Friday, March 1, 2019

लखनऊ बनाम नखलौ: बकलम राजेश चंद्रा

वैशाख माह की पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा कहते हैं। वैसे प्रचलन में इसे त्रिविधपावनी बुद्ध पूर्णिमा कहने की परम्परा है। त्रिविधपावनी का अर्थ होता है- तीन रूपों में पावन। अब तक के ज्ञात इतिहास में यह सर्वाधिक अनूठी घटना है कि 563 ईसा पूर्व जिस दिन राजकुमार सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ उस दिन वैशाख की पूर्णिमा थी।
राजकुमार सिद्धार्थ गौतम का जन्म लुम्बिनी में हुआ था। बौद्धों के चार महातीर्थों में भगवान बुद्ध का जन्म स्थल लुम्बिनी प्रथम तीर्थस्थान है। 29 वर्ष की आयु में राजकुमार सिद्धार्थ गौतम ने महाभिनिष्क्रमण किया अर्थात गृह त्याग किया। 35 वर्ष की आयु में वह ज्ञान को उपलब्ध हुए। उरुवेला में निरंजना नदी के तट पर पीपल के पेड़ के नीचे वह बुद्ध हो गये। जिस दिन वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उस दिन भी वैशाख की पूर्णिमा थी।
वह स्थान आज विश्वतीर्थ है- जिसे बोधगया कहते हैं। पीपल के जिस पेड़ के नीचे वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उसे बोधि वृक्ष कहते हैं। सारी दुनिया से बौद्ध श्रद्धालु इस तीर्थ स्थान के दर्शन करने आते हैं। न केवल बौद्ध बल्कि अन्य धर्मावलंबियों के लिए भी बोधगया एक दर्शनीय पावन स्थल है।
आने वाले जीवन में 45 वर्षों तक भगवान बुद्ध पूरे देश में चारिका करते हुए लोगों को ज्ञान देते रहे, उपदेश देते रहे, जन-जन में मैत्री, करुणा, समता, बन्धुता तथा ध्यान-साधना-विपस्सना का प्रचार करते रहे । लगभग 85 वर्ष की आयु में वे महापरिनिर्वाण को उपलब्ध हुए, कुसीनारा में, जिसे अब कुशीनगर कहते हैं। जिस दिन वह महापरिनिर्वाण को उपलब्ध हुए उस दिन भी वैशाख की पूर्णिमा थी। कुशीनगर भी बौद्धों के चार महातीर्थों में गणनीय है।
इस प्रकार भगवान बुद्ध के जीवन की तीन घटनाएं- जन्म, बुद्धत्व उपलब्धि और महापरिनिर्वाण- एक ही तिथि को हुईं- वैशाख पूर्णिमा को। इस नाते बुद्ध पूर्णिमा को त्रिविधपावनी बुद्ध पूर्णिमा कहते हैं।
अन्तरराष्ट्रीय पर्व
बुद्ध पूर्णिमा न केवल भारत का बल्कि सम्पूर्ण दक्षिण-पूर्व एशिया का एक महापर्व है। श्रीलंका, थाईलैंड, मलेशिया, म्यांमार, लाओस, इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा, जापान, कोरिया, वियतनाम इत्यादि देशों में इस दिन महान उत्सव होता है। थाईलैंड में बुद्ध पूर्णिमा को विशाखा पूजा कहते हैं। श्रीलंका में इस तिथि को वेसाक दिवस कहते हैं।
न केवल इतना, बल्कि 15 दिसम्बर' 1999 के बाद से बुद्ध पूर्णिमा एक अन्तरराष्ट्रीय पर्व हो गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की 79वीं योजना बैठक में यह निर्णय लिया गया है कि समस्त देशों में स्थित संयुक्त राष्ट्र संघ के समस्त कार्यालयों में बुद्ध पूर्णिमा का पर्व मनाया जाएगा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने बुद्ध पूर्णिमा को वेसाक दिवस के रूप में अन्तरराष्ट्रीय पर्वों की सूची में शामिल किया हुआ है। यह बड़े सुखद आश्चर्य की बात है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत के संविधान शिल्पी बोधिसत्व बाबा साहेब डा अम्बेडकर की जयंती भी मनाना शुरू किया है।
