बुद्ध वचनों का संग्रह
बुद्ध उपदेश देते और भिक्खु उसे कंठस्थ कर लेते। बाद में कुछ भिक्खुओं को यह दायित्व सौंपा गया। ऐसे भिक्खुओं को 'भाणक' कहा जाता था। बुद्ध उपदेश लोक भाषा में देते थे। मगध और उसके आस-पास के क्षेत्र में जो भाषा बोली जाती थी, उसे आज हम 'पालि' के नाम से जानते हैं।
ईसा की पहली सदी तक बुद्ध-उपदेश मौखिक ही रहे। यद्यपि ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी पूर्व लिपि इजाद हो चुकी थी, जैसे कि हम अशोक शिलालेखों में देखते हैं। परन्तु बुद्ध बचनों को अभी कंठस्थ कर ही रखा जाता था। शायद, भिक्खुओं को यह अधिक सुगम प्रतीत होता था। अशोक ने अपने आदेशों को प्रसारित करने लेखन पद्यति को अपनाया। इसमें गलती होने अथवा उनके आदेशों/वचनों का मनमाना अर्थ निकालने की गुंजाईश नहीं थी, जैसे कि बुद्धकाल और तदन्तर बुद्ध-वचनों के साथ हुआ। सनद रहे, अपने शिलालेखों की लिपि को अशोक ने 'धम्मलिपि' कहा है।
ईसा की पहली सदी में शायद, तमाम बुद्ध वचनों को संग्रह करने की आवश्यकता हुई। भारत में बुद्ध वचनों और उनके प्रचारक बौद्ध भिक्खुओं का समूल उच्छेद बौद्ध विरोधी ताकतों द्वारा किया जा चुका था। और इस बौद्ध विरोधी षडयंत्र का नेतृत्व ब्राह्मणवाद कर रहा था। क्योंकि बुद्धिज़्म, ब्राह्मणवाद की जड़ों पर ही वार करता था, उसकी मूल स्थापनाओं पर प्रहार करता था। ब्राह्मणवाद के खौंप से बौद्ध भिक्खु धम्म-ग्रंथों के साथ, जितने वे अपने सिर पर लाद सकते थे, पडोसी देशों की शरण में गए । इसमें दक्षिण में सिंहलद्वीप(सिरिलंका), म्याँमार(बर्मा ), स्याम(थाईलेंड ) और चीन, तिब्बत, अफगानिस्तान उत्तर-पूर्व में प्रमुख हैं। सिहंल द्वीप में तो धम्म-प्रचार के लिए अशोक ने अपने पुत्र महिंद और पुत्री संघमित्ता को भेजा था। भारत में बौद्ध भिक्खु और बुद्ध वचनों की दुर्गति से हम भली-भांति परिचित हैं. यही कमोबेश हाल पडोसी देशों में भी हुआ। परन्तु दुश्मनों के हाथों से धम्म को दुर्गति से बचाने का वन्दनीय प्रयास सर्व-प्रथम सिंहल द्वीप में हुआ और इसके लिए वहां के राजा वट्ट गामिणि सामने आए थे ।
बुद्ध-वचनों के संग्रह के लिए बुद्ध के महापरिनिर्वाण से लेकर वर्तमान युग तक बुद्ध संगीतियों का आयोजन होता रहा है, जिसमें पहली संगीति तो बुद्ध महापरिनिर्वाण के तीन मास पश्चात(लगभग 483 ई. पू. ) ही हुई थी। यह संगीति राजगीर(राजगृह) के वैभार पर्वत स्थित सप्तपर्णी गुहा में महास्थविर महाकाश्यप की अध्यक्षता में हुई थी। इस संगीति में उपाली से विनय सम्बन्धी और बुद्ध के उपस्थापक आनंद से धम्म के बारे में पूछा गया था। उन्होंने जो कुछ भगवान से सुना, प्रस्तुत किया था। द्वितीय संगीति, प्रथम संगीति से 100 वर्ष बाद (लगभग 383 ई.पू ) महा स्थविर रेवत की अध्यक्षता में वैशाली में हुई थी। इस संगीति में प्रमुख रूप से विनय विरुद्ध आचरण पर उठे विवाद पर बुद्ध वचनों का संगायन हुआ था ।
तृतीय संगीति सम्राट अशोक के समय (लगभग 248 ई. पू. ) पाटलीपुत्र में हुई थी। इसके अध्यक्ष मोग्गलिपुत्त तिस्स थे। धम्म को राज्याश्रय होने से दूसरे मतावलम्बी भी खुद को बौद्ध बता कर अपने मत को भी बुद्ध-सम्मत बताने लगे थे। इस संगीति के बाद धम्म का काफी प्रचार-प्रसार हुआ। मोग्गलिपुत्त तिस्स ने अन्य वादों की तुलना में थेरवाद को स्थापित कर 'कत्थावत्थु' नमक ग्रन्थ की रचना की। चतुर्थ संगीति सिंहलद्वीप के शासक वट्ट गामणि(ई. पू. 29-17) के शासन काल में हुई थी.यह सिंहलद्वीप के मातुल जनपद की आलोक नामक गुहा में महास्थविर धम्मरक्खित की अध्यक्षता में संपन्न हुई थी। इस संगीति में तिपिटक और इस पर लिखी अट्ठकथाओं को पहली बार लिपिबद्ध किया गया(पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 1-2ः राहुल सांकृत्यायन)।
-------------------------
चतुर्थ संगीति के नाम से एक और बौद्ध संगीति का नाम आता है जो सम्राट कनिष्क के राज्यकाल में संपन्न हुई थी। कुछ के मतानुसार यह पंजाब के जालंधर में तो दूसरे कुछ लोगों के अनुसार कश्मीर में हुई थी। स्थविर वसुमित्र इसके सभापति थे और आचार्य बुद्धघोष उप-सभापति थे। इस संगीति में ति-पिटक के संस्कृत में भाष्य लिखे गए और ताम्र-पत्रों पर अंकित कर उन्हें पत्थरों की पेटियों में रखा गया।
पांचवी संगीति म्याँमार (बर्मा) के सम्राट मिन्डोन मिन(1871 ईस्वी ) के काल में रत्नपुञ्ञ नामक नगर में हुई थी। इस संगीति में भदंत जागर स्थविर की अध्यक्षता में सम्पूर्ण बुद्ध वचनों को संगमरमर की पट्टिकाओं पर उत्कीर्ण करा कर उन्हें एक स्थान पर गढवा दिया गया था(राहुल सांकृत्यायन : बुद्धचर्या )।
