Friday, November 30, 2018

ञाण और पञ्ञा (मिलिंद पञ्हो)

पालि सुत्तों को संक्षेप में देने का हमारा उद्देश्य धम्म के साथ पालि से परिचय कराना है। 
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-

 ञाण और पञ्ञा
"किं भंते ! यं येव ञाणं सा येव पञ्ञा ?"
 "क्या ज्ञान और प्रज्ञा दोनों एक ही चीज है ?"
"आम महाराज ! यं येव ञाणं सा येव पञ्ञा ?"
"हाँ, महाराज ! ज्ञान और प्रज्ञा दोनों एक ही है।"

"भंते नागसेन ! यस्स ञाणं  उप्पन्न,
"भंते ! नागसेन !  जिसको ज्ञान उत्पन्न होता है,
तस्स पञा उपपन्ना ?"
उसको क्या प्रज्ञा भी उत्पन्न हो जाती है ?"
"आम महाराज ! यस्स ञाणं  उप्पन्न,
"हाँ महाराज !  जिसको ज्ञान उत्पन्न होता है,
तस्स पञा उपपन्ना ?"
उसको प्रज्ञा भी उत्पन्न हो जाती है।"

"यस्स पन भंते !
"भंते ! यदि ऐसी बात है
किं सम्मुय्हेय्य सो , उदाहु न सम्मुय्हेय्य ?"
तो वह मोह में पड़ेगा या नहीं ?"

"कत्थचि  महाराज ! सम्मुय्हेय्य,
"महाराज ! कहीं  मोह में होगा  ,
 कत्थचि न सम्मुय्हेय्य।
कहीं नहीं होगा ।

यस्स ञाणं न उप्पन्नंं,
महाराज ! जिन विषयों का उसे ज्ञान नहीं है,
तस्स सम्मुय्हेय्य
उन विषयों में उसे मोह होगा और
यस्स ञाणंं  उप्पन्नंं
जिन विषयों का उसे ज्ञान  है,
तस्स न सम्मुय्हेय्य।"
उस में उसे मोह नहीं  होगा।"

"मोहो पनस्स, भंते ! कुहिं गच्छति ?"
"किन्तु भंते ! मोह कहाँ चला जाता है ?"
"मोहो खो, महाराज ! ञाणे उप्पन्नेमत्ते तत्थेव निरुज्झति।"
"महाराज ! ज्ञान उत्पन्न होने से मोह का नाश हो जाता है।"

"ओपम्मं करोहि। "
"कृपया उपमा दें।"
"यथा महाराज ! कोचिदेव पुरिसो
"महाराज ! जैसे कोई पुरुष
अन्धकार गेहे पदीपं पदीपेय्य
अँधेरी कोठरी में दीया जला दे।
ततो अंधकारो निरुज्झेय्य, आलोको पातुभवेय्य
उससे अँधेरा चला जाए, आलोक उदय हो ।
एवमेव खो, महाराज ! ञाणे उप्पन्नमत्ते
महाराज , उसी तरह ज्ञान के उत्पन्न होते ही
मोहो तत्थेव निरुज्झति।"
मोह चला जाता है।"
स्रोत- ञाण-पञ्ञा पञ्हो: मिलिंद पञ्हो
प्रस्तुति - अ  ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com

Thursday, November 29, 2018

प्रज्ञा की पहचान(मिलिंद पञ्हो)

पालि सुत्तों को संक्षेप में देने का हमारा उद्देश्य धम्म के साथ पालि से परिचय कराना है। 
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-

‘‘भन्ते नागसेन, किं लक्खणा पञ्ञा ?’’
‘‘भन्ते नागसेन, पञ्ञा की क्या पहचान है?’’
‘‘महाराज, ओभासन लक्खणा पञ्ञा।’’
"महाराज, प्रकाशित करना  पञ्ञा की पहचान है।’’
‘‘कथं, भन्ते,  ओभासन ?’’
‘‘भन्ते, कैसे प्रकाशित करना है?’’

‘‘पञ्ञा महाराज, उप्पज्जमाना
‘‘महाराज, पञ्ञा उत्पन्न होने से
अविज्जन्धकारं विधमेति,
अविद्या रूपी अन्धकार का विध्वंश होता  है,
विज्जोभासं जनेति
’’विद्या रूपी प्रकाश पैदा होता है "
ञाणालोकं विदस्सेति। "
ज्ञान का आलोक देखाई देता है। "

‘‘ओपम्मं करोहि?’’
‘‘उपमा दीजिए’’

‘‘यथा महाराज, पुरिसो
‘‘जैसे महाराज, कोई पुरुष
अन्धकारे गेहे पदीपं पवेसेय्य,
अँधेरे घर में दीपक के साथ प्रवेश करे
पविट्ठो पदीपो अन्धकारं विधमेति
दीपक के प्रवेश होते ही अन्धकारे का विध्वंश हो
ओभासं जनेति, आलोकं विदस्सेति
उजाला पैदा हो, आलोक देखाई दे
रूपानि पाकटानि करोन्ति ।’’
चीजें दिखने लगें ।’’

"एवमेव खो महाराज
‘‘उसी प्रकार महाराज
पञ्ञा उप्पज्जमाना
पञ्ञा के उत्पन्न होने से
अविज्जन्धकारं विधमेति,
अविद्या रूपी अन्धकार का विध्वंश होता है
विज्जोभासं जनेति,
विद्या रूपी उजाला पैदा होता है
ञाणलोकं विदस्सेति । "
ज्ञान का आलोक देखाई देता है। "

‘‘कल्लोसि, भन्ते नागसेन’’, यवनो राजा मिलिन्दो आह।
‘‘दुरुस्त है, भन्ते नागसेन।’’-यवन राजा मिलिन्द ने कहा।
स्रोत -पञा लक्खण पञ्हो: मिलिंद पञ्हो
-अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com

नाना धम्मा एकं अत्थं(मिलिंद पञ्हो)

पालि सुत्तों को संक्षेप में देने का हमारा उद्देश्य धम्म के साथ पालि से परिचय कराना है। 
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-

"कि नु  भंते ! नागसेन,
"क्या भंते ! नागसेन,
इमे धम्मा नाना संता
ये नाना प्रकार के धर्म
एकं अत्थं
एक ही लक्ष्य पर
अभिनिफ्फादेन्ति ?" राजा मिलिन्दो आह।
कार्य-निष्पादन करते हैं ?"

"आम महाराज !
"हाँ, महाराज !
इमे धम्मा नाना संता
ये धर्म नाना प्रकार के
एकं अत्थं
एक ही लक्ष्य पर
अभिनिफ्फादेन्ति ।"
कार्य-निष्पादन करते हैं ?" -भंते नागसेन ने समाधान किया ।


"भंते ! ओपम्म करोहि।"
"भंते ! कृपया उपमा दें ।"

"यथा महाराज ! सेना
"महाराज ! जैसे  सेना
नाना संता हत्थी च अस्सा च रथा च पत्तीच
हाथी घोड़े, रथ और पैदल सिपाही
एकं अत्थं अभिनिफ्फादेन्ति ।
एक ही लक्ष्य पर कार्य-निष्पादन करते हैं।
 संगामे परसेनं
संग्राम में पर-सेना पर
अभिविजिन्ति
विजय प्राप्त करते हैं

एवमेव खो महाराज !
उसी तरह, महाराज !
इमे धम्मा नाना संता
ये धर्म नाना प्रकार के
एकं अत्थं
एक ही लक्ष्य पर
अभिनिफ्फादेन्ति ।"
कार्य-निष्पादन करते हैं"

"कल्लोसी, भंते नागसेन !"
"भंते ! आपने ठीक कहा।  महाराजा मिलिंद ने संतुष्ट होकर कहा (स्रोत- सोळसमो: मिलिंद पञ्हो)।"
प्रस्तुति- अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com  

Wednesday, November 28, 2018

अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं(मिलिंद पञ्हो)

पालि सुत्तों को संक्षेप में देने का हमारा उद्देश्य धम्म के साथ पालि से परिचय कराना है। 
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-

भंते ! क्या अभाव से भाव की उत्पत्ति होती है ?
महाराज ! अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं होती
बल्कि, भाव से ही भाव की उत्पत्ति होती है।
कृपया उपमा दें ?

महाराज ! कुम्हार जमीन से मिटटी खोदकर
उससे अनेक प्रकार के बर्तनों को गढ़ता है।
ये बर्तन न होकर, हो जाते हैं
क्योंकि उनकी स्थिति का प्रवाह मिटटी से चला आता है।

कृपया और उपमा दें ?
महाराज ! यदि खोखला काठ, दंड, तार और
कोई बजाने वाला न हो तो वीणा बजेगी ?
नहीं भंते !
और यदि ये सभी चीजें हो तो तब ?
भंते ! तब वीणा बजेगी ।
महाराज ! इसी तरह वही चीजें पैदा होती हैं,
जिनकी स्थिति का प्रवाह पहले से चला आता है।

कृपया और उपमा दें ?
महाराज ! यदि जलाने वाला काच न हो,
सूरज की गर्मी न हो और सूखा कंडा भी न हो
तो क्या आग जलेगी ?
नहीं भंते !
और यदि सभी चीजें हो तब ?
भंते ! तब आग जलेगी।
महाराज ! इसी तरह वही चीजें पैदा होती हैं,
जिनकी स्थिति का प्रवाह पहले से चला आता है।
भंते ! आपने बिलकुल साफ कर दिया।
स्रोत- मिलिंद पञ्हो

आर. आर. पाटिल

आर. आर. पाटिल
बाबा साहब अम्बेडकर को, उनके मूव्हमेंट को जानना अच्छा लगता है और उन लोगों के बारे में भी जानना अच्छा लगता  है जो बाबासाहब के साथ थे, उनके कन्धों से कन्धा मिला कर काम करते थे।  इसी तरह की एक शख्सियत थे- आर. आर. पाटिल

 प. पू. डॉ बाबासाहब अम्बेडकर स्मारक समिति में सक्रीय सदस्य के रूप में पाटिल का योगदान हमेशा लोगों को याद रहेगा । पाटिल, प्रारम्भ से ही एड. सखाराम मेश्राम, पं. रेवारामजी कवाड़े, डॉ, स. वि. रामटेके आदि के साथ  समाज को अपनी अमूल्य सेवा देते रहे। आर आर पाटिल समता सैनिक दल  के महासचिव भी रहे।
नागपुर की एक्सप्रेस मिल में हेड क्लर्क के पद पर कार्य उनकी आजीविका का साधन था। उनकी पत्नी इंदिरा बाई भी दलित महिला विंग की सक्रीय कार्य-कर्ता थी। पाटिल साहब का निवास अम्बेडकर मुव्हमेंट के कार्य-कर्ताओं के लिए विश्राम स्थल जैसे था।  इंदिरा बाई कार्य-कर्ताओं की पूरी वात्सल्य के साथ खूब सेवा करती थी।

वा का गाणार (वासुदेवराव गाणार )
बौद्ध प्रिय आंबेडकरी चळवळीतील ज्येष्ठ नेते व रिपब्लिकन पक्षाचे नेते ,ॾॉ.बाबासाहेब आंबेडकर स्मारक समितीचे संस्थापक मा.वासुदेवजी गाणार



Tuesday, November 27, 2018

हीनयान और महायान

बुद्धवचन की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं के परिणाम-स्वरूप बुद्ध का संघ स्थिरवाद(थेरवाद) और महासांघिक वर्गों में विभाजित हो गया था। बाद में स्थविरवाद को हीनयान और महासांघिक एवं उसकी उप शाखाओं को महायान नाम से पुकारा जाने लगा था। हीनयान(स्थविरवाद) बुद्ध को अलौकिक(अवलौकिक) नहीं मानता, लेकिन महायान शाक्य-मुनि को अलौकिक और लोकोत्तर मानता है। महायानी मानते हैं कि बुद्ध इस लोक में नहीं आए थे और न ही उन्होंने उपदेश दिया था। जिस बुद्ध ने उपदेश दिया था, वह केवल बुद्ध द्वारा निर्मित एक रूप था। उनके अनुसार बुद्ध का संसार में आना और धर्मोपदेश करना मात्र एक माया थी। बुद्ध लोक में पिता और स्वयंभू हैं और सदा से गृह्कूट पर्वत पर निवास करते हैं।  लेकिन हीनयान की मान्यता है कि पारमिताओं को पूर्ण कर बुद्ध इस जगत में जन्म लेते हैं, उपदेश देते हैं और महापरिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं। वह सदा जीवित रहने वाले नहीं हैं। उनका महापरिनिर्वाण हो जाने पर वह कहाँ जाते हैं, इसका कोई पता नहीं है(डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक, पृ 294)।

थेरवादी(हीनयानी) विचारधारा ने क्रमश: दो दार्शनिक सिद्धांतों; वैभाषिक(बाह्यवाद) एवं सौत्रान्तिक (बाह्यतरवाद) को जन्म दिया। इसी प्रकार महायान में दो दार्शनिक सिद्धांत; योगाचार(विज्ञानवाद) और माध्यामिक(शून्यवाद) विकसित हुए। इन दार्शनिक सिद्धांतों ने भारतीय दर्शन को विकास की चरम सीमा तक पहुंचा दिया। अफगानिस्तान के महान दार्शनिक असंग और वसुबन्धु दोनों भाइयों ने बौद्ध दर्शन के क्षेत्र में अक्षुण्य सेवा की। आचार्य नागार्जुन के द्वारा प्रतिपादित शून्यता के सिद्धांत(शून्यवाद) ने बौद्ध दर्शन को सर्वोच्च स्थान पर पहुंचा दिया और उसकी श्रेष्ठता और उच्चता से बौद्ध दर्शन ही नहीं, बल्कि शंकराचार्य जैसे हिन्दू दार्शनिक प्रभावित रहे बिना नहीं रह सके। शंकराचार्य ने अपने अद्वेत वेदांत की आधारशिला शून्यता के सिद्धांत (शून्यवाद) पर रखी। शंकराचार्य के गुरु गोविन्दाचार्य थे। गोविन्दाचार्य के गुरु गौडपादाचार्य के प्रसिद्द ग्रन्थ मांडूक्यकारिका पर नागार्जुन के माध्यमिककारिका का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। इस ग्रन्थ का प्रभाव शंकर पर भी पड़ा। इसलिए आज भी विश्व के अनेक दार्शनिक शंकराचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध कह कर पुकारते हैं(वही, पृ 294 -295)।