बुद्ध पूर्णिमा के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र संघ का आदेश कहता है:
"
नवम्बर 1998 में श्रीलंका में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय बौद्ध संगोष्ठी में व्यक्त आशा कि प्रत्येक वर्ष मई माह में घटित होने वाली पूर्णिमा को अन्तरराष्ट्रीय मान्यता मिले, तथा विशेषकर, संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालयों तथा संयुक्त राष्ट्र के कार्यालयों में, का संज्ञान लेते हुए यह मान्यता आत्मसात करते हुए कि प्रत्येक वर्ष मई माह में घटित होने वाली पूर्णिमा बौद्धों के लिए परम पावन तिथि है, जिस दिन बौद्ध समुदाय बुद्ध का जन्म, सम्बोधि एवं महापरिनिर्वाण मनाते हैं, यह स्वीकार करते हुए कि बुद्ध धम्म विश्व के प्राचीन धर्मो में से एक, विगत दो हजार पांच सौ वर्षों से, तथा अभी तक मानव की आध्यात्मिकता निर्मित करने में योगदान दे रहा है, संयुक्त राष्ट्र के कार्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय मान्यता संविधानीकृत करते हुए, संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालयों तथा संयुक्त राष्ट्र के कार्यालयों, संयुक्त राष्ट्र के सम्बन्धित अधिकारियों की सहमति तथा सहमति देने के इच्छुक अन्य स्थाई अभियानों की सहमति से, तथा संयुक्त राष्ट्र के मूल्यों में हस्तक्षेप के बिना, वेसाक दिवस को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मानने का, सभी सम्भव व्यवस्था करने का संकल्प करती है "
महापरिनिर्वाण भी पावन
एक बारीक बात और भी समझने जैसी है कि जन्म किसी का भी हो उसे पावन ही माना जाता है । आम जन में भी जब किसी बच्चे का जन्म होता है तो बड़ा उत्सव मनाया जाता है। मंगल गीत गाए जाते हैं। बधाइयाँ दी जाती हैं। जन्म पावन है।
कोई परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाए तो वह भी पावन तिथि हो जाती है। सिक्ख समाज अपने गुरूओं के जन्मदिन और ज्ञान दिवस को प्रकाश उत्सव के रूप में मनाता है। मुस्लिम भाई हज़रत मुहम्मद साहब के जन्मदिन और इल्हाम के दिन पर रोशनी करते हैं। इसाई समाज में जीसस के जन्मदिन और ज्ञान दिवस पर गिरजाघरों में मोमबत्तियाँ जलायी जाती हैं।
लेकिन किसी के भी जीवन के आखिरी दिन को पावन नहीं माना जाता। कोई नहीं कहता कि आज बड़ा पावन दिन है कि अमुक व्यक्ति की बरसी है। यूँ औपचारिकतावश पुण्य तिथि कह देने की परम्परा-सी है लेकिन वास्तव में किसी के भी जीवन के आखिरी दिन को पावन तिथि नहीं माना जाता। सच तो यह है कि उस दिन लोग थोड़ा उदास और भावुक होते हैं। लेकिन भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण दिवस को भी तीन पावन तिथियों में से एक पावन तिथि माना गया है। कारण? क्यों कि भगवान बुद्ध के जीवन की अन्तिम तिथि को बौद्ध कभी मृत्यु नहीं कहते बल्कि महापरिनिर्वाण कहते हैं।
