधिक।  - प्रस्तुति - अ ला उके  @amritlalukey.blogspot.com  

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