हीनयान अर्थात स्थविरवाद ने शील, सदाचार और वैयक्तिक निर्वाण पर अत्यधिक बल दिया था। उसके बुद्ध के दर्शन और शिक्षाओं को यथाशक्ति मूल रूप में रखने का प्रयास किया था। उधर, महायान ने भी हीनयान(थेरवाद) के शील-सदाचार, भिक्खु-चर्या को बहुत कुछ स्वीकार कर लिया था। यथार्थ में महायानी भिक्खु भी उन्हीं विनय-नियमों को मानते थे, जिन्हें हिनयानी भिक्खु भी मानते थे। इन दोनों में अंतर केवल इतना था कि महायानी आदर्श और साध्य में हीनयान के वैयक्तिक निर्वाण को हीन, स्वार्थपूर्ण मानते थे और वैयक्तिक मुक्ति के स्थान पर प्राणी-मात्र को दुक्ख से मुक्त करने के लिए अपने अनंत जन्मों का उत्सर्ग करना एकमात्र जीवन का परम एवं सर्वोच्च साध्य मानते थे। बौद्ध-धर्म के क्षणिक और अनात्मवादी दर्शन को और आगे बढ़ाते हुए महायानी भिक्खुओं ने नागार्जुन के माध्यमिक और शून्यवाद-दर्शन एवं असंग के योगाचार अथवा विज्ञानवादी दर्शन को शिखर तक पहुंचाया (डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक : पृ 446)।

Monday, November 26, 2018

आचार्य सरहपा

आचार्य सरहपा
बौद्ध धर्म में सहस्त्रों दार्शनिक हुए हैं , जिनकी गिनती करना कठिन है। इन दार्शनिकों का आरंभ थेरवादी भिक्खु नागसेन से माना जा सकता है।  इस कड़ी में आठवी शताब्दी में हुए बौद्धाचार्य सरहपा भारत के इतिहास की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है(डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक पृ 445)।

इस महान कवि, संत, सिद्ध, विचारक एवं दार्शनिक के प्रादुर्भाव से एक नए यूग की सूचना मिलती है। इससे एक शताब्दी पूर्व वसुबन्धु, दिनांग और धर्मकीर्ति जैसे महायानी दार्शनिक हो चुके थे और बौद्ध धर्म हीनयान और महायान की चरम सीमा पर पहुँच चुका था। और, अब इसे मंत्रयान, वज्रयान और सहजयान की उंचाईयां छूना था। आचार्य सरहपा इसके प्रणेता थे(वही)।

आचार्य सरहपा सहज जीवन के पक्ष धर थे।  वे भक्ष्य-अभक्ष्य, गम्य-अगम्य की पुरानी धारणाओं और प्रत्ययों पर सीधी चोट करते थे। बुद्ध के समय की पालि भाषा अब विस्मृत हो चली थी। अब बौद्ध विद्वान और भिक्खु   पालि के स्थान पर 'पालि- मिश्रित संस्कृत'  में बौद्ध-ग्रन्थ लिखने लगे थे। सरहपा ने भी 'पालि-संस्कृत' को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया(वही)।

सरहपा के समय एक नवीन धार्मिक प्रवाह को हम प्रवाहित होते देखते हैं जो आज भी संत-परम्परा के रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित है। इस परम्परा में गुरु का वचन सर्वोपरि माना जाता है। सनद रहे, तिब्बती परम्परा में ला-मा का अर्थ गुरु होता है और यही वजह है कि तिब्बत में  'बुद्धं सरणं गच्छामि' ति-सरण  के स्थान में इसके पूर्व  'गुरुं सरणं गच्छामि' कह चतु-सरण का अनुशरण किया जाता हैं। तिब्बती सरहपा की शिक्षाओं को बुद्ध से अधिक मान्यता देते हैं(वही, पृ  447 )।

सरहपा के जीवन के बारे में जानकारी हमें तिब्बती ग्रंथों से प्राप्त होती हैं। प्रतीत होता है सरहपा का पूर्व नाम राहुल भद्र अथवा सरोरुह था। उन्होंने नालंदा में विद्या-अध्ययन किया था। वे नालंदा में 'महापंडित' के रूप में  प्रसिद्धि पा चुके थे।  नालंदा में रहते हुए उनके एक अध्यापक हरिभद्र थे।  हरिभद्र, धर्मकीर्ति के समान शांत रक्खित के शिष्य थे। हरिभद्र राजा धर्मपाल (770 -815  ई. )  के समकालीन थे(वही, पृ. 447 -450 )।

सरहपा ने अनेक ग्रंथों की रचना की।  उन्होंने अनेक संस्कृत ग्रन्थ, विशेषकर तंत्रों की टिकाएं एवं व्याख्याएं लिखी जो तिब्बती टी-पिटक  'कंजूर' में मिलती हैं। सरहपा की उल्लेखनीय कृतियां  'दोहाकोश', गाथा-कोश(सप्तकोश) अतिप्रसिद्ध है(वही, पृ 451-452 )।

सरहपा परिवर्तनवादी क्रान्तिकारी विचारों के सन्देश-वाहक थे। यह सन्देश उनके दोहों में सीधे जनता तक पहुंचता है। शास्त्रों को सरहपा ने रेगिस्तान कह कर सम्बोधित किया है जिनकी भूल-भुलैया से आदमी कभी निकल नहीं सकता। सरहपा के युग में जातिभेद-भाव और छुआछूत खूब था। उन्होंने इसके लिए ब्राह्मण पंडितों की खूब धुलाई की। गेरुआ वस्त्र पहने पाखंडी साधुओं को उन्होंने खूब खरी-खोटी सुनाई(वही, पृ  453-457 )।

सरहपा सहजयान के आचार्य थे। उनके पंथ को सहजयान  के नाम से जाना जाता है। सरहपा की भारत को यह सबसे बड़ी देन थी। वह पहले दार्शनिक थे जिन्होंने सहज या नैसर्गिक जीवन पर बल प्रदान किया। आज भारत में अनेक ऐसे पंथ प्रचलित हैं जो इस तारतम्य में बौद्धाचार्य सरहपा के ऋणी हैं। आगे चलकर कबीर ने भी इसी की वकालत की। आज ये विचार विद्रोही और अत्यधिक क्रांतिकारी लगते हैं किन्तु उस ज़माने में सरहपा ने जिस हौसले और बुलंदी से ये बातें कहीं, निस्संदेह आसान नहीं रही होगी(वही, पृ  458 -459 )।    

भारतस्स संविधानस्स उद्देशिका

भारतस्स संविधानस्स उद्देशिका
मयं भारतस्स जना
हम भारत के लोग
भारतं एकं संपूण्णं
भारत को एक सम्पूर्ण
पभुत-संपन्नं
प्रभुत्व-संपन्न
समाजवादी-धम्मनिरपेक्ख
समाजवादी-धर्मनिरपेक्ष
लोकतन्तात्मक-गणरज्जं निम्मातुं
लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए
अपि च तस्स सब्बे नागरिके
तथा उसके सब नागरिकों को
सामाजिकं, वित्तीयं च राजनेतिकं ञायं
सामाजिक. वित्तीय और राजनैतिक न्याय
विचारस्स, अभिव्यत्तिया
विचार, अभिव्यक्ति
विस्सासस्स,  धम्मस्स च
विश्वास, धर्म और
उपासनाय स्वतन्तं
उपासना की स्वत्रंता
पतिट्ठा च अवसरस्स समता
 प्रतिष्ठा और अवसर की समता
पापेतु
प्राप्त करने के लिए
तथा तेसु सब्बेसु
तथा उन सब में
जनस्स गरिमा
व्यक्ति की गरिमा
रट्ठस्स एकता च अखंडता
राष्ट्र की एकता और अखंडता
सुनिच्छितं कुब्बन्ति बंधुता पवड्डेतुं
सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढाने के लिए
दळह सङ्कप्पा भूत्वा
दृढ़ संकल्प होकर
अम्हाकं अस्स संविधानस्स सभायं
अपनी इस संविधान सभा में
अज्ज, छब्बीसति नवम्बर
आज,  26 नवम्बर
एकूनपंचासाधिक सतं  एकूनविसति तारिकाय
1949 ई. तारीख को
एतद द्वारा
को एतद द्वारा
एतं सविधानं
इस संविधान को
अंगीकतं अधिनियमितं च अत्तप्पित करोम।
अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
- अ ला ऊके/ @amritlalukey.blogspot.com
             

Thursday, November 22, 2018

बुद्ध की आशंका (ञाणी सुत्त)

बुद्ध की आशंका
सावत्थि में विचरण करते,
सावत्थियं विहरति,
भिक्खुओ! पूर्वकाल में दसारहो का
भूतपुब्बं भिक्खवे, दसारहानं/दसभातिकानं
'आनक' नामक एक मृदंग हुआ करता था।
आणको नाम मुदिंगो अहोसि
उसमें जब कोई छेद होता तो दसारह लोग
तस्स दसारहा आनके घटिते/फलिते
 एक खूंटी ठोंक देते थे।
अञ्ञं आणि ओदहिन्सुं
धीरे-धीरे, एक ऐसा समय आया
अहु खो सो, भिक्खवे, समयो
कि सारे मृदंग की
यं आणकस्स मुदिंगस्स
अपनी पुरानी लकड़ी कुछ भी नहीं रही।
पोराणंं पोक्खर फलकंं अन्तरधायि
सारे का सारा खूँटियों का एक खच्चर बन गया।
आणि संघाटोव अवसिस्सि ।

उसी प्रकार भिक्खुओ! भविष्य में
एवमेव खो भिक्खवे, अनागत अद्धानं
ऐसे भिक्खु होंगे
भविस्संति भिक्खू
जो तथागत ने जो सुत्त कहे हैं
ये ते सुतन्ता तथागत भासिता
गंभीर, गंभीर अर्थ सहित
गंभीरा गम्भिरत्था

उनके विस्तार पूर्वक कहे
तेसु भञ्ञमानेसु
 न अच्छी तरह ध्यान देंगे
न सुस्सूसिस्संति,
न कान देंगे
न सोतं ओदहिस्संति
चित्त को समझने के लिए नहीं लगाएंगे
न अञ्ञा चित्तं उपट्ठापेस्संति
न च ते धम्मे उग्गहेतब्बंं,
न धर्म को सीखने
परियापुणितब्बंं  मञ्ञस्सन्ति
अभ्यास करने के योग्य नहीं समझेंगे।

परन्तु,  बाहर के सावकों से कहे सूत्र
ये पन ते सुतन्ता बाहिरका सावक-भासिता
कवित, चित्ताकर्षक अक्षर- व्यंजन वाले,
कविकता कावेय्या चित्तक्खरा चित्तब्यंजना
विस्तार पूर्वक कहे
तेसु भञ्ञमानेसु
उन्हीं को सुनेंगे
सुस्सूसिस्संति
कान देंगे
सोतं ओदहिस्संति,
चित्त को समझने लगाएंगे
अञ्ञा चित्तं उपट्ठापेस्संति
ते च धम्मे उग्गहेतब्बंं,
इन धर्मों को सीखना चाहिए
परियापुणितब्बंं  मञ्ञस्सन्ति
अध्ययन-मनन करना चाहिए, कहेंगे

इस तरह भिक्खुओ,
एवं तेसं भिक्खवे
तथागत ने जिन सूत्रों कहा
सुत्तन्तानं तथागत भासितानं
गंभीरानं गंभीरत्थानं
गंभीर, गंभीर अर्थ सहित,
उनका लोप हो जाएगा।
अंतरधानं भविस्सति

इसलिए भिक्खुओ!
तस्मातिह, भिक्खवे
तुम्हें ऐसा सीखना चाहिए-
एवं सिक्खितब्बंं
तथागत ने जो गंभीर सूत्र कहे हैं
ये ते सुत्तन्ता तथागत-भासिता
गंभीर, गंभीर अर्थ सहित
गंभीरा गंभीरत्था
तेसु भञ्ञमानेसु
उन्हीं विस्तार पूर्वक कहे
अच्छी तरह सुनेंगे
सुस्सूसिस्साम
कान देंगे
सोतं ओदहिस्साम
अपने चित्त को समझाएंगे
अञ्ञा चित्तं उपट्ठापेस्साम
ते च धम्मे उग्गहेतब्बंं
कि इस धर्म को सीखना चाहिए
परियापुणितब्बंं  मञ्ञस्सन्ति
भलि प्रकार अध्ययन-मनन करना चाहिए
स्रोत- ञाणी सुत्त(19 -7 ) : संयुक्त निकाय भाग- 1
-------------------
दसारहानं/दसभातिकानं- एक क्षत्रिय जाति का नाम
आणि- मेख, नाभि
ओदहति- ध्यान देना, निगरानी रखना।
अवस- शक्तिहीन, दुर्बल, कमजोर
भञ्ञमान- विस्तारपूर्वक।     
सुस्सूसति- अच्छी तरह सुनना।
उपट्ठापेति- सेवा में उपस्थित रहना
परियापुणाति - भली प्रकार अध्ययन करना .

Wednesday, November 21, 2018

ब्याकतं, अब्याकतं(परस्सरण सुत्त)

व्याकृत और अव्याकृत
एक समय आयु. महाकास्यप और आयु. सारिपुत्त
एकं समयं आयस्मा महाकस्सपो च आयस्मा सारिपुत्तो
इसिपतन मिगदाय में विहार करते थे।
विहरन्ति इसिपतने मिगदाये
एक ओर बैठे आयु. सारिपुत्त ने आयु. महाकास्यप से कहा-
एकमन्त निसिन्नो खो आयस्मा सारिपुत्तो आयसमन्तंं महाकस्सपंं एतद वोच-
"आवुस कास्यप ! क्या तथागत मरने के बाद रहते हैं ?"
"किंं नु खो आवुसो  कस्सप, होती तथागतो परं मरणा"'ति ?
"भगवान ने  इसे अव्याकृत रखा  है।"
"अब्याकतंं खो एतं,  भगवता। "

"तो क्या तथागत मरने के बाद नहीं रहते हैं ?"
"किंं   पन  आवुसो, न होती तथागतो परं मरणा"'ति ?
"आवुस, भगवान ने यह भी अव्याकृत रखा है ।"
"एवं अपि खो, आवुसो, अब्याकत  भगवता।"

"किंं  नु खो आवुसो, होति  च न च होति तथागतो परंं मरणा "'ति। ?
"तो क्या मरने के बाद तथागत रहते हैं और नहीं भी रहते ?"
"भगवान ने इसे भी अब्याकत रखा है।"
"एवं अपि खो आवुसो, अब्याकतंं भगवता। "

"कस्मा च एतं आवुसो, अब्याकतंं भगवता"'ति ?
"भगवान ने इसे आवुस, अव्याकृत क्यों रखा है ?"
"क्योंकि, वह न तो परमार्थ का साधक है, न निर्वेद का, न विराग का
" न हेतंं आवुसो, अत्थ सहितं, न निब्बिदाय, न विरागाय
 न निरोध का, न उपशमन का, न ज्ञान का और न निर्वाण का ।"
न निरोधाय, न उपसमाय, न अभिञ्ञाय, न निब्बानाय संवत्तति।
तस्मा तं  अब्याकत  भगवता"ति।

"अथ किंं  च आवुसो, ब्याकतंं  भगवता"'ति।
"तो आवुस,  भगवान ने क्या व्याकृत किया  ?"