दरअसल हम जिस मृत्यु से वाकिफ़ हैं वह जन्म के विपरीत एक घटना होती है। ज्यादातर धार्मिक और दार्शनिक मतों में मृत्यु के बाद पुनर्जन्म का सिद्धांत है। यहाँ तक कि इस्लाम और यहूदी मत में भी क़यामत के दिन रूहों के दोबारा जी उठने की मान्यता है। लेकिन भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण को बौद्ध कभी मृत्यु नहीं कहते बल्कि महापरिनिर्वाण कहते हैं क्योंकि बुद्ध जिस अवस्था को उपलब्ध हुए हैं उसके बाद अब उनका जन्म नहीं होना है, वह जन्म-मृत्यु के चक्र को तोड़ कर महापरिनिर्वाण को उपलब्ध हो गये हैं। ऐसा प्रस्थान भी पावन होता है। इसलिए भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण को भी तीन पावन तिथियों में से एक पावन तिथि माना गया है।
भगवान और ईश्वर
एक और बारीक बात समझने जैसी है कि बुद्ध को भगवान कहा जाता है। जब हम बुद्ध वन्दना करते हैं तो कहते हैं- इतिपि सो भगवा अरहं... समझने की बात यह है कि भगवान और ईश्वर समानार्थी या पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। बौद्ध लोग जब बुद्ध को भगवान कहते हैं तो इसका तात्पर्य यह नहीं होता कि बौद्ध लोग बुद्ध को ईश्वर मानते हैं। वे बुद्ध को भगवा कह कर अर्थात भगवान कह कर सम्बोधित करते हैं। भगवान बुद्ध जिस भाषा में उपदेश करते थे उसे अर्धमागधी कहते हैं जो कालान्तर में पालि भाषा कहलायी। पालि भाषा में भगवा अथवा भगवान शब्द के सुपरिभाषित अर्थ हैं- भग्ग रागोति भगवा, भग्ग मोहोति भगवा, भग्ग दोसोति भगवा, भग्ग तण्होति भगवा इत्यादि।
पाली भाषा में भग्ग का अर्थ होता है- भग्न करना, समूल नष्ट करना, जड़ से उखाड़ फेंकना, ध्वस्त करना। वान का अर्थ होता है- तृष्णा। इस प्रकार जिसने तृष्णा को समूल नष्ट कर दिया, जड़ से उखाड़ दिया वह भगवान है।
भग्ग रागोति भगवा अर्थात जिसने राग भग्न कर दिया वह भगवान है ; भग्ग मोहोति भगवा अर्थात जिसने मोह भग्न कर दिया वह भगवान है; भग्ग दोसोति भगवा अर्थात जिसने द्वेष भग्न कर दिया वह भगवान है; भग्ग तण्होति भगवा अर्थात जिसने तृष्णा भग्न कर दिया वह भगवान है। भगवान बुद्ध को इन अर्थों में भगवान कहा जाता है।
पालि भाषा में 'भग्ग' शब्द का एक अर्थ और भी है- भागीदार तथा 'वान' का भी एक अर्थ और है- सम्पन्न, सहित, सहायक, उपलब्धि इत्यादि। जैसे बलवान, धनवान, ज्ञानवान, रूपवान ऐसे भगवान। इस प्रकार, जो अपनी उपलब्धि लोगों को बांटे, उसमें और लोगों को भी भागीदार बनाए वह भगवान है। तो भगवान बुद्ध इन अर्थों में भी भगवान हैं। भगवान बुद्ध के अर्थों में 'भगवान' अलौकिक या कथित 'अवतारी' नहीं हैं। वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुए महामानव हैं जिसे उनके मार्ग पर चल कर, उनकी सिखावनियों का अनुपालन करके हर कोई उपलब्ध कर सकता है।