छटी संगीति बुद्ध परिनिर्वाण के 2500 वर्ष पूर्ण होने पर सन 1954 में बर्मा (म्याँमार ) की ही राजधानी रंगून के सिरिमंगल नामक स्थान में संपन्न हुई थी। भदंत रेवत स्थविर इसके अध्यक्ष थे। इस अवसर पर भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए भदंत आनंद कोसल्यायान के साथ बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर सम्मिलित हुए थे।
1. सुत्त-पिटक के 5 निकाय- दीघ-निकाय, मज्झिम-निकाय, संयुत्त-निकाय, अंगुत्तर-निकाय, खुद्दक-निकाय।
दीघ-निकाय- इसके तीन वग्ग(वर्ग); सीलक्खन्धवग्ग, महावग्ग और पथिकवग्ग में ब्रह्मजाल, साम××ाफल सुत्त, अम्बट्ठसुत्त, पोट्ठपाद सुत्त, महापदान सुत्त, महापरिनिब्बान सुत्त, लक्खनसुत्त, सिंगालोवाद सुत्त आदि 34 सुत्तों का संग्रह हैं। इसके कई सुत्त जैसे ‘आटानाटियसुत्त’ जिसमें भूतप्रेत संबंधी बाते हैं, काफी बाद के हैं(पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 7ः राहुल सांकृत्यायन)।
मज्झिम-निकाय- इसके तीन पण्णासक(भाग); मूल-पण्णासक, मज्झिम-पण्णासक और उपरि-पण्णासक हैं। प्रथम दो पण्णासकों में 50-50 और अन्तिम में 52, इस प्रकार अलगद्दूपमसुत्त, अरियपरियेसनसुत्त, रट्ठपालसुत्त, अंगुलिमालसुत्त, अस्सलायनसुत्त, सुभसुत्त आदि कुल 152 सुत्त हैं। इसका घोटमुखसुत्त स्पष्ट रूप से बुद्ध महापरिनिर्वाण के बाद का है(वही, पृ. 12)।
परिवर्ती काल में बौद्ध-धर्म तथा दर्शन के विचारों के संबंध में मतभेद होने लगा था। प्रारम्भ में थेरवाद(स्थिरवाद) और महासांघिक दो निकाय थे, किन्तु बाद में कई निकाय हो गए। अशोक के समय(ई. पू. 247-232) इसके 18 निकाय हो चुके थे(वही, पृ. 3)।
सुत्तपिटक में दीघ, मज्झिम, संयुत्त तथा अंगुत्तर ये चारों निकाय और पांचवें खुद्दक निकाय के खुद्दक पाठ, धम्मपद, उदान, इतिवुत्तक और सुत्तनिपात अधिक प्रमाणिक है। सुत्त पिटक में आयी वे सभी गाथाएं जिन्हें बुद्ध के मुख से निकला ‘उदान’ नहीं कहा गया है, पीछे की प्रक्षिप्त ज्ञात होती है। इनके अतिरिक्त भगवान बुद्ध उनके शिष्यों की दिव्य शक्तियां और स्वर्ग, नरक, देव तथा असुर की अतिशयोक्तिपूर्ण कथाओं को भी प्रक्षिप्त ही माना जा सकता है(वही, पृ. 12)।
संयुत्त-निकाय- यह ग्रंथ 5 वग्ग(सगाथवग्ग, निदानवग्ग, खन्धवग्ग, सळायतनवग्ग और महावग्ग) तथा 56 संयुत्तों में विभक्त है। सगाथवग्ग में गाथाएं हैं। निदानवग्ग में प्रतीत्यसमुत्पादवाद के नाम से संसार-चक्र की व्याख्या की गई है। खन्धकवग्ग में पंच-स्कन्ध का विवेचन है। सळायतनवग्ग में पंच-स्कन्धवाद तथा सळायतनवाद प्रतिपादित है। महावग्ग में बौद्ध-धर्म, दर्शन और साधना के महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर व्याख्यान विद्यमान है(वही, पृ. 98)।
अंगुत्तर-निकाय- इसमें संख्या क्रम में 11 निपात हैं जो 160 वग्गों(वर्गों) में विभक्त हैं। कालामसुत्त, मल्लिकासुत्त, सीहनादसुत्त आदि इसके प्रसिद्ध सुत्त हैं। इसका 11 वां निपात स्पष्ट रूप से अप्रमाणिक है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ 232)।
खुद्दक-निकाय- इसके 15 ग्रंथ हैं-
1. खुद्दक-पाठ ;ज्ञचद्ध. यह छोटा-सा ग्रंथ है, जिसमें ति-सरण, दस शिक्षा-पद, मंगलसुत्त, रतनसुत्त आदि पाठ हैं। 2. धम्मपद- 423 गाथाओं के इस लघु-ग्रंथ में बुद्ध के उपदेशों का सार है, जो यमकवग्ग, चितवग्ग, लोकवग्ग आदि 26 वग्गों में संगृहित है। 3. उदान- आठ वग्गों में विभाजित 80 सुत्तों का लघुग्रंथ है। 4. इतिवुत्तक- इस लघु-ग्रंथ में 112 सुत्त, 4 निपात में संगृहित हैं जिसके प्रत्येक सुत्त में ‘इतिवुत्तं भगवता’(ऐसा भगवान ने कहा) पद बार-बार आता है। 5. सुत्तनिपात ;ैदद्ध- यह प्राचीन ग्रंथ पांच वग्ग; उरगवग्ग, चूलवग्ग, महावग्ग, अट्ठकवग्ग और पारायणवग्ग में विभक्त है जिसमें मेत्तसुत्त, पराभवसुत्त, रतनसुत्त, मंगलसुत्त, धम्मिकसुत्त, सल्लसुत्त, सारिपुत्त आदि अनेक सुत्तों का संग्रह हैं। 6. विमानवत्थु- इसके ‘इत्थिविमान’ और ‘पुरिसविमान’ दो भाग हैं। इसमें देवताओं के विमान(चलते प्रासादों) के वैभव का वर्णन है। यह बुद्ध-भाषित प्रतित नहीं होता। 7. पेतवत्थु- नरक के दुक्खों का वर्णन करते, इस लघु-ग्रंथ के 4 वग्गों में 51 वत्थु(कथा) हैं। यह स्पष्ट ही परवर्ती ग्रंथ है। 8. थेरगाथा- इस प्राचीन काव्य-संग्रह में महाकच्चायन, कालुदायी आदि 1279 थेरों की गाथाएं हैं। 9. थेरीगाथा- इस प्राचीन काव्य-संग्रह में पुण्णा, अम्बपालि आदि 522 थेरियों की गाथाएं संग्रहित हैं। 10. जातक कथा- इसमें बुद्धकाल के प्रचलित 547 लोक-कथाओं का संग्रह है। भारतीय कथा-साहित्य का यह सबसे प्राचीन संग्रह है। 11. निद्देस- ‘चूलनिद्देस’ और ‘महानिद्देस’ दो भागों में यह सुत्तनिपात की टीका हैं। महानिद्देस से बुद्धकालिन बहुत-से देशों तथा बंदरगाहों का भोगोलिक वर्णन प्राप्त होता है। 12. पटिसम्मिदामग्ग- इसमें अर्हत के प्रतिसंविद(आध्यात्मिक और साक्षात्कारात्मक ज्ञान) की व्याख्या है। यह ‘अभिधम्म’ की शैली में 10 परिच्छेदों में हैं। 13. अपदान- अपदान(अवदान) चरित को कहते हैं। इसके दो भाग; थेरापदान और थेरीपदान में पद्यमय गाथाओं का संग्रह है। 14. बुद्धवंस- यह पद्यात्मक ग्रंथ 28 परिच्छेदों का है और जिनमें 24 बुद्धों का वर्णन है। बौद्ध-परम्परा इसे बुद्ध-वचन नहीं मानती। 15. चरियापिटक- यह भी बुद्धवंस की शैली का है।(पालि साहित्य का इतिहासः पृ. 120-147)।