"आवुस, यह दुक्ख है, भगवान ने यह व्याकृत किया
इदं  दुक्खं इति खो, आवुसो, ब्याकतंं भगवता
यह दुक्ख समुदाय, निरोध, निरोध गामिनी प्रतिपदा है
अयंं  दुक्ख समुदायों'ति ब्याकतंं भगवता,
अय दुक्ख निरोधो'ति ब्याकतं भगवता,
अय दुक्ख निरोध गामिनी पटिपदा'ति ब्याकतं भगवता"'ति।

कस्मा च एतं आवुसो, ब्याकतं  भगवता"'ति।
"आवुस, भगवान ने इसे क्यों व्याकृत किया ?"
"क्योंकि, यह ज्ञान का साधक है और निर्वाण का ।"
" एतं  हि आवुसो, अत्थ सहितं, निब्बिदाय, विरागाय,
 निरोधाय, उपसमाय, अभिञ्ञाय, निब्बानाय संवत्तति।
तस्मा तं  ब्याकतंं  भगवता"ति।
"क्योंकि, यही निर्वाण का हेतु है।

स्रोत- परस्सरण सुत्त (15 -12) : संयुक्त निकाय भाग- 1
-अ  ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com

Tuesday, November 20, 2018

पटिच्च समुत्पाद

प्रतीत्य समुत्पाद
‘‘भन्ते नागसेन, यो उप्पज्जति
‘‘भन्ते! नागसेन, जो उत्पन्न होता है-
सो एव सो, उदाहु अञ्ञो?’’ राजा मिलिंदो आह।
वह वही है या दूसरा?’’ राजा मिलिंद ने कहा।
‘‘न च सो, न च अञ्ञो ।’’
‘‘न वही और न दूसरा ही ।’’  -नागसेन ने समाधान किया।

‘‘ओपम्मं करोहि।’’
‘‘उपमा दीजिए।’’

‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज
‘‘आप क्या सोचते हैं, महाराज,
यदा त्वं उत्तानसेय्यको
जब आप चित लेटे बच्चे,
तरुणो, दहरो अहोसि,
तरुण, प्रौढ़  हुआ करते हैं ;

सो येव त्वं, एतरहि महन्तो?’’
सो क्या आप, अब भी इतने बड़े होकर वही हैं ?’’
‘‘न हि भन्ते, एतरहि अहं अञ्ञो।’’
 नहीं भंते,  अब मैं दूसरा हूँ ।’’

‘‘एवं सन्ते खो, महाराज,
यदि ऐसा है, महाराज
माता-पिता अपि च अञ्ञो भविस्सति।
तो माता-पिता भी अन्य हो जाएंगे।

किं नु खो महाराज
क्या महाराज
अञ्ञा एव कललस्स माता, अञ्ञा महन्तस्स माता,
‘‘गर्भ अवस्था में माता अन्य, बड़े होने पर अन्य होगी,
अञ्ञो सिप्पं सिक्खति, अञ्ञो सिक्खितो भवति,
अन्य शिल्प सिखाता है, अन्य शिक्षित बनता  है,
अञ्ञो पापकम्मं करोति, अञ्ञस्स हत्थपादा छिज्जन्ति!’’
 अन्य पाप-कर्म करता है, अन्य के हाथ-पैर काटे जाते हैं!’’

‘‘न हि भंते !
ऐसा नहीं है, भंते !
त्वं पन एवं वुत्ते किं वदेय्यासि।’’
‘‘किन्तु आप,  ऐसा कह क्या बताना चाहते हैं?’’

महाराज, उत्तानसेय्यको, दहरो, तरुणो च महन्तो
‘‘महाराज! बच्चा, यूवक, तरुण और प्रोढ़
इमं एव कायं निस्साय
 इसी काया में ही होने से
सब्बे ते एक संगहिता।’’
सभी एक ही होते हैं। -थेरो ने कहा।

‘‘भिय्यो ओपम्मं करोहि।’’
"और भी उपमा दीजिए। "

‘‘यथा महाराज, कोचि पुरिसो पदीपं पदीपेय्य।
‘‘जैसे महाराज, कोई पुरुष  दीपक जलाए।
किं सो सब्ब रत्तिं पदीपेय्य?’
’क्या वह सारी रात जलेगा ?’’
‘‘आम भन्ते, सब्ब रत्तिं पदीपेय्य।’’
"हाँ, भंते, सारी रात जलेगा ।"

‘‘किं नु खो महाराज, या पुरिमे यामे अच्चि,
‘‘किन्तु क्या महाराज, जो पूर्व याम में लौ थी,
 सा मज्झिमे यामे अच्चि?"
’मध्य याम में वही लौ है?"
‘‘न हि भन्ते।’’
"या मज्झिमे यामे अच्चि, सा पच्छिमे यामे अच्चि ?’’
‘‘न हि भन्ते।’’

‘‘भिय्यो ओपम्मं करोहि।’’
‘‘यथा महाराज, खीरं दुहमानं
कालन्तरेन दधि परिवत्तेय,
दधितो नवनीतं।
नवनीततो धतं परिवत्तेय।

यो नु खो महाराज,
एवं वदेय्य- यं येव खीरं, ते येव दधि ?
यं येव दधि, तं येव नवनीतं ?
यं येव नवनीते, तं येव धतं ?
सम्मा नु खो सो, महाराज, वदमानो वदेय्य ?’’

‘‘न हि भन्ते, तं येव निस्साय सम्भूतं।’’
‘‘एवमेव खो महाराज, धम्म सन्तति सन्दहति,
अञ्ञो उप्पज्जति, अञ्ञो निरुज्झति।
अपुब्बं अचरिमं विय सन्दहति,
तेन न च सो, न च अञ्ञो।
पुरिम विञ्ञाणे पच्छिम विञ्ञाणं संगहं गच्छति।’’
 (स्रोत- धम्मसन्तति पन्हो: अध्दान वग्गो: पन्नरसमो : मिलिंद पण्ह)
 -अ  ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com

आचार्य शांतिदेव

आचार्य शांतिदेव
आचार्य शान्तिदेव संभवतया 7 वी सदी में हुए थे । तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ(एम विंटरनिट्ज : ए हिस्टरी ऑफ़ इंडियन लिटरेचर Vol II,  P 365-366)  के अनुसार ये गुजरात के किसी राजा के पुत्र थे और कुछ समय तक ये राजा पञ्चसिंह के राज्य में मंत्री रहे थे। किन्तु उन्हें दुनियादारी और झंझट पसंद नहीं आए और इसलिए वे गृह त्याग कर भिक्खु हो गए थे(भूमिका :बोधिचर्यावतार : अनुवादक शांति भिक्षु शास्त्री )।

आचार्य शान्तिदेव महायान शाखा के दार्शनिक थे। उन्होंने अपने दार्शनिक सिद्धांतों में महायान के अन्य प्रत्ययों के साथ-साथ शुन्यता का प्रतिपादन किया। बताया जाता है कि शान्तिदेव ने आचार्य जयदेव से प्रवज्या ग्रहण की थी। उस समय वे नालंदा  महाविहार के पीठ स्थविर धर्मपाल के उत्तराधिकारी थे। प्रव्रज्या ग्रहण करने बाद आचार्य शान्तिदेव ने नालंदा महाविहार में रह कर ही अध्ययन किया और वही पर रहकर अध्यापन भी (डॉ धर्मकीर्ति: महान बौद्ध दार्शनिक पृ 391)।

आचार्य शान्तिदेव के तीन ग्रन्थ बतलाएं जाते हैं-
1. शिक्षा समुच्चय। 2. बोधिचार्यवातर।  3. सूत्र समुच्चय।
सूत्र-समुच्चय, वर्तमान में अनुपलब्ध है। शिक्षा समुच्चय और बोधिचर्यावतार का विषय एक ही है। भेद केवल निरूपण और व्याख्या शैली का है। बिना काव्य का प्रयत्न किए ही आचार्य ने उसे धर्म का काव्य बना दिया। दूसरे, बोधिचर्यावतार और शिक्षा-समुच्चय दोनों एक दूसरे के पूरक है। बोधिचर्यावतार में शून्यवाद का प्रतिपादन किया गया है जबकि शिक्षा समुच्चय में उसका नाम कीर्तन मात्र है। शिक्षा समुच्चय सूत्रों के उध्दरणोँ से विपुल ग्रंथ हो गया है जबकि बोधिचर्यावतार में सूत्रों का यत्र-तत्र संकेत ही है{वही,  पृ 397 : डॉ धर्मकीर्ति )।

बोधिचर्यावतार-
यह किसी समय बहुत ही लोकप्रिय ग्रन्थ था। इस कारण  इस पर अनेकों विद्वानों ने इस पर  टिकाएं लिखी थी।  भोट देश में इस ग्रन्थ का पाठ आज भी होता है। इसके पाठ को बहुत ही पवित्र कार्य और धार्मिक अनुष्ठान माना जाता है। महायान धर्म और दर्शन को समझने के लिए यह उत्तम ग्रन्थ है। जिस समय आचार्य शान्तिदेव का आविर्भाव हुआ, उस समय बौद्ध धर्म पूर्ण रूप से विकसित हो चुका था। बोधिचर्यावतार में सर्व-जन  कल्याण सुभाषितों का बुद्ध वचन के रूप में उदात्त भाव में समावेश है किया गया है (वही, पृ 398 )।

शिक्षा समुच्चय-
इसमें 27 कारिकाओं के द्वारा महायान शाखा की धार्मिक चर्चा का स्वरूप सूत्र रूप में प्रस्तुत किया गया है। उसके उपरांत उन सूत्रों को प्रमाणित एवं समर्थन प्रदान करने के लिए उनके चारों ओर महायान सूत्रों के उद्धहरणों से उन्हें सजाया गया है(वही, पृ  391 )।

संसार बिना सिरे का

पालि सुत्तों को संक्षेप में देने का हमारा उद्देश्य धम्म के साथ पालि से परिचय कराना है। 
उत्सुक पाठकों से अनुरोध है कि वे बस, इन्हे पढ़ते जाएं-
संसार बिना सिरे का
एक समय भगवान सावत्थि में
एकं समयं भगवा सावत्थियं
अनाथपिंडक के आराम जेतवन में विहार करते थे।
विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे।
वहां भगवान ने भिक्खुओं को आमंत्रित किया -" भिक्खुओं !"
तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि- "भिक्खुओ !"
"भदंत " -कह कर भिक्खुओं ने भगवान को उत्तर दिया।
"भदन्त" इति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं।
भगवन ने ऐसा कहा-
भगवा एतद वोच-
"यह संसार बिन सिरे के है ।
"अनमतग्गायं भिक्खवे, संसारो।
पूर्व-कोटि का पता नहीं लगता।
पुब्बा कोटि न पञ्ञञायति।
भिक्खुओं! जैसे कोई पुरुष सारे जम्बूद्वीप के
सेय्यथापि भिक्खवे, पुरिसो यं इमस्मिं जम्बुद्वीपे
घास, लकड़ी, डाली, पत्ते को तोड़ कर एक जगह जमा कर दे
तिण कट्ठ  साखा  पलासं तछेत्वा एकज्झंं संहरित्वा
और चार-चार अंगुली भर के टुकडे करके फैंकता जाए-
चतु अंगुलं  चतु अंगुलं घटीकं कत्वा निक्खिपेय्य-
यह मेरी माता हुई, यह मेरी माता की माता हुई
अयं मे माता, तस्सा मे मातुया माता 'ति
उसकी माता, माता की माता का यह सिलसिला समाप्त नहीं होगा
अपरियादिन्नाव  भिक्खवे, तस्स पुरिसस्स मातु मातरो अस्सु
किन्तु यह सारे जम्बू द्वीप के
अथ  इमस्मिं जम्बुदीपे
घास, लकड़ी, डाली और पत्ते समाप्त हो जाएँगे
तिण्ण  कट्ठ  साखा  पलासं परिक्खयं परियादानं गच्छेय्य
सो क्यों भिक्खुओं !
तं किस्स हेतु ?
क्योंकि यह संसार बिन सिरे के है ।
अनमतग्गोयं  भिक्खवे, संसारो।
पूर्व-कोटि का पता नहीं लगता।"
पुब्बा कोटि न पञ्ञञायति।"
स्रोत - तिणकट्ठ  सुत्त(14-1-1) : संयुक्त निकाय भाग 1
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अनमतग्ग- जिसके प्रारम्भ(सिरे) का पता नहीं। अपरियादाति - खाली कर देना
-अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com

Monday, November 19, 2018

'दलित' वर्सेस 'बहुजन'

 इधर कुछ दिनों से 'दलित' वर्सेस 'बहुजन' पर छींटा-कसी हो रही है. मुझे लगता है, 'दलित' या 'बहुजन' में उलझने की जरुरत नहीं है. हाँ, यह सच है कि 'दलित' शब्द में आक्रोश अंतर्भूत है जबकि 'बहुजन' में अधि-संख्या का गणित है. आक्रोश, दलित साहित्य का कलेवर रहा है. दूसरे, बहुजन शब्द बुद्ध से अनुप्रेरित है जबकि दलित शब्द अम्बेडकर मूवमेंट से. अब यह हमें ही तय करना है कि हमें क्या चाहिए ? .