लखनऊ बनाम नखलौ
यह जानना रोचक होगा कि लखनऊ से भी भगवान बुद्ध का सम्बन्ध रहा है। शोधार्थियों का ऐसा मत है कि भगवान के धातु अवशेषों में उनके नाखूनों को लखनऊ के एक स्तूप में स्थापित किया गया था। इस नाते प्राचीन काल में लखनऊ को नखलौ कहा जाता था जो कि ग्रामीण अंचलों में अभी भी प्रचलन में है। नखलौ अर्थात भगवान बुद्ध के नाखूनों की लौ से आलोकित।
योगेश प्रवीण जी लखनऊ की एक बुलन्द इमारत जैसे व्यक्तित्व हैं जिन्हें देख कर नजरें ऊपर उठ जाती हैं और अदब से नजरें झुक भी जाती हैं। उन्हें लखनऊ का इनसाइक्लोपीडिया कहा जाए तो कम न होगा। लखनऊ के किसी भी गली-मुहल्ले, मन्दिर-मस्जिद, रीति-रिवाज का इतिहास जानना हो तो योगेश प्रवीण जी एक जीवन्त प्रमाणिक साक्ष्य माने जाते हैं। इस विषय पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। लखनऊ से बुद्ध धम्म के सघन सम्पर्क के उनके द्वारा उद्घाटित तथ्य उत्साहित करने वाले हैं।
योगेश प्रवीण जी एवं लखनऊ के अन्य इतिहासकारों ने सन्दर्भित किया है कि आज जहाँ अमौसी हवाई अड्डा है वहाँ किसी समय अमावसी बुद्ध विहार हुआ करता था जहाँ अमावस की रात को विशेष बुद्ध पूजा हुआ करती थी। वह अमावसी विहार ही अपभ्रंशित हो कर अमौसी बना है। लखनऊ की सीमा पर उन्नाव के निकट पिपरसण्ड गांव वास्तव में पीपल संघ था जो अपभ्रंशित हो कर पिपरसण्ड कहलाता है जहाँ पीपल के पेड़ बहुतायात में लगे थे जो कि आज भी देखे जा सकते हैं। वहाँ बौद्ध भिक्षुओं का तथा उपासकों का संघ बहुसंख्यक था।
ऐसे ही आज जहाँ बुद्धेश्वर महादेव मन्दिर है वहाँ किसी समय बुद्ध विहार हुआ करता था। लखनऊ के इतिहास के विशेषज्ञ श्री योगेश प्रवीण जी अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि आज जहाँ बड़ी काली जी का मन्दिर है वहाँ भी बौद्धों की महायानी शाखा का किसी समय तारा देवी का मन्दिर, बुद्ध विहार था। सोंधीटोला में एक चौराहे पर कई मूर्तियाँ हैं नयी सुहागिनें जिसकी परिक्रमा करतीं हैं। उसमें बीच की मूर्ति भगवान बुद्ध की है। वहीं पास में चारोधाम है, वहाँ भी एक मूर्ति भगवान बुद्ध की है।
डा दाऊजी गुप्त प्रकाण्ड बौद्ध विद्वान हैं। यूँ उनकी अधिक ख्याति इस बात को लेकर है कि लखनऊ के मेयर रहे हैं लेकिन वास्तव में वह बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी हैं। स्वतंत्रता संग्राम में आपका योगदान रहा है। देश-विदेश में एक बौद्ध विद्वान के रूप में आपकी ख्याति है।
महान व्यापारी नगरसेठ सुदत्त अनाथपिण्डक ने भगवान बुद्ध को राजकुमार जेत का उपवन खरीदकर भगवान बुद्ध को दान में दिया था- उसने सोने की मुद्राएं बिछा कर उपवन खरीदा था। डा दाऊजी गुप्त ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर अपनी वंशावली को सीधे अनाथपिण्डक से जुड़ा पाते हैं और वर्तमान युग में वह अपनी युवावस्था से बाबासाहेब डा अम्बेडकर के सम्पर्क में रहे हैं। विधानसभा के ठीक निकट हजरतगंज के बीच चौराहे पर बोधिसत्व बाबासाहेब डा अम्बेडकर की मूर्ति उनके कार्यकाल में ही स्थापित की गयी थी। वे भी लखनऊ के बौद्ध पुरातत्व के प्रमाणिक जानकार हैं तथा विगत शताब्दी की बौद्ध गतिविधियों के वे एक जीवन्त साक्ष्य हैं।