विनय-पिटक- इसमें भिक्खु-भिक्खुणियों के आचार नियम है। इसके 5 भाग; पाराजिक, पाचित्तिय, महावग्ग, चुल्लवग्ग और परिवार हैं। पाराजिक और पाचित्तिय जिसे ‘विभंग’ कहा गया है, में भिक्खुओं तथा भिक्खुणियों से संबंधित नियम हैं। महावग्ग और चुलवग्ग को संयुक्त रूप से ‘खन्धक’ कहा जाता है। परिवार, सिंहल में रचा गया यह 21 परिच्छेदों का ग्रंथ बहुत बाद का है(वही, पृ. 164)।
अभिधम्मपिटक- इसके मूल को पहले ‘मातिका’ कहा जाता था। यह दार्शनिक ग्रंथ अतिविशाल है। मातिकाओं को छोड़कर सारा अभिधम्म-पिटक पीछे का है। इसका एक ग्रंथ ‘कथावत्थु’ तो तृतीय संगीति के प्रधान मोग्गल्लिपुत्त तिस्स ने स्थविरवादी-विरोधी निकायों के खण्डन के लिए लिखा था। अभिधम्मपिटक 7 भागों में हैं- 1. धम्म-संगणि- इसको अभिधम्म का मूल माना जा सकता है। इसमें नाम(मन) और रूप-जगत की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। 2. विभंग- इसमें रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान स्कन्धों की व्याख्या दी गई है। 3. धातु-कथा- इस ग्रंथ में स्कन्ध, आयतन और धातु का संबंध धर्मों के साथ किस प्रकार से हैं, इसे व्याख्यायित किया गया हैं। 4. पुग्गल-प××ाति- पुग्गल(पुद्गल) की प××ाति(प्रज्ञप्ति) करना इस ग्रंथ का विषय है। इसमें व्यक्तियों का नाना प्रकार से विवेचन है। 5. कथा-वत्थू- इसके 23 अध्यायों में 18 निकायों के सिद्धांतों को प्रश्न और उसका समाधान के रूप में स्थविरवादी सिद्धांत की स्थापना की गई है। 6. यमक- इस ग्रंथ में प्रश्नों को यमक(जोड़े) के रूप में रख कर विषय को प्रस्तुत किया गया है। 7. पट्ठान- यह आकार में बहुत बड़ा अत्यन्त दुरूह शैली का ग्रंथ हैं। इसके 4 भाग हैं। इस ग्रंथ में धम्मों के पारस्परिक प्रत्यय-संबंधों का विधानात्मक और निषेघात्क अध्ययन प्रस्तुत किया गया है(वही, पृ. 167-179)।
अट्ठकथा- तिपिटक पर जो समय-समय पर टीका लिखी गई, उसे अट्ठकथा कहते हैं। अट्ठ अर्थात् अर्थ। ये अट्ठकथाएं कई देशों में कई लिपियों में प्राप्त हैं। सिंहल की प्राचीन अट्ठकथाओं में ‘महा-अट्ठकथा’(सुत्त-पिटक), ‘कुरुन्दी’(विनय-पिटक), ‘महा-पच्चरि’(अभिधम्मपिटक) का नाम आता है। इसके अलावा अन्धक-अट्ठकथा, संखेप-अट्ठकथा का भी उल्लेख है। महावंस के अनुसार, महेन्द्र सिंहल में पालि-तिपिटक के साथ अट्ठकथाएं भी लाए थे। अकेले बुद्धघोस(50 ईस्वी) ने इन अट्ठकथाओं पर जो अट्ठकथाएं लिखी, वे दृष्टव्य हैं- सुत्त-पिटक अट्ठकथाएं :- सुमúल-विलासिनी(दीघनिकाय), पप×च-सूदनी(मज्झिमनिकाय), मनोरथ-पूरणी(अúुत्तर निकाय), सारत्थ-पकासिनी(संयुत्त निकाय)। खुद्दक-निकाय की अट्ठकथाएं- परमत्थजोतिका(1. खुद्दक-पाठ 2. सुत्तनिपात 3. जातक)। धम्मपदअट्ठकथा। विनय-पिटक अट्ठकथाएं- समन्तपासादिका, कùावितरणी(पातिमोक्ख), अट्ठसालिनी(धम्मसúणी), सम्मोह विनोदिनी(विभú), धातुकथाप्पकरण-अट्ठकथा, पुग्गल-प××ातिप्पकरण-अट्ठकथा, कत्थावत्थुप्पकरण-अट्ठकथा, यमकप्पकरण-अट्ठकथा, पट्ठानप्पकरण-अट्ठकथा। अभिधम्म-पिटक की अट्ठकथाएं- 1. अत्थसालिनी(धम्म-सúणि) 2. सम्मोहविनोदिनी(विभú) 3. परमत्थदीपनी/प×चप्पकरण अट्ठकथा(धातु-कथा, पुग्गल-प××ाति, कथा-वत्थु, यमक, पट्ठान)। संदर्भ- बुध्दघोस की रचनाएंः भूमिकाः विशुद्धिमग्ग भाग- 1।
थेरवादी साहित्य पालि में निबद्ध है और इसका यह विशेष महत्व है कि किसी भी अन्य बौद्ध सम्प्रदाय का साहित्य इतने प्राचीन और सर्वांग-सम्पूर्ण रूप से मूल भारतीय भाषा में उपलब्ध नहीं है। यह निर्विवाद है कि अन्य सम्प्रदायों के प्राचीन साहित्य के चीनी अथवा तिब्बति अनुवादों के मूल का अधिकांश भाग नष्ट हो चुका है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ. 227)।
अन्य प्रसिध्द बौद्ध ग्रंथ- विसुद्धिमग्ग(बुद्धघोस), मिलिन्द-प×ह, दीपवंस और महावंस(दोनों सिंहलद्वीप के प्रसिद्ध ग्रंथ), महावत्थु, ललितविस्तर, बुद्धचरित(अश्वघोस) आदि।
मिलिन्द-प×ह में यवन राजा मिनान्डर और भिक्खु नागसेन(ई. पू. 150) के मध्य सम्पन्न संलाप संगृहित है। थेरवाद की सिंहली परंपरा इसे अनु-पिटक और म्यांमार तथा थाई परम्परा ति-पिटक मानती है। मिलिन्द-प×ह के 6 परिच्छेदों में पहले तीन ही प्राचीन लगते हैं(दर्शन-दिग्गदर्शन, पृ. 550)।