वल्लभी, हीनयान धम्म का केंद्र

वल्लभी, हीनयान धम्म का केंद्र 
व्हेनसांग ने अपनी यात्रा विवरण में वल्लभी का वर्णन किया है। व्हेनसांग के समय वलभी में 1000 मठ विद्मान थे जिसमें सम्मतीय के 600 थे। बौद्धों के अतिरिक्त कई सौ देव मंदिर भी थे जिसमें विरूधि मत के लोग उपासना करते थे।  यहाँ के लोग संपन्न थे(डॉ अवधेश सिंह :चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण में प्रतिबिंबित बौद्ध धर्म का एक अध्ययन, पृ 235)।

व्हेनसांग के समय मालवा के शीलादित्य नामक राजा का भतीजा और कान्यकुब्ज के नरेश हर्ष का दामाद क्षत्रिय राजा राज्य कर रहा था।  यह राजा रत्न-तयी(बुद्ध, धम्म, संघ) की ओर कुछ समय से आकृष्ट था। यह राजा प्रत्येक वर्ष बड़ी सभा आयोजित करता था जो 7 दिन तक चलती थी।  इसमें राजा महात्माओं और भिक्खुओं को विशेष रूप से आदर-सत्कार करता था(पृ 236)।

यहाँ एक विश्व-विद्यालय था जो मैत्रेक नरेशों के दान के कारण आर्थिक दृष्टि से संपन्न था। पश्चिमी भारत का यह शिक्षा केंद्र नालंदा विश्व-विद्यालय का प्रतिद्वंदी था। इत्सिंग लिखता है कि नालंदा के समान वल्लभी में भी छात्रों को विशेष अध्ययन में तीन वर्ष का समय लगता था। शंका समाधान के निमित्त देश के प्रत्येक भाग से जिज्ञासु लीग वल्लभी आते थे। यहाँ का शिक्षा संगठन नालंदा से दो दृष्टियों से भिन्न था।  प्रथम यह कि यद्यपि वल्लभी में धार्मिक विषयों में भी शिक्षा दी जाती थी, तथापि प्र्रधानता लौकिक विषयों की ही थी। यही कारण है कि वल्लभी विश्व-विद्यालय के स्नातकों की नियुक्ति शासन सम्बन्धी उच्च पदों पर की जाती थी। नालंदा विश्व विद्यालय में प्रधान रूप से धार्मिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इत्सिंग ने दूसरा अंतर यह बताया कि नालंदा के विद्यार्थी महायान शाखा में विशेषज्ञता प्राप्त करते थे , वाही वल्लभी के हीनयान मत का विशेष अध्ययन करते थे और वल्लभी के मठों में हीनयान के भिक्खु थे(पृ 235-237)।

इत्सिंग के मतानुसार नालंदा के समान वल्लभी विश्व-विद्यालय में भी विद्वानों के नाम प्रधान द्वारों पर उत्कीर्ण किए जाते थे। वल्लभी के जिन आचार्यों की प्रतिष्ठा देश में व्याप्त थी,उनमें गणभति एवं स्थिरभति उल्लेखनीय हैं।  वल्लभी में दोनों के निवास के लिए सुन्दर विहार बना हुआ था। कनिंघन ने व्हेनसांग से विवरण के आधार पर यह स्पष्ट किया है कि वल्लभी राज्य में सम्पूर्ण गुजरात प्रायद्वीप, भड़ौच तथा सूरत के जिले सम्मिलित थे(पृ 237)। 

फाहियान, व्हेनसांग के समय अयोध्या

फाहियान, व्हेनसांग के समय अयोध्या
अयोध्या भारत का बहुत ही प्राचीन नगर हैं।  पालि ग्रंथों में अयोध्या के लिए 'अयोज्झा' और अयुज्झ' आए हैं। गोतम बुद्ध का इस नगर के साथ विशेष सम्बन्ध था(डॉ अवधेश सिंह: चीनी यात्रियों के यात्रा में प्रतिबिंबित बौद्ध धर्म का एक अध्ययन,  पृ 158 )।

फाहियान(यात्रा काल  399-414 ई ) गुप्तों के शासन काल में अयोध्या आया था। उसके अनुसार ब्राह्मण और बौद्ध मतालाम्बियों में सौहार्द्र पूर्ण व्यवहार नहीं था।  उसने एक वृक्ष का वर्णन किया है जिसे विरोधियों ने अनेक बार समाप्त करने का प्रयास किया किन्तु वह पुन: वही रूप धारण कर लेता था। व्हेनसांग ने भी इस वृक्ष का उल्लेख किया है। उदय नारायण रॉय(प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन ) का मत है कि अयोध्या को गुप्त काल में वसुबन्धु(400-500 ई.) के प्रभाव के कारण संरक्षण प्राप्त होता रहा(वही)।

युवानच्वांग अर्थात व्हेनसांग (यात्रा काल  629-654 ई ) के अनुसार बुद्ध, धर्म प्रचार के सम्बन्ध में अनेक बार अयोध्या आए थे और मानव जीवन की  निस्सारता तथा क्षण-भंगुरता पर प्रभावकारी व्याख्यान दिया था। मलालशेखर(डिक्शनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स) ने उल्लेख किया है कि अयोध्या के नागरिक बुद्ध के बड़े प्रशंसक थे। बुद्ध के निवास के लिए अयोध्या के समीप सुदर विहार का निर्माण भी किया गया था। कौशल राज्य के अंतर्गत सावस्थी के बाद साकेत दूसरा प्रधान नगर था।  बुद्धकालीन भारत के 6 महानगरों में साकेत की गणना होती थी(दीघनिकाय; महापरिनिब्बान सुत्त, महासुदस्सन सुत्त )।  इस नगर की स्थापना बुद्ध के जीवन काल में हो हो गई थी(वही)।

अयोध्या में तब, 100 संघाराम थे जिनमें महायान और हीनयान के 3000 अनुयायी साधु रहते थे और दोनों सम्प्रदायों की पुस्तकों का अध्ययन करते थे।  यहाँ 10 देव मंदिर भी थे, जिनमें थोड़े-से बौद्ध धर्म विरोधी उपासना करते थे। राजधानी में स्थित एक प्राचीन संघाराम का उल्लेख मिलता है, जहाँ पर वसुबन्धु (अभिधर्म कोष के रचियता) ने कठिन परिश्रम से हीनयान और महायान के अनेक शास्त्रों की रचना की थी।  यहाँ पर विशाल भवन की दीवार थी, जहाँ वसुबन्धु ने राजाओं तथा भिक्खुओं के समक्ष बौद्ध धर्म पर व्याख्यान दिया था। यहां के कुछ स्तूपों का भी उल्लेख मिलता है जिनमें एक अशोक द्वारा गंगा के किनारे बनवाया गया था और जिसकी ऊंचाई 200 फीट थी(वही, पृ 159 )।

अयोध्या में बुद्ध ने 'देवसमाज' को तीन मास तक धर्मोपदेश दिया था और यहाँ गत बुद्धों में भी बहुत-से चिन्ह पाएं जाते हैं। व्हेनसांग ने यह भी उल्लेख किया है कि वसुबन्धु संघाराम से पश्चिम 4-5 ली दूर एक स्तूप में बुद्ध की अस्थियाँ विद्मान थी।  उसके ऊपर एक जीर्ण-शीर्ण संघाराम था, जहाँ श्रीलब्ध शास्त्री ने सौत्रान्त्रिक सम्प्रदाय सम्बन्धी 'विभाषा शास्त्र' लिखा था(वही )।

अयोध्या नगर के दक्षिण-पश्चिम आम्र-वाटिका में एक पुराना संघाराम था, जहाँ असंख्य बोधिसत्वों ने विद्याध्ययन किया था।  व्हेनसांग के अनुसार असंग (वसुबन्धु के बड़े भाई) ने योगाचारशास्त्र सूत्रालंकार टीका की रचना की थी।  असंग की मृत्यु के बाद वसुबन्धु ने यहाँ कई ग्रंथों की रचना की थी। वसुबन्धु की मृत्यु अयोध्या में ही हुई थी(वही)।

कनिंघम(एशेंट ज्याग्रफी ऑफ़ इंडिया), स्मिथ बी ए (दी अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ बुद्धिज़्म ) , मलालशेखर डी पी, नलिनाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी(उ प्र में बौद्ध धर्म का विकास ) आदि इतिहासकारों में कुछ साकेत और अयोध्या को अलग-अलग मानते हैं, तो कुछ एक ही मानते हैं । रिज डेविड्स(बुद्धिस्ट इंडिया) के शब्दों में  साकेत और अयोध्या लन्दन और वेस्टमिनिस्टर के समान एक दूसरे के समीपवर्ती नगर रहे होंगे। डॉ अवधेश सिंह के अनुसार प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान रिज डेविड्स का मत यहाँ अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। 
 प्रस्तुति- अ ला ऊके   @amritlalukey.blogspot.com 

Saturday, November 17, 2018

बुद्ध मोक्षदाता नहीं, मार्ग-दाता

बुद्ध हमारे आराध्य है।  हमारे इष्ट है, हमारे भगवान है। हम उनको नमन करते हैं, वंदना करते हैं। हम उन्हें पूजते हैं। मगर, हमारी यह आराधना और पूजा बुद्ध को वैसा 'देवत्व' प्रदान नहीं करती जैसे गैर-बुद्धिस्ट धर्म करते हैं। हम बुद्ध को भगवान तो मानते हैं किन्तु हमारा यह भगवान, हमें कुछ देता नहीं अथवा देने की ग्यारंटी नहीं देता जैसे अन्य भगवान अथवा अल्लाह/पैगम्बर देने का दावा करते हैं और भक्त तत्सम्बंध में आशा रखते हैं । बुद्ध न हमें देता है और न ही हम उनसे ऐसी अपेक्षा करते हैं। बुद्ध कहते हैं, मैं सिर्फ मार्ग-दाता हूँ। रास्ता दिखाने वाला हूँ। चलना तो आपको है। 
  
हमने बुद्ध की मूर्तियाँ अपने घर अथवा बुद्ध विहारों में स्थापित किया है। हम बुद्ध की वन्दना मोमबत्ती, अगरबत्ती, पुष्पादि  से करते भी हैं। मगर, फिर वही, हमारी तत्सम्बंध में कामना कुछ पाने की नहीं वरन उनके उपदेशों का अनुकरण करने की होती है। गैर बुद्धिस्ट अपने आराध्य/इष्ट के सामने नत-मस्तक हो कुछ याचना करते हैं। किन्तु एक बुद्धिस्ट 'याचक' नहीं होता, 'उपासक' होता है। वह धम्म का उपासक होता है। वह संघ का उपासक होता है। वह सीलों का उपासक होता है। वह पारमिताओं का उपासक हो  सकता है। 
   
अन्य धर्मीय देवता/भगवान, अल्लाह, पैगम्बरों की तर्ज पर बुद्ध को अलौकिक और लोकोत्तर मानने की सोच महायानी सोच है। यह सोच अशोक काल और उसके बाद में बुद्धिज्म के अन्दर ब्राह्मणवादी ने पैदा की। अशोक के द्वारा धम्म को राज्य की ओर से आर्थिक मदद किए जाने से कई ब्राह्मण, जो बौद्ध धर्म को फूटी आँखों देखना पसंद नहीं करते थे, बौद्ध धर्म में प्रवेश पा गए। यह ब्राह्मण मानसिकता कालांतर में बौद्ध धर्म के लिए बड़ी घातक साबित हुई । इस ब्राह्मणी सोच ने वे सारी चीजें बौद्ध में डाल दी जिसका बुद्ध, आजीवन विरोध करते रहे और जो ब्राह्मण ग्रंथों की बुनियाद हैं। 

 में उनका वर्गीय स्वार्थ उन्हें बौद्ध दर्शन को  उत्पन्न महायानी चिंतन-धारा ने बुद्ध के मानवीय रूप और उनके बहुजन-कल्याण की धम्म देशना का अथाह नुकसान किया, जैसे की बाबा साहब डॉ अम्बेडकर ने अपनी अमर कृति 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' में कहा है. निस्संदेह, हमें बुद्ध की वंदना आँख बंद कर नहीं, वरन आँख खोल कर करना है. ति-पिटक ग्रंथों को पूजना नहीं, पढ़ना/अध्ययन करना है. 

सनद रहे, आँख बंद कर पद्मासन में बैठने वाली बुद्ध की मूर्ति महायानी चिंतन-धारा है. बाबासाहब डॉ अम्बेडकर, बुद्ध की मूर्ति खड़े / चारिका करते हुए पसंद करते थे. क्योंकि इस में गति है. गति, धम्म का केंद्र है. रूकावट का विरोध है. परिवर्तन की चाह है.

Friday, November 16, 2018

बुद्ध को अपनी प्रशंसा पसंद नहीं थी

एक समय बुद्ध नालंदा में पावारिक आम्रवन में विहार करते थे।
एकं समयं भगवा नालंदायं विहरति पावारिक अम्बवने।
एक और बैठे आयु. सारिपुत्त तथागत से बोले-
अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो तेनुपसंकमित्वा भगवन्तं एतदवोच-
"भंते! भगवान पर मेरी दृढ़ आस्था है
"एवं पसन्नो अहं, भंते ! भगवति
ज्ञान में भगवान से बढ़ कर समण या ब्राहमण न कोई हुआ है, न वर्तमान में है और न कोई होगा।"
न च अहु न च भविस्सति, न च एतरहि विज्जति अञ्ञो समणो व बाहमणो वा भगवता भिय्यो भिञ्ञतरो, यदिदं सम्बोधियं ।"
 "सारिपुत्त! तुमने बड़ी ऊंची बात कह डाली है। एक लपेट में सभी को ले लिया है--
"उलाळा खो त्वं अयं सारिपुत्त, आसभि वाचा भासिता, एकं सो गहितो--

सारिपुत्त ! क्या तुमने अतीत काल में जो अर्हत, सम्यक सम्बुद्ध हुए हैं
किंं नु सारिपुत्त, ये ते अहेसुंं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मा सम्बुद्धा
सबको अपने चित्त से जान लिया है-
सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता-
कि वे इस विनय वाले थे, इस प्रज्ञा  वाले थे...?"
एवं सीला ते भगवन्तो अहेसुंं, एवं पञ्ञा ते भगवन्तो अहेसुंं वा ?"
"नहीं भंते !"
"नो हेतं भंते !"

सारिपुत्त ! क्या तुमने भविष्य काल में जो अर्हत, सम्यक सम्बुद्ध होंगे,
किंं पन ते सारिपुत्त, ये ते भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मा सम्बुद्धा,
सबको अपने चित्त से जान लिया है
सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता-
कि वे इस विनय वाले होंगे, इस प्रज्ञा  वाले होंगे...?"
एवं सीला ते भगवन्तो भविस्सन्ति, एवं पञ्ञा ते भगवन्तो भविस्सन्ति वा  ?"
"नहीं भंते !"
"नो हेतं भंते !"

सारिपुत्त ! जो वर्त्तमान में अर्हत सम्मा सम्बुद्ध हैं
किंं पन ते सारिपुत्त, एतरहि अरहं सम्मा सम्बुद्धो
अपने चित्त से जान लिया है कि
चेतसा चेतो परिच्च विदितो-
वे इस विनय वाले हैं, इस प्रज्ञा  वाले हैं ?"
एवं सीलो भगवा वा , एवं पञ्ञो भगवा वा ?"
"नहीं भंते !"
"नो हेतं भंते !"

"सारिपुत्त! जब तुमने न अतीत, न भविष्य, न वर्तमान के अर्हत  सम्यक सम्बुद्धों को अपने चित्त से जाना
"एत्थ च ते सारिपुत्त ! अतीत अनागत पच्चुपन्नेसु अरहन्तेसु सम्मा सम्बुद्धेसु चेतो परियाय ञाणं नत्थि।
तब, क्यों सरिपुत्त ! तुमने बड़ी ऊंची बात कह डाली है, एक लपेट में सभी को ले लिया है
अथ किंं एतरहि त्यायं सारिपुत्त,  उलाळा आसभि वाचा भासिता, एकं सो गहितो
कि ज्ञान में भगवान से बढ़ कर समण या ब्राहमण न कोई हुआ है, न वर्तमान में है और न कोई होगा।"
न च अहु न च भविस्सति, न च एतरहि विज्जति अञ्ञो समणो  व बाहमणो वा भगवता भिय्यो भिञ्ञतरो, यदिदं सम्बोधियं ?"

