पालि सुत्तों को संक्षेप में देने का हमारा उद्देश्य धम्म के साथ पालि से परिचय कराना है।
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-
ञाण और पञ्ञा
"किं भंते ! यं येव ञाणं सा येव पञ्ञा ?"
"क्या ज्ञान और प्रज्ञा दोनों एक ही चीज है ?"
"आम महाराज ! यं येव ञाणं सा येव पञ्ञा ?"
"हाँ, महाराज ! ज्ञान और प्रज्ञा दोनों एक ही है।"
"भंते नागसेन ! यस्स ञाणं उप्पन्न,
"भंते ! नागसेन ! जिसको ज्ञान उत्पन्न होता है,
तस्स पञा उपपन्ना ?"
उसको क्या प्रज्ञा भी उत्पन्न हो जाती है ?"
"आम महाराज ! यस्स ञाणं उप्पन्न,
"हाँ महाराज ! जिसको ज्ञान उत्पन्न होता है,
तस्स पञा उपपन्ना ?"
उसको प्रज्ञा भी उत्पन्न हो जाती है।"
"यस्स पन भंते !
"भंते ! यदि ऐसी बात है
किं सम्मुय्हेय्य सो , उदाहु न सम्मुय्हेय्य ?"
तो वह मोह में पड़ेगा या नहीं ?"
"कत्थचि महाराज ! सम्मुय्हेय्य,
"महाराज ! कहीं मोह में होगा ,
कत्थचि न सम्मुय्हेय्य।
कहीं नहीं होगा ।
यस्स ञाणं न उप्पन्नंं,
महाराज ! जिन विषयों का उसे ज्ञान नहीं है,
तस्स सम्मुय्हेय्य
उन विषयों में उसे मोह होगा और
यस्स ञाणंं उप्पन्नंं
जिन विषयों का उसे ज्ञान है,
तस्स न सम्मुय्हेय्य।"
उस में उसे मोह नहीं होगा।"
"मोहो पनस्स, भंते ! कुहिं गच्छति ?"
"किन्तु भंते ! मोह कहाँ चला जाता है ?"
"मोहो खो, महाराज ! ञाणे उप्पन्नेमत्ते तत्थेव निरुज्झति।"
"महाराज ! ज्ञान उत्पन्न होने से मोह का नाश हो जाता है।"
"ओपम्मं करोहि। "
"कृपया उपमा दें।"
"यथा महाराज ! कोचिदेव पुरिसो
"महाराज ! जैसे कोई पुरुष
अन्धकार गेहे पदीपं पदीपेय्य
अँधेरी कोठरी में दीया जला दे।
ततो अंधकारो निरुज्झेय्य, आलोको पातुभवेय्य
उससे अँधेरा चला जाए, आलोक उदय हो ।
एवमेव खो, महाराज ! ञाणे उप्पन्नमत्ते
महाराज , उसी तरह ज्ञान के उत्पन्न होते ही
मोहो तत्थेव निरुज्झति।"
मोह चला जाता है।"
स्रोत- ञाण-पञ्ञा पञ्हो: मिलिंद पञ्हो
प्रस्तुति - अ ला ऊके @amritlalukey.blogspot.com
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-
"किं भंते ! यं येव ञाणं सा येव पञ्ञा ?"
"क्या ज्ञान और प्रज्ञा दोनों एक ही चीज है ?"
"आम महाराज ! यं येव ञाणं सा येव पञ्ञा ?"
"हाँ, महाराज ! ज्ञान और प्रज्ञा दोनों एक ही है।"
"भंते नागसेन ! यस्स ञाणं उप्पन्न,
"भंते ! नागसेन ! जिसको ज्ञान उत्पन्न होता है,
तस्स पञा उपपन्ना ?"
उसको क्या प्रज्ञा भी उत्पन्न हो जाती है ?"
"आम महाराज ! यस्स ञाणं उप्पन्न,
"हाँ महाराज ! जिसको ज्ञान उत्पन्न होता है,
तस्स पञा उपपन्ना ?"
उसको प्रज्ञा भी उत्पन्न हो जाती है।"
"यस्स पन भंते !
"भंते ! यदि ऐसी बात है
किं सम्मुय्हेय्य सो , उदाहु न सम्मुय्हेय्य ?"
तो वह मोह में पड़ेगा या नहीं ?"
"कत्थचि महाराज ! सम्मुय्हेय्य,
"महाराज ! कहीं मोह में होगा ,
कत्थचि न सम्मुय्हेय्य।
कहीं नहीं होगा ।
यस्स ञाणं न उप्पन्नंं,
महाराज ! जिन विषयों का उसे ज्ञान नहीं है,
तस्स सम्मुय्हेय्य
उन विषयों में उसे मोह होगा और
यस्स ञाणंं उप्पन्नंं
जिन विषयों का उसे ज्ञान है,
तस्स न सम्मुय्हेय्य।"
उस में उसे मोह नहीं होगा।"
"मोहो पनस्स, भंते ! कुहिं गच्छति ?"
"किन्तु भंते ! मोह कहाँ चला जाता है ?"
"मोहो खो, महाराज ! ञाणे उप्पन्नेमत्ते तत्थेव निरुज्झति।"
"महाराज ! ज्ञान उत्पन्न होने से मोह का नाश हो जाता है।"
"ओपम्मं करोहि। "
"कृपया उपमा दें।"
"यथा महाराज ! कोचिदेव पुरिसो
"महाराज ! जैसे कोई पुरुष
अन्धकार गेहे पदीपं पदीपेय्य
अँधेरी कोठरी में दीया जला दे।
ततो अंधकारो निरुज्झेय्य, आलोको पातुभवेय्य
उससे अँधेरा चला जाए, आलोक उदय हो ।
एवमेव खो, महाराज ! ञाणे उप्पन्नमत्ते
महाराज , उसी तरह ज्ञान के उत्पन्न होते ही
मोहो तत्थेव निरुज्झति।"
मोह चला जाता है।"
स्रोत- ञाण-पञ्ञा पञ्हो: मिलिंद पञ्हो
प्रस्तुति - अ ला ऊके @amritlalukey.blogspot.com
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