विसुद्धिमग्ग- यह तीन भागों और तेईस परिच्छेदों में विभक्त है। ग्रंथ का प्रधान विषय योग है। पहला भाग शील-निर्देश है, जिसमें शील और धुतांगों का वर्णन है। दूसरे भाग में समाधि-निर्देश है, जिसमें छह अनुस्मृति, समाधि आदि 11 परिच्छेद हैं। तीसरा भाग प्रज्ञा-निर्देश है, जिसमें स्कन्ध, आयतन-धातु, इंन्द्रिय-सत्य, पटिच्च समुप्पाद आदि 10 परिच्छेदों का समावेश है।
महावत्थु- इसे महासांघिकों का विनय-पिटक कहा जाता है। इसके 3 भाग है। पहले में दीपंकर आदि नाना अतीत बुद्धों के समय में बोधिसत्व की चर्या का वर्णन है, दूसरे में तुषित-लोक में बोधिसत्व के जन्म-ग्रहण से प्रारम्भ कर सम्बोधि-लाभ तक का विवरण है। तीसरे भाग में ‘महावग्ग’ के सदृश्य संघ के प्रारम्भिक उदय का वर्णन है(वही, पृ. 326)।
ललितविस्तर- बुद्ध-जीवनी के इस विशाल ग्रंथ में वैपुल्य-सूत्रा(प्रज्ञापारमिताएं आदि) के उपदेश के लिए बुद्ध से सहस्त्रों भिक्षुओं और बोधिसत्वों की परिषद में नाना देवताओं की अभ्यर्थना तथा मौन के द्वारा उसका बुद्ध से स्वीकार वर्णित है।बीच में तुषित लोक से बोधिसत्व के बहुत विमर्श के अनन्तर मातृ-गर्भ में अवतार से आरम्भ कर सम्बोधि के अनन्तर धर्म-चक्र प्रवर्तन तक का वृतान्त निरूपित किया गया है(वही, पृ. 327)।
प्रसिद्ध महायानी सूत्रा- प्रज्ञापारमिता, सद्धम्म-पुण्डरिक, सुखावतीव्यूह, मध्यमक-कारिका(नागार्जुन- 175 ई.), लंकावतारसूत्रा, महायान-सूत्रालंकार(असंग- 375 ई.), योगाचारभूमिशास्त्रा, विज्ञप्तिमात्रातासिद्धि(वसुबन्धु- 375 ई.), न्यायप्रवेश(दिग्नाग- 425 ई.), प्रमाणवार्तिक(धर्मकीर्ति- 600 ई.), बोधिचर्यावतार(शांन्तिदेव- 690-740 ई.), तत्वसंग्रह(शान्तरक्षित- 750 ई.), रत्नकूट, दिव्यादान, मंजुश्री-मूलकल्प(तांत्रिक-ग्रंथ) आदि। इन सूत्रों में एक ओर शून्यता के प्रतिपादन के द्वारा विशुद्ध निर्विकल्प ज्ञान का उपदेश किया गया है; दूसरी ओर, बुद्ध की महिमा और करुणा के प्रतिपादन के द्वारा भक्ति उपदिष्ट है(वही, पृ. 339)। महायानी सूत्रों का रचनाकाल ई.पू. प्रथम सदी से चौथी सदी तक मानना चाहिए(वही, पृ. 328-333)।
कंजूर-तंजूर- यह तिब्बति ति-पिटक का नाम है। कंजूर में 1108 और तंजूर में 3458 ग्रंथ संग्रहित हैं(वही, पृ. 332)।
प्रज्ञापारमिता- इसमें शून्यता का अनेकधा प्रतिपादन किया गया है। प्रज्ञापामितासूत्रों के अनेक छोटे-बड़े संस्करण प्राप्त होते हैं। यथा दशसाहस्त्रिाका, अष्टसाहस्त्रिाका, प×चविंशतिसाहस्त्रिाका, शतसाहस्त्रिाका, पंचशतिका, सप्तशतिका, अष्टशतिका, वज्रच्छेदिका, अल्पाक्षरा आदि हैं(वही, 334)।
अवतंसकसूत्रा- इस नाम से चीनी ति-पिटक और कंजूर में विपुलाकार सूत्रा उपलब्ध होते हैं। चीनी ति-पिटक में अवतंसकसूत्रा तीन शाखाओं में मिलता है जो कि क्रमशः 80, 60 और 40 जिल्दों में हैं(वही, पृ. 336)।
रत्नकूट- चीनी और तिब्बति ति-पिटकों में ‘रत्नकूट’ नाम से 49 सूत्रों का संग्रह उपलब्ध है। असंग(350 ई.) और शांतिदेव(690-740 ई.) के द्वारा रत्नकूट के उध्दरण प्राप्त होते हैं। बुद्धोन के अनुसार रत्नकूट के मूलतः 100,000 अध्याय थे जिनमें से केवल 49 शेष हैं(वही, पृ. 337)।
सुखावतीव्यूह- इस नाम से संस्कृत में 2 ग्रंथ उपलब्ध होते हैं। दोनों में अमिताभ बुद्ध का गुणगान है। ये सूत्रा जापान के ‘जोड़ो’ अथवा चीनी ‘चि’ एवं ‘शिन’ सम्प्रदाय के प्रधान ग्रंथ हैं (वही, पृ. 337)।
कारण्डव्यूह- इस ग्रंथ में ‘अवलोकितेश्वर’ की महिमा का विस्तार है। यहां एक प्रकार का ईश्वरवाद वर्णित है क्योंकि उसमें ‘आदिबुद्ध’ को ही ध्यान के द्वारा जगत-स्त्राष्टा कहा गया है। ‘आदिबुद्ध’ से ही अवलोकितेश्वर का आविर्भाव हुआ तथा अवलोकितेश्वर की देह से ‘देवताओं’ का। अवलोकितेश्वर पंचाक्षरी विद्या ‘ओम मणि पर्िंे हूँ ’ को धारण करते हैं।
लंकावतारसूत्र- यह योगाचार का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। सब कुछ प्रतिभासात्माक अथवा विकल्पात्मक भ्रान्तिमात्रा है, केवल निराभास एवं निर्विकल्प चित्त ही सत्य है- ग्रंथ का यह प्रतिपाद्य विषय दूसरे से सातवें परिवर्त(अध्याय) तक वर्णित है(वही, पृ. 339)।
सद्धम्मपुण्डरिक- इस ग्रंथ में निदान, उपाय कौशल्य, ओपम्य, अधिमुक्ति, औषधि; आदि कुल सत्ताईस परिवर्त हैं। मैत्राी, प्रज्ञा पारमिता ग्रंथ का प्रमुख विषय है। इसके रचयिता के बारे में कोई जानकारी नहीं है। ऐसी मान्यता है कि ईसा की पहली सदी में इस महायानी ग्रंथ की रचना की गई। भारत के बाहर नेपाल, तिब्बत, चीन जापान, मंगोलिया,भूटान, तायवान आदि देशों में यह एक पवित्रा ग्रंथ है। बीसवीं सदी में जापान के निचिरेन बौद्ध सम्प्रदाय के प्रसिध्द्ध आचार्य फ्युजी गुरुजी- जिन्होंने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध की भयानकता के दृष्टिगत कई देशों में बुध्द का शांति संदेश देते हुए विश्व-शांति स्तूपों का निर्माण किया; के प्रेणास्रोत सद्धम्मपुण्डरिक सूत्रा रहे हैंै(प्रस्तावनाः सद्धम्मपुण्डरिकसूत्राः प्रो. डॉ. विमलकीर्ति)।