"भगवान ! मैंने अतीत, भविष्य और  वर्तमान के अर्हत  सम्यक सम्बुद्धों को अपने चित्त से नहीं जाना है
"न खो मे तं भंते ! अतीत अनागत पच्चुपन्नेसु  अरहन्तेसु सम्मा सम्बुद्धेसु चेतो परियाय ञाणं  अत्थि,
किन्तु 'धम्म-विनय' को अच्छी तरह समझ लिया है।"
अपि च मे धम्मन्वयो विदितो।"

"ठीक है, ठीक है ! सरिपुत्त,  धम्म की इस बात को तुम, भिक्खु, भिक्खुनी, उपासक, उपासिकाओं के बीच बताते रहना।
साधु, साधु साधु ! सरिपुत्त !  तस्मातिह त्वं इमं धम्म परियायं अभिक्खणं भासेय्यासि भिक्खुनं भिक्खनीनं उपासकानं, उपासिकानं।
सारिपुत्त, जिन अज्ञ लोगों को बुद्ध में शंका या विमति होगी, यह बात सुनकर दूर होगी
 येसं अपि  हि, सारिपुत्त, मोघ पुरिसानं भविस्सति तथागते कंखा वा विमति वा, तेसं अपि मं धम्म परियायं सुत्वा या तथागते कंखा या विमति वा सा पहीयस्सति(नालन्द सुत्त : संयुक्त निकाय :45-2-2 )।
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आसभि- आर्ष भी, वृषभ/सांड/बैल के समान। परिच्च- समझ कर। अभिक्खण- क्षण प्रति-क्षण/निरंतर। भिय्यो भिञ्ञतरो- अत्यधिक।  - प्रस्तुति - अ ला उके  @amritlalukey.blogspot.com  

Wednesday, November 14, 2018

परलोक के पचड़े

परलोक के पचड़े
अमेरिकी राजनीतिज्ञ और दार्शनिक कर्नल रॉबर्ट जी इंगरसोल(1833-99 ) अज्ञेय वादी थे। वे पर-लोक के पचड़ों से दूर थे। जिस तरह बुद्ध,  पर-लोक को, उससे सम्बंधित चर्चा को, एक अच्छा जीवन जीने के लिए असम्बद्ध मानते थे, कर्नल इंगरसोल भी उसे बेमतलब की और टाइम-पास चर्चा समझते थे। उनका मत था कि चूँकि हम नहीं जानते कि कोई पर-लोक है या नहीं; फिर, इस पर माथा-पच्ची क्यों होना चाहिए ? 

कर्नल इंगरसोल के विरोधी, 'तू लोगों का पर-लोक नष्ट करता है', कह कर उसकी आलोचना करते थे। इस पर कर्नल इंगरसोल का उत्तर होता था- 'मैं किसी का भी पर-लोक नष्ट करने नहीं जाता।  लेकिन बहुत-से लोग हैं जो गरीब किसानों  का, दरिद्र मजदूरों का, अनाथ स्त्रियों और असहाय बच्चों का इह-लोक नष्ट करने पर उतारूं हैं। ऐसे पण्डे-पुरोहितों से, ऐसे पादरियों से, ऐसे मुल्लाओं से मैं उन असमर्थ लोगों के इह-लोक को बचाए रखने का प्रयास करता हूँ(स्रोत- दर्शन, वेद से मार्क्स तक : भदन्त आनंद कौसल्यायन)। प्रस्तुति- अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com 

Tuesday, November 13, 2018

महायान का उदगम


चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण में प्रतिबिंबित हीनयान और महायान
चीनी यात्री फाहियान, व्हेनसांग ने हीनयान और महायान का उल्लेख किया है। इत्सिंग ने हीनयान और महायान दोनों को बुद्ध शासन कहा है और निर्वाण की ओर ले जाने वाला मार्ग स्वीकार किया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि जो महायानी सूत्रों का पाठ करता है, वह महायानी और ऐसा नहीं करने वाले हीनयानी  है(बौद्ध धर्म का अध्ययन, पृ 155 : डॉ अवधेश सिंह )।


1. डॉ भदन्त आनंद कौसल्यायन -
प्रचलित मत है कि बौद्ध धर्म चार दार्शनिक सम्प्रदायों में विभक्त है। किन्तु सारे पालि बौद्ध वांगमय में इन सौत्रान्तिक से लेकर माध्यमिक तक चारों तथाकथित बौद्ध सम्प्रदायों में से किसी एक का भी पता नहीं है। इतना कहा जा सकता है कि बुद्ध के लगभग एक हजार वर्ष बाद भारत में जो बौद्ध चिंतन-परम्परा चालु थी, जिनमें कुछ न कुछ परिवर्तन-परिवर्द्धन होता रहा था, उसी के ये चारों बुद्धोत्तर कालीन विभाजीकरण है(दर्शन, वेद से मार्क्स पृ  130 )।

इन चारों को शुद्ध महायानी भी कहना उसी प्रकार कठिन है जैसा आज के स्थविरवाद  को शुद्ध स्थविरवाद कहना। ठीक बात यह है कि यह महायान और हीनयान की विभाजक रेखा भी चिंतन की दार्शनिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने की बजाए कुछ अधिक धूमिल ही करती है(वही)।

इस विभाजन का यदि कुछ अर्थ है तो इतना ही कि सिंहल द्वीप, बर्मा, स्याम(थाईलैंड) तथा कम्बोडिया में बौद्ध धर्म और भिक्खुओं की आचार-परम्परा का जो रूप है,वह स्थविर वाद या थेरवाद कहलाता है। दूसरी ओर, तिब्बत, चीन, जापान, मंगोलिया आदि एशिया खंड के अन्य देशों में जो रूप प्रचलित है, वह महायान कहलाता है(वही)।

मूल पालि वांग्मय ही जिन देशों में धर्म-ग्रथों के रूप में आदृत है, पूजित है, पढ़ा-लिखा जाता है, वे स्थविर वादी देश हैं।  वही, मूल बौद्ध संस्कृत वांगमय अपने तिब्बती, चीनी, जापानी आदि भाषाओँ में अनिदित होकर जहाँ आदृत है, वे महायानी देश हैं(130-131 )।

भले ही सौत्रान्तिक हो या वैभाषिक या योगाचार अथवा माध्यमिक, एक बात याद रखनी चाहिए कि ये सभी बौद्ध सम्प्रदाय है और कुछ ऐसी सीमाएं है जो इन सभी के लिए अलंघ्य है।  जैसे; कोई भी बौद्ध सम्प्रदाय ईश्वरवादी नहीं हो सकता, आत्मवादी नहीं हो सकता,शब्द-प्रमाण वादी नहीं हो सकता और प्रतीत्य-समुत्पाद के नियम से इंकार नहीं कर सकता(133 )।

2. राहुल संकृत्यायन 
बुद्ध के निर्वाण के 100 वर्ष बाद, वैशाली की संगीति के समय बौद्ध धर्म स्थविरवाद  और महासान्घिक नामक दो निकायों में विभक्त हो गया। इसके 125 वर्षों बाद और भी विभाग होकर, 'कथावत्थु' की अट्ठकथा के अनुसार,  उसके 18 निकाय बन गए(पुरातत्व निबंधावली,  पृ 121)।

बुद्ध के जीवन में ही उनके शिष्य गंधार, गुजरात(सूनापरांत), पैठन(हैदराबाद राज्य) तक पहुँच चुके थे। धीरे-धीरे भिक्खुओं के उत्साह एवं अशोक, मिलिंद, इन्द्राग्निमित्र आदि सम्राटों की भक्ति और सहायता से इसका प्रसार और भी अधिक हो गया। अशोक का सबसे बड़ा काम यह था कि उन्होंने भारत की सीमा के बाहर के देशों में धम्म प्रचारकों के भेजे जाने में बहुत सहायता की। अशोक( ई पू तृतीय शताब्दी) के बाद बौद्ध धर्म सभी जगह फ़ैल चुका था। अशोक की सहायता, चाहे एक ही निकाय के लिए रही हो, लेकिन दूसरे निकायों ने भी अच्छा प्रसार किया था। शुंगों और काण्वों के बाद, आंध्र या आंध्रभृत्य सम्राट हुए।  इनकी राजधानी प्रतिष्ठान(पैठन), महाराष्ट्र थी। पीछे धान्यकटक दूसरी राजधानी बनी (वही, पृ 122)।

शातकर्णी  या शातवाहन/शालिवाहन आंध्र राजा, प्रारंभ में उत्तरीय भारत के शासक थे किन्तु बाद में दक्षिण के होकर रह गए । सातवाहनों का बौद्ध धर्म पर विशेष अनुराग था, यह उनके पहाड़ काट कर बने गुहा विहारों में खुदे शिलालेखों से मालूम होता है। राजधानी धान्य-कटक(अमरावती) में उनके बनाए भव्य स्तूप, नाना मूर्तियाँ, लताओं तथा चित्रों से अलंकृत संगमरमर की पट्टिकाएं, स्तम्भ, तोरण आज भी उनकी श्रद्धा के जीवित नमूने हैं। वस्तुत: बौद्धों के लिए शातवाहन राजवंश(100 ई पू से 300 ई  तक) पुराने मौर्यों या पिछले पालवंश की तरह था। नाशिक, कार्ला, अजंता, एलोरा की गुहाओं का प्रारंभ भी इन्हीं के समय हुआ था  (वही, पृ 123)।

प्रतीत होता है, महासान्घिकों से अन्धक निकायों( 'अपरशैलीय', 'पूर्वशैलीय', 'राजगिरिक', 'सिद्धार्थिक' आदि) का जन्म हुआ, क्योंकि आन्ध्र-साम्राज्य में महासंघिकों का बहुत अधिक प्रचार और प्रभाव था(पृ 126- 127).
।  यह चारों ही अन्धक निकाय, आन्ध्र-सम्राटों के समय बहुत ही उन्नत अवस्था में थे। आन्ध्र राजा और उनकी रानियों का बौद्ध धर्म पर कितना अवस्था अनुराग था, यह हमें अमरावती और नागार्जुनी-कोंडा के मिले शिलालेखों से मालूम पड़ता है(वही,129)।

कथावत्थु की अट्ठकथा में वैपुल्यवादियों को महा शून्यवादी कहा गया है। हमें मालूम ही है कि नागार्जुन शून्यवाद के आचार्य कहे जाते हैं। इस प्रकार वैपुल्यवाद और महायान एक सिद्ध होते है। यद्यपि कथावत्थु के अंतिम भाग(17, 18 और  23) में आया यह प्रसंग बाद में जोड़ा गया प्रतीत होता है, क्योंकि इसमें 'शून्यवाद' का खंडन नहीं है(वही, पृ 130)।

सामान्य तौर पर चीन और तिब्बतीय कंजूर परम्परा में महायानी सूत्रों में प्रज्ञापारमिता, रत्नकूट, वैपुल्य, अवतंसक आदि आते हैं। विपुल से ही वैपुल्यवाद अस्तित्व में आया जो कालांतर में महायान प्रसिद्द कहलाया  (पृ 131)। दरअसल,  महायान, पूर्व शैलीय आदि चार अन्धक सम्प्रदायों तथा वैपुल्यवाद  के सम्मिश्रण का नाम है। और जैसे कि हमने ऊपर देखा, अन्धक सम्प्रदायादि आंध्र-देश की, खास कर गुंटूर जिले के वर्तमान धरनीकोट की उपज है।  यहाँ यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि महायान सूत्र बराबर परिवर्तित और परिवर्द्धित किए जाते रहे हैं(वही पृ 132)।

वैपुल्यवाद ईसा पूर्व पहली शताब्दी में सिंहल पहुंचा था। इसके कुछ सूत्रों का चीनी अनुवाद ईसा की दूसरी शताब्दी में हो चूका था। इसके प्रचार में सबसे ऊंच स्थान नागार्जुन का है। नागार्जुन का वास-स्थान श्री पर्वत धान्य कटक था। आंध्र-राजा शातवाहन, नागार्जुन का घनिष्ट मित्र था (नागार्जुन ने शातवाहन राजा के नाम 'सुह्रल्लेख' नामक पत्र लिखा था जो चीनी और भोटिया भाषा में अब भी सुरक्षित है )। इनके सिद्धांत अन्धकों से मिलते थे। प्रतीत होता है, वैपुल्य वाद का केंद्र भी श्रीधान्य कटक के पास ही था(वही पृ 133)।   

3 . डॉ गोविन्द चंद्र पांडेय-
महायान के उदभव के विषय में महायान सूत्रों में प्रकाशित मत ऐतिहासिक दृष्टि से स्वभावत: संदेह उत्पन्न  करता है। महायान सूत्र अपने को बुद्ध प्रोक्त बताते हैं। किन्तु उनकी भाषा और शैली उनकी परवर्तिता सूचित करती है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ 306)।

कदाचित अष्टसाहत्रिका प्रज्ञापारमिता ही महायान सूत्रों में प्राचीनतम है।  इसका लोकरक्ष ने चीनी में 148 ई  में अनुवाद किया था।  कनिष्क के समकालीन नागार्जुन ने पांच-विशति साहत्रिका प्रज्ञापारमिता पर व्याख्या लिखी थी। इससे प्रज्ञा पारमिता साहित्य की परिणति ईसवीय दूसरी शताब्दी से प्राचीनतर अवश्य सिद्ध होती है। जब स्वयं ये महायान सूत्र ही बुद्ध के युग से पर्याप्त परवर्ती, एवं संदिग्ध-प्रामाण्य हैं तो इन में प्रतिपादित महायान की मूल सलग्न प्राचीनता स्वत: असिद्ध हो जाती है। इस कारण ऐतिहासिक दृष्टि से महायान को सद्धर्म का विपरिवर्तित अथवा विकृत रूप मानने की संभावना प्रस्तुत होती है(वही)।

इस विपरिवर्तन का प्रधान कारण सद्धर्म का प्रसार और उसके साथ सम्बद्ध ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव प्रतीत होते हैं। यह स्वाभाविक है कि सद्धर्म के प्रसार की गति अशोक के समान श्रद्धालु और प्रतापी सम्राट के संरक्षण एवं सहाय्य से तथा तत्कालीन संघ के प्रयत्नों से विशेष तीव्र हुई हो। यह निस्संदेह है कि इसी समय से सद्धर्म भारतीय वास्तुकला तथा मूर्तिकला की एक प्रधान प्रेरणा के रूप में प्रकट होता है एवं जातकों का महत्त्व विशेष वृद्धि प्राप्त करता है(पृ 307)।

हीनयान के विभिन्न प्रादेशिक आवासों की स्थापना ने निकाय-भेद के क्रम को अग्रसर होने में सहायता दी। इन में महासंघिक सम्प्रदाय ने बुद्ध और बोधिसत्वों को देवोपम लोकोत्तर रूप में चित्रित किया एवं गांधार तथा मथुरा में ग्रीक और भारतीय कला के संपर्क तथा भक्ति के आग्रह से बुद्ध प्रतिमा का आविर्भाव हुआ । लोकोत्तर बुद्ध और बोधिसत्व, उनकी भक्ति और प्रतिमाएं इन नवीन तत्वों ने इस सद्धर्म को एक जन-सुलभ सुबोध और सुन्दर रूप प्रदान किया(पृ 308)। 

प्रारम्भिक बौद्ध धर्म एवं हीनयान में साधना अपेक्षा कृत दुष्कर है। प्रत्येक व्यक्ति को सर्वथा अपने प्रयत्न के और पुरुषकार के द्वारा सांसारिक सुखों को छोड़ कर ही दुक्ख से छुटकारा प्राप्त करना होता है। बुद्ध केवल मार्ग का उपदेश करते हैं। धर्म प्रत्यात्मवेदनीय है। साधारण मनुष्यों के लिए अपने सहारे अपने बंधनों को काटना कठिन होता है(वही)।

