चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण में प्रतिबिंबित हीनयान और महायान
चीनी यात्री फाहियान, व्हेनसांग ने हीनयान और महायान का उल्लेख किया है। इत्सिंग ने हीनयान और महायान दोनों को बुद्ध शासन कहा है और निर्वाण की ओर ले जाने वाला मार्ग स्वीकार किया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि जो महायानी सूत्रों का पाठ करता है, वह महायानी और ऐसा नहीं करने वाले हीनयानी है(बौद्ध धर्म का अध्ययन, पृ 155 : डॉ अवधेश सिंह )।
1. डॉ भदन्त आनंद कौसल्यायन -
प्रचलित मत है कि बौद्ध धर्म चार दार्शनिक सम्प्रदायों में विभक्त है। किन्तु सारे पालि बौद्ध वांगमय में इन सौत्रान्तिक से लेकर माध्यमिक तक चारों तथाकथित बौद्ध सम्प्रदायों में से किसी एक का भी पता नहीं है। इतना कहा जा सकता है कि बुद्ध के लगभग एक हजार वर्ष बाद भारत में जो बौद्ध चिंतन-परम्परा चालु थी, जिनमें कुछ न कुछ परिवर्तन-परिवर्द्धन होता रहा था, उसी के ये चारों बुद्धोत्तर कालीन विभाजीकरण है(दर्शन, वेद से मार्क्स पृ 130 )।
इन चारों को शुद्ध महायानी भी कहना उसी प्रकार कठिन है जैसा आज के स्थविरवाद को शुद्ध स्थविरवाद कहना। ठीक बात यह है कि यह महायान और हीनयान की विभाजक रेखा भी चिंतन की दार्शनिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने की बजाए कुछ अधिक धूमिल ही करती है(वही)।
इस विभाजन का यदि कुछ अर्थ है तो इतना ही कि सिंहल द्वीप, बर्मा, स्याम(थाईलैंड) तथा कम्बोडिया में बौद्ध धर्म और भिक्खुओं की आचार-परम्परा का जो रूप है,वह स्थविर वाद या थेरवाद कहलाता है। दूसरी ओर, तिब्बत, चीन, जापान, मंगोलिया आदि एशिया खंड के अन्य देशों में जो रूप प्रचलित है, वह महायान कहलाता है(वही)।
मूल पालि वांग्मय ही जिन देशों में धर्म-ग्रथों के रूप में आदृत है, पूजित है, पढ़ा-लिखा जाता है, वे स्थविर वादी देश हैं। वही, मूल बौद्ध संस्कृत वांगमय अपने तिब्बती, चीनी, जापानी आदि भाषाओँ में अनिदित होकर जहाँ आदृत है, वे महायानी देश हैं(130-131 )।
भले ही सौत्रान्तिक हो या वैभाषिक या योगाचार अथवा माध्यमिक, एक बात याद रखनी चाहिए कि ये सभी बौद्ध सम्प्रदाय है और कुछ ऐसी सीमाएं है जो इन सभी के लिए अलंघ्य है। जैसे; कोई भी बौद्ध सम्प्रदाय ईश्वरवादी नहीं हो सकता, आत्मवादी नहीं हो सकता,शब्द-प्रमाण वादी नहीं हो सकता और प्रतीत्य-समुत्पाद के नियम से इंकार नहीं कर सकता(133 )।
2. राहुल संकृत्यायन
बुद्ध के निर्वाण के 100 वर्ष बाद, वैशाली की संगीति के समय बौद्ध धर्म स्थविरवाद और महासान्घिक नामक दो निकायों में विभक्त हो गया। इसके 125 वर्षों बाद और भी विभाग होकर, 'कथावत्थु' की अट्ठकथा के अनुसार, उसके 18 निकाय बन गए(पुरातत्व निबंधावली, पृ 121)।