बुद्ध उपदेश देते और भिक्खु उसे कंठस्थ कर लेते। बाद में कुछ भिक्खुओं को यह दायित्व सौंपा गया। ऐसे भिक्खुओं को 'भाणक' कहा जाता था। बुद्ध उपदेश लोक भाषा में देते थे। मगध और उसके आस-पास के क्षेत्र में जो भाषा बोली जाती थी, उसे आज हम 'पालि' के नाम से जानते हैं।
ईसा की पहली सदी तक बुद्ध-उपदेश मौखिक ही रहे। यद्यपि ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी पूर्व लिपि इजाद हो चुकी थी, जैसे कि हम अशोक शिलालेखों में देखते हैं। परन्तु बुद्ध बचनों को अभी कंठस्थ कर ही रखा जाता था। शायद, भिक्खुओं को यह अधिक सुगम प्रतीत होता था। अशोक ने अपने आदेशों को प्रसारित करने लेखन पद्यति को अपनाया। इसमें गलती होने अथवा उनके आदेशों/वचनों का मनमाना अर्थ निकालने की गुंजाईश नहीं थी, जैसे कि बुद्धकाल और तदन्तर बुद्ध-वचनों के साथ हुआ। सनद रहे, अपने शिलालेखों की लिपि को अशोक ने 'धम्मलिपि' कहा है।
ईसा की पहली सदी में शायद, तमाम बुद्ध वचनों को संग्रह करने की आवश्यकता हुई। भारत में बुद्ध वचनों और उनके प्रचारक बौद्ध भिक्खुओं का समूल उच्छेद बौद्ध विरोधी ताकतों द्वारा किया जा चुका था। और इस बौद्ध विरोधी षडयंत्र का नेतृत्व ब्राह्मणवाद कर रहा था। क्योंकि बुद्धिज़्म, ब्राह्मणवाद की जड़ों पर ही वार करता था, उसकी मूल स्थापनाओं पर प्रहार करता था। ब्राह्मणवाद के खौंप से बौद्ध भिक्खु धम्म-ग्रंथों के साथ, जितने वे अपने सिर पर लाद सकते थे, पडोसी देशों की शरण में गए । इसमें दक्षिण में सिंहलद्वीप(सिरिलंका), म्याँमार(बर्मा ), स्याम(थाईलेंड ) और चीन, तिब्बत, अफगानिस्तान उत्तर-पूर्व में प्रमुख हैं। सिहंल द्वीप में तो धम्म-प्रचार के लिए अशोक ने अपने पुत्र महिंद और पुत्री संघमित्ता को भेजा था। भारत में बौद्ध भिक्खु और बुद्ध वचनों की दुर्गति से हम भली-भांति परिचित हैं. यही कमोबेश हाल पडोसी देशों में भी हुआ। परन्तु दुश्मनों के हाथों से धम्म को दुर्गति से बचाने का वन्दनीय प्रयास सर्व-प्रथम सिंहल द्वीप में हुआ और इसके लिए वहां के राजा वट्ट गामिणि सामने आए थे ।
बुद्ध-वचनों के संग्रह के लिए बुद्ध के महापरिनिर्वाण से लेकर वर्तमान युग तक बुद्ध संगीतियों का आयोजन होता रहा है, जिसमें पहली संगीति तो बुद्ध महापरिनिर्वाण के तीन मास पश्चात(लगभग 483 ई. पू. ) ही हुई थी। यह संगीति राजगीर(राजगृह) के वैभार पर्वत स्थित सप्तपर्णी गुहा में महास्थविर महाकाश्यप की अध्यक्षता में हुई थी। इस संगीति में उपाली से विनय सम्बन्धी और बुद्ध के उपस्थापक आनंद से धम्म के बारे में पूछा गया था। उन्होंने जो कुछ भगवान से सुना, प्रस्तुत किया था। द्वितीय संगीति, प्रथम संगीति से 100 वर्ष बाद (लगभग 383 ई.पू ) महा स्थविर रेवत की अध्यक्षता में वैशाली में हुई थी। इस संगीति में प्रमुख रूप से विनय विरुद्ध आचरण पर उठे विवाद पर बुद्ध वचनों का संगायन हुआ था ।
तृतीय संगीति सम्राट अशोक के समय (लगभग 248 ई. पू. ) पाटलीपुत्र में हुई थी। इसके अध्यक्ष मोग्गलिपुत्त तिस्स थे। धम्म को राज्याश्रय होने से दूसरे मतावलम्बी भी खुद को बौद्ध बता कर अपने मत को भी बुद्ध-सम्मत बताने लगे थे। इस संगीति के बाद धम्म का काफी प्रचार-प्रसार हुआ। मोग्गलिपुत्त तिस्स ने अन्य वादों की तुलना में थेरवाद को स्थापित कर 'कत्थावत्थु' नमक ग्रन्थ की रचना की। चतुर्थ संगीति सिंहलद्वीप के शासक वट्ट गामणि(ई. पू. 29-17) के शासन काल में हुई थी.यह सिंहलद्वीप के मातुल जनपद की आलोक नामक गुहा में महास्थविर धम्मरक्खित की अध्यक्षता में संपन्न हुई थी। इस संगीति में तिपिटक और इस पर लिखी अट्ठकथाओं को पहली बार लिपिबद्ध किया गया(पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 1-2ः राहुल सांकृत्यायन)।
-------------------------
चतुर्थ संगीति के नाम से एक और बौद्ध संगीति का नाम आता है जो सम्राट कनिष्क के राज्यकाल में संपन्न हुई थी। कुछ के मतानुसार यह पंजाब के जालंधर में तो दूसरे कुछ लोगों के अनुसार कश्मीर में हुई थी। स्थविर वसुमित्र इसके सभापति थे और आचार्य बुद्धघोष उप-सभापति थे। इस संगीति में ति-पिटक के संस्कृत में भाष्य लिखे गए और ताम्र-पत्रों पर अंकित कर उन्हें पत्थरों की पेटियों में रखा गया।
पांचवी संगीति म्याँमार (बर्मा) के सम्राट मिन्डोन मिन(1871 ईस्वी ) के काल में रत्नपुञ्ञ नामक नगर में हुई थी। इस संगीति में भदंत जागर स्थविर की अध्यक्षता में सम्पूर्ण बुद्ध वचनों को संगमरमर की पट्टिकाओं पर उत्कीर्ण करा कर उन्हें एक स्थान पर गढवा दिया गया था(राहुल सांकृत्यायन : बुद्धचर्या )।