महायान में बुद्ध और बोधिसत्व नाना प्रकार से मार्ग में सहायक बन जाते हैं। अवलोकितेश्वर का नाम लेने से ही मनुष्य नाना कठिनाइयों से मुक्ति पा सकता है। मूर्तियों के सहारे बुद्ध और बोधिसत्व बौद्धों के समक्ष प्रत्यक्षवत समुपस्थित हो उठते हैं।  वे सर्वज्ञ, शक्तिसंपन्न तथा परम कारुणिक हैं।  उनके अर्चन और अनुग्रह के द्वारा मुक्ति का मार्ग केवल अपने पुरुष्कार की अपेक्षा अधिक प्रशस्त प्रतीत होता है(वही)।

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि अशोक के समय से सद्धर्म के प्रचार के लिए विशेषत: प्रत्यंतिम जनपदों में, उसे एक सरल और मूर्त रूप देने का जो प्रयास जारी था उसने क्रमश: महायान को जन्म दिया। इस परिणाम-क्रम में नाना सम्प्रदायों, धर्मों और जातियों के प्रभाव से महायान में विभिन्न तत्वों का समावेश हुआ(पृ 308-309)।

हीनयान ही मूल और प्रारंभिक बुद्ध शासन था जिसके वांगमय की प्राचीनता निस्संदेह है। महायान परवर्ती और विपरिवार्तित बौद्ध धर्म है जिसने प्राचीन साहित्य के अभाव में नवीन 'प्रक्षिप्त सूत्रों' की रचना की। महायान के आचार्यों ने स्वयं महायान की अप्रमाणिकता के निरास का बहुधा प्रयत्न किया है। इस प्रसंग में महायान सूत्रालन्कार एवं बोधिचर्यावतार में अनेक युक्तियाँ प्रस्तुत की गई हैं जिनमें अनेक स्पष्ट ही प्राचीनतर सुत्र्रों पर आश्रित है।

न तो हीनयान के सब शास्त्रों और सिद्धांतों को मूल बुद्ध-शासन समझा जा सकता है, न महायान के। मूल बुद्धोपदेश अवश्य ही शिष्यों के अधिकार-भेद से विविध था। काल-क्रम से मूल-देशना परवर्ती व्याख्या-कान्तार तथा प्रक्षिप्त-सन्दर्भ-राशि में अधिकाधिक दुर्लभ हो गई। हीनयान के 18 सम्प्रदायों में बुद्धोपदेश को भिक्खुओं के समान विहारवासी बना दिया दिया।  विशाल विश्व के जीवन और ज्ञान-विज्ञानं का त्याग कर भिक्खु को अपने विहार के सीमित संसार में आत्म-कल्याण साधना चाहिए।  इसके लिए कौन-से 'धर्म' हेय हैं, कौन-से उपादेय, इसकी चर्चा विपुलाकार अभिधर्म पितकों में की गई। ये पिटक और इनकी व्याख्याएँ बुद्ध वचन न होते हुए भी कल्पना-प्राचुर्य तथा आग्रह के द्वारा इनका बुद्ध से सम्बन्ध जोड़ा गया(पृ 311)।

यह स्पष्ट है कि हीनयान को मूल बुद्ध शासन न मान कर उसका एक साथ ही विपरिवर्तित अथवा विकसित रूप मानना चाहिए। यही दशा महायान की है। यह सत्य है कि महायान सूत्र हीनयान के आगमों से परवर्ती हैं और यह भी सत्य है कि हीनयान में स्वीकृत सूत्रो से ही मूल शासन का पता चल सकता है(पृ 311)।

महायानी सूत्र

प्रसिद्ध महायानी सूत्र-
प्रज्ञापारमिता, सद्धम्म-पुण्डरिक, सुखावतीव्यूह, मध्यमक-कारिका(नागार्जुन- 175 ई.), लंकावतारसूत्र, महायान-सूत्रालंकार(असंग- 375 ई.), योगाचारभूमिशास्त्र, विज्ञप्तिमात्रातासिद्धि(वसुबन्धु- 375 ई.), न्यायप्रवेश(दिग्नाग- 425 ई.), प्रमाणवार्तिक(धर्मकीर्ति- 600 ई.), बोधिचर्यावतार(शांन्तिदेव- 690-740 ई.), तत्वसंग्रह(शान्तरक्षित- 750 ई.), रत्नकूट, दिव्यादान, मंजुश्री-मूलकल्प(तांत्रिक-ग्रंथ) आदि।

महायान सूत्रों में एक ओर शून्यता के प्रतिपादन के द्वारा विशुद्ध निर्विकल्प ज्ञान का उपदेश किया गया है; दूसरी ओर, बुद्ध की महिमा और करुणा के प्रतिपादन के द्वारा भक्ति उपदिष्ट है।  दूसरी कोटि में सुखावती व्यूह, कारंड व्यूह आदि सूत्र आते हैं।  इनमे सर्वाधिक महत्त्व सद्धर्मपुंडरिक सूत्र का है(गोविन्द चन्द्र पाण्डेय, पृ  339)।

 महायानी सूत्रों का रचनाकाल ई.पू. प्रथम सदी से चौथी सदी तक मानना चाहिए(महायान का उदगम और साहित्य: बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास,  पृ. 328-333: गोविद चन्द्र पाण्डेय )।

प्रज्ञापारमिता- इसमें शून्यता का अनेकधा प्रतिपादन किया गया है। प्रज्ञापामितासूत्रों के अनेक छोटे-बड़े संस्करण प्राप्त होते हैं। यथा दशसाहस्त्रिाका, अष्टसाहस्त्रिाका, पञ्चविंशतिसाहस्त्रिाका,  शतसाहस्त्रिाका, पंचशतिका, सप्तशतिका, अष्टशतिका, वज्रच्छेदिका, अल्पाक्षरा आदि हैं(वही, 334)।

अवतंसकसूत्र- इस नाम से चीनी ति-पिटक और कंजूर में विपुलाकार सूत्र उपलब्ध होते हैं। चीनी ति-पिटक में अवतंसकसूत्र तीन शाखाओं में मिलता है जो कि क्रमशः 80, 60 और 40 जिल्दों में हैं(वही, पृ. 336)।

महायान सूत्रों के अनुसार तथागत ने हीनयान का उपदेश पांच परिव्राजकों के समक्ष सारनाथ के प्रसिद्द धम्म चक्क पवत्तन के द्वारा किया था, किन्तु महायान का उपदेश उन्होंने राजगृह के गृध्र कूट-पर्वत पर बोधिसत्वों की विपुल और विलक्षण सभा में किया था। अमितार्थ सूत्र के अनुसार सम्बोधि के 40 वर्ष के अनंतर तथागत ने अमितार्थ सूत्र का प्रकाशन किया था(वही, पृ 303 )।

महायान सूत्रों और परम्परा के आधार पर चीन के प्राचीन बौद्ध विद्वानों ने तथागत की धम्म देशना के काल को तीन विभागों में बांटा है।  पहले काल-विभाग में, जो कि तीन सप्ताह के अनन्तर प्रारंभ होता है, तथागत ने अवंतसक सूत्रों का उपदेश किया, किन्तु उन्होंने जनता को इन सूत्रों के अवबोध में अक्षम पाया।  दूसरे काल-विभाग में उन्होंने 'चार आगमों' की देशना की।  यह वस्तुत उनका 'उपायोपदेश' था।  अंतत: देशना के तीसरे काल में तथागत ने सद्धर्म पुंडरिक, प्रज्ञा पारमिता, महायान- महा परिनिर्वाणसूत्र एवं महा वैपुल्य-सूत्रों का प्रकाश किया। तिब्बती परम्परा के अनुसार गृध्र कूट का द्वितीय धम्म चक्क पवत्तन सम्बोधि के 16 वर्ष पश्चात हुआ था(पृ 303)।

मिलिंद पण्ह

मिलिंद पण्ह
मिलिंद पण्ह, साहित्य और दर्शन की दृष्टि से यह बड़ा महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस में नागसेन के साथ हुए मिलिंद के अनेक संलापों का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में 1. पूर्व योग, 2. लक्षण प्रश्न, 3. विमतिच्छेदन-प्रश्न, 4. मेंडक-प्रश्न, 5. अनुमान प्रश्न तथा 6. उपमा-कथा प्रश्न आदि छह परिच्छेद हैं(पालि साहित्य का इतिहास: राहुल सांकृत्यायन, पृ 183)।

यद्यपि, पालि  मिलिंद पण्ह में छह परिच्छेद हैं, किन्तु उनमे से पहले के तीन ही पुराने मालूम होते हैं। चीनी भाषा में भी इन्हीं तीन परिच्छेदों का अनुवाद मिलता है(दर्शन दिग्दर्शन : राहुल सांकृत्यायन पृ  550 )।

मिनांडर-
पंजाब से लेकर यमुना तक यवनों(ग्रीकों) ने ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में राज्य किया था।  दिमित्रि(189-197 ई पू ) मौर्य साम्राज्य के नष्ट होने पर भारत विजय के प्रयास में निकला था। पतंजलि के महाभाष्य में 'यवनों के साकेत को घेरने' का स्पष्ट उल्लेख है। दिमित्रि का एक सेनापति मिनांदर था।  बख्त्रिया पर मेसोपोटामिया के यवनराज अत्रिया के सेनापति उरितिद के आक्रमण की बात सुनकर दिमित्रि को वहां से लौटना पड़ा। पर वह अपने दामाद और सेनापति मिनांडर को पंजाब में छोड़ गया। मिनांडर ने पंजाब में रहकर राज्य करना शुरू किया। उसने 'सागल' (स्यालकोट) को अपनी राजधानी बनाया। यही मिनांडर, 'मिलिंद' के नाम से प्रसिद्द हुआ(पालि साहित्य का इतिहास: राहुल सांकृत्यायन पृ  183 )।

मिनांडर स्वयं विद्या-व्यसनी पुरुष था। उसकी मृत्यु के बाद उसकी हड्डियों के लिए लोगों में लड़ाई छिड़ गई थी। लोगों ने उसकी हड्डियों पर बड़े-बड़े स्तूप बनवाए।  भिक्खु नागसेन की विद्वता को सुनकर एक दिन उसके दर्शन हेतु वह चल पड़ा(वही)।

साहित्यिक चोरी
यह सम्पूर्ण ग्रन्थ ही किसी बुद्धिहीन लेखक द्वारा ति-पिटक ग्रंथों से की गई साहित्यिक चोरी की वारदात लगती है। ग्रन्थ के प्रारंभ में ही, पूरण कस्सप, मक्खलि गोसाल, अजित केस कम्बल, पकुध कच्चान, संजय वेलट्ठि पुत्त, निगंठनाथ पुत्त आदि छह दार्शनिकों को राजा मिलिंद के समकालीन बताया गया है। किन्तु बुद्धा एंड हिज धम्मा' में हम इन दार्शनिकों को बुद्ध के समकालीन देखते हैं(प्रथम कांड: भाग- 6 : बुद्धा एंड हिज धम्मा )। इसी प्रकार, दीघनिकाय के सामञ्ञफल सुत्त में हम इन दार्शनिकों को मगधराज अजातसत्तु के समकालीन देखते हैं।

किन्तु हमारे आधुनिक विद्वान 'मिलिंद पन्ह' के प्रमाण को बहुत गंभीरता पूर्वक नहीं लेते। बी एम बरुआ(  प्रि-बुद्धिस्ट इंडियन फ़िलासफ़ी ) का कहना है कि मिलिंद पन्ह में राजा मिलिंद(ई पू 125-95) की जिस भेंट का उल्लेख है वह स्पष्टतया किसी बाद के बौद्ध लेखक द्वारा बड़े भोंडे तरीके से की गई साहित्यिक चोरी है। जी पी मल्लशेखर(डिक्सनरी ऑफ़ पालि प्रापर नेम्स )  का कहना है कि यह सारा वर्णन या तो सामाञ्ञफल सुत्त से की गई साहित्यिक चोरी है या फिर जिन दार्शनिकों का उल्लेख हुआ है, वे उन्हीं विचारधाराओं को मानने वालों में से थे(देवीप्रसाद चटोपाध्याय : लोकायत पृ 406)। 

इसी जीवन में

निगंठ नाथ पुत्त के निधन का समाचार बुद्ध को चुंद ने ला कर दिया और बताया कि उनके अनुयायियों ने आपस में लड़ाई-झगडा शुरू कर दिया हैं। इस पर बुद्ध ने चुंद को संबोधित करते हुए कहा -
चुंद, अब संसार में कितने उपदेशक हैं जो इतनी अग्रगनी और प्रसिद्धि की स्थिति तक पहुंचे हैं,  जहाँ तक तथागत पहुंचे हैं। मुझे कोई ऐसा उपदेशक दिखाई नहीं देता।  हे चुंद,  आज संसार में कई धार्मिक संघ हैं।  लेकिन मुझे कोई ऐसा संघ दिखाई नहीं देता जिसने भिक्खु-संघ जितनी अग्रगनी प्रसिद्धि वाली स्थिति प्राप्त की हो। यदि कोई व्यक्ति किसी धर्म को हर प्रकार से सफल, पूर्ण, त्रुटिर-हित और सुस्थापित बताना चाहेगा तो वस्तुत: वह इसी धर्म का नाम लेगा।

बुद्ध ने अपने धर्म को हर प्रकार से पूर्ण समझे जाने के लिए निश्चित कारण बताएं।  उन्होंने कहा कि अपने  समकालीन उपदेशकों के विपरीत अपने अनुयायियों से यही कहना चाहता हूँ कि वे संसार के आदि और परलोक सम्बन्धी विचारों से दूर रहे और केवल अपनी आतंरिक स्थितियों में परिवर्तन लाने की विधियों पर ध्यान दें।

हे चुंद, मैं मानसिक मद को अंकुश में रखने का उपदेश देता हूँ। इस मन को भृष्ट करने वाली प्रवृतियां इसी जीवन में उत्पन्न होती हैं।  मैं यह नहीं बताता कि दूसरे जीवन में मन को पथ-भ्रष्ट करने वली वृतियों का दमन किस प्रकार किया जाए।  मेरा तो केवल यही प्रयास है कि इस जीवन में उन पर किस प्रकार अंकुश लगाया जाए(पृ  401)।

Monday, November 12, 2018

राम

राम,
तुम्हारे आस्था पुरुष
हो सकते हैं
मगर, हमारे कैसे ?
हम, उनकी
किस बात पर आस्था करें ?

क्या इस पर कि
एक ब्राह्मण के कहने पर
उन्होंने शम्बूक शुद्र का
सिर कलम किया ?
या इसलिए कि
एक धोबी के कहने पर
अपनी पत्नी सीता को
घर से निकाल दिया ?