भगवान बुद्ध और लखनऊ
लखनऊ चार प्रमुख बौद्ध तीर्थों के लगभग मध्य में स्थित है- सारनाथ, श्रावस्ती, संकिसा और कुशीनगर। बौद्ध ग्रंथों के सन्दर्भ से भगवान बुद्ध के उन्नाव, मथुरा, संकिसा तथा बुन्देलखण्ड तक चारिका करने के प्रसंग मिलते हैं। इन स्थानों पर चारिका प्रसंग प्रमाण हैं कि भगवान बुद्ध का लखनऊ आगमन कई बार हुआ है क्योंकि इन स्थानों तक जाने का मार्ग लखनऊ हो कर ही है। भगवान बुद्ध ने मथुरा में मधुरा सुत्त का संगायन किया था। इस कारण मथुरा का बौद्धकालीन नाम मधुरा है।
भगवान बुद्ध ने ऋषिपत मृगदाय वन सारनाथ में प्रथम पांच शिष्यों को दीक्षा दिया था- कौण्डिण्य, वप्प, भद्दिय,अस्सजी और महानाम। सारनाथ भी चार महातीर्थों का एक अंग है। सारनाथ में उद्घोषित पहले उपदेश को धम्मचक्क पवत्तन सुत्त कहते हैं। इसी अवसर पर भगवान ने सद्घोषणा की थी- मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा- तथागत ने मध्यम मार्ग खोज निकाला है। भगवान से दीक्षा पाने वाले उनके प्रथम शिष्य कौण्डिण्य थे। भगवान की वाणी का प्रचार करने के लिए ऋषि कौण्डिण्य लखनऊ में गोमती नदी के तट पर आश्रम बना रहने लगे थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी लखनऊ के गोमती नदी के तट पर एक कौण्डिण्य घाट है जो अपभ्रंशित हो कर अब कुड़ियाघाट के रूप में लोकप्रिय है। गोमती नदी का बौद्ध ग्रंथों में, विशेषतः त्रिपिटक में, उल्लेख है। केसपुत्तीय नगर, जो कि अब उत्तर प्रदेश का जनपद सुलतानपुर है, में भगवान ने कालाम सुत्त का उपदेश किया था। उस समय के बौद्ध श्रद्धालुओं का एक गाँव वहाँ अभी भी अस्तित्व में है जिसका नाम धम्मौर है। यह नगर भी गोमती नदी के तट पर है।
111 साल पुराना बुद्ध विहार
लखनऊ न केवल उत्तर प्रदेश की राजधानी है बल्कि उत्तर भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र भी है, साम्प्रदायिकता समन्वय का मरकज़ भी है। जितने हर्षोल्लास के साथ यहाँ ईद मनायी जाती है, वैसे ही क्रिसमस डे भी मनाया जाता है, गुरुद्वारों में प्रकाश पर्व मनाए जाते हैं, होली-दशहरा-दीवाली मनायी जाती है, वैसे ही बुद्ध पूर्णिमा भी बड़े हर्षोल्लास के साथ मनायी जाती है। बुद्ध पूर्णिमा के दिन लखनऊ के बुद्ध विहारों में सुबह से गतिविधियाँ शुरू हो जाती हैं- बुद्ध-पूजा-वन्दना, सुत्त पाठ, परित्त पाठ, भिक्खुओं को भोजनदान, ध्यान-साधना-प्रवचन इत्यादि।