छटी संगीति बुद्ध परिनिर्वाण के 2500 वर्ष पूर्ण होने पर सन 1954 में बर्मा (म्याँमार ) की ही राजधानी रंगून के सिरिमंगल नामक स्थान में संपन्न हुई थी। भदंत रेवत स्थविर इसके अध्यक्ष थे। इस अवसर पर भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए भदंत आनंद कोसल्यायान के साथ बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर सम्मिलित हुए थे।
1. सुत्त-पिटक के 5 निकाय- दीघ-निकाय, मज्झिम-निकाय, संयुत्त-निकाय, अंगुत्तर-निकाय, खुद्दक-निकाय।
दीघ-निकाय- इसके तीन वग्ग(वर्ग); सीलक्खन्धवग्ग, महावग्ग और पथिकवग्ग में ब्रह्मजाल, साम××ाफल सुत्त, अम्बट्ठसुत्त, पोट्ठपाद सुत्त, महापदान सुत्त, महापरिनिब्बान सुत्त, लक्खनसुत्त, सिंगालोवाद सुत्त आदि 34 सुत्तों का संग्रह हैं। इसके कई सुत्त जैसे ‘आटानाटियसुत्त’ जिसमें भूतप्रेत संबंधी बाते हैं, काफी बाद के हैं(पालि साहित्य का इतिहास, पृ. 7ः राहुल सांकृत्यायन)।
मज्झिम-निकाय- इसके तीन पण्णासक(भाग); मूल-पण्णासक, मज्झिम-पण्णासक और उपरि-पण्णासक हैं। प्रथम दो पण्णासकों में 50-50 और अन्तिम में 52, इस प्रकार अलगद्दूपमसुत्त, अरियपरियेसनसुत्त, रट्ठपालसुत्त, अंगुलिमालसुत्त, अस्सलायनसुत्त, सुभसुत्त आदि कुल 152 सुत्त हैं। इसका घोटमुखसुत्त स्पष्ट रूप से बुद्ध महापरिनिर्वाण के बाद का है(वही, पृ. 12)।
परिवर्ती काल में बौद्ध-धर्म तथा दर्शन के विचारों के संबंध में मतभेद होने लगा था। प्रारम्भ में थेरवाद(स्थिरवाद) और महासांघिक दो निकाय थे, किन्तु बाद में कई निकाय हो गए। अशोक के समय(ई. पू. 247-232) इसके 18 निकाय हो चुके थे(वही, पृ. 3)।
सुत्तपिटक में दीघ, मज्झिम, संयुत्त तथा अंगुत्तर ये चारों निकाय और पांचवें खुद्दक निकाय के खुद्दक पाठ, धम्मपद, उदान, इतिवुत्तक और सुत्तनिपात अधिक प्रमाणिक है। सुत्त पिटक में आयी वे सभी गाथाएं जिन्हें बुद्ध के मुख से निकला ‘उदान’ नहीं कहा गया है, पीछे की प्रक्षिप्त ज्ञात होती है। इनके अतिरिक्त भगवान बुद्ध उनके शिष्यों की दिव्य शक्तियां और स्वर्ग, नरक, देव तथा असुर की अतिशयोक्तिपूर्ण कथाओं को भी प्रक्षिप्त ही माना जा सकता है(वही, पृ. 12)।
संयुत्त-निकाय- यह ग्रंथ 5 वग्ग(सगाथवग्ग, निदानवग्ग, खन्धवग्ग, सळायतनवग्ग और महावग्ग) तथा 56 संयुत्तों में विभक्त है। सगाथवग्ग में गाथाएं हैं। निदानवग्ग में प्रतीत्यसमुत्पादवाद के नाम से संसार-चक्र की व्याख्या की गई है। खन्धकवग्ग में पंच-स्कन्ध का विवेचन है। सळायतनवग्ग में पंच-स्कन्धवाद तथा सळायतनवाद प्रतिपादित है। महावग्ग में बौद्ध-धर्म, दर्शन और साधना के महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर व्याख्यान विद्यमान है(वही, पृ. 98)।
अंगुत्तर-निकाय- इसमें संख्या क्रम में 11 निपात हैं जो 160 वग्गों(वर्गों) में विभक्त हैं। कालामसुत्त, मल्लिकासुत्त, सीहनादसुत्त आदि इसके प्रसिद्ध सुत्त हैं। इसका 11 वां निपात स्पष्ट रूप से अप्रमाणिक है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ 232)।
खुद्दक-निकाय- इसके 15 ग्रंथ हैं-
1. खुद्दक-पाठ ;ज्ञचद्ध. यह छोटा-सा ग्रंथ है, जिसमें ति-सरण, दस शिक्षा-पद, मंगलसुत्त, रतनसुत्त आदि पाठ हैं। 2. धम्मपद- 423 गाथाओं के इस लघु-ग्रंथ में बुद्ध के उपदेशों का सार है, जो यमकवग्ग, चितवग्ग, लोकवग्ग आदि 26 वग्गों में संगृहित है। 3. उदान- आठ वग्गों में विभाजित 80 सुत्तों का लघुग्रंथ है। 4. इतिवुत्तक- इस लघु-ग्रंथ में 112 सुत्त, 4 निपात में संगृहित हैं जिसके प्रत्येक सुत्त में ‘इतिवुत्तं भगवता’(ऐसा भगवान ने कहा) पद बार-बार आता है। 5. सुत्तनिपात ;ैदद्ध- यह प्राचीन ग्रंथ पांच वग्ग; उरगवग्ग, चूलवग्ग, महावग्ग, अट्ठकवग्ग और पारायणवग्ग में विभक्त है जिसमें मेत्तसुत्त, पराभवसुत्त, रतनसुत्त, मंगलसुत्त, धम्मिकसुत्त, सल्लसुत्त, सारिपुत्त आदि अनेक सुत्तों का संग्रह हैं। 6. विमानवत्थु- इसके ‘इत्थिविमान’ और ‘पुरिसविमान’ दो भाग हैं। इसमें देवताओं के विमान(चलते प्रासादों) के वैभव का वर्णन है। यह बुद्ध-भाषित प्रतित नहीं होता। 7. पेतवत्थु- नरक के दुक्खों का वर्णन करते, इस लघु-ग्रंथ के 4 वग्गों में 51 वत्थु(कथा) हैं। यह स्पष्ट ही परवर्ती ग्रंथ है। 8. थेरगाथा- इस प्राचीन काव्य-संग्रह में महाकच्चायन, कालुदायी आदि 1279 थेरों की गाथाएं हैं। 9. थेरीगाथा- इस प्राचीन काव्य-संग्रह में पुण्णा, अम्बपालि आदि 522 थेरियों की गाथाएं संग्रहित हैं। 10. जातक कथा- इसमें बुद्धकाल के प्रचलित 547 लोक-कथाओं का संग्रह है। भारतीय कथा-साहित्य का यह सबसे प्राचीन संग्रह है। 11. निद्देस- ‘चूलनिद्देस’ और ‘महानिद्देस’ दो भागों में यह सुत्तनिपात की टीका हैं। महानिद्देस से बुद्धकालिन बहुत-से देशों तथा बंदरगाहों का भोगोलिक वर्णन प्राप्त होता है। 12. पटिसम्मिदामग्ग- इसमें अर्हत के प्रतिसंविद(आध्यात्मिक और साक्षात्कारात्मक ज्ञान) की व्याख्या है। यह ‘अभिधम्म’ की शैली में 10 परिच्छेदों में हैं। 13. अपदान- अपदान(अवदान) चरित को कहते हैं। इसके दो भाग; थेरापदान और थेरीपदान में पद्यमय गाथाओं का संग्रह है। 14. बुद्धवंस- यह पद्यात्मक ग्रंथ 28 परिच्छेदों का है और जिनमें 24 बुद्धों का वर्णन है। बौद्ध-परम्परा इसे बुद्ध-वचन नहीं मानती। 15. चरियापिटक- यह भी बुद्धवंस की शैली का है।(पालि साहित्य का इतिहासः पृ. 120-147)।