'पूजिए विप्र
सील गुण हिना'
तुम्हारे लिए
सही हो सकता है
क्योंकि तुम
ब्राह्मण को घर बुलाते हो,
उससे पूजा करवाते हो

मगर,
हम क्यों पूजे ?
हमें तो उसे
छूने से परहेज है
हमारे हाथ का पानी
पीने से परहेज है ?

जहाँ विभेद
और घृणा हो
उस 'मानस' को
हम क्यों पढ़े
जो पशु से हमें
बदतर समझता हो
हम उसकी पूजा
क्यों करे ?

तमाम सदिच्छा के
बावजूद, तुम्हारे
'रामराज्य' की थीम
भ्रामक लगती है
चातुर्वर्ण और
ऊंच-नीच की खाई को
और चौड़ी करने की
साजिश लगती है ?
अ  ला उके  @amritlalukey@blogspot.com

Saturday, November 10, 2018

गणपति; विघ्नहर्ता या विघ्नकर्ता ?

गणपति; विघ्नकर्ता-
गणपति सदा से देवता नहीं थे,कम-से-कम आधुनिक अर्थ में तो नहीं। प्राचीन पौराणिक कथाकारों और नियम बनाने वालों की दृष्टि में भी गणपति का कोई श्रेष्ठ स्थान नहीं था। यह तो बहुत बाद में देवता बने (देवीप्रसाद चटोपाध्याय:लोकायत, पृ 101)।

विचित्र विसंगतियां-
लेकिन यह प्रक्रिया अकेले गणपति पर ही लागू नहीं होती,  अन्य प्राचीन देवताओं यथा शिव, कृष्ण आदि पर भी लागु होती है। किन्तु बाद में इन विचित्र विसंगतियों को छिपाने के लिए गल्प कथाएँ रची गई ।

गणपति
गणपति अर्थात गणों का मुखिया। गणपति का दूसरा समानार्थक शब्द है, गणेश अर्थात गणों का ईश या  देवता। छठी शताब्दी में गणपति को गणनायक कहा जाता था। जिसका अर्थ था किसी जन-समुदाय का मुखिया(पृ 101 )।

विपत्तियों का अवतार बनाम सफलता का देवता
गणपति की सबसे महत्त्व पूर्ण बात उनके नामों में नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि गणपति के प्रति भावनाओं में बड़ा विचित्र परिवर्तन आया । पहले तो गणपति को कष्ट और विपत्तियाँ लाने वाला माना जाता था और बाद में वह सद्भाव और सफलता का देवता बन गया । हम सदा यही समझते रहे हैं कि गणपति केवल मनोकामनाएं पूर्ण करने वाले देवता हैं।  लेकिन प्रत्यक्षत: यह भावना तो बाद में पहले वली भावना पर थोपी गई। पहले तो गणपति को विपत्तियों का अवतार माना जाता था। इस तरह के विचार पहली 5 वीं शताब्दी में विद्मान थे (पृ 102)।

'गृह सूत्र' और 'स्मृति' आदि में गणपति के प्रति घृणा-
गृह्य सूत्र काल' अर्थात 5 वीं शताब्दी में यह गणपति या विनायक केवल भय या तिरस्कार की भावना उत्पन नहीं करते थे। वरन गणपति को अव-मंगल का सूचक माना जाता था।  गणपति के सम्बन्ध में यह धारणा बहुत समय तक बनी रही। 'मानव सूत्र' से कई शताब्दियों के अन्तर पर याज्ञवल्क्य द्वारा लिखी संहिता में यही स्थिति वर्णित है। मनुस्मृति काल में गणपति के प्रति तिरस्कार ही था(103)। मनु ने गणपति को शूद्रों का देवता घोषित किया था(पृ 108 )।

गणपति के कुछ प्रसिद्द नाम हैं- विघ्नकृत, विघ्नेश, विघ्नराज, विघ्नेश्वर आदि। इन सब का विशुद्ध शाब्दिक अर्थ है, विघ्न डालने वाला। वि-नायक अर्थात विपत्तियों का नायक।  किन्तु बाद में इन नामों के शाब्दिक अर्थ की अनदेखी कर नए अर्थ किए गए यथा- नमो गणेशाय विघ्नेश्वराय' अर्थ 'मैं विघ्नों के देवता गणेश के सम्मुख नमन करता हूँ' किया गया (104)।

याज्ञवल्क्य के अनुसार, विनायक,  गुणों का देवता इसलिए बना की वह बाधाएं उत्पन्न कर सकें।  बौद्धायण ने 'धर्मसूत्र' में गणपति को सीधे 'विघ्न' कहा अर्थात बाधा। पौराणिक साहित्य में गणपति न केवल विघ्न उत्पन्न करने वाले थे वरन ऐसा करते हुए रक्त भी बहा देते थे(वही)।

गणपति का एक दांत, 'ब्रह्म वैवर्त पुराण' में आयी एक कथा के अनुसार परशुराम ने कुल्हाड़े से तोड़ दिया था।  और,  इसलिए गणपति को  'एकदन्त' कहा जाता है । जैसा कि सभी जानते हैं कि परशुराम ब्राह्मणों अथवा पुरोहित वर्ग की सर्वोच्च स्थिति के घोर समर्थक थे। स्पष्ट है, उस काल में गणपति का प्रमुख शत्रु पुरोहित वर्ग था (वही)।

गणपति के प्रति घृणा साहित्य के स्रोतों तक ही सीमित नहीं थी वरन गणपति की प्रतिमाओं में भी यह परिलक्षित होता था। कुछ प्रतिमाओं में तो उन्हें भोंडी नग्नता और भयानक दानव के रूप में दिखाया गया था(वही, पृ  105 )।

बौद्ध-ग्रंथों में गणपति के प्रति घृणा
मंजुश्री द्वारा गणपति को पद-दलित करने के दृश्य वाली मूर्तियां भी हैं। इससे पता चलता है कि एक समय बौद्ध भी गणपति से उतनी ही घृणा करते थे जितने कि हिन्दू(पृ  106 )।

विघ्नेश्वर से सिद्धिदाता-
परिवर्तिति काल में रक्त रंजित हस्ति दन्त वाले विघ्न उत्पन्न करने वाले गणपति मनोकामना सफल होने का वरदान देने वाले देवता बन गए।  विघ्न राज, सिद्धिदाता बन गए। स्वाभाविक रूप से इस परिवर्तित रूप को लोकप्रिय बनाने के लिए व्यापक प्रचारात्मक साहित्य लिखा गया और इस प्रचार को पुराणों में प्रमुखता दी गई । 'स्कन्द पुराण' में गणपति को स्वयं ईश्वर का अवतार बताया गया। गणपति की स्तुति के लिए 'गणेश पुराण' और 'गणपति उपनिषद' लिखे गए( वही)।

आगे चलकर, जिस गणपति को 'मानव गृह्य' सूत्र' और 'याज्ञवल्क्य स्मृति' में जहाँ विद्या अध्ययन में विघ्न कारक कहा गया था, उन्हें  प्रज्ञा और विद्वता के देवता घोषित किया गया। गणपति को अचानक ही जिन गुणों से संपन्न बना दिया गया उसे उचित बताने किए लिए  वेदव्यास द्वारा रचित और उच्चरित महाभारत को लिखने की अति कठिन कार्य करने के योग्य वाली 'देव कथा' गढ़ी गई । यही नहीं, गणपति को प्रज्ञावान दिखाने के लिए 'श्रीमद भगवत गीता' की तर्ज पर  'गणेश गीता' रची गई(पृ 107 )।

परस्पर विरोधी पौराणिक गाथाएँ-
जो विघ्नकर्ता, सिद्धिकर्ता बन गया, उसे उच्च वंश का बताना आवश्यक था।  'स्कंध पुराण' और  'ब्रह्म वैवर्त पुराण' के अनुसार, पार्वती ने खेल ही खेल में अपने शरीर के मल को विचित्र आकृति देकर इसमें प्राण फूंके थे। एक अन्य कथा के अनुसार, पार्वती अपने शारीर पर जिस उबटन को मलती थी, उस में अपना मल मिश्रित करके वह गंगा के उद्गम स्थल पर गई और एक हस्तिमुख वाली मालिनी नमक राक्षसी को यह मिश्रण पीने को बाध्य किया। गणपति, मालिनी के गर्भ से उत्पन्न ही बालक था, जिसे पर्वतो ले गई थी(पृ 108)।

ब्रह्म वैवर्त पुराण की इस कथा के अनुसार, जन्म के बाद  गणेश पर शनि की दृष्टि पड़ी और गणेश का सिर धड से अलग हो गया ।  इसलिए विष्णु ने शोक ग्रस्त माता पर दया करके एक हाथी का सिर उस बालक एक सिर पर लगा दिया। किन्तु स्कन्द पुराण के अनुसार, गणेश का सिर जन्म के पूर्व ही नहीं था।  सिंदूर नामक एक दैत्य, माता के गर्भ में प्रविष्ट हो गया और उन्होंने गर्भस्थ बालक का सिर खा लिया। गर्भस्थ बालक जब जन्मा तो उसने देखा कि उसका सिर नहीं हैं ! उसने गजासुर नामक हस्ति दानव का सिर काटा और अपने सिर पर लगा दिया(वही)।

दक्षिण भारत के सुप्रभेदागम' के अनुसार शिव- पार्वती ने हस्ति मुद्रा में सम्भोग किया जिससे हस्तिमुख वाला बालक पैदा हुआ।  एक और कथा जो कई पुराणों में आयी है, के अनुसार इंद्र के नेतृत्व वाले अभिजात देवतागण शिव के निवास स्थल सोमनाथ के पर्वतीय क्षेत्र में, 'नीच जाति' वाले शूद्रों और उनकी स्त्रियों के एक समागम से डर गए।  देवताओं ने शिव से प्रार्थना की, किन्तु उन्होंने इस सभा को नहीं रोका। तब सब देवता शिव पत्नी पार्वती के पास पहुंचे।  उन्होंने इस जन-समूह के विनाश के लिए अपने शरीर के मल से एक विपत्ति कारक देवता का सृजन किया(वही )।

विघ्नराज का रूपांतरण-
कुमारस्वामी के अनुसार, गुप्त राजाओं के शासन काल से पहले के मूर्तिशिल्प में  गणेश की मूर्ति नहीं थी। गणेश की प्रतिमाएं अचानक ही गुप्तकाल(500 ईस्वी) में बनी। काणे के अनुसार भी गणेश की प्रतिमाएं ईस्वीं 500-600 में होने लगी थी।  यह स्थापित किया जा चूका है कि गुप्त काल में ब्राह्मण साहित्य नए सिरे से लिखा गया था(पृ 109 )।

मध्य युग के ग्रंथों में गणेश के हस्तिमुख, कुम्भाकार उदर, मूषक वाहन आदि विचित्र विशेषताओं का जो वर्णन हैं वह वैदिक साहित्य में नहीं है । हाँ. बौद्धायण के धर्मसूत्र में विनायक को हस्तिमुख, वक्रतुंड, एकदंत और लम्बोदर कहा गया है, ये सभी विशेषताएँ बाद में जोड़ी गई(वही )।

एक नहीं, अनेक गणपति
कुछेक स्थानों पर कई गणपतियों की बात कही गई है । 'वाजसनेयी संहिता' में यह शब्द बहुवचन में हैं। 'मानव गृह्य सूत्र' में चार विनायकों का उल्लेख हैं और याज्ञवल्क्य ने इन्हें अनेक बताया है। महाभारत के अनुशासन  पर्व में भी गनेश्वरों और विनायकों के सम्बन्ध में बहुवचन का प्रयोग है। भंडारकर के अनुसार मूलत: जो चार विनायक थे, कालान्तर में एक हो गए(वही)।

संभवत: विभिन्न गणपतियों के विभिन्न आकार और विशेषताएँ थी। 'तैतरीय संहिता' के अनुसार इन गणपति यों की शक्ल पशुओं जैसी थी। तांत्रिक ग्रंथों में कुछ गणपतियों के चिन्ह बैल जैसे थे तो कुछ के चिन्ह सांप जैसे थे। इन में प्राचीन टोटमवादी विश्वास भी हो सकते हैं(वही)।

मातंग राजवंश-
डी डी कोसंबी के अनुसार कोसल के बाद के काल के सिक्कों को यदि काल क्रम से देखा जाए तो मातंग(हाथी) राजवंश की स्थापना के क्रमिक इतिहास का पता चलता है(वही)।

वेदों में गणपति
वेदों के कवियों को गणपति का तो पता है किन्तु उन्हें उनके हस्तिमुख की कोई जानकारी नहीं है। यह गणपति न तो विघ्नराज था और न ही बाद का सिद्धिदाता(पृ  114 -115 )। जहाँ तक वैदिक साहित्य का सवाल है, हमें गणों और गणपतियों की प्रतिष्ठा और वैभव के प्रमाण मिलते हैं(पृ  117 )।
-अ ला ऊके  amritlalukey.blogspot.com

व्यवस्था

व्यवस्था से
'व्यवस्था'
की बात करना
कितनी बेहूदा है ?
जबकि
व्यवस्था खुद
'अ-व्यवस्था' हो।
अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com

Friday, November 9, 2018

नया नाम

भैसों के
चरते हुए
झुण्ड से
उन्होंने कहा-
तुम 'भैस' नहीं,
'गाय' हो
तुम्हारा पुराना नाम
बदला जाता है।

भैसों ने
पल भर
थूथनी उठायी
और,
चरने लगी।
-अ ला ऊके  amritlalukey.blogspot.com


Thursday, November 8, 2018

'दीपदानोत्सव' या बौद्धों का 'हिन्दुकरण'

'दीपदानोत्सव' या बौद्धों का 'हिन्दुकरण'
भारत में, अल्पसंख्यक समुदाय यथा मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, इनके हिन्दुकरण के प्रयास होते रहे हैं।  बहुसंख्यक हिन्दू हमेशा उनकी संख्या पर 'चैक' रखते हैं। हिन्दुओं को यह भय दो कारणों से रहता है - प्रथम कि उनका बहु-संख्यक के तौर पर दबदबा कम न हो जाए और दूसरे, अपनी संख्या-बल पर वे हमारी इच्छा के विरुद्ध कोई कानून न पास कर लें। 

हिन्दू, अल्पसंख्यकों पर तो ठीक है, दलित-आदिवासियों पर भी यह 'चैक' रखते हैं और इसके लिए वे विभिन्न स्लम एरिया में दीपावली, दशहरा, गणेशोत्सव और आदिवासी बहुल क्षेत्रों में उन्हें  'मुख्य धारा में लाने/जोड़ने के नाम पर 'बनवासी बाल आश्रम' आदि कई तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ चलाते हैं।

दलित आदिवासी तो ठीक है, किन्तु इसका क्या किया जाए कि धर्मान्तरित बौद्ध, जो खुद को बाबासाहब डॉ अम्बेडकर का अनुयायी बतलाते हैं, हिन्दू-मठाधीशों की इस चाल में बड़ी जल्दी आ जाते हैं। इस में विपस्सना केन्द्रों की भूमिका अहम हैं। इन केन्द्रों के संचालक/विपस्सनाचारयों ने, जो अम्बेडकर के अनुयायी नहीं हैं, विपस्सना को बुद्ध से जोड़ कर धर्मान्तरित बौद्धों के ह्रदय में गहरी पैठ बना ली है। अम्बेडकर के अनुयायी भी इन विपस्सना केन्द्रों की वैभवता देख घंटों और महीनों आँखें मूंदे पड़े रहते हैं। 

हिन्दू मठाधीश, दलित-आदिवासियों का हिन्दुकरण करने नए-नए प्रयोग करते हैं। इन प्रयोगों में सामाजिक-सास्कृतिक प्रयोग बड़े कारगर साबित होते हैं। राष्ट्र और राष्ट्रीय-अस्मिता के नाम से चलाये गए कार्य-क्रम बड़ी जल्दी परिणाम दिखाते हैं, वही विरोधियों को कुचलने में भी आसानी होती है। दीपावली, दशहरा, गणेशोत्सव आदि इस तरह की सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ हैं। लोकमान्य तिलक द्वारा महाराष्ट्र में शुरू किया 'गणेशोत्सव' हमारे सामने है। अभी कुछ वर्षों पूर्व तक म प्र के आदिवासी बहुल क्षेत्र बस्तर में दशहरा के समय रावण के पुतले की पूजा होती थी।  किन्तु इधर,  पिछले दो-तीन वर्षों से आरएसएस ने वहां रावण का पुतला जला सेंधमारी कर, आदिवासियों को दो हिस्सों में बाँट दिया है !

