वल्लभी, हीनयान धम्म का केंद्र
व्हेनसांग ने अपनी यात्रा विवरण में वल्लभी का वर्णन किया है। व्हेनसांग के समय वलभी में 1000 मठ विद्मान थे जिसमें सम्मतीय के 600 थे। बौद्धों के अतिरिक्त कई सौ देव मंदिर भी थे जिसमें विरूधि मत के लोग उपासना करते थे। यहाँ के लोग संपन्न थे(डॉ अवधेश सिंह :चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण में प्रतिबिंबित बौद्ध धर्म का एक अध्ययन, पृ 235)।
व्हेनसांग के समय मालवा के शीलादित्य नामक राजा का भतीजा और कान्यकुब्ज के नरेश हर्ष का दामाद क्षत्रिय राजा राज्य कर रहा था। यह राजा रत्न-तयी(बुद्ध, धम्म, संघ) की ओर कुछ समय से आकृष्ट था। यह राजा प्रत्येक वर्ष बड़ी सभा आयोजित करता था जो 7 दिन तक चलती थी। इसमें राजा महात्माओं और भिक्खुओं को विशेष रूप से आदर-सत्कार करता था(पृ 236)।
यहाँ एक विश्व-विद्यालय था जो मैत्रेक नरेशों के दान के कारण आर्थिक दृष्टि से संपन्न था। पश्चिमी भारत का यह शिक्षा केंद्र नालंदा विश्व-विद्यालय का प्रतिद्वंदी था। इत्सिंग लिखता है कि नालंदा के समान वल्लभी में भी छात्रों को विशेष अध्ययन में तीन वर्ष का समय लगता था। शंका समाधान के निमित्त देश के प्रत्येक भाग से जिज्ञासु लीग वल्लभी आते थे। यहाँ का शिक्षा संगठन नालंदा से दो दृष्टियों से भिन्न था। प्रथम यह कि यद्यपि वल्लभी में धार्मिक विषयों में भी शिक्षा दी जाती थी, तथापि प्र्रधानता लौकिक विषयों की ही थी। यही कारण है कि वल्लभी विश्व-विद्यालय के स्नातकों की नियुक्ति शासन सम्बन्धी उच्च पदों पर की जाती थी। नालंदा विश्व विद्यालय में प्रधान रूप से धार्मिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इत्सिंग ने दूसरा अंतर यह बताया कि नालंदा के विद्यार्थी महायान शाखा में विशेषज्ञता प्राप्त करते थे , वाही वल्लभी के हीनयान मत का विशेष अध्ययन करते थे और वल्लभी के मठों में हीनयान के भिक्खु थे(पृ 235-237)।
इत्सिंग के मतानुसार नालंदा के समान वल्लभी विश्व-विद्यालय में भी विद्वानों के नाम प्रधान द्वारों पर उत्कीर्ण किए जाते थे। वल्लभी के जिन आचार्यों की प्रतिष्ठा देश में व्याप्त थी,उनमें गणभति एवं स्थिरभति उल्लेखनीय हैं। वल्लभी में दोनों के निवास के लिए सुन्दर विहार बना हुआ था। कनिंघन ने व्हेनसांग से विवरण के आधार पर यह स्पष्ट किया है कि वल्लभी राज्य में सम्पूर्ण गुजरात प्रायद्वीप, भड़ौच तथा सूरत के जिले सम्मिलित थे(पृ 237)।
व्हेनसांग ने अपनी यात्रा विवरण में वल्लभी का वर्णन किया है। व्हेनसांग के समय वलभी में 1000 मठ विद्मान थे जिसमें सम्मतीय के 600 थे। बौद्धों के अतिरिक्त कई सौ देव मंदिर भी थे जिसमें विरूधि मत के लोग उपासना करते थे। यहाँ के लोग संपन्न थे(डॉ अवधेश सिंह :चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण में प्रतिबिंबित बौद्ध धर्म का एक अध्ययन, पृ 235)।
व्हेनसांग के समय मालवा के शीलादित्य नामक राजा का भतीजा और कान्यकुब्ज के नरेश हर्ष का दामाद क्षत्रिय राजा राज्य कर रहा था। यह राजा रत्न-तयी(बुद्ध, धम्म, संघ) की ओर कुछ समय से आकृष्ट था। यह राजा प्रत्येक वर्ष बड़ी सभा आयोजित करता था जो 7 दिन तक चलती थी। इसमें राजा महात्माओं और भिक्खुओं को विशेष रूप से आदर-सत्कार करता था(पृ 236)।
यहाँ एक विश्व-विद्यालय था जो मैत्रेक नरेशों के दान के कारण आर्थिक दृष्टि से संपन्न था। पश्चिमी भारत का यह शिक्षा केंद्र नालंदा विश्व-विद्यालय का प्रतिद्वंदी था। इत्सिंग लिखता है कि नालंदा के समान वल्लभी में भी छात्रों को विशेष अध्ययन में तीन वर्ष का समय लगता था। शंका समाधान के निमित्त देश के प्रत्येक भाग से जिज्ञासु लीग वल्लभी आते थे। यहाँ का शिक्षा संगठन नालंदा से दो दृष्टियों से भिन्न था। प्रथम यह कि यद्यपि वल्लभी में धार्मिक विषयों में भी शिक्षा दी जाती थी, तथापि प्र्रधानता लौकिक विषयों की ही थी। यही कारण है कि वल्लभी विश्व-विद्यालय के स्नातकों की नियुक्ति शासन सम्बन्धी उच्च पदों पर की जाती थी। नालंदा विश्व विद्यालय में प्रधान रूप से धार्मिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इत्सिंग ने दूसरा अंतर यह बताया कि नालंदा के विद्यार्थी महायान शाखा में विशेषज्ञता प्राप्त करते थे , वाही वल्लभी के हीनयान मत का विशेष अध्ययन करते थे और वल्लभी के मठों में हीनयान के भिक्खु थे(पृ 235-237)।
इत्सिंग के मतानुसार नालंदा के समान वल्लभी विश्व-विद्यालय में भी विद्वानों के नाम प्रधान द्वारों पर उत्कीर्ण किए जाते थे। वल्लभी के जिन आचार्यों की प्रतिष्ठा देश में व्याप्त थी,उनमें गणभति एवं स्थिरभति उल्लेखनीय हैं। वल्लभी में दोनों के निवास के लिए सुन्दर विहार बना हुआ था। कनिंघन ने व्हेनसांग से विवरण के आधार पर यह स्पष्ट किया है कि वल्लभी राज्य में सम्पूर्ण गुजरात प्रायद्वीप, भड़ौच तथा सूरत के जिले सम्मिलित थे(पृ 237)।
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