Thursday, April 18, 2019

समाज और संस्कृति

समाज और संस्कृति
किसी भी समाज की संस्कृति उसके संस्कारों में झलकती है. दरअसल, संस्कार अर्थात जीवन जीने का तरीका और बोल-भाषा ही उस समाज को चिन्हित करते हैं, परिभाषित करते हैं. संस्कार समाज की पहचान होते हैं. संस्कारों को संपन्न कराने की विधि होती है, उसका साहित्य होता है. साहित्य में जीवन, आचरण, संबोधन आदि के तरीके होते हैं और इन तरीकों से ही उस समाज की पहचान होती है.
बौद्ध समाज में आचरण अथवा संबोधन के लिए 'श्री', 'ॐ'(ओम) आदि शब्दों का प्रयोग नहीं होता. वास्तव में 'श्री', 'ॐ'(ओम) आदि शब्द हिन्दू/वैदिक संस्कृति के प्रतीक हैं. श्री का अर्थ 'लक्ष्मी' से अभिप्रेरित है. किन्तु दलित/बुद्धिस्ट समाज के कुछ लोग अनजाने में 'श्री' आदि शब्दों का प्रयोग उसी प्रकार करते पाए जाते हैं जैसे सूर्य नमस्कार में 'ॐ' का . बौद्ध संस्कृति में आवुस/ आयुष्यमान अथवा आदरणीय/परम आदरणीय/ मान्यवर आदि आदर सूचक शब्दों का प्रयोग होता है. इसी प्रकार स्वर्गवासी के लिए 'परिनिब्बुत' शब्द का प्रयोग किया जाता है.
स्मरण रखे, शब्द और भाषा ही संस्कृति को गढ़ते हैं, समाज की रक्षा करते हैं. कभी इस देश में बुद्ध का शासन था. पालि जन-भाषा थी. आम जनता पालि बोलती थी. वरना क्या कारण है कि अशोक के शिलालेखों में कश्मीर से कन्या कुमारी तक उत्कीर्ण आलेख पालि भाषा में हैं ? बाबासाहब अम्बेडकर ने हमें रास्ता दिखा दिया है. बस हमें उसे संभाल कर रखना है, सहेज कर रखना है.
सनद रहे,पालि ग्रंथों के साथ बौद्ध-भिक्खुओं का उच्छेद ब्राह्मणवाद ने किया था. बाबासाहब ने पुन: इस बुद्ध भूमि पर बौद्ध धर्म का झंडा गाड़ दिया है. धम्म के अध्येयता जानते हैं कि आरम्भ में जब पालि ग्रंथों का संस्कृत में अनुवाद हुआ तब इस तरह के वैदिक/हिन्दू शब्द धम्म ग्रंथों में अनायास/सप्रयास आए. हमें अब मुर्दों को ढोने की जरुरत नहीं है .

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