बुद्ध के जीवन में ही उनके शिष्य गंधार, गुजरात(सूनापरांत), पैठन(हैदराबाद राज्य) तक पहुँच चुके थे। धीरे-धीरे भिक्खुओं के उत्साह एवं अशोक, मिलिंद, इन्द्राग्निमित्र आदि सम्राटों की भक्ति और सहायता से इसका प्रसार और भी अधिक हो गया। अशोक का सबसे बड़ा काम यह था कि उन्होंने भारत की सीमा के बाहर के देशों में धम्म प्रचारकों के भेजे जाने में बहुत सहायता की। अशोक( ई पू तृतीय शताब्दी) के बाद बौद्ध धर्म सभी जगह फ़ैल चुका था। अशोक की सहायता, चाहे एक ही निकाय के लिए रही हो, लेकिन दूसरे निकायों ने भी अच्छा प्रसार किया था। शुंगों और काण्वों के बाद, आंध्र या आंध्रभृत्य सम्राट हुए। इनकी राजधानी प्रतिष्ठान(पैठन), महाराष्ट्र थी। पीछे धान्यकटक दूसरी राजधानी बनी (वही, पृ 122)।
शातकर्णी या शातवाहन/शालिवाहन आंध्र राजा, प्रारंभ में उत्तरीय भारत के शासक थे किन्तु बाद में दक्षिण के होकर रह गए । सातवाहनों का बौद्ध धर्म पर विशेष अनुराग था, यह उनके पहाड़ काट कर बने गुहा विहारों में खुदे शिलालेखों से मालूम होता है। राजधानी धान्य-कटक(अमरावती) में उनके बनाए भव्य स्तूप, नाना मूर्तियाँ, लताओं तथा चित्रों से अलंकृत संगमरमर की पट्टिकाएं, स्तम्भ, तोरण आज भी उनकी श्रद्धा के जीवित नमूने हैं। वस्तुत: बौद्धों के लिए शातवाहन राजवंश(100 ई पू से 300 ई तक) पुराने मौर्यों या पिछले पालवंश की तरह था। नाशिक, कार्ला, अजंता, एलोरा की गुहाओं का प्रारंभ भी इन्हीं के समय हुआ था (वही, पृ 123)।
प्रतीत होता है, महासान्घिकों से अन्धक निकायों( 'अपरशैलीय', 'पूर्वशैलीय', 'राजगिरिक', 'सिद्धार्थिक' आदि) का जन्म हुआ, क्योंकि आन्ध्र-साम्राज्य में महासंघिकों का बहुत अधिक प्रचार और प्रभाव था(पृ 126- 127).
। यह चारों ही अन्धक निकाय, आन्ध्र-सम्राटों के समय बहुत ही उन्नत अवस्था में थे। आन्ध्र राजा और उनकी रानियों का बौद्ध धर्म पर कितना अवस्था अनुराग था, यह हमें अमरावती और नागार्जुनी-कोंडा के मिले शिलालेखों से मालूम पड़ता है(वही,129)।
कथावत्थु की अट्ठकथा में वैपुल्यवादियों को महा शून्यवादी कहा गया है। हमें मालूम ही है कि नागार्जुन शून्यवाद के आचार्य कहे जाते हैं। इस प्रकार वैपुल्यवाद और महायान एक सिद्ध होते है। यद्यपि कथावत्थु के अंतिम भाग(17, 18 और 23) में आया यह प्रसंग बाद में जोड़ा गया प्रतीत होता है, क्योंकि इसमें 'शून्यवाद' का खंडन नहीं है(वही, पृ 130)।
सामान्य तौर पर चीन और तिब्बतीय कंजूर परम्परा में महायानी सूत्रों में प्रज्ञापारमिता, रत्नकूट, वैपुल्य, अवतंसक आदि आते हैं। विपुल से ही वैपुल्यवाद अस्तित्व में आया जो कालांतर में महायान प्रसिद्द कहलाया (पृ 131)। दरअसल, महायान, पूर्व शैलीय आदि चार अन्धक सम्प्रदायों तथा वैपुल्यवाद के सम्मिश्रण का नाम है। और जैसे कि हमने ऊपर देखा, अन्धक सम्प्रदायादि आंध्र-देश की, खास कर गुंटूर जिले के वर्तमान धरनीकोट की उपज है। यहाँ यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि महायान सूत्र बराबर परिवर्तित और परिवर्द्धित किए जाते रहे हैं(वही पृ 132)।
