धम्मलिपि-
जो पालि के बारे में जानना चाहते हैं, उन्हें दो बातें स्मरण रखनी चाहिए। प्रथम यह ही बुद्ध का धम्म बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए था। और यही कारण है कि बुद्ध ने अपने उपदेस जन-भासा पालि में दिए, ताकि लोग उसे आसानी से समझ सकें। सनद रहे बुद्धकाल में कासी, कोसल, मगध और इसके आस-पास के राज्यों में पालि जन-भासा थी, लोक भासा थी। इसकी अपनी लिपि थी.
दूसरे, पालि प्राकृत भासा है। प्राकृत अर्थात क्षेत्रीय बोली। बोलि जो संकेतों से विकसित हुई, भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न मानव-समुदाय द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से बोली जाती रही है। यह प्राकृत के स्वाभाविक अर्थ से भी मेल खाता है।
यह भ्रामक प्रचार है कि संस्कृत क्षेत्रीय प्राकृत भासाओं की जननी है। दरअसल, तथ्य इसके ठीक विपरित है। पाणिनी ने हिन्दी को सूत्राबद्ध/सांस्कृतिक कर ईसा की पहली सदी के आस-पास संस्कृत का निर्माण किया गया था।
हम पहले ही बतला चुके हैं कि पालि आदि प्राकृत भासाओं की अपनी लिपियां थी। पालि धम्मलिपि में लिखी जाती थी। लिपि और भासा सम्बन्धी शोध बतलाते हैं कि धम्मलिपि से ही अन्य लिपियों का विकास हुआ। धम्मलिपि से पुरातन अन्य कोई लिपि ज्ञात नहीं है। हां, सिन्धु सभ्यता के संकेताक्षरों के इसकी साम्यता से इस तथ्य को बल मिलता है कि धम्मलिपि इसी का विकसित रूप है।
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