बीसवीं सदी की शुरुआत में लखनऊ बौद्ध गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है। सन् 1907 में, अमीनाबाद के निकट, गौतम बुद्ध मार्ग पर चटगाँव के पूज्य भन्ते कृपाशरण महास्थविर द्वारा बोधिसत्व बुद्ध विहार की स्थापना की गयी। 111 साल पुराने इस विहार में आज भी पूरे साल भर पूर्णिमा, अमावस्या, कृष्ण पक्ष की अष्टमी और शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन विशेष आयोजन होते हैं तथा बुद्ध पूर्णिमा के दिन तो पूरे दिन का उत्सव होता है। पारम्परिक बौद्धों का विहार होने के कारण इस विहार में साल भर बौद्ध गतिविधियाँ विनयानुसार होतीं हैं। पूज्य भन्ते बिस्वजीत इस विहार के वर्तमान प्रभारी हैं। इस बुद्ध विहार में सुभाष चन्द्र बोस, बाबा साहेब डा अम्बेडकर, कविवर रवीन्द्र नाथ टैगोर के आने के भी साक्ष्य हैं।
बुद्ध विहार और बाबासाहेब
दूसरा सर्वाधिक प्रसिद्ध बुद्ध विहार है- लालकुआँ स्थित "भदन्त बोधानन्द बुद्ध विहार"। इसकी स्थापना पूज्य भदन्त बोधानन्द के द्वारा सन् 1925 में की गयी थी। इस बुद्ध विहार की प्रसिद्धि दो कारणों से है। पहला कारण यह कि भदन्त बोधानन्द के निमंत्रण पर भारत के संविधान शिल्पी बोधिसत्व बाबा साहेब डा अम्बेडकर 25 अप्रैल सन् 1948 और 1951 में इस विहार में आए थे। वे जब भी लखनऊ आते थे तो पूज्य भदन्त बोधानन्द का दर्शन करने इस विहार में अवश्य आते थे। वास्तव में बाबा साहेब भदन्त बोधानन्द से धम्म दीक्षा लेना चाहते थे। लेकिन सन् 1956 में जब बाबा साहेब डा अम्बेडकर द्वारा धम्म दीक्षा ली गयी तब तक भदन्त बोधानन्द जी शान्त हो चुके थे।
इस विहार की प्रसिद्धि का दूसरा कारण कि भदन्त बोधानन्द के शिष्य भदन्त गलगेदर प्रज्ञानन्द महाथेर उस सप्तवर्गीय भिक्खु संघ के अंग रहे जिसने बोधिसत्व बाबासाहेब एवं उनके साथ लाखों अनुयायियों को 14 अक्टूबर' 1956 को नागपुर में धम्म दीक्षा दी। अभी विगत वर्ष 30 नवम्बर'2017 को पूज्य भदन्त गलगेदर प्रज्ञानन्द महाथेर परिनिर्वाण को उपलब्ध हो गये। उनके पार्थिव शरीर के दर्शन करने के लिए उत्तर प्रदेश के महामहिम राज्यपाल श्री रामनाइक, मा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती जी, मा श्री अखिलेश यादव जी, भारत के महामहिम उपराष्ट्रपति श्री वेंकैया नायडू, महामहिम राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविन्द जी सहित श्रीलंका तथा नेपाल के अलावा देश-विदेश के उच्चाधिकारी तक शामिल हुए।
लखनऊ के आधुनिक बौद्ध स्थल
बुद्धा पार्क, डालीगंज
अस्सी और नब्बे के दशक तक लखनऊ के दो पार्क आकर्षण के मुख्य केंद्र हुआ करते थे- एक बुद्धा पार्क और दूसरा हाथी पार्क जिसे अब महावीर पार्क भी कहते हैं। इन पार्कों में स्कूलों की पिकनिक आया करती थी। यह पार्क सभी आयु वर्ग के लोगों को लुभाती थी। सन् 1980 में स्थापित बुद्धा पार्क में भी बुद्ध पूर्णिमा के दिन बौद्ध श्रद्धालुओं के द्वारा बुद्ध पूजा, प्रवचन, गीत-संगीत के कार्यक्रम होते हैं। इस पार्क में बुद्ध पूर्णिमा मनाने की परम्परा सक्रिय बौद्ध गौतम जयंत जी द्वारा की गयी जो कि आज भी अनवरत है। चूंकि यह एक पिकनिक स्पॉट है इस नाते यहाँ पर यहाँ पर सभी धर्म-सम्प्रदाय के लोग आते हैं, नौका विहार करते हैं और भगवान की मुस्कराती हुई मौन मूर्ति सबके ऊपर आशीष की वर्षा करती रहती है। उत्तर प्रदेश के किसी सार्वजनिक पार्क में स्थित शायद यह विशालतम मूर्ति है। इसे आर्ट कालेज, लखनऊ के शिल्पकारों के द्वारा बनाया गया था।