वैपुल्यवाद ईसा पूर्व पहली शताब्दी में सिंहल पहुंचा था। इसके कुछ सूत्रों का चीनी अनुवाद ईसा की दूसरी शताब्दी में हो चूका था। इसके प्रचार में सबसे ऊंच स्थान नागार्जुन का है। नागार्जुन का वास-स्थान श्री पर्वत धान्य कटक था। आंध्र-राजा शातवाहन, नागार्जुन का घनिष्ट मित्र था (नागार्जुन ने शातवाहन राजा के नाम 'सुह्रल्लेख' नामक पत्र लिखा था जो चीनी और भोटिया भाषा में अब भी सुरक्षित है )। इनके सिद्धांत अन्धकों से मिलते थे। प्रतीत होता है, वैपुल्य वाद का केंद्र भी श्रीधान्य कटक के पास ही था(वही पृ 133)।
3 . डॉ गोविन्द चंद्र पांडेय-
महायान के उदभव के विषय में महायान सूत्रों में प्रकाशित मत ऐतिहासिक दृष्टि से स्वभावत: संदेह उत्पन्न करता है। महायान सूत्र अपने को बुद्ध प्रोक्त बताते हैं। किन्तु उनकी भाषा और शैली उनकी परवर्तिता सूचित करती है(बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ 306)।
कदाचित अष्टसाहत्रिका प्रज्ञापारमिता ही महायान सूत्रों में प्राचीनतम है। इसका लोकरक्ष ने चीनी में 148 ई में अनुवाद किया था। कनिष्क के समकालीन नागार्जुन ने पांच-विशति साहत्रिका प्रज्ञापारमिता पर व्याख्या लिखी थी। इससे प्रज्ञा पारमिता साहित्य की परिणति ईसवीय दूसरी शताब्दी से प्राचीनतर अवश्य सिद्ध होती है। जब स्वयं ये महायान सूत्र ही बुद्ध के युग से पर्याप्त परवर्ती, एवं संदिग्ध-प्रामाण्य हैं तो इन में प्रतिपादित महायान की मूल सलग्न प्राचीनता स्वत: असिद्ध हो जाती है। इस कारण ऐतिहासिक दृष्टि से महायान को सद्धर्म का विपरिवर्तित अथवा विकृत रूप मानने की संभावना प्रस्तुत होती है(वही)।
इस विपरिवर्तन का प्रधान कारण सद्धर्म का प्रसार और उसके साथ सम्बद्ध ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव प्रतीत होते हैं। यह स्वाभाविक है कि सद्धर्म के प्रसार की गति अशोक के समान श्रद्धालु और प्रतापी सम्राट के संरक्षण एवं सहाय्य से तथा तत्कालीन संघ के प्रयत्नों से विशेष तीव्र हुई हो। यह निस्संदेह है कि इसी समय से सद्धर्म भारतीय वास्तुकला तथा मूर्तिकला की एक प्रधान प्रेरणा के रूप में प्रकट होता है एवं जातकों का महत्त्व विशेष वृद्धि प्राप्त करता है(पृ 307)।
हीनयान के विभिन्न प्रादेशिक आवासों की स्थापना ने निकाय-भेद के क्रम को अग्रसर होने में सहायता दी। इन में महासंघिक सम्प्रदाय ने बुद्ध और बोधिसत्वों को देवोपम लोकोत्तर रूप में चित्रित किया एवं गांधार तथा मथुरा में ग्रीक और भारतीय कला के संपर्क तथा भक्ति के आग्रह से बुद्ध प्रतिमा का आविर्भाव हुआ । लोकोत्तर बुद्ध और बोधिसत्व, उनकी भक्ति और प्रतिमाएं इन नवीन तत्वों ने इस सद्धर्म को एक जन-सुलभ सुबोध और सुन्दर रूप प्रदान किया(पृ 308)।
