सर विलियम जोन्स (28/09/1746- 27/04/1794)
(प्राचीन भारत के द्वारा खोलनेवाला महान विद्वान)
ब्रिटिश जब सन 1600 में भारत आये थे, तब भारत में हिन्दू और मुसलमान बडे पैमाने पर दिखाई देते थे| भारत में हिन्दू- मुसलमान यह समिकरण सन 712 में अरबी आक्रामक इब्न बिन कासिम के सिंध प्रांत पर आक्रमण के बाद तैयार हुआ था| उसके पहले भारत में मुसलमान अस्तित्व में नहीं थे| हिंदू शब्द भी उसके बाद अस्तित्व में आया था| यह शब्द प्राचीन बौद्ध या ब्राह्मण साहित्य में नहीं मिलता, क्योंकि यह पर्शियन भाषा का शब्द है और कासिम के आक्रमण के बाद अस्तित्व में आया था| कासिम के पहले भारत कैसे हुआ होगा, यह जानने की जिज्ञासा विलियम जोन्स के मन में पैदा हुई थी|
ब्रिटिश लोग इतिहास में दिलचस्पी रखनेवाले बुद्धिजीवी लोग थे| इसलिए, कासिम के पहले का भारत कैसा था, यह वे जानना चाहते थे| लेकिन प्राचीन भारत की संपूर्ण जानकरी संस्कृत भाषा में ब्राम्हणों ने सुरक्षित रखी थी और वे उसे किसी को नहीं बताते थे| उन्हें डर लगा रहता था कि अगर संस्कृत ग्रंथों की पोल खुल गई, तो भारत का प्राचीन बौद्ध इतिहास सामने आ जाएगा| इसलिए, मुस्लिम बादशाह फिरोज शाह तुघलक ने जब अशोक के शिलास्तंभों की जानकारी हासिल करने की कोशिश की तो ब्राम्हणों ने उसे यह बताया की यह विशाल शिलास्तंभ महाभारत के भीम के लाठ है और बुढ़ापे में भीम इन लाठीयों के सहारे चलते थे| फिरोज शाह की तरह तैमूरलंग भी अशोक के विशालकाय पाषाणस्तंभों से अत्यंत चकित हो गया था और उसने अपनी जीवनी में कहा की इतने महाकाय शिलास्तंभ उसने दुनिया में कहीं पर भी नहीं देखें है| लेकिन, इतिहास संशोधकों के अभाव में उन्हें वास्तविक जानकारी नहीं मिल सकी|
ब्राम्हणों की मनगढंत कहानियों पर सर विलियम जोन्स को जरा सा भी विश्वास नहीं था और सच्चाई को हर हाल में वे सामने लाना चाहता थे| यह सच्चाई संस्कृत भाषा पढने पर ही मिल सकती थी, लेकिन ब्राह्मण उसे संस्कृत पढाने के लिए तैयार नहीं थे| तब विलियम जोन्स ने ओक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के अपने दो मित्र नातनियल हालहेड और चार्ल्स विल्किन्स को काम पर लगाया और उनकी मदद से बांगला भाषा को सामने लाने की योजना बनाई| विल्किन्स ने इंग्लिश-बंगाली ग्रामर बनाया और हालहेड ने बंगाली प्रिंटिंग प्रेस बनवाई, जिससे ब्रिटिशों को बंगाली भाषा में राजकाज चलाना आसान हुआ और उन्होंने ब्राम्हणों की जगह पर बहुजन वर्गों के बंगाली लोगों को शासन प्रशासन में लेना शुरू कर दिया| ब्राह्मण इससे घबरा गये| उन्हें डर लगने लगा की अगर ब्रिटिशों ने इस तरह संस्कृत के बजाय स्थानिक भारतीय भाषाओं में राजकाज चलाना जारी रखा, तो उनका महत्व खत्म हो जाएगा| इसलिए, ब्राम्हण खुद होकर ब्रिटिशों को संस्कृत पढाने के लिए राजी हो गये| तब विलियम जोन्स ने संस्कृत की जानकारी हासिल करने के बाद सभी पुराणों और काव्यों का अध्ययन शुरू कर दिया और फिर प्राचीन भारत का इतिहास उन्हें कुछ हद तक पता चलने लगा|
विलियम जोन्स ने अपने संशोधन को ब्रिटेन में सभी ब्रिटिशों के सामने रखा| प्राचीन भारत के इतिहास में सबसे महान साम्राज्य मौर्य साम्राज्य था, इसकी जानकारी जब ब्रिटिशों को हुई, तब उन्होंने मौर्य साम्राज्य पर अधिक संशोधन जारी रखा, जिसके तहत सम्राट अशोक मौर्य का इतिहास सामने आने लगा| विभिन्न इतिहास संशोधकों के अध्ययन से भारत का वास्तविक इतिहास दुनिया के सामने आया और प्राचीनकाल में भारत "बौद्ध भारत" था, इस सत्य को दुनिया ने स्विकार किया|
बुद्ध और अशोक का वजूद खोजने के लिए ब्रिटिशों ने खास संशोधन पथक अलग अलग देशों में भेजे और बौद्ध साहित्य की मदद से प्राचीन भारत का वास्तविक बौद्ध इतिहास सामने लाने में ब्रिटिश संशोधक सफल हुए| इसमें महत्वपूर्ण भुमिका सर विलियम जोन्स ने निभाई थी| अगर उन्होंने संस्कृत भाषा पढने की कोशिश न की होती, तो अशोक का शिलास्तंभ आज भी भीम की लाट समझी गई होती और अज्ञान के अंधकार में भारत का प्राचीन बौद्ध इतिहास डुबा रह सकता था| विलियम जोन्स ने ब्रिटिशों को बताया कि, भारत का प्राचीन इतिहास अत्यंत रोचक है और दुनिया पर राज करने के लिए हमें भी प्रेरणादायक हो सकता हैं| उसकी बातों में आकर ब्रिटिश सरकार ने प्राचीन भारतीय इतिहास में संशोधन करने के लिए "एशियाटिक सोसायटी", " आर्किओलोजिक सर्वे ओफ इंडिया " जैसी महत्वपूर्ण इतिहास संशोधन संस्थाएं बनवाई थी| सर विलियम जोन्स ने खुद एशियाटिक सोसायटी का गठन किया था|
सर विलियम जोन्स जैसे दृढ और दृष्टा इतिहास संशोधक भारत में बहुजन वर्ग के अंदर निर्माण होना जरूरी है, जो ब्राम्हणवादी काल्पनिक कथा कहानियों को डिकोड कर सच्चा इतिहास सामने लाएं और लोगों को भारत के वास्तविक बौद्ध इतिहास का एहसास करवाएं| गहरे अंधकार में सत्य जानने की जिज्ञासा रुपी टोर्च लेकर छुपे हुए प्राचीन बौद्ध इतिहास को सामने लानेवाले सर विलियम जोन्स हमारे लिए सचमुच एक "आदर्श टोर्चबिअरर" है और उनके आदर्शों पर चलकर बहुजन संशोधकों ने भी अपना संशोधन करना चाहिए|
-- डॉ. प्रताप चाटसे, बुद्धिस्ट इंटरनेशनल नेटवर्क
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