बुद्ध स्थली परिवर्तन चौक
बेगम हजरतमहल पार्क के सामने स्थित धम्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा की चौमुखी मूर्तियाँ बड़ी संदेशात्मक मूर्तियाँ हैं। यह उस समय की मुद्रा है जब भगवान बुद्ध ने पहला उपदेश दिया था। उसे धम्मचक्क पवत्तन सुत्त कहते हैं। इस सुत्त में भगवान ने दुःख, दुःख का कारण और उसके निवारण का उपाय बताया है।
बुद्ध स्थली परिवर्तन चौक पर भी बौद्ध श्रद्धालु प्रत्येक रविवार की सुबह एकत्रित हो कर बुद्ध वन्दना तथा ध्यान-साधना करते हैं और बुद्ध पूर्णिमा के दिन इस इस स्थान पर हर वर्ष लखनऊ के सभी बौद्ध श्रद्धालुओं के द्वारा सामूहिक रूप से हर्षोल्लास के साथ 'बुद्ध पूर्णिमा महोत्सव' मनाया जाता है जिसके अन्तर्गत बुद्ध पूजा, वन्दना, ध्यान-साधना, भिक्खु संघ को भोजनदान, धम्म देशना, सांस्कृतिक कार्यक्रम इत्यादि सम्पन्न होते हैं। इन कार्यक्रमों की शुरुआत लगभग दो दशक पहले भारत में बुद्ध धम्म के उत्थान को समर्पित उत्तर भारत की अग्रदूत संस्था समन्वय सेवा संस्थान द्वारा की गयी जो कि आज भी यथावत सक्रिय है।
शान्ति उपवन बुद्ध विहार
अन्तरराष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा संचालित शान्ति उपवन बुद्ध विहार शायद उत्तर प्रदेश का सबसे विशाल सरकारी बुद्ध विहार है, लगभग 32.5 एकड़ में व्याप्त। इस विहार में एक समृद्ध पुस्तकालय है जिसमें त्रिपिटक सहित समस्त बौद्ध ग्रन्थ हैं। कदाचित यह देश का सबसे विशाल बौद्ध पुस्तकालय है। यहाँ शोधार्थी अध्ययन करते हैं। इस बुद्ध विहार में भी प्रत्येक रविवार बौद्ध श्रद्धालु ध्यान-साधना-विपस्सना, बुद्ध पूजा तथा धम्म देशना के लिए एकत्रित होते हैं और इस परिसर में राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर की बौद्ध संगोष्ठियाॅ-सेमिनार इत्यादि निरन्तर होते रहते हैं।
अलावा इसके डा अम्बेडकर स्मारक तथा सामाजिक परिवर्तन स्थल, गोमती नगर आधुनिक बौद्ध स्थल हैं जो आमजन के आकर्षण का केंद्र हैं। ये स्थान लखनऊ के आधुनिक पर्यटन स्थल भी हैं जिससे राज्य सरकार को राजस्व की प्राप्ति होती है। यह स्थान फिल्म जगत को भी आकर्षित करने लगे हैं। कई फिल्मों की शूटिंग इन स्थानों पर हुई है।
महाराष्ट्र में नागपुर के बाद उत्तर भारत में लखनऊ बौद्ध गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बनता जा रहा है। इस वर्ष 2018 से लखनऊ में अन्तरराष्ट्रीय त्रिपिटक संगायन की परम्परा भी शुरू हो रही है जो भारत में सातवीं संगीति की पदचाप है।

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