प्रारम्भिक बौद्ध धर्म एवं हीनयान में साधना अपेक्षा कृत दुष्कर है। प्रत्येक व्यक्ति को सर्वथा अपने प्रयत्न के और पुरुषकार के द्वारा सांसारिक सुखों को छोड़ कर ही दुक्ख से छुटकारा प्राप्त करना होता है। बुद्ध केवल मार्ग का उपदेश करते हैं। धर्म प्रत्यात्मवेदनीय है। साधारण मनुष्यों के लिए अपने सहारे अपने बंधनों को काटना कठिन होता है(वही)।
महायान में बुद्ध और बोधिसत्व नाना प्रकार से मार्ग में सहायक बन जाते हैं। अवलोकितेश्वर का नाम लेने से ही मनुष्य नाना कठिनाइयों से मुक्ति पा सकता है। मूर्तियों के सहारे बुद्ध और बोधिसत्व बौद्धों के समक्ष प्रत्यक्षवत समुपस्थित हो उठते हैं। वे सर्वज्ञ, शक्तिसंपन्न तथा परम कारुणिक हैं। उनके अर्चन और अनुग्रह के द्वारा मुक्ति का मार्ग केवल अपने पुरुष्कार की अपेक्षा अधिक प्रशस्त प्रतीत होता है(वही)।
संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि अशोक के समय से सद्धर्म के प्रचार के लिए विशेषत: प्रत्यंतिम जनपदों में, उसे एक सरल और मूर्त रूप देने का जो प्रयास जारी था उसने क्रमश: महायान को जन्म दिया। इस परिणाम-क्रम में नाना सम्प्रदायों, धर्मों और जातियों के प्रभाव से महायान में विभिन्न तत्वों का समावेश हुआ(पृ 308-309)।
हीनयान ही मूल और प्रारंभिक बुद्ध शासन था जिसके वांगमय की प्राचीनता निस्संदेह है। महायान परवर्ती और विपरिवार्तित बौद्ध धर्म है जिसने प्राचीन साहित्य के अभाव में नवीन 'प्रक्षिप्त सूत्रों' की रचना की। महायान के आचार्यों ने स्वयं महायान की अप्रमाणिकता के निरास का बहुधा प्रयत्न किया है। इस प्रसंग में महायान सूत्रालन्कार एवं बोधिचर्यावतार में अनेक युक्तियाँ प्रस्तुत की गई हैं जिनमें अनेक स्पष्ट ही प्राचीनतर सुत्र्रों पर आश्रित है।
न तो हीनयान के सब शास्त्रों और सिद्धांतों को मूल बुद्ध-शासन समझा जा सकता है, न महायान के। मूल बुद्धोपदेश अवश्य ही शिष्यों के अधिकार-भेद से विविध था। काल-क्रम से मूल-देशना परवर्ती व्याख्या-कान्तार तथा प्रक्षिप्त-सन्दर्भ-राशि में अधिकाधिक दुर्लभ हो गई। हीनयान के 18 सम्प्रदायों में बुद्धोपदेश को भिक्खुओं के समान विहारवासी बना दिया दिया। विशाल विश्व के जीवन और ज्ञान-विज्ञानं का त्याग कर भिक्खु को अपने विहार के सीमित संसार में आत्म-कल्याण साधना चाहिए। इसके लिए कौन-से 'धर्म' हेय हैं, कौन-से उपादेय, इसकी चर्चा विपुलाकार अभिधर्म पितकों में की गई। ये पिटक और इनकी व्याख्याएँ बुद्ध वचन न होते हुए भी कल्पना-प्राचुर्य तथा आग्रह के द्वारा इनका बुद्ध से सम्बन्ध जोड़ा गया(पृ 311)।
यह स्पष्ट है कि हीनयान को मूल बुद्ध शासन न मान कर उसका एक साथ ही विपरिवर्तित अथवा विकसित रूप मानना चाहिए। यही दशा महायान की है। यह सत्य है कि महायान सूत्र हीनयान के आगमों से परवर्ती हैं और यह भी सत्य है कि हीनयान में स्वीकृत सूत्रो से ही मूल शासन का पता चल सकता है(पृ 311)।