बौद्ध तो ठीक है, इधर धर्मान्तरित बौद्धों में भी यह हिन्दू संस्कृतिकरण तेजी से हो रहा है। दीपावली, हिन्दुओं का त्यौहार है। पाठ्य-पुस्तकों में अभी तक यही पढ़ाया जाता है। इधर, कुछ हमारे धम्म-बन्धु  महावंस, असोकवदान आदि कुछ संस्कृत बौद्ध-ग्रंथों का हवाला देकर दीपावली को 'दीपदानोत्सव' के नाम से बौद्धों का त्यौहार बतला रहे हैं ! निस्संदेह, इससे हमारे उन बच्चों के दिमाग में तो भ्रम फैलेगा जो अब तक इसे हिन्दुओं का त्यौहार पढ़ते रहे हैं ?

'देव भाषा' संस्कृत में लिखे बौद्ध-ग्रन्थ-
संस्कृत भाषा में प्राप्त होने वाला यह साहित्य मूलत: महायानी साहित्य कहलाता है। थेरवादी परम्परा से मतभेद के परिणाम स्वरूप सम्राट अशोक के शासन काल के पश्चात इस महायानी साहित्य परम्परा का आविर्भाव हुआ। इस परम्परा ने संस्कृत को अपनी साहित्य की भाषा के रूप में स्वीकारा। संस्कृत बौद्ध ग्रन्थ थेरवाद से महायान के संक्रमण काल के दौरान रचे गए थे। इस काल में ब्राह्मण बौद्ध विद्वानों ने 'पालि भाषा' का परित्याग करते हुए संस्कृत भाषा में अपना साहित्य लिखना शुरू किया ।

जातक कथा
बौद्ध साहित्य में जातक कथा साहित्य विशेष उल्लेखनीय है। ये जातक बोधिसत्वों के पुनर्जन्मों की कथाएं हैं।  इन में बोधिसत्व नायक के रूप में रहते हैं। यद्यपि ये जातक कथाएं मनुष्य को श्रेष्ठ आचरण जीवन जीने के लिए आदर्श के रूप में स्थापित की गई हैं किन्तु इस प्रक्रिया में उन में जबरदस्त ब्राह्मणवाद प्रवेश कर गया है।

अवदान साहित्य-
दिव्यादान आदि 'अवदान' साहित्य यद्यपि बौद्ध धर्म और अशोक काल के इतिहास के ये मान्य स्रोत ग्रन्थ हैं, तथापि इसी आधार पर इन में वर्णित सारी बातें इतिहास नहीं हैं। कुणालावदान में अशोक के पूर्व जन्म की कथा भी वर्णित है। महावंश हो या अवदान साहित्य, अगर इन में कही गई सब की सब बातें सही है तो वेद- उपनिषदों और पुराणों में ऋषि-मुनियों के द्वारा कही गई बातें किस तरह गलत है ?

सम्राट अशोक की जीवन चर्या एवं महान कार्यों का प्रामाणिक विवरण 'दीव्यादान' नामक संस्कृत ग्रंथ में उपलब्ध है। दिव्यादान में कुणालावदान,  वीतसोकावदान, अशोकावदान आदि  38 अवदान हैं। बौद्ध धर्म की महायान शाखा में सर्वास्तिवादी साहित्य, दिव्यादान का विशेष महत्त्व है। यह सही है कि ऐतिहासिक, साहित्यिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यंत महत्त्व पूर्ण तथा उपयोगी हैं। बौद्धकालीन इतिहास और संस्कृति का विवरण हमें इन्हीं से प्राप्त होता है।

महावंस
यह ठीक है कि पालि वांग्मय में, ति-पिटक और उसकी अट्टह-कथाओं के बाद इतिहास वर्णन की दृष्टि से 'दीपवंस' एवं 'महावंस' ग्रंथों का अपना एक विशष्ट स्थान है।  इन दोनों ही ग्रंथों में बुद्ध काल से 4 थी शताब्दी तक सिंहल द्वीप के बौद्ध राजाओं का तथा प्रसंग-वश तत्कालीन भारतीय राजाओं का, तत्कालीन बौद्ध स्थविरों का एवं महाविहारों का तथा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का प्रमाणिक विवरण दर्ज है। किन्तु  डॉ भदंत आनंद कोसल्यायान के अनुसार, महावंस में जो कुछ लिखा है, वह सारा का सारा तो किसी हालत में मानने योग्य नही है, छलनी से छान कर ही ग्रहण करने योग्य है(भूमिका: महावंस)।

महावंस में अतिशयोक्ति-
महावंसकार ने अपनी इस रचना में पहले ही परिच्छेद में भगवान बुद्ध का लंका द्वीप में तीन बार आगमन दिखाया है। पहला यक्ष दमन हेतु, दूसरा नाग दमन हेतु और तीसरा कल्याणी नदी पर नागों पर कृपा करने हेतु।  जबकि सम्पूर्ण ति-पिटक में इन तीनों यात्राओं का कहीं संकेत नहीं है।  इन्हीं इतिहास ग्रंथों के आधार पर सिंहल द्वीप वासी जनता वहां के सामंत कूट पर्वत पर अंकित चरण-चिन्हों को भगवान बुद्ध का मानती है। इसी तरह सम्राट असोक के राज्य-रोहण के बाद उसके प्रसाद में देवताओं द्वारा प्रतिदिन खाद्य-सामग्री, पेय, लेह्य, चोष्य सामग्री पहुँचाने का वर्णन है(वही)।
अ ला ऊके  @amritlalukey.blogspot.com 

धार्मिक आतंक

धार्मिक आतंक
बेटी- "पापाजी, हम लोग दीपावली में दिए तो जलाते नहीं हैं। पर क्या मैं थोड़ी-सी रंगोली डाल दूँ ?"
पापाजी- "बात तो वही हो गई। उस दिन बुद्ध जयंती को मैंने कहा था।  किन्तु तुमको फुर्सत नहीं मिली। "
बेटी- "पापाजी, उसी दिन आफिस की छुट्टी नहीं थी न ?"
-अ  ला ऊके

Wednesday, November 7, 2018

अपमान-जनक बातें

घटना मनुस्मृति दहन की है।
बाबासाहब डॉ अम्बेडकर द्वारा मनुस्मृति दहन की खबर सारे देश में जंगल की आग की तरह फैली। कई नामी नेता और वकील दौड़े-दौड़े गांधीजी के पास गए और उनसे डॉ  अम्बेडकर के खिलाफ थाने में रिपोर्ट लिखने की मांग करने लगे । उस समय गांधीजी के पास सरदार पटेल बैठे थे, उत्तेजित लोगों को वे डपटते बोले-
"कुछ करने के पहले यह अच्छी तरह सोच लेना कि अम्बेडकर एक जाने-माने वकील भी है। अगर मुकदमा हार  गए तो दूसरे दिन वे रामायण, महाभारत आदि तुम्हारे दूसरे ग्रन्थ भी जला देंगे जिन में उनके विरुद्ध कई अपमान-जनक बातें हैं ? 

उस पार

उस पार
एक युवक अपने गंतव्य की ओर था कि मार्ग में एक चौड़ी नदी आ गई। मार्ग में खड़ी इस बाधा को वह हताशा से देख रहा था । जैसे वह लौटने लगा, उसे नदी के पार एक वृद्ध दिखाई दिया। उसने जोर से हाँक लगाईं -
"बाबा,  उस पार कैसे आएं  ?
बेटा, तुम उस पार ही हो। " वृद्ध ने जोर से कहा।" 
(10 जेन लघु कथा से साभार)। " प्रस्तुति- अ ला ऊके   @amritlalukey.blogspot..com
 

Monday, November 5, 2018

पुरुष

पुरुष
का लिखना
नारी पर
कुछ वैसे ही है, जैसे
किसी सवर्ण उच्च
जात्याभिमानी का
किसी अन्त्यज/अस्पृश्य की
जीवनी लिखना
या किसी
मिल-मालिक द्वारा
मजदूरों का नेतृत्व करना।

सहानुभूति-जन्य
अनुभूति
अलग है, और
भोगा हुआ सच
अलग

बेटा
जनने की पीड़ा
न बेटा जान सकता है
न बाप
वह तो माँ ही जानती है
कि बेटा हो या बेटी
पीड़ा
एक ही होती है
हाँ, फर्क है तो इतना
कि बेटा 'नर' होता है
और बेटी 'मादा'

पुरुष
का लेखन
मन बहलाने का साधन
भला,
संघर्ष की प्रेरणा
वह नारी को
क्यों देने लगा ?
जिसे 'पैर की जूती'
समझते आया
उसकी मुक्ति के लिए
वह क्यों लिखने लगा ?

पुरुष,
दम्भी और स्वार्थी
कभी उसकी
निस्वार्थ सेवा को
'नारी मर्यादा' की संज्ञा देता है
तो कभी भ्रूण-हत्या को
उसकी 'मुक्ति' बतलाता है
यह पुरुष ही है
जो अपनी चिता के साथ
उसे जिन्दा जलने
विवश करता है
और इस बेहयाई को
'सती' बतला
महिमामंडित करता है।

पुरुष लिखता है
खूब लिखता है
मगर, तब तक
जब तक
उसके दंभ और स्वार्थ को
'खतरा' नहीं होता
जब और जिस क्षण
वह 'खतरा' देखता है
तो सगी माँ को
'औरत की जात' कहने
नहीं हिचकता।
-अ ला उके   @amritlalukey.blogspot.com   Mob. 9630 826117
  

राम-कथा

कल, मैं एक बुद्ध विहार के लोकार्पण समारोह में गया। समारोह का प्रारंभ रैली से हुआ। जन-दर्शनार्थ बुद्ध की मूर्ति को लिए वाहन बाबासाहब डॉ अम्बेडकर के फोटों/नारों से लैस आगे-आगे चल रहा था। हम दोनों पति-पत्नी रैली में चल रहे थे । करीब तीन कि. मी. चल कर वापिस पुन: बुद्धविहार आए। रैली में जो खास बात मैंने नोट की , वह थी- महिलाओं की संख्या। सुखुवार हो चुकी महिलाओं की संख्या से मेरा मन समाज की चेतना देख, जैसे नाच रहा था।

करीब 2 बजे पत्नी को चलने का इशारा किया।  दरअसल, भूख जोरों से लग रही थी। वहां भोजन का इंतजाम तो था किन्तु अभी शायद देरी थी। पत्नी, अन्य परिचित महिलाओं के साथ मंचीय कार्य-क्रम जो अब प्रारंभ होने को था, देखने उत्सुक थी। मेरे इशारे को उसने झटक दिया।  मुझे लगा, ये महिलाएं 'राम-कथा' वाली महिलाएं नहीं है।

लघु कविता

अब तो 
आदत-सी हो गई है
पत्नी की 'हाँ' में हाँ मिलाने की 
बात, सही या गलत की नहीं, 
दरअसल, बात है-
एक छत के नीचे
हंसते-मुस्कराते रहने की।
  .

Friday, November 2, 2018

चरथ, भिक्खवे, चारिकं

धम्म-ग्रंथों का पुनर्पाठ
1 .  चरथ भिक्खवे चरिकं 
एकं समयं भगवा वराणसियं विहरति
एक समय बुद्ध विहर रहे थे, वाराणसी में
इसिपतने मिगदाये।
इसि पतन के मृगदाव में।
 तत्र खो भगवा भिक्खू आमंतेसि-
वहां बुद्ध ने भिक्खुओं को आमंत्रित किया-
"भिक्खवो"ति।
"भिक्खुओं ?"
"भदन्ते "ति। ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं।
"भदंत !"  -कह कर उन भिक्खुओं ने बुद्ध को उत्तर दिया। 
भगवा एतद वोच-
बुद्ध ने ऐसा कहा-
"मुत्ता अहं भिक्खवे,
भिक्खुओं, मैं मुक्त हो गया हूँ
सब्ब पासेहि ये दिब्बा ये च मानुसा।
सभी जालों से, चाहे दिव्य हो या मानुसी
तुम्हे अपि, भिक्खवे,
तुम भी भिक्खुओं,
मुत्ता सब्ब पासेहि ये दिब्बा च ये मानुसा।
सभी जालों से मुक्त हो, चाहे दिव्य हो या मानुसी
चरथ, भिक्खवे, चारिकं
विचरण करो भिक्खुओं, चारिका करते हुए , 
बहुजन हिताय बहुजन सुखाय
बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए
लोकानुकम्पाय
लोगों पर अनुकम्पा करने
अत्त्थाय, हिताय सुखाय
हित के लिए, सुख के लिए
इत्थी-पूरिस्सानं।
महिला और पुरुषों के लिए
मा एकेन द्वे अगमित्थ।
एक साथ दो मत जाओ
देसेथ भिक्खवे, धम्मं
धम्म का उपदेश करो
आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं
आदि में कल्याण कारक, मध्य में कल्याण कारक
परियोसानकल्याणं
अंत में कल्याण कारक
सात्थ, सब्यञ्जनं, केवल, परिपूण्णंं
अर्थ सहित, व्यंजन सहित, समस्त, परिपूर्ण
परिसुद्धंं,  विसुद्ध** चरियं पकासेथ।
परिशुद्ध, विसुद्ध-चरिया का प्रकाश करो।"
स्रोत- पास सुत्त (4.1.5): संयुक्त निकाय
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मूलपाठ- *  देव-मनुस्सानं        **  ब्रह्म
प्रस्तुति  अ ला उके मो. 9630826117   @ amritlalukey.blogspot.com