विनय-पिटक- इसमें भिक्खु-भिक्खुणियों के आचार नियम है। इसके 5 भाग; पाराजिक, पाचित्तिय, महावग्ग, चुल्लवग्ग और परिवार हैं। पाराजिक और पाचित्तिय जिसे ‘विभंग’ कहा गया है, में भिक्खुओं तथा भिक्खुणियों से संबंधित नियम हैं। महावग्ग और चुलवग्ग को संयुक्त रूप से ‘खन्धक’ कहा जाता है। परिवार, सिंहल में रचा गया यह 21 परिच्छेदों का ग्रंथ बहुत बाद का है(वही, पृ. 164)।
अभिधम्मपिटक- इसके मूल को पहले ‘मातिका’ कहा जाता था। यह दार्शनिक ग्रंथ अतिविशाल है। मातिकाओं को छोड़कर सारा अभिधम्म-पिटक पीछे का है। इसका एक ग्रंथ ‘कथावत्थु’ तो तृतीय संगीति के प्रधान मोग्गल्लिपुत्त तिस्स ने स्थविरवादी-विरोधी निकायों के खण्डन के लिए लिखा था। अभिधम्मपिटक 7 भागों में हैं- 1. धम्म-संगणि- इसको अभिधम्म का मूल माना जा सकता है। इसमें नाम(मन) और रूप-जगत की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। 2. विभंग- इसमें रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान स्कन्धों की व्याख्या दी गई है। 3. धातु-कथा- इस ग्रंथ में स्कन्ध, आयतन और धातु का संबंध धर्मों के साथ किस प्रकार से हैं, इसे व्याख्यायित किया गया हैं। 4. पुग्गल-प××ाति- पुग्गल(पुद्गल) की प××ाति(प्रज्ञप्ति) करना इस ग्रंथ का विषय है। इसमें व्यक्तियों का नाना प्रकार से विवेचन है। 5. कथा-वत्थू- इसके 23 अध्यायों में 18 निकायों के सिद्धांतों को प्रश्न और उसका समाधान के रूप में स्थविरवादी सिद्धांत की स्थापना की गई है। 6. यमक- इस ग्रंथ में प्रश्नों को यमक(जोड़े) के रूप में रख कर विषय को प्रस्तुत किया गया है। 7. पट्ठान- यह आकार में बहुत बड़ा अत्यन्त दुरूह शैली का ग्रंथ हैं। इसके 4 भाग हैं। इस ग्रंथ में धम्मों के पारस्परिक प्रत्यय-संबंधों का विधानात्मक और निषेघात्क अध्ययन प्रस्तुत किया गया है(वही, पृ. 167-179)।
अट्ठकथा- तिपिटक पर जो समय-समय पर टीका लिखी गई, उसे अट्ठकथा कहते हैं। अट्ठ अर्थात् अर्थ। ये अट्ठकथाएं कई देशों में कई लिपियों में प्राप्त हैं। सिंहल की प्राचीन अट्ठकथाओं में ‘महा-अट्ठकथा’(सुत्त-पिटक), ‘कुरुन्दी’(विनय-पिटक), ‘महा-पच्चरि’(अभिधम्मपिटक) का नाम आता है। इसके अलावा अन्धक-अट्ठकथा, संखेप-अट्ठकथा का भी उल्लेख है। महावंस के अनुसार, महेन्द्र सिंहल में पालि-तिपिटक के साथ अट्ठकथाएं भी लाए थे। अकेले बुद्धघोस(50 ईस्वी) ने इन अट्ठकथाओं पर जो अट्ठकथाएं लिखी, वे दृष्टव्य हैं- सुत्त-पिटक अट्ठकथाएं :- सुमúल-विलासिनी(दीघनिकाय), पप×च-सूदनी(मज्झिमनिकाय), मनोरथ-पूरणी(अúुत्तर निकाय), सारत्थ-पकासिनी(संयुत्त निकाय)। खुद्दक-निकाय की अट्ठकथाएं- परमत्थजोतिका(1. खुद्दक-पाठ 2. सुत्तनिपात 3. जातक)। धम्मपदअट्ठकथा। विनय-पिटक अट्ठकथाएं- समन्तपासादिका, कùावितरणी(पातिमोक्ख), अट्ठसालिनी(धम्मसúणी), सम्मोह विनोदिनी(विभú), धातुकथाप्पकरण-अट्ठकथा, पुग्गल-प××ातिप्पकरण-अट्ठकथा, कत्थावत्थुप्पकरण-अट्ठकथा, यमकप्पकरण-अट्ठकथा, पट्ठानप्पकरण-अट्ठकथा। अभिधम्म-पिटक की अट्ठकथाएं- 1. अत्थसालिनी(धम्म-सúणि) 2. सम्मोहविनोदिनी(विभú) 3. परमत्थदीपनी/प×चप्पकरण अट्ठकथा(धातु-कथा, पुग्गल-प××ाति, कथा-वत्थु, यमक, पट्ठान)। संदर्भ- बुध्दघोस की रचनाएंः भूमिकाः विशुद्धिमग्ग भाग- 1।
थेरवादी साहित्य पालि में निबद्ध है और इसका यह विशेष महत्व है कि किसी भी अन्य बौद्ध सम्प्रदाय का साहित्य इतने प्राचीन और सर्वांग-सम्पूर्ण रूप से मूल भारतीय भाषा में उपलब्ध नहीं है। यह निर्विवाद है कि अन्य सम्प्रदायों के प्राचीन साहित्य के चीनी अथवा तिब्बति अनुवादों के मूल का अधिकांश भाग नष्ट हो चुका है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ. 227)।
अन्य प्रसिध्द बौद्ध ग्रंथ- विसुद्धिमग्ग(बुद्धघोस), मिलिन्द-प×ह, दीपवंस और महावंस(दोनों सिंहलद्वीप के प्रसिद्ध ग्रंथ), महावत्थु, ललितविस्तर, बुद्धचरित(अश्वघोस) आदि।
मिलिन्द-प×ह में यवन राजा मिनान्डर और भिक्खु नागसेन(ई. पू. 150) के मध्य सम्पन्न संलाप संगृहित है। थेरवाद की सिंहली परंपरा इसे अनु-पिटक और म्यांमार तथा थाई परम्परा ति-पिटक मानती है। मिलिन्द-प×ह के 6 परिच्छेदों में पहले तीन ही प्राचीन लगते हैं(दर्शन-दिग्गदर्शन, पृ. 550)।
विसुद्धिमग्ग- यह तीन भागों और तेईस परिच्छेदों में विभक्त है। ग्रंथ का प्रधान विषय योग है। पहला भाग शील-निर्देश है, जिसमें शील और धुतांगों का वर्णन है। दूसरे भाग में समाधि-निर्देश है, जिसमें छह अनुस्मृति, समाधि आदि 11 परिच्छेद हैं। तीसरा भाग प्रज्ञा-निर्देश है, जिसमें स्कन्ध, आयतन-धातु, इंन्द्रिय-सत्य, पटिच्च समुप्पाद आदि 10 परिच्छेदों का समावेश है।
महावत्थु- इसे महासांघिकों का विनय-पिटक कहा जाता है। इसके 3 भाग है। पहले में दीपंकर आदि नाना अतीत बुद्धों के समय में बोधिसत्व की चर्या का वर्णन है, दूसरे में तुषित-लोक में बोधिसत्व के जन्म-ग्रहण से प्रारम्भ कर सम्बोधि-लाभ तक का विवरण है। तीसरे भाग में ‘महावग्ग’ के सदृश्य संघ के प्रारम्भिक उदय का वर्णन है(वही, पृ. 326)।
ललितविस्तर- बुद्ध-जीवनी के इस विशाल ग्रंथ में वैपुल्य-सूत्रा(प्रज्ञापारमिताएं आदि) के उपदेश के लिए बुद्ध से सहस्त्रों भिक्षुओं और बोधिसत्वों की परिषद में नाना देवताओं की अभ्यर्थना तथा मौन के द्वारा उसका बुद्ध से स्वीकार वर्णित है।बीच में तुषित लोक से बोधिसत्व के बहुत विमर्श के अनन्तर मातृ-गर्भ में अवतार से आरम्भ कर सम्बोधि के अनन्तर धर्म-चक्र प्रवर्तन तक का वृतान्त निरूपित किया गया है(वही, पृ. 327)।
प्रसिद्ध महायानी सूत्रा- प्रज्ञापारमिता, सद्धम्म-पुण्डरिक, सुखावतीव्यूह, मध्यमक-कारिका(नागार्जुन- 175 ई.), लंकावतारसूत्रा, महायान-सूत्रालंकार(असंग- 375 ई.), योगाचारभूमिशास्त्रा, विज्ञप्तिमात्रातासिद्धि(वसुबन्धु- 375 ई.), न्यायप्रवेश(दिग्नाग- 425 ई.), प्रमाणवार्तिक(धर्मकीर्ति- 600 ई.), बोधिचर्यावतार(शांन्तिदेव- 690-740 ई.), तत्वसंग्रह(शान्तरक्षित- 750 ई.), रत्नकूट, दिव्यादान, मंजुश्री-मूलकल्प(तांत्रिक-ग्रंथ) आदि। इन सूत्रों में एक ओर शून्यता के प्रतिपादन के द्वारा विशुद्ध निर्विकल्प ज्ञान का उपदेश किया गया है; दूसरी ओर, बुद्ध की महिमा और करुणा के प्रतिपादन के द्वारा भक्ति उपदिष्ट है(वही, पृ. 339)। महायानी सूत्रों का रचनाकाल ई.पू. प्रथम सदी से चौथी सदी तक मानना चाहिए(वही, पृ. 328-333)।
कंजूर-तंजूर- यह तिब्बति ति-पिटक का नाम है। कंजूर में 1108 और तंजूर में 3458 ग्रंथ संग्रहित हैं(वही, पृ. 332)।
प्रज्ञापारमिता- इसमें शून्यता का अनेकधा प्रतिपादन किया गया है। प्रज्ञापामितासूत्रों के अनेक छोटे-बड़े संस्करण प्राप्त होते हैं। यथा दशसाहस्त्रिाका, अष्टसाहस्त्रिाका, प×चविंशतिसाहस्त्रिाका, शतसाहस्त्रिाका, पंचशतिका, सप्तशतिका, अष्टशतिका, वज्रच्छेदिका, अल्पाक्षरा आदि हैं(वही, 334)।
अवतंसकसूत्रा- इस नाम से चीनी ति-पिटक और कंजूर में विपुलाकार सूत्रा उपलब्ध होते हैं। चीनी ति-पिटक में अवतंसकसूत्रा तीन शाखाओं में मिलता है जो कि क्रमशः 80, 60 और 40 जिल्दों में हैं(वही, पृ. 336)।
रत्नकूट- चीनी और तिब्बति ति-पिटकों में ‘रत्नकूट’ नाम से 49 सूत्रों का संग्रह उपलब्ध है। असंग(350 ई.) और शांतिदेव(690-740 ई.) के द्वारा रत्नकूट के उध्दरण प्राप्त होते हैं। बुद्धोन के अनुसार रत्नकूट के मूलतः 100,000 अध्याय थे जिनमें से केवल 49 शेष हैं(वही, पृ. 337)।
सुखावतीव्यूह- इस नाम से संस्कृत में 2 ग्रंथ उपलब्ध होते हैं। दोनों में अमिताभ बुद्ध का गुणगान है। ये सूत्रा जापान के ‘जोड़ो’ अथवा चीनी ‘चि’ एवं ‘शिन’ सम्प्रदाय के प्रधान ग्रंथ हैं (वही, पृ. 337)।
कारण्डव्यूह- इस ग्रंथ में ‘अवलोकितेश्वर’ की महिमा का विस्तार है। यहां एक प्रकार का ईश्वरवाद वर्णित है क्योंकि उसमें ‘आदिबुद्ध’ को ही ध्यान के द्वारा जगत-स्त्राष्टा कहा गया है। ‘आदिबुद्ध’ से ही अवलोकितेश्वर का आविर्भाव हुआ तथा अवलोकितेश्वर की देह से ‘देवताओं’ का। अवलोकितेश्वर पंचाक्षरी विद्या ‘ओम मणि पर्िंे हूँ ’ को धारण करते हैं।
लंकावतारसूत्र- यह योगाचार का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। सब कुछ प्रतिभासात्माक अथवा विकल्पात्मक भ्रान्तिमात्रा है, केवल निराभास एवं निर्विकल्प चित्त ही सत्य है- ग्रंथ का यह प्रतिपाद्य विषय दूसरे से सातवें परिवर्त(अध्याय) तक वर्णित है(वही, पृ. 339)।
सद्धम्मपुण्डरिक- इस ग्रंथ में निदान, उपाय कौशल्य, ओपम्य, अधिमुक्ति, औषधि; आदि कुल सत्ताईस परिवर्त हैं। मैत्राी, प्रज्ञा पारमिता ग्रंथ का प्रमुख विषय है। इसके रचयिता के बारे में कोई जानकारी नहीं है। ऐसी मान्यता है कि ईसा की पहली सदी में इस महायानी ग्रंथ की रचना की गई। भारत के बाहर नेपाल, तिब्बत, चीन जापान, मंगोलिया,भूटान, तायवान आदि देशों में यह एक पवित्रा ग्रंथ है। बीसवीं सदी में जापान के निचिरेन बौद्ध सम्प्रदाय के प्रसिध्द्ध आचार्य फ्युजी गुरुजी- जिन्होंने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध की भयानकता के दृष्टिगत कई देशों में बुध्द का शांति संदेश देते हुए विश्व-शांति स्तूपों का निर्माण किया; के प्रेणास्रोत सद्धम्मपुण्डरिक सूत्रा रहे हैंै(प्रस्तावनाः सद्धम्मपुण्डरिकसूत्राः प्रो. डॉ. विमलकीर्ति)।
No comments